Book Title: Aetihasik Jain Kavya Sangraha
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Shankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
View full book text
________________
काव्यों का ऐतिहासिक सार
५७
कि आप तो श्रेष्ठ विद्वान कहलाते हैं फिर ऐसे अयथार्थ कैसे कहते हैं, और ऐसे बचनोंसे श्रावकोको प्रतीति भी कैसे हो सकती है ।
यह सुनकर ज्ञानविमलसूरिजी कुछ तड़ककर बोले:- तुम मरुस्थलके वासी हो, शास्त्रके रहस्यको क्या जानो ! जिसने शास्त्रोंका अभ्यास किया है, वही जान सकता है । इसी समय श्रेष्ठिने कहा, सूरिजी मुझे इस बातका निर्णय करना है । तब सूरिजीने देवचन्द्रजीसे कहा कि तुम्हें व्यर्थका विवाद पसन्द ज्ञात होता है | ( मारवाड़ी कहावत "बेंवती लड़ाइ मोल लेबे") अन्यथा यदि तुम्हें सहस्त्रकूट के नाम ज्ञात हो तो बतलाओ । देवचन्द्रजीने शिष्यकी ओर देखा, तब विनयी शिष्य मनरुपजीने रजोहरणसे सहस्त्रकूट के नामोंका पत्र निकालकर गुरुश्रीके हाथमें दिया | ज्ञानविमलसूरिजीने उसे पढ़कर आश्चर्यान्वित हो देवचन्द्र जीसे पूछा कि आपके गुरुश्रीका नाम शुभ नाम क्या है ? उत्तरः- उपाध्यायराजसागरजी । तब सूरिजीने कहा, आपकी परम्परा ( घराना) तो विदू परम्परा है, तब भला आप विद्वान कैसे नहीं होंगे, इत्यादि मृदुवाक्यों द्वारा बहुमान किया । श्रेष्ठि तेजसीका मनोरथ पूर्ण हुआ, सहस्त्रकूट नामोंकी देवचन्द्रजीने प्रसिद्धि की । प्रतिष्ठादि अनेक उत्सव हुए ।
इसके बाद देवचन्द्रजीने परिग्रहका सर्वथा परित्याग कर क्रियाउद्धार किया। सं० १७७७ में आप अहमदाबाद पधारे, नागौरी सराय में अवस्थिति की । आपकी अध्यात्म रसमय देशना श्रवण कर श्रोताओंको अपूर्व आल्हाद उत्पन्न हुआ । श्रीमद् देवचंद्रजी
Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org