Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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नियुक्तिकार का कहना है कि आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के 18 हजार पद हैं। पंचचूलात्मक द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पदों की संख्या इससे भिन्न है । टीकाकार ने भी नियुक्तिकार के विचारों का समर्थन किया है। आचारांग-वृत्ति के रचयिता शीलांक आचार्य, नवांगी वृत्तिकार आचार्य अभयदेव सूरि एवं आचार्य मलयगिरि प्रभृति टीकाकारों ने भी येन-केन प्रकारेण नियुक्तिकार के मत को ही परिपुष्ट किया है। __परन्तु जब हम आगमों का अनुशीलन-परिशीलन करते हैं, तो नियुक्तिकार का मत उचित प्रतीत नहीं होता है। आगमों में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि “चूलिका सहित आचारांग भगवान के 18 हजार पद हैं।" इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध के ही नहीं, अपितु उभय श्रुतस्कन्धों के 18 हजार पद हैं। प्रस्तुत पाठ की टीका में आचार्य अभय देव सूरि ने नियुक्ति के मत को ही पुष्ट करने का असफल प्रयत्न किया है। वे लिखते हैं कि “प्रस्तुत में जो पद-संख्या दी गई है वह समग्र आचारांग की नहीं, प्रत्युत नव अध्ययनात्मक प्रथम श्रुतस्कन्ध की समझनी चाहिए। क्योंकि नियुक्तिकार ने केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध के ही 18 हजार पद बताए हैं, चूलिका सहित सम्पूर्ण आचारांग के नहीं। मूल पाठ में जो चूलिका सहित (सचूलियागस्स) पद दिया है, उस का अभिप्राय केवल चूलिकाओं की सत्ता का प्रतिपादन करना है, न कि चूलिका सहित समग्र आचारांग की पद संख्या बतलाना। अतः प्रथम श्रुतस्कन्ध के 18 हजार पद हैं और सूत्रों का अर्थ बहुत विचित्र है। इसलिए वह गुरु परम्परा से ही समझा जा सकता है।
1. नव बंभचेरमइयो अट्ठारस पयसहस्सियो वेओ। • हवइ य सपंच चूलो बहु-बहुत्तरओ पयग्गेणं॥
' -आचारांग नियुक्ति 2. आयारस्स णं भगवओ सचूलियागस्स अट्ठारस्स पय सहस्साइं पयग्गेणं।
__ -समवायांगमूत्र 18 3. स च नव ब्रह्मचर्याभिधानाध्ययनात्मक प्रथमश्रुतस्कन्ध रूपः तस्यैवचेदं पदप्रमाणं न चूलानाम्,
यदाह-“नव बंभचेरमइओ अट्ठारस्सय पय सहस्सीओ वेओ, हवइ य सपंच चूलो बहु बहुत्तरओ पयग्गेणं ॥1॥ त्ति । यच्च सचूलिकाकस्येति विशेषणं तत्तस्य चूलिकासत्ता प्रतिपादनार्थम् न तु पदप्रमाणाभिधानार्थम् । यतोऽवाचि नन्दी-टीका कृता-'अट्ठारस पय सहस्साणि पुण पढ़म सुयखंधस्स, नव बंभचेरमइयस्स पमाणं विचित्तत्थाणिय सुत्ताणि गुरुवएसओ तेसिं अत्थो जाणिअव्वो।
-समवायांग टीका