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प्रस्तावना.
मुक्तिके कारण यदि सम्यक्त्त्वसे लेकर कषायामावतक ही माने जांय तो दशम गुणस्थानके अंतमें कषाय नष्ट होनेसे मुक्ति प्राप्त होनी चाहिये । दूसरें, यदि ' इनिके योगकरि ' ऐसा ही अर्थ ग्रंथकारको इष्ट था तो अंतमें बहुवचन क्यों रक्खा है ? 'योगेन' अथवा 'योगात्' ऐसा एकवचन ही रखना उचित था । इस प्रकार जब कि टोडरमलजीका यह अर्थ ठीक नहीं है तो हमारी इस टीकाके अनुसार जो ग्रंथकारका सिद्धांतसंमत सूक्ष्म भाव है वह पं. टोडरमलजीके लिखनेसे छिप गया है ।
- और भी देखिये, २४९ वें श्लोकमें यह शिक्षा दी गई है कि जो आत्मकल्याण करना चाहता है उसे दूसरेके दोष नहीं देखने चाहिये । इससे आगेके २५० वें श्लोकमें भी यही प्रकरण है। परंतु पं० टोडरमलजीने २५० का अर्थ उलटा ही करदिया है । अर्थात्, उन्होंने दूसरोंके दोष न देखनेकी शिक्षाके बदले दोष करनेवालेको उपदेश दे डाला है। परंतु ऐसा अर्थ पूर्वापर संबंध देखनेसे बिलकुल असंबद्ध जान पडता है।
एवं उस श्लोकके अंतमें एक पद है कि 'किं कोप्यगात्तत्पदम्'। इसका अर्थ टोडरमलजी करते हैं कि कोऊ चंद्रमाके स्थानक तो न गया-देषि न आया'। परंतु ऐसा अर्थ कभी संभव नहीं है। किंतु ऐसा अर्थ संभव है कि दोष देखनेवाला देखने मात्रसे चंद्रमाकासा महंतपना नहीं पालेता है । भावार्थ, किसीके दोष देखते रहनेसे बढप्पन नहीं आसकता है। इसलिये किसीके दोष देखते रहने में समय मत गमाओ। यह जो अर्थ हम लिखते हैं, संस्कृत टीकामें भी वही है ।
संस्कृत टीकाकारकी उत्थानिका भी इसी भावको व्यक्त करती है। 'कर्मवशात्कदाचित्समुत्पन्नं दोषं तद्गणप्रकटितमाविर्भावयतो न कश्चिद् गुणातिशयो भवतीत्याह' । अर्थात्, दैववश यदि किसीमें दोष उत्पन्न हुआ हो तो उसके कहनेवालेको कभी गुणोत्कर्ष प्राप्त नहीं होसकता है । यही अभिप्राय आगेके श्लोकमें दिखाते हैं।