________________
प्रस्तावना.
उत्थानिकाका वास्तविक भाव तो यह है। परंतु देखिये, पं. टोडरमलजी क्या दिखाते हैं,- ' कर्मनिके वसतै कदाचि चारित्रादि विषै कोऊ दोष उपज्या अर वाके गुण प्रगट करै तो गुणनिकी महिमा न होय। जिसको कारकका थोडा भी ज्ञान होगा वह इस अर्थको कभी स्वीकार न करेगा। ऐसी भूलें कई होगई हैं। उनमेंसे सब तो नहीं परंतु कई भूलें हमने यथास्थान टिप्पणीमें सूचित भी की हैं। अस्तु, हमने यह विवेचन अनेक हस्तलिखित पुस्तकें देखकर प्रगट किया है
और वह इसलिये कि उस अनुवादको पढनेवाले आगेसे सुधारकर पढें । भूल होना मनुष्यका स्वभाव है।
• ग्रंथकारका समय:ग्रंथकारने अपने गुरुका नाम ग्रंथके उपान्त्य श्लोकमें स्वयं दिया है । श्री वीरसेन स्वामीक शिष्य श्री. जिनसेन स्वामी, और उनके शिष्य श्री. गुणभद्र स्वामी हुए । इस प्रकार इनकी गुरुशिष्य-परंपरा है। जिनसेन स्वामीके अमोघवर्ष महाराज परमसेवक थे जिन्होंने कि शक संवत् ७३७ से ८०० तक राज्य किया है। उन महाराजके तथा श्री. गुणभद्र स्वामीके उपास्य गुरु एक ही जिनसेन स्वामी थे । इसलिये गुणभद्र स्वामी अमोघवर्ष महाराजके ही समकालीन हुए। गुणभद्र स्वामीने अपने उत्तरपुराणको शक संवत् ८२० में समाप्त किया है। इसका विशेष खुलासा पं. नाथूरामजी प्रेमीने अपनी 'विद्वद्रत्नमाला' पुस्तकमें किया है।
आनुषंगिक वक्तव्य:इस ग्रंथमें कल्पना, उपमा अन्योक्ति, अर्थान्तरन्यास, तथा सूक्तियों के उदाहरण यों तो जगह जगह मिलेंगे किंतु हम अपनी रुचिके अनुसार भी कुछ श्लोक बताते हैं जिनको कि वाचनेसे पाठकोंको विशेष मानंद होगा। वे श्लोकः-नं. ८३, ९५, १३७, १७५, १७८, १८८, २०७, २४१ ३ हैं । कहीं कहींपर पाठभेद, दूसरी जगह मि. लनेवाले समान वचन तथा विशेष बातें टिप्पणीमें खुलासा की हैं। :