Book Title: Aetihasik Jain Kavya Sangraha
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Shankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
View full book text
________________
काव्योंका ऐतिहासिक सार
६१ को प्रतिबोध देकर मूर्तिपूजक बनायें। उन्होंने सुन्दर चैत्य निर्माण कराये और उनमें अनेकानेक पूजायें होने लगीं। ___श्री देवचन्द्रजीके पास विचक्षण शिष्य मनरूपजी, वादीविजेता विजयचन्द्रजी (एवं अन्य गच्छीय साधु भी आपके पास विद्याध्ययन करते थे) एवं मनरुपजीके वक्तुजो और रायचंदजी नामक शिष्यद्वय रहते थे, एवं गुरु आज्ञामें रहकर गुरुश्रीकी सेवाभक्ति किया करते थे।
सं० १८१२ में श्रीमद देवचन्द्रजी राजनगर पधारे , वहां गच्छनायक श्रीपूज्यजीको आमन्त्रित कर उनके द्वारा श्रावक समुदायने बड़े उत्सवसे आपको बाचक पदसे अलंकृत किया।
बा० श्री देवचन्दजीकी देशना अमृतके समान थी। आप हरिभद्रसूरि, यशोविजयजीके एवं दिगम्बर गोमट्टसारादि तत्व-ज्ञानके प्रन्थोंका उपदेश देते थे, श्रोताओंकी उपस्थित दिनोंदिन बढ़ने लगी। श्रीमद्ने मुलताण, बीकानेर आदि स्थानों में चतुर्मास किये एवं अनेकों नये ग्रन्थोंकी रचना की, जिनमें देशनासार, नयचक्र, ज्ञानसार अष्टक-टीका कर्मग्रन्थ टीका, आदि मख्य हैं।
इस प्रकार शासन उद्योत करते हुए राजनगरके दोसी बाड़ेमें आप विराज रहे थे, उस समय अकस्मात् वायु कोपसे वमनादिकी व्याधि उत्पन्न हुई । श्रीमद्ने अपना आयुष्य निकट ज्ञातकर विनयी शिष्य मनरुपजी और उनके विद्यमान सुशिष्य श्री रायचन्द्रजी (रूपचन्दजी) एवं द्वितीय शिष्य वादी विजयचन्दजी उनके शिष्य द्वय सभाचंद और विवेकचंद्रको योग्य शिक्षा देके उत्तराध्ययन, दशवै
Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org