Book Title: Aetihasik Jain Kavya Sangraha
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Shankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
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काव्योंका ऐतिहासिक सार हुए आप जैसलमेर पधारें। वहां गच्छनायक जिनभद्र सूरिजीने योग्य जानकर सं० १४६७ माघ शुक्ला १० को आचार्य पद प्रदान किया और “कीर्तिरत्न सूरि" के नामसे प्रसिद्धि की। उस समय अापके भ्राता लक्खा और केल्हाने विस्तारसे पद महोत्सव किया । ____सं० १५२५ वैशाख बदी ५ को २५ दिनकी अनशन आराधना कर समाधि पूर्वक वीरमपुरमें आप स्वर्ग सिधारे । जिस समय आपका स्वर्गवास हुआ, आपके अतिशयसे वहांके वीर जिनालयमें देवोंने दीपक किये और मन्दिरके दरवाजे बन्द हो गये । वहां पूर्व दिशामें संघने स्तूप बनवाया जो अब भी विद्यमान है। वीरमपुर, महेवेके अतिरिक्त जोधपुर, आबू आदि स्थानोंमें भी आपकी चरणपादुकाएं स्थापित की गयीं। जयकीर्ति और अभैविलास कृत गीत नं०७८ से ज्ञात होता है कि सं० १८७६ वैशाख ( आषाढ़) कृष्णा १० को गड़ाले (नाल-बीकानेरसे ४ कोस ) में आपका प्रासाद बनवाया गया था।
गीत नं०५ (सुमतिरंग कृत छंद) और नं०८ में कुछ नवीन बातोंके साथ विस्तारसे वर्णन हैं जिनका सार यह है:
जालंधर देशके संखवाली नगरीमें कोचर शाह निवास करते थे, उनके दो भार्यायें थीं, जिनमें लघु पत्नीके रोलू नामक पुत्र हुआ, उसे एक दिन अर्द्धरात्रिके समय काले सर्पने डंक मारा । विषसे अचेतन होनेसे कुटम्बीजन उसे दहनार्थ, स्मशान ले गये, इसी समय खरतर गच्छनायक जिनेश्वरसूरिजी वहीं थे उन्होंने अपने आत्मबलसे उसे निर्विष कर दिया । रोलू सचेत हो
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