Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 15 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.१२ सू०१ पृथ्वीकायिकानामुत्पातनिरूपणम् २७ मुहूर्तप्रमाणैव स्थितिरिति भावः। 'अपसत्या अज्झरसाणाः'-अपशस्ता अध्यवसायाः, अध्यवसायाः विचाराः, ते च न तेषां शुभभावनारूपा अपितु अशुमभावनारूपा एवेति । 'अणुबंधो जहा ठिई' अनुबन्धो यथा स्थितिः, येनैव प्रकारेण स्थिति कथिता तेनैव प्रकारेण अनुबन्धोऽपि ज्ञातव्या, जघन्योत्कृष्टाभ्याम् अन्तर्मुहर्तात्मक एव, 'स्थित्यात्मकत्वादनुबन्धस्येति । 'सेसं तं चेव' शेषम्-लेश्यास्थित्यध्यवसायानुबन्धातिरिक्तं सर्वमपि दृष्टिसमुद्घातज्ञानराज्ञानादिकं तदेव-प्रथमप्रकरणपठितमेव इहाध्येतव्यमिति चतुर्थों गम इति ४।।
__ अथ पश्चमगमं दर्शयति-'सो चेव' इत्यादि, 'सो चेव जहन्नकालटिइएसु उववन्नो' स एव-पृथिवीकायिकजीव एव जघन्यकालस्थितिक पृथिवीकायिकेषु उत्पन्नो भवेत् तदा 'सच्चेव चउत्थगमवत्तव्वया और उस्कृष्ट से भी वह एक अन्तर्मुहूर्त की है। 'अप्पसस्था अज्झवसाणा' अध्यवसाय विचार यहां अप्रशस्त होते हैं शुभभावना रूप वे यहां नहीं होते हैं किन्तु अशुभ भावना रूप होते हैं। अनुबन्ध तो स्थित्यात्मक होने से यहां जघन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूतात्मक ही है। 'सेसं तं चेव' लेश्या स्थिति अध्यवसाय एवं अनुबन्ध के सिवाय
और सब दृष्टि समुद्घात ज्ञानाज्ञान आदि विषयक कथन प्रथम गम के जैसा ही है। ऐसा यह चतुर्थ गम है।४।
पंचम गम इस प्रकार से है-'सो चेव जहन्न कालटिइएसु उव. वन्नो' यदि यही जघन्य स्थितिवाला पृथिवीकायिक जीव जघन्यकाल की स्थितिवाले पृथिवीकायिकों में उत्पन्न होने के योग्य है तो यहां पर 'सच्चेव चउत्थगमवत्तव्यया भाणियवा' चतुर्थगम में जो वक्तव्यता Gष्टयी ५७ मे मतभुत नी छे. 'अप्पसत्था अज्ज्ञवसाणा' मध्यसायઆત્મપરિણામ-વિચાર અહિયાં અપ્રશરત હોય છે. શુભ ભાવના રૂપ પ્રશસ્ત વિચાર અહિયાં હેત નથી. પરંતુ અશુભ ભાવના રૂપ અપ્રશસ્ત જ હોય છે. અનુબંધ સ્થિતિ રૂપ હોવાથી તે અહિયાં જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી અંત. भुड़त ३५ ॥ छ, 'सेसं त'चेव' वेश्या, स्थिति, अध्यवसाय भने अनुम શિવાય બાકીનું દષ્ટિ, સમુહૂઘાત, જ્ઞાન, અજ્ઞાન, વિગેરે વિષય સંબંધી કથન પહેલા ગમમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજવું આ પ્રમાણે આ ચેથ ગામ છે. ૪
पायी गम मा प्रमाणे छ.-'सो चेव जहन्नकालद्विइएसु उववन्ना' જે તે પૃથ્વિીકાયિક જીવ જઘન્ય કાળની સ્થિતિવાળા પૃથ્વીકાચિકેમાં ઉત્પન્ન थपाने योग्य छ, तो ते समयमा मडियां ५५ 'सच्चेव चमत्थगमवत्तव्वया'
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫