Book Title: Aetihasik Jain Kavya Sangraha
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Shankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
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श्री जिन शिवचन्द सूरि रास
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संवत 'सतर छीउतरे', मास 'माधव हो सुदि सातम' सारके । राणा संग्राम' नाराज्य में, करे उछव हो श्रावकतिण वार के अ०१४। श्री संघ भगति करे अति भलो, बहु विधना हो मीठा पकवानके। शाल दाल घृत घोल सुं, वली आपे हो बहु फोफल पानके अ०५। पहेरामणी मन मोद सुं, 'कुशले' 'जोये हो कीधा गहगाट के। जस लीधो जगमें धणो, संतोषीया हो वली चारण भाट के अ०६। श्री 'जिनचंद' सूरीश्वरू, नित्य दीपे हो जेसो अभिनव सूर के। वयरागी त्यागी घणु, सोभागी हो सज्जन गुणे पूर के । अ०। ७ । तिहां शिष्य 'हीरसागर' कीयो, अति आग्रह हो तिहां रह्या चौमासके। श्री गुरु दीये धर्म देशना, सुणतां होये हो सुख परम उलासके ।अ०८ धरम उद्योत थया घणा, करे श्राविका हो तप व्रत पचखांण के। संघ भगति परभावना, थया उछव हो लह्या परम कल्याण के अ०६।
दोहा-चार्तुमास पूरण थये, विहार करे गुरु राय ।
___ 'गुर्जर देश' पाउधारिया, उछव अधिका थाय । १। संवत 'सतर अठोतरे' को क्रिया उद्धार । ___ वयरागे मन वासीयउ, कीधो गछ परिहार । २ । आतम साधन साधता, देता भवि उपदेश ।
करता यात्रा जिणंदनी, विचरे देश विदेश । ३ । जस नामी 'सिवचंद' जी, चावू चिहुं खंड नाम ।
... संवेगी सिर सेहरो, कीधा उतम काम । ४ ।
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