Book Title: Aetihasik Jain Kavya Sangraha
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Shankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
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काव्योंका ऐतिहासिक सार.
७६ कोई चुगली खाई, अतः उसने अपने सेवकोंको आचार्यजीके पास भेजे। राज्य सेवकोंने पूज्यश्रीको बुलाकर "आपके पास धन है वह हमें देवें" कहा, पर सूरिजी तो बहुत पहलेही परिग्रहका सर्वथा त्याग कर चुके थे, अतः स्पष्ट शब्दोंमें प्रत्युत्तर दिया कि भाई हमारे पास तो भगवत् नाम स्मरणके अतिरिक्त कोई धन माल नहीं है, पर वे अर्थ लोभी भला कब मानने वाले थे। उन्होंने सूरिजीको तंग करना शुरू किया । इतनाही नहीं राज्यसत्ताके बलपर अंधे होकर यवनाधिपतिने सूरिजीकी खाल उतारनेकी आज्ञा दे दी। सूरिजीने यह सब अपने पूर्व संचित अशुभ कर्मोके उदयका ही फल है, विचारकर मरणान्त कष्ट देनेवाले दुष्टोंपर तनिक भी क्रोध नहीं किया। धन्य है ! ऐसे समभावी उच्च आत्म-साधक महापुरुषोंको !! रात्रिके समय दुष्ट यवनने क्रोधित होकर बड़े दुःख देने आरम्भ किये । मार्मिक स्थानोंमें बड़े जोरोंसे मारने (दंड-प्रहार करने) लगा
और उस पापीष्टने इतनेमें ही न रुककर सुरिजीके हाथ पैरके जीवित नखोंको उतार असह्य वेदना उत्पन्न की। वेदना क्रमशः बढ़ने लगी और मरणान्त अवस्था आ पहुंची, पर उन महापुरुषने समभाव के निर्मल सरोवरमें पैठ आत्मरमणतामें तलीन्नता कर दी। अपने पूर्वके खंदग-गजसुकमाल-इक्दन्त आदि महापुरुषोंके चरित्रोंका स्मृति चित्र अपने आंखोंके सामने खड़ाकर पुद्गल और आत्माके भिन्नत्व विचाररूप, भेद ज्ञानसे उस असह्य वेदनाका अनुभव करने लगे।
यह वृतांत ज्ञात होते ही प्रातःकाल श्रावकगण सूरिजीके पास आये, तब यवन भी सरिजीका धैर्य देख और अपनी सारी दुष्टवृत्ति
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