________________ में लगे रहे / आठ वर्ष में उन्होंने पाठ पूर्वो का अध्ययन किया।४६ आठ वर्ष के लम्बे समय में भद्रबाहु और स्थूलभद्र के बीच किसी भी प्रकार की वार्ता का उल्लेख नहीं मिलता। एक दिन स्थलभद्र से भद्रवाह ने पूछा-'तुम्हें भिक्षा एवं स्वाध्याय योग में किसी भी प्रकार का कोई कष्ट तो नहीं है ?' स्थूलभद्र ने निवेदन किया—'मुझे कोई कष्ट नहीं है / पर जिज्ञासा है कि मैंने आठ वर्षों में कितना अध्ययन किया है ? और कितना अवशिष्ट है ?' भद्रबाहु ने कहा-'वत्स ! सरसों जितना ग्रहण किया है, और मेरु जितना बाकी है। दृष्टिवाद के अगाध ज्ञान सागर से अभी तक तुम बिन्दुमात्र पाये हो।' स्थलभद्र ने पुनः निवेदन किया 'भगवन् ! मैं हतोत्साह नहीं हूं, किन्तु मुझे वाचना का लाभ स्वल्प मिल रहा है। आपके जीवन का सन्ध्याकाल है, इतने कम समय में वह विराट् ज्ञानराशि कैसे प्राप्त कर सकेगा !' भद्रबाह ने आश्वासन देते हये कहा----'वत्स ! चिन्ता मत करो / मेरा साधनाकाल सम्पन्न हो रहा है। अब मैं तुम्हें यथेष्ट वाचना दूंगा।' उन्होंने दो वस्तु कम दशपूर्वो की वाचना ग्रहण कर ली। तित्थोगालिय के अनुसार दशपूर्व पूर्ण कर लिये थे। और ग्यारहवें पूर्व का अध्ययन चल रहा था। साधनाकाल सम्पन्न होने पर आर्यभद्रबाह स्थूलभद्र के साथ पाटलिपुत्र आये यक्षा आदि साध्वियाँ वन्दनार्थ गई। स्थूलभद्र ने चमत्कार प्रदर्शित किया / 47 जव वाचना ग्रहण करने के लिये स्थूलभद्र भद्रवाह के पास पहुंचे तो उन्होंने कहा'वत्म ! ज्ञान का अहं विकास में वाधक है। तुम ने शक्ति का प्रदर्शन कर अपने आप को अपात्र सिद्ध कर दिया है। अब तुम आगे की वाचना के लिये योग्य नहीं हो।' स्थलभद्र को अपनी प्रमादवृत्ति पर अत्यधिक अनुताप हुया / चरणों में गिर कर क्षमायाचना की और कहा-पुनः अपराध का आवर्तन नहीं होगा। आप मुझे वाचना प्रदान करें। प्रार्थना स्वीकृत नहीं हुई। स्थूलभद्र ने निवेदन किया-मैं पर-रूप का निर्माण नहीं करूंगा, अवशिष्ट चार पूर्व ज्ञान देकर मेरी इच्छा पूर्ण करें।४८ स्थूलभद्र के अत्यन्त आग्रह पर चार पूर्वी का ज्ञान इस अपवाद के साथ देना स्वीकार किया कि अवशिष्ट चार पूर्वो का ज्ञान आगे किसी को भी नहीं दे सकेगा। दशपूर्व तक उन्होंने अर्थ से ग्रहण किया था और शेष चार पूर्वो का ज्ञान शब्दश: प्राप्त किया था। उपदेशमाला विशेष वृत्ति, आवश्यकचूणि, तित्थोगालिय, परिशिष्टपर्व, प्रभृति ग्रन्थों में कहीं संक्षेप में और कहीं विस्तार से यह वर्णन है / दिगम्बर साहित्य के उल्लेखानुसार दुष्काल के समय वारह सहस्र श्रमणों से परिवृत होकर भद्रबाहु उज्जैन होते हये दक्षिण की ओर बढ़े और सम्राट चन्द्रगुप्त को दीक्षा दी। कितने ही दिगम्बर विज्ञों का यह मानना है कि दुष्काल के कारण श्रमणसंघ में मतभेद उत्पन्न हुआ। दिगम्बर श्रमण को निहार कर एक श्राविका का गर्भपात हो गया। जिससे पागे चलकर अर्ध फालग सम्प्रदाय प्रचलित हया / 46 अकाल के कारण वस्त्र-प्रथा का प्रारम्भ हुआ / यह कथन साम्प्रदायिक मान्यता को लिये हुये है। पर ऐतिहासिक सत्य-तथ्य को लिये हुये नहीं है। कितने दिगम्बर मूर्धन्य मनीषियों का यह मानना है कि श्वेताम्बर आगमों की संरचना शिथिलाचार के संपोषण हेतु की गयी है। यह भी सर्वथा निराधार कल्पना है। क्योंकि श्वेताम्बर आगमों के नाम दिगम्बर मान्य ग्रन्थों में भी प्राप्त हैं।५० 46. श्रीभद्रबाहुपादान्ते स्थूलभद्रो महामतिः / पूर्वाणामष्टकं वरपाठीदष्टभिर्भृशम् // -परिशिष्ट पर्व, सर्ग-९ 47. दष्टवा सिहं तु भीतास्ता: सुरिमेत्य व्यजिज्ञपन / ज्येष्ठार्य जनसे सिंहस्तत्र सोऽद्यापि तिष्ठति / / -परिशिष्ट पर्व सर्ग-९, श्लोक-२१ 48. ग्रह भणइ थूलभद्दो अण्ण रूवं न किचि काहामो / इच्छामि जाणिउं जे, ग्रहं चत्तारि पुवाई। -तित्थोगाली पइन्ना-८०० 49. जैन साहत्य का इतिहास पूर्व पीठिका संघभेद प्रकरण प्र. 375 –पण्डित कैलाशचन्दजी शास्त्री, वाराणसी 50. (क) षखण्डागम, भाग-१, पृ. 96 (ख) सर्वार्थसिद्धि, पूज्यपाद 1-20 (ग) तत्त्वार्थराजवात्तिक, अकलंक 1-20 (घ) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, नेमिचन्द्र, प्र. 134 [21] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org