Book Title: Aetihasik Jain Kavya Sangraha
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Shankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
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काव्योंका ऐतिहासिक सार.
३६ देल्ह-कुमारको वैराग्य उत्पन्न हो गया और (खरतर) श्री क्षेमकीर्तिजीको वंदनाकर ( अपने ) दीक्षा ग्रहण करनेके भाव प्रकट किये । एवं उनके कथनानुसार जिनवर्द्धन सूरिजीके पास सं० १४६३ में दीक्षा ग्रहण की, दीक्षा ग्रहण करनेके अनन्तर आपने शास्त्रोंका अध्ययन कर गीतार्थता प्राप्त की। सं० १४७० में आपकी योग्यता देखकर जिनवर्द्धनसूरिजीने आपको वाचक पद प्रदान किया। ___ इधर जैसलमेरके जिनालयसे क्षेत्रपालके स्थानान्तर करनेके कारण जिनवर्द्धनसूरिजीसे गच्छभेद हुआ और उनकी शाखा पीपलिया नामसे प्रसिद्ध हुई, नाल्हेने जिनभद्र सूरिजीको स्थापित किया जिनवर्द्धन सूरिजीने कीर्तिराजजी (देल्हकुमार) को अपने पास बुलाया, पर आपको अर्द्धरात्रिके समय वीर (देवता) ने कहा कि उनका आयुष्य तो मात्र ६ महीनेका ही है और जिनभद्र सूरिजीकी भावी उन्नति होने वाली है। इससे आपने जिनवर्द्धन सूरिजीके पास न जाकर चार चतुर्मास महेवेमें ही किये । इसके पश्चात् जिनभद्र सूरिजीके बुलानेपर आप उनके पास पधारे । उन्होंने सं० १४८० में आपको पाठक पद प्रदान किया । शाह लक्खा और केल्हा महेवेसे जैसलमेर आये और गच्छनायकको आमंत्रित कर उन्होंने सं० १४६७ में कीर्तिराजजीको सूरि पद दिलवाया। लक्खा और केल्हाने प्रचुर द्रव्य व्यय कर, महोत्सव किया । लक्खे केल्हेने शंखेश्वर, गिरनार, गौडीपार्श्वनाथ और सोरठ (शत्रुजय आदि) के चैत्यालयोंकी यात्रा की, सर्वत्र लाहिण की एवं आचार्य श्रीको चातुर्मास कराया। कीर्ति
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