Book Title: Tat Do Pravah Ek
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तट दो : प्रवाह एक Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तट दो प्रवाह एक मुनि नथमल आदर्श साहित्य संघ * For Private & Personar Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : कमलेश चतुर्वेदी आदर्श साहित्य संघ चुरू, राजस्थान मूल्य : २.२५ प्रथम संस्करण : १६६७ मुद्रक : श्यामकुमार गर्ग राष्ट्रभाषा प्रिन्टर्स दिल्ली Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिकी मैं दो अचल तटों के मध्य चल प्रवाह को देखता हूँ तब मेरी दष्टि स्थूल के सहारे सूक्ष्म को अवगाह लेती है। तट की सष्टि चल प्रवाह ने की है। यदि अचल के मध्य में कोई चल नहीं होता तो तट दो नहीं होते। जीवन का हर तट किसी प्रवाह के द्वारा सष्ट होता है। ज्ञान का प्रवाह भाषा के तटों से मर्यादित है। कोई भी दीप प्रज्वलन और निर्वाण की मर्यादा से मुक्त नहीं है। पुष्प के अस्तित्व की सीमा उच्छ्वसन और निश्वसन ही नहीं है। हर वस्तु का ध्रुवांश उन्मेष और निमेष के बाद भी शेष रहता है। उर्मियों का उत्पन्न और प्रशान्त होना जल का उत्पन्न और प्रशान्त होना नहीं है । जल की सत्ता उर्मियों की सत्ता के पूर्व और पश्चात् हमारी मूर्त दृष्टि का पारदर्शी स्फटिक शब्द है। उसमें सत्य प्रतिबिम्बित होता है। देश और काल के व्यवधान में शब्द-राशि ने जिस सत्य का प्रतिबिम्ब ग्रहण किया है, उसमें अपूर्व साम्य है। उस साम्य-दर्शन से ही मैं अभिव्यक्ति की दिशा में गतिशील हुआ हूं। दो देशों और कालों में भी ध्रुव का प्रवाह एक रहा है। इस अनेकतागत एकता ने मानवीय विकास को बहुत गति दी है। अनेकता और एकता के नैसर्गिक योग में से किसी एक का अभाव दूसरी का भाव Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं हो सकता । दो तटों के मध्य में प्रवाहित होना ही एकता है और अपनी भुजाओं से प्रवाह का आश्लेष किए रहना अनेकता है । मैं एकता को अनेकता के भुज पाश से आबद्ध पाता हूं, इसीलिए हर कार्म में आचार्यश्री तुलसी का आशीर्वाद देखता हूं और उनके चरणों में कृतज्ञता के दो पुष्प उपहृत करता हूं । मैं अनेकता को एकता से संवलित पाता हूं, इसीलिए आत्मीय भावों को अनात्मीय जगत् में संप्रेषित करता हूं । इस संप्रेषण कार्य में मुनि दुलहराजजी का भी योग है । मैं अचल और चल के योग में अनुयोग देखता हूं, वही मेरे समाधान की पृष्ठभूमि है । - मुनि नथमल जोधपुर २५ मार्च, १६६७ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका १. संकुलता २. निर्णय ३. दर्शन और बुद्धिवाद ४. जीवन और दर्शन ५. समाज-व्यवस्था में दर्शन ६. जीवित धर्म ७. राष्ट्र-धर्म ८. एकता की समस्या ६. अभय की शक्ति १०. अस्तित्व का प्रश्न ११. एशिया में जनतंत्र का भविष्य १२. लोकतन्त्र और नागरिक अनुशासन १३. युद्ध और अहिंसा १४. अहिंसा की सफलता या विफलता १५. सह-अस्तित्व १६. जीव का तर्कातीत अस्तित्व १७. जीव का अस्तित्व : जिज्ञासा और समाधान ५० Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० १८. यदि मनुष्य क्रुर नहीं होता १६. जीवन के नये मूल्य २०. मानव-मन की ग्रन्थियाँ २१. सुख और शान्ति २२. विस्मृति का वरदान २३. पूर्ण और अपूर्ण २४. आकाश की उड़ान भारत को चुनौती २५. विचार-प्रवाह २६. चिर सत्यों की अनुस्यूति २७. स्वतन्त्रता और आत्मानुशासन २८. जीवन-विकास के सूत्र २६. अणु-अस्त्र और मानवीय दृष्टिकोण ३०. योग ३१. कायोत्सर्ग ३२ ब्रह्मचर्य ३३. ब्रह्मचर्य का शरीर-शास्त्रीय अध्ययन ३४. वासना-विजय ३५. विभूषा ३६. आत्म-दमन ३७. अकाल-मृत्यु ३८. जीवन परिवर्तन की नयी दिशा १०३ ११४ १२१ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकुलता संकुलता से मुक्त कौन है ? और संकुलता कहां नहीं है ? बाजार में चले जाइए। दूकानों की लम्बी पंक्ति है। एक वस्तु की अनेक दूकान हैं। कहां से क्या लिया जाए, इसका निर्णय व्यक्ति को ही करना होगा। राजनीति के क्षेत्र का स्पर्श करिए । अनेक दल हैं। सबके पास खुशहाल के घोषणा-पत्र हैं। किसकी सदस्यता स्वीकार की जाए, इसका निर्णय व्यक्ति को ही करना होगा। चिकित्सा का क्षेत्र भी ऐसा ही है। अनेक प्रणालियां हैं। उनके अधि कारियों के पास रोग-मुक्ति का आश्वासन है। किसकी शरण लें, इसक निर्णय व्यक्ति को ही करना होगा। ये सब अनेक हैं इसलिए बुद्धि को कष्ट देना पड़ता है। यदि सब एक हो जाएं तो निर्णय करने का प्रयास क्यों करना पड़ता ? एक बार भोज ने ऐसा ही सोचा और छहों दर्शनों के प्रमुखों के कारागार में डालकर जेलर को आदेश किया कि उन्हें तब तक भोजन : दिया जाए जब तक वे सब एकमत न हो जाएं। ___यह बात सूराचार्य के कानों तक पहुंची। वे भोज की सभा में गए और गुजरात लौट जाने की अपनी इच्छा व्यक्त की और साथ ही पूछाराजन् ! वहां जाने पर मेरे आचार्य धारा नगरी के बारे में पूछेगे। मैं उन्हें प्रामाणिक जानकारी दे सकूगा यदि आप मुझे सही-सही जानकारी दें ___ राजा भोज ने गर्वोन्नत भाव से कहा-मुनिवर ! मेरी नगरी में चौरासी राजप्रासाद हैं, चौरासी बड़े बाजार हैं। प्रत्येक बाजार में भिन्न भिन्न वस्तुओं की चौबीस-चौबीस बड़ी दूकानें हैं। सूराचार्य बीच में ही बोल उठे-अलग-अलग दूकानें क्यों ? अच्छ हो, सबको मिलाकर एक कर दिया जाए। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ । तट दो : प्रवाह एक भोज ने कहा-भला यह कैसे हो सकता है ? आप कल्पना कीजिए, दूकान एक हो तो कितनी भीड़ हो जाए। लोगों की भिन्न-भिन्न आवश्यकताओं को कौन कैसे पूरा करे ? आप मुनि हैं, व्यापार की कठिनाइयों को क्या जानें ? सूराचार्य ने कहा- यही तो मैं कहना चाहता हूं कि आप शासक हैं, दर्शनों की सूक्ष्मताओं को आप क्या जाने ? जिन दूकानों पर आपका अधिकार है उन्हें भी आप एक नहीं बना सकते तो भला जन- रुचि के विभिन्न स्रोतों को एक कैसे कर सकेंगे ? राजा चिन्तन की गहराई में डुबकी लगाए बिना नहीं रह सका । सब दार्शनिक अब अपने-अपने विचार- प्रसार में स्वतन्त्र थे । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्णय एक भाई ने पूछा-निर्णायक हम स्वयं हैं, फिर उसको क्यों मानें ! मैंने कहा---गुरु को इसीलिए मानते हैं कि हम स्वयं निर्णायक हैं। हमें जो अपने से बड़ा लगता है, उसी को हम गरु मानते हैं, उसे गरु नहीं मानते जो हमें अपने से छोटा लगे। __ शब्दों की दुनिया में कहा जाता है—हम आप्त-वाणी को मानते हैं, शास्त्रों को मानते हैं, गुरु को मानते हैं आदि-आदि। पर सचाई यह है कि हम अपने आपको मानते हैं। अपनी बुद्धि को मानते हैं। अपनी रुचि को मानते हैं । संस्कारों को मानते हैं। यह जगत् संकुलता से भरा है । शब्द एक है, अर्थ अनेक । एक पाठ के अनेक आचार्यों ने अनेक अर्थ किए हैं। किसे मान्य किया जाए ? इसका निर्णय आगम नहीं करते, हम स्वयं करते हैं। वहां आगम का प्रामाण्य नहीं होता, वहां प्रमाण बनती है हमारी अपनी बुद्धि । गुरु जो व्याख्या देते हैं, उसे भी हम अपने संस्कारों और रुचि के अनुरूप ढालने का यत्न करते हैं। उसमें ढले तो ठीक नहीं तो उसे हृदय से मान्यता नहीं देते। वाणी किसी सर्वज्ञ की हो या असर्वज्ञ की, सिद्धान्त किसी सर्वज्ञ का हो या असर्वज्ञ का, वह हमारा होकर ही मान्यता प्राप्त कर सकता है, अन्यथा नहीं। जो बात हमारी समझ में आती है, उसे हम प्रत्यक्ष मान्यता देते हैं और जो बात हमारी समझ में नहीं आती, उसे हम श्रद्धा से मान्य करते हैं। श्रद्धा और क्या है ? हमारी ही बुद्धि का निर्णय है। हमने मान लिया कि अमुक व्यक्ति की बात मिथ्या नहीं हो सकती, हमारी समझ अधूरी हो सकती है। इसलिए उसकी सब बातें हम मान्य कर लेते हैं भले फिर वे समझ में आएं या न आएं। श्रद्धा हमारी बुद्धि का स्थित-पक्ष है। इसका अर्थ यह नहीं कि समझ से परे जो भी हो उसे आंख मूंदकर मान्य कर लें किन्तु इसका अर्थ यह होना चाहिए कि जो समझ से परे हो वह समझ का विषय बने उतना धैर्य रखें। सत्य-जिज्ञासा की लौ बुझ न पाए, आग्रह का भाव बच न पाए। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और बुद्धिवाद . जीवन के प्रति हमारा जो दृष्टिकोण है वह छिछला है और स्थूल है। इसका कारण यही है कि हम दर्शन को उतना महत्त्व नहीं देते, जितना बुद्धि को देते हैं। दर्शन हमारा प्रत्यक्ष है और बुद्धि परोक्ष । दर्शन में कोरी यथार्थता है, सजावट नहीं। बुद्धि में यथार्थता की अपेक्षा सजावट अधिक है । दर्शन का मार्ग ऋजु है, बुद्धि का घुमावदार । मनुष्य बहुत बार सजावट और घुमाव को अधिक पसन्द करता है इसीलिए वह बुद्धिवादी बनना चाहता है, दार्शनिक नहीं। सच तो यह है कि आज का दार्शनिक भी निरा बद्धिवादी है। जो बुद्धि के सहारे तत्त्वों का विश्लेषण करता है, जगत के अस्तित्व की व्याख्या करता है, वह दार्शनिक नहीं है किन्तु बुद्धिवादी है । दार्शनिक वह होता है, जो अपने दर्शन या प्रत्यक्ष ज्ञान के सहारे तत्त्वनिरूपण करे, विश्व की व्याख्या दे। जो अग्नि को प्रत्यक्ष देखता है, उसके लिए हेतु या तर्क आवश्यक नहीं होता। वह उसी के लिए आवश्यक होता है जो अग्नि को धुएं के द्वारा जानता है। दार्शनिक के लिए तर्क या बुद्धि का उपयोग नहीं है। वह प्रत्यक्षदर्शी होता है। जो इनका उपयोग करता है वही सही अर्थ में दार्शनिक नहीं है किन्तु बुद्धिवादी है । आज दर्शन शब्द का अर्थ-परिवर्तन हो गया है। परोक्षदर्शी लोगों ने दर्शन की व्याख्या की, वह बुद्धि के द्वारा की इसलिए दर्शन बुद्धिवाद का माया-जाल बन गया। ___ क्रोध, अभिमान, माया और लोभ-ये चिन्तन के आन्तरिक दोष हैं। ये देश, काल और मात्रा भेद के अनुसार बुद्धि द्वारा समर्थित भी हैं। बद्धि के अस्तित्व का इन जैसा सुदृढ़ स्तम्भ दूसरा कोई नहीं है। क्रोध, अभिमान, माया और लोभ ये क्षीण होते हैं तब दर्शन का प्रारम्भ होता है। तात्पर्य की भाषा में जहां बुद्धि का अन्त होता है, वहां दर्शन का आरम्भ होता है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और बुद्धिवाद । ५ . बुद्धि भौतिक वस्तु है और दर्शन आध्यात्मिक । जो आत्मा और उसके अनन्य चैतन्य में विश्वास नहीं करता, उसके लिए दर्शन बुद्धि का पर्यायवाची होता है । आत्मवादी के लिए इनमें बहुत बड़ा अंतर है-बुद्धि शांत और ससीम होती है, दर्शन अनन्त और असीम । मेरे कई मित्रों की ऐसी मान्यता है कि पहले दार्शनिक ज्ञान विकसित हुआ, फिर धर्म की उत्पत्ति हुई। किन्तु मैं ऐसा नहीं मानता। मैं धर्म को दर्शन का साधन मानता हं। धर्म से दर्शन की उत्पत्ति होती है किन्तु दर्शन से धर्म की उत्पत्ति नहीं होती। दर्शन हमारी प्रत्यक्ष चेतना का विकास है और धर्म उसका साधन । जब तक हमारा दर्शन अपूर्ण होता है तब तक हमारे लिए दर्शन और धर्म भिन्न होते हैं। जब हम पूर्ण द्रष्टा बन जाते हैं तब हमारा धर्म हमारे दर्शन में विलीन हो जाता है ; वहां साध्य और साधन का भेद समाप्त हो जाता है । साधना-काल में जो साधन होता है, वह सिद्धि-काल में स्वभाव बन जाता है। दर्शन की साधना करते समय धर्म हमारा साधन होता है और उसकी सिद्धि होने पर धर्म हमारा स्वभाव बन जाता है-हमसे अभिन्न हो जाता है। जिस दर्शन की मैंने चर्चा की है उसे स्व-दर्शन या आत्म-दर्शन कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त जैन, बौद्ध और वैदिक आदि जितने दर्शन हैं, वे सब पर-दर्शन हैं अर्थात् बुद्धि द्वारा गृहीत दर्शन हैं। सारांश की भाषा में जो दर्शन धर्म द्वारा प्राप्त होता है वह स्व-दर्शन होता है और जो बुद्धि द्वारा प्राप्त होता है, वह पर-दर्शन होता है । स्व-दर्शन से आत्मा प्रकाशित होती है और पर-दर्शन से परम्परा का विकास होता है। आत्मा का स्पर्श करती हई हमारी जो आस्था है, ज्ञान और तन्मयता है, वही धर्म है। इसी धर्म की आराधना से दर्शन का उदय होता है। जो लोग इस आत्म-दर्शन का स्पर्श नहीं करते उनमें बौद्धिक विकास प्रचुर हो सकता है पर दर्शन का उदय नहीं होता। दर्शन प्रत्यक्ष होता है, आभास से मुक्त होता है। बुद्धि में आभास होता है, संशय भी होता है और विपर्यय भी होता है। बुद्धि हमारा अत्यन्त समाधायक साधन नहीं है, वह कामचलाऊ अस्त्र है । उसके निष्कर्ष अनेक द्वारों से निकलते हैं। न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त की स्था Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ । तट दो : प्रवाह एक पना की। आइन्स्टीन ने सापेक्षवाद की स्थापना कर उसकी व्याख्या में परिवर्तन ला दिया। फिर भी आइन्स्टीन के गुरुत्वाकर्षण सम्बन्धी नियमों का प्रयोग जब नक्षत्रीय समस्याओं के समाधान के लिए किया जाता है, तब ठीक वही परिणाम निकलते हैं जो न्यूटन के नियमों के प्रयोग से निकलते हैं। भू-भ्रमण के बारे में अनेक मत हैं। बुद्धि के द्वारा उन्हें कोई निश्चित रूप नहीं दिया जा सका। बुद्धिवाद अपने युग में नया रूप लाता है और चमत्कार उत्पन्न करता है। चिरकाल के बाद वह बूढ़े आदमी की तरह जीर्ण हो जाता है। कोपरनिकस का भू-भ्रमण का सिद्धान्त एक दिन बहुमूल्य था किन्तु सापेक्षवाद की स्थापना के बाद अल्पमूल्य हो गया। लिओपोल्ड इन्फेल्ड के शब्दों में—'कोपरनिकस और टॉलमी के सिद्धान्त के विषय में निर्णय करना अब निरर्थक है। वास्तव में दोनों के सिद्धान्तों की विशेषता का अब कोई महत्त्व नहीं । पृथ्वी घूमती है और सूर्य स्थिर है या पृथ्वी स्थिर है और सूर्य घूमता है-इन दोनों का कोई अर्थ नहीं है। कोपरनिकस की महान् खोज आज केवल इतने ही वक्तव्य में समाने जितनी रह गई है कि कुछेक प्रसंगों में नक्षत्रों की गति का सम्बन्ध सूर्य के साथ जोड़ने की अपेक्षा पृथ्वी के साथ जोड़ना अधिक सुविधाजनक है।' ____ मतानैक्य और उत्तरवर्ती सिद्धान्त के द्वारा पूर्ववर्ती सिद्धान्त का निरसन-ये दोनों बुद्धिवाद की सहज अपूर्णताएं हैं। दर्शन वही है जहां मतैक्य हो, उत्तर के द्वारा पूर्व का समर्थन हो। बुद्धिवाद अपूर्ण इसलिए होता है कि वह परोक्ष है। दर्शन प्रत्यक्ष होता है इसलिए वह पूर्ण है। बुद्धिवाद की उत्पत्ति इन्द्रिय और मन के जगत् में होती है जो स्वयं चैतन्यमय नहीं है बल्कि चैतन्य के वाहक हैं। दर्शन की उत्पत्ति आत्मिक जगत् में होती है जो स्वयं चैतन्यमय है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन और दर्शन जीवन भी सबके पास है और दर्शन भी सबके पास है । संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं जिसके पास जीवन हो और दर्शन न हो । परन्तु जीवन और दर्शन में मेल होना चाहिए। यदि दर्शन जीवन में होता है तो दोनों मिलकर एकप्राण बन जाते हैं। प्रश्न होता है-जीवन क्या है ? दर्शन क्या है ? यह सरल भी है और गढ़ भी है। सभी लोग कहते हैंसुनकर काम करो, देखकर चलो। देखने का सब जगह महत्त्व है । यदि जीवन न होता तो शायद देखने की आवश्यकता नहीं होती। आदमी जीता है, वही जीवन है । इन्द्रियों और प्राण के संयोग से ही वह बनता है । प्रो० ल्योनिदवासिलियेव ने लिखा है कि मैंने मस्तिष्क संस्थान के परीक्षणों द्वारा ज्ञात किया कि मनुष्य में अक्षय शक्ति है, अनन्त शक्ति है । उसकी शक्ति विद्युत तरंगों की तरह नहीं है। सोवियत पत्रों में इसकी काफी चर्चा हुई है। जीवन का क्षेत्र बहत विशाल है। थोड़े दिन पहले एक डॉक्टर ने कहा था--आज भी मनुष्य अवधिज्ञानी तथा मनःपर्यायज्ञानी हो सकता । जीवन की परिधि विशाल होती जा रही है। जीवन आगे बढ़ रहा है। हम जो आंखों से देखते हैं, वही दर्शन है। परन्तु सब कुछ सीधा ही सीधा नहीं होता, उल्टा भी होता है। हमारे ऋषियों, मुनियों ने कुछ बातें उल्टी भी कहीं। उन्होंने कहा-हम जो देखते हैं, वह दर्शन नहीं, वह देखना देखना नहीं है । देखने का अर्थ है-आंखें बन्द करके देखना । मनुष्य देखता हुआ भी नहीं देखता । सुनता हुआ भी नहीं सुनता । यह बात बिलकुल उल्टी है। समझ से परे है। आपको कहा जाए कि आंखें मूंद कर देखो, नहीं दिखेगा। हमारी इन्द्रियां इतनी क्षीण होती हैं कि थोड़ा-सा भी व्यवधान आया कि दर्शन रुक जाता है। यदि हम ऊपर चढ़कर देखते हैं तो उदयपुर का पहाड़ दिखाई देता है परन्तु यहां से नहीं दिखाई पड़ता है । कारण स्पष्ट कि व्यवधान आ गया। दोपहर में दीप जलता है परन्तु उसका Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ । तट दो : प्रवाह एक प्रकाश नहीं दिखाई देता । अनन्त परमाणु चक्कर लग रहे हैं पर दिखाई नहीं देते । जहां समानाभिहार होता है, वहां आंखों से नहीं देखा जा सकता है । हजारों मन धान में सरसों का एक बीज यदि डाल दिया जाए तो वह होते हुए भी दिखाई नहीं पड़ता । इसीलिए हमारे ऋषियों, मुनियों तथा दार्शनिकों ने कहा- आपका देखना अधूरा है । एक सड़क हमारे सामने है । यदि हम उसे दूर से देखते हैं तो वह केवल पतली-सी काली रेखा के समान ही दिखाई पड़ती है । यह दर्शन है ही नहीं । यह सही है कि दर्शन का अर्थ देखना होता है परन्तु देखना वही है जहां आंखें मूंदकर देखा जाए । दर्शन का अर्थ है साक्षात् । जो मन को एकाग्र कर देखने का प्रयास करते हैं, वही सही देखना है। जहां दूरी सूक्ष्मता देखने में बाधक नहीं बनती, वही देखना है । भगवान् महावीर ने एक जगह कहा हैजो मनुष्य क्रोध, मान, लोभ पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह परमात्मा को प्राप्त कर लेता है । जब हम अपने आप में देखते हैं तब दर्शन पूर्ण हो जाता है । जहां चित्त को अपने आप में केन्द्रित किया जाता है वही है दर्शन । शेष सब तर्क का मायाजाल । यह सरल तो बहुत है परन्तु इसे पाने में कठिनाई होती है, पर जिन्होंने थोड़ा प्रयत्न किया उन्हें मिला भी अवश्य । एक व्यक्ति सोते के पास खड़ा है । वह देखता है कि एक हिरणी पांव से लंग ती हुई आती है और सोते में पांव कुछ देर तक रखने के बाद पुनः वापस चली जाती है । तीन दिनों तक यही क्रम चलता रहा और चौथे दिन हिरणी बिलकुल स्वस्थ हो गई । उस मनुष्य ने देखने का यत्न किया और उसी से प्राकृतिक चिकित्सा का जन्म हुआ । एक मनुष्य बीमार है । वह देखता है कि एक बच्चा 'लाला' का उच्चारण करता हुआ जोरों से सांस ले रहा है। उसने देखने का प्रयत्न किया, उससे स्वर - चिकित्सा ( ट्युनोपैथी) का जन्म हुआ। जिस किसी ने भी देखने का प्रयत्न किया शायद कभी व्यर्थ नहीं गया। बड़े-बड़े कहानीकार, कलाकार आदि जिन्होंने भी इतनी ख्याति प्राप्त की उन्होंने एकाग्रता से देखने का प्रयत्न किया था । महाकवि कालिदास ने 'अभिज्ञान शाकुन्तल' का ऐसा सृजन किया है जिसे Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन और दर्शन । ६ पढ़कर जर्मन कवि गेटे नाच उठा । हमारे यहां रामायण में आता है कि हनुमान ने देखा, सूर्य अस्त हो रहा है, उनके मन में वैराग्य की भावना उमड़ पड़ी। आज जैसा देखना चाहिए वैसा नहीं देखा जा रहा है। जिसे पीलिया की बीमारी हो जाती है, उसे सब कुछ पीला ही पीला नजर आता है। आज इस बीमारी को मिटाने की आवश्यकता है। जीवन के प्रति दृष्टिकोण क्या हो, लोग इसे भूल गए। मेरे विचार से तो नब्बे प्रतिशत लोगों का जीवन के प्रति कोई दृष्टिकोण नहीं है। आप खाते हैं, पीते हैं, श्वास-निःश्वास लेते हैं केवल जीवित रहने के लिए ; परन्तु किसलिए जीते हैं, यह नहीं बता सकते। हो सकता है कि मौत नहीं आ रही हो, इसीलिए जीवित रहते हों। - हमारा जीवन इतना मूल्यवान है कि उसके द्वारा बहुत बड़े-बड़े काम किए जा सकते हैं। यदि जीवन उद्देश्यपूर्वक होता है तो उसमें गति आती है, बिना उद्देश्य का जीवन लड़खड़ाता रहता है । मनुष्य खा लेता है परन्तु कब खाना चाहिए, क्यों खाना चाहिए, यह नहीं जानता। सांस लेता है परन्तु कैसे लेना चाहिए, यह नहीं जानता । कोई मनुष्य धर्म को माने या नहीं परन्तु अपने अस्तित्व पर तो विचार करना ही चाहिए । उदयपुर आने पर एक समझदार व्यक्ति ने कहा कि आत्मा पर मेरा विश्वास नहीं । यह भावुकता है, और कुछ नहीं। वास्तव में चंचलता के द्वारा कुछ नहीं हो सकता। जब तक हमारा मन स्थिर नहीं होता तब तक हम कुछ नहीं समझ सकते । हमारा निवृत्ति-धर्म पलायनवाद नहीं । चंचलता में फंसकर लोग सत्य से दूर हो जाते हैं। सत्य के निकट हो सकें इसी का नाम निवृत्ति है । लोग दर्शन को भूलभुलैया मानकर चलते हैं परन्तु ऐसी बात. नहीं है। आज दार्शनिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। प्रत्येक काम में दर्शन की आवश्यकता है। जिस प्रकार एक लंगड़ा आदमी लाठी के सहारे चलता है उसी प्रकार यदि हमारे पास दर्शन का आलम्बन हो तो हम सत्य तक अवश्य पहुंच सकते हैं। १. आत्मा है, २. वह अमर है, ३. अपना किया हुआ फल अपने आप भुगतना पड़ेगा-चाहे इहलोक में, चाहे परलोक में ; जिसमें ये तीनों बातें पायी जाएंगी वह मनुष्य बुराइयों से घबराएगा। चाहे उसने देखा हो या नहीं। भय से नहीं, अभय के द्वारा। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० । तट दो : प्रवाह एक एक आदमी गाली देता है। दूसरी ओर सामने वाला देखता है ऐसाक्यों? उसे भी क्रोध आना चाहिए। उत्तर मिलता है-पीटता तो नहीं। वास्तव में उसका जीवन के प्रति दष्टिकोण है। एक बार के क्रोध से मनुष्य का रक्त इतना विषाक्त होता है कि यदि वह दूसरे क्षुद्र जन्तु को दिया जाए तो वह मर जाए। जीवन के प्रति मनुष्य का स्थिर और निश्चित दृष्टिकोण होना चाहिए । धार्मिक के लिए तो और भी आवश्यक है । जीवन दर्शन के प्रति और दर्शन जीवन के प्रति सजग होना चाहिए और हमें सजगता के साथ समझने तथा देखने का प्रयत्न करना चाहिए । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था में दर्शन समाज, व्यवस्था और दर्शन तीनों जटिल और कुटिल शब्द हैं। आदि में समाज है, अन्त में दर्शन और बीच में व्यवस्था बैठी है। व्यक्ति आज भी जितना है, उतना सामाजिक नहीं है । व्यवस्था स्वयं में सहज नहीं है। दर्शन परीक्षा की साक्षात् अनुभूति के लिए व्यवहृत होता है। जैन आगमों की भाषा में समाज कल्पना है। ‘पत्तेयं सायं, पत्तेयं विन्नु, पत्तेयं वेयणा'व्यक्ति अकेला आता है और अकेला ही जाता है। अनुभूति भी अपनी-अपनी होती है । एक की अनुभूति दूसरे की नहीं होती। विज्ञान भी अकेले को होता है । सत्य व्यक्ति है, समाज नहीं। उपनिषद् में कहा है-'द्धितीयाद् वै भयम् । अकेला अभय था, दूसरा आया कि भय हो गया। 'मृत्योः स मृत्युमाप्नोति, य इह नानेव पश्यति'----नानात्व को देखने वाला मृत्यु को प्राप्त होता है। सचाई भी यही है। समाज कल्पना-प्रसूत सत्य है, वास्तविक सत्य है व्यक्ति । आदि से आज तक समाजशास्त्रियों ने सामाजिकता की गाथाएं गायी हैं पर उसके संस्कार आज भी अपरिपक्व हैं, जितने वैयक्तिक हैं उतने सामाजिक नहीं हैं। जहां समाजवाद हो वहां भी थोड़ा-सा नियंत्रण शिथिल होते ही वैयक्तिक भाव पनप उठते हैं। व्यवस्था की दशा लगभग ऐसी है। प्रत्येक पदार्थ में अवस्था होती है। जैन की भाषा में उसे पर्याय कहते हैं। वह अचेतन में भी होती है, चेतन में भी होती है। वह बद्धजीव में भी होती है और मुक्त में भी होती है। व्यवस्था वैभाविक पर्याय है, सहज नहीं । वह करनी होती है। सापेक्षता की ओर झुकाव होता है, तब व्यवस्था आती है । समाज' माना हुआ सत्य है, पर सम्मत सत्य को एकान्त असत्य नहीं कहा जा सकता। चिन्तन का प्रवाह कालचक्र की तरह उत्सर्पण और अवसर्पण करता है। एक दिन व्यक्ति व्यक्ति था, अवस्था अवस्था थी और दर्शन दर्शन था। उपनिषद् की भाषा में-'स एको नैव रेमे'--वह अकेले में संतुष्ट नहीं हुआ। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२। तट दो : प्रवाह एक उसने सोचा—'बह स्याम्', वह बहत हो गया। मनुष्य कभी जंगल में रहता था। उस स्थिति से ऊबकर वह गांव में आया। अब वह गांव में भी जंगल ला रहा है। नई दिल्ली में मैंने देखाएक कोठी जंगल से घिरी है, मनुष्य की जो चिरपरिचित आदत है, वह अभी नहीं छुटी है, इसीलिए वह गांव में भी जंगल ला रहा है। एक समय लोग दाढ़ी और मंछ रखते थे। बीच में सफाई का यग आया और अब पुनः दाढ़ी-मूंछ का युग आ रहा है । यह आवर्तन और प्रत्यावर्तन होता ही रहता है। सापेक्षता से ही समाज बनता है। समज और समाज में यही तो भेद है। पशुओं का समूह समज कहलाता है और समाज उन मनुष्यों का समूह होता है जिनमें सापेक्षता होती है। समाज' हो और सापेक्षता न हो, वह समाज नहीं, अस्थि-संघात मात्र है। समाज का आधार है परस्परावलम्बन, परस्पर-सहयोग । समाज में व्यवस्था का जन्म होता है । व्यवस्था भली-भांति चले इसलिए शासन आता है। सापेक्षता, व्यवस्था और शासनये तीन व्यवस्थाएं जहां हों, वहां दस आदमी मिलने पर भी समाज बन जाता है, अन्यथा लाख आदमी होने पर भी समाज नहीं बनता। दर्शन शब्द का अर्थ-विस्तार हुआ है । एक समय आत्मोपलब्धि और सत्य के साक्षात्कार को दर्शन कहा जाता था। द्रष्टा की प्रत्यक्ष अनुभूति के लिए दर्शन शब्द व्यवहृत होता था पर आज परोक्षानुभूति में भी वह व्यवहृत होने लगा है। व्यक्ति सामाजिक होने पर भी व्यक्ति है ही, इसलिए वह समाज में रहते हुए भी निरपेक्षता चाहता है और शासनहीन राज्य की कल्पना करता है, यह अस्वाभाविक भी नहीं है । निरपेक्षता से मुक्त सापेक्षता और सापेक्षता से मुक्त निरपेक्षता हो ही नहीं सकती। जो कोई भी सत् है, वह सत्-प्रतिपक्ष है । प्रकाश और अन्धकार, न्याय और अन्याय, आरोग्य और रोग ये, सब सत-प्रतिपक्ष हैं। अकेला शब्द शून्य होता है। सामाजिक प्राणी सर्वथा निरपेक्ष हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। और यह भी असम्भव है कि व्यक्ति का स्वतंत्र अस्तित्व हो और वह सर्वथा सापेक्ष ही हो । निरपेक्षता को न जानने वाला शान्ति का मर्म जान ही नहीं पाता । अहिंसा, Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था में दर्शन । १३ अपरिग्रह और सचाई-ये सब निरपेक्षता के ही परिणाम हैं। . एक दल या सम्प्रदाय के लोग साथ रहते हैं। वे सापेक्ष ही हों और निरपेक्ष न हों तो कलह हो जाता है। एक बड़े परिवार वाले व्यक्ति से मैंने पूछा-आपका परिवार इतना बड़ा है, कैसे एक साथ रह रहे हैं ? उसने उत्तर दिया-बहुत कुछ सहा है, अन्यथा कभी से अलग-अलग चूल्हे जल जाते । सन्तुलन के लिए सापेक्ष के साथ निरपेक्ष भाव हो–यही दर्शन की देन है। व्यवस्था समाज के लिए आवश्यक है, वैसे अव्यवस्था भी । गति और प्रगति के लिए अव्यवस्था आवश्यक है। स्कन्ध भी संघात और भेद से बनता है, केवल संघात ही हो तो सारा विश्व पिण्ड बन जाए। हाथ की पांचों अंगुलियों का पिण्ड एक हो जाय तो उनकी कोई उपयोगिता नहीं रह सकती। भिन्नता में ही उनकी उपयोगिता है। कोरे भेद से भी काम नहीं चलता। अणु-अणु बिखर जाए तो जीवन दूभर बन जाए । संघात और भेद से स्कन्ध बनता है, वही हमारे लिए उपयोगी होता है । अव्यवस्था का अर्थ हैअवस्था । कोरी व्यवस्था से समाज जड़ बन जाता है, क्योंकि व्यवस्था कृत है, नैसर्गिक नहीं । नैसर्गिकता स्वयं अवस्था बन जाए तब व्यवस्था की आवश्यकता ही न रहे। शासन-प्रणाली भी आयी है। समाज ने उसे आवश्यक माना और वह आ गई । एक समय मनुष्य ने शासन की कल्पना की, राज्य बन गया, शासक बन गए । मार्क्स की अन्तिम कल्पना है-शासन-मुक्त राज्य हो। यह कल्पना मार्क्स की नयी नहीं है। जैन आगमों में 'अहं इन्द्र' का उल्लेख है। वहां सब इन्द्र हैं, कोई सेवक या पदाति नहीं। प्रेष्य और प्रेषक भाव भी नहीं है। वह शासनमुक्त समाज का चित्र है। किन्तु वे 'अहं इन्द्र' इसलिए हैं कि उनके क्रोध, मान, माया और लोभ क्षीण हैं, स्वभाव से वे सन्तुष्ट हैं । शासनमुक्त राज्य के लिए ये अनिवार्य अपेक्षाएं हैं। स्वाधीनता दर्शन की बहुत बड़ी देन है। सब लोग विचारों की स्वतन्त्रता चाहते हैं, लेखन और वाणी की स्वतन्त्रता चाहते हैं। स्वतन्त्रता का घोष प्रबल है। कोई पराधीनता नहीं चाहता। राजा शब्द इतिहास और शब्दकोश का विषय बन गया है, वैसे ही नौकर शब्द भी अतीत की वस्तु Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ । तट दो : प्रवाह एक बनता जा रहा है। इसका अर्थ है कि निरपेक्षता आ रही है। सापेक्ष की कड़ी टूटने पर कोई बड़ी हानि नहीं ; व्यवस्था न रहे तो कोई दोष नहीं ; शासन न रहे तो कोई आपत्ति नहीं; यदि स्व-शासन आ जाए । स्व-शासक न शासन से शासित होता है और न शासन से मुक्त। 'कुसले पुण नो बढे नो मुक्के'--कुशल वह है जो न बद्ध होता है और न मुक्त। एक ही व्यक्ति जो न बँधा हुआ हो और न मुक्त हो, यह कैसे हो सकता है ? शासन छोड़ा नहीं जा सकता। शासन नहीं वहां त्राण नहीं। कोई भी अत्राण रहना नहीं चाहता--इसलिए आत्मानुशासन आता है। कुशल इसलिए है कि वह परशासन से बद्ध नहीं है और आत्मानुशासन से मुक्त नहीं है।। __ आत्मानुशासन के मनोभाव को विकसित करना आवश्यकता है। कहीं भी देखा जाय, ईर्ष्या है, स्पर्धा है, एक-दूसरे को नीचे गिराने का भाव है और असहनशीलता है। समाज में जहां सापेक्षता है, वहां ऐसा क्यों होता है, यह आज भी एक प्रश्नचिह्न बना हुआ है। साम्यवादी शासनमुक्त समाज की कल्पना लेकर चलते हैं । वहां क्या होता है ? अपनी सुरक्षा और अपने प्रतिस्पर्धी का पतन । एक ओर शासन मुक्ति की कल्पना, दूसरी ओर इतना स्वार्थ-संघर्ष, यह दर्शन की दूरी नहीं तो और क्या है ? ___व्यक्ति ने मान लिया, उत्कर्ष हो तो मेरा हो। मुख्य या शक्तिशाली मैं ही बनूं । यह व्यक्तिवादी मनोवृत्ति ही सामाजिकता को वास्तविकता नहीं बनने देती; किन्तु आत्मानुशासन का विकास होने पर व्यक्ति व्यक्ति रहकर भी असामाजिक नहीं रहता।। व्यक्ति में जो स्व की सीमा है, उसे न समझकर वह अपने में पर का आरोप कर लेता है। संक्रान्ति वेला में प्रत्येक वस्तु छोटी दीखती है। विशाल वस्तु भी दर्पण में समा जाती है। व्यवित भी सोचता है, सारी सृष्टि मुझमें समाहित हो जाए, पर ऐसा सोचनेवाला सत्य के निकट नहीं पहुंच पाता। व्यक्ति समुद्र है। राग-द्वेष की उमियाँ उसमें कल्लोलें कर रही हैं। वहां सत्य-दर्शन नहीं होता। उन उमियों से ऊपर आने वाले की ही दष्टि स्पष्ट हो सकती है, भीतर रहने वाले की नहीं। ___ ww Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-व्यवस्था में दर्शन । १५ समाजवादी प्रणाली में भी सत्ता कुछेक व्यक्तियों में केन्द्रित ह गई है। जनता अपने को असहाय -सी अनुभव करती है । अपना व्रत लेकर चलने वाले कभी अत्राण नहीं होते । शस्त्र शब्द में त्राण शक्ति की कल्पना है पर वह वास्तविक नहीं । भीषण आयुध रखने वाले भी संत्रस्त हैं । दशार्णभद्र अपना ठाट-बाट लेकर भगवान महावीर के दर्शन के लिए चला । इन्द्र ने सेना की रचना की । राजा पराजित हो गया, त्राण अत्राण की अनुभूति करने लगा क्योंकि वह पर की सीमा में चला गया था । अंत में वह भगवान की शरण में आया और विजयी बन गया । अब इन्द्र पैरों में आ लुटा । जो पर-शासन में पराजित हो गया, वह स्व- शासन में आ विजयी बन गया। समाज में रहने वाले स्व की सीमा में चले । इस स्व-शासन का विकास होने पर समाज में व्यवस्था नहीं होगी किन्तु एक विशेष अवस्था होगी । नियम कृत्रिम नहीं होगा, किन्तु सहज होगा । प्रेरणा का मूल भय नहीं होगा किन्तु कर्तव्यनिष्ठा होगी । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवित धर्म मैं धर्म की उपासना करता हूं पर उसकी नहीं करता, जो मृत है-मैं उसकी उपासना करता हूं जो जीवित है । जीवित वही है जिसका वर्तमान पर अधिकार है । अतीत असत् होता है, इसलिए कि वह अपना कार्य कर चुकता है । भावी इसलिए असत् होता है कि वह कार्यक्षम नहीं होता। सत् वर्तमान है। उसकी उज्ज्वलता से भूत चमकता है और भावी बनता है। तुम जीवित रहना चाहते हो तो कोरे अतीत के गीत मत गाओ। कोरी कल्पना की उड़ान मत भरो। आज क्या करना प्राप्त है इसे सोचो, दो क्षण गहराई से सोचो। __तुम सहिष्णु हो, अनुशासित हो, स्थिरचेता हो, परिवर्तन की मर्यादा को जानते हो तो तुम जीवित हो, तुम्हारा धर्म जीवित है, वर्तमान पर तुम्हारा अधिकार है और तुम्हारा वर्तमान उज्ज्वल है। ___अपनी भूलों को देखने, सुनने, स्वीकार करने और उनका परिमार्जन करने में तुम क्षम हो तो तुम जीवित हो, तुम्हारा धर्म जीवित है, वर्तमान पर तुम्हारा अधिकार है और तुम्हारा वर्तमान उज्ज्वल है। दूसरों की अच्छाइयों को देखने, सुनने, स्वीकार करने और अपनाने में तुम क्षम हो तो तुम जीवित हो, तुम्हारा धर्म जीवित है, वर्तमान पर तुम्हारा अधिकार है और तुम्हारा वर्तमान उज्ज्वल है। धर्म इसीलिए जीवित तत्त्व है कि उसमें वर्तमान उज्ज्वल होता है। वह इसीलिए शाश्वत तत्त्व है कि उसमें वर्तमान सदा उज्ज्वल होता है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्र-धर्म धर्म व्यक्तिगत होता है। वह सामाजिक या राष्ट्रीय नहीं होता। जो सामाजिक या राष्ट्रीय होता है, वहध र्म का संस्थान हो सकता है, धर्म नहीं। धर्म का अर्थ है, आत्मा की पवित्रता। वह वैयक्तिक ही हो सकता है। कर्तव्य राष्ट्रीय हो सकता है। उसका अर्थ है नीति को क्रियान्वित करना । उसका सम्बन्ध आत्मा की पवित्रता से नहीं है, किन्तु दायित्व से है। नीति भी राष्ट्रीय हो सकती है। वह सामाजिक जीवन जीने की पद्धति है। समूचे समाज या राष्ट्र के लिए जनता उसे निश्चित करती है। वह व्यक्तिगत शुद्धि या रुचि के आधार पर नहीं बनती, किन्तु जनता के सामूहिक हितों के आधार पर निश्चित होती है। ___ कर्तव्य धर्म हो सकता है पर वह धर्म ही है, यह नहीं होता। नीति धर्म हो सकती है पर वह धर्म ही है, यह नहीं होता। इसका फलित अर्थ यह है कि धर्म और कर्तव्य सर्वथा एक नहीं हैं। महात्मा गांधी अहिंसा को अपना धर्म मानते थे। कांग्रेस ने उसे नीति के रूप में स्वीकार किया था। धर्म आत्मा से अभिन्न होता है, उसे छोड़ा नहीं जा सकता। नीति समयसमय पर बदलती रहती है। आज हिन्दुस्तान के सामने धर्म, कर्तव्य और नीति--ये तीनों प्रश्नचिह्न बने हुए हैं। सदाचार को अपना धर्ममानकर चलने वाले लोग बहुत कम हैं। वह राष्ट्रीय कर्तव्य के रूप में भी नहीं अपनाया गया है। राष्ट्रीय नीति के रूप में भी उसे बहुत बल नहीं मिल रहा है । इसीलिए असदाचार सदाचार पर हावी हो रहा है। इस स्थिति को बदलने के लिए धार्मिक पवित्रता का वातावरण बनाना, कर्तव्यबुद्धि को जगाना और नीति का दढ़ता के साथ निर्धारण करना--ये तीनों अपेक्षित माने जा रहे हैं। इस सचाई को हम अस्वीकार नहीं करते कि धार्मिक-बुद्धि भी नीति जितनी Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ । तट दो : प्रवाह एक व्यापक नहीं हो सकती । नीति के साथ कानन की शक्ति है, इसलिए वह अनिवार्यता है । कर्तव्य के साथ दण्ड-शक्ति नहीं है । वह बौद्धि क-शक्ति का विकास है। धर्म आत्मा का आन्तरिक प्रकाश है। नीति स्थूल है, कर्तव्य सूक्ष्म है और धर्म सूक्ष्मतम । धर्म की मान्यता है—तुम अच्छाई से भिन्न कुछ हो ही नहीं। कर्तव्य कहता है--तुम्हें अच्छाई का पालन करना चाहिए। नीति कहती है-तुम्हें अच्छाई का पालन करना होगा। ये तीनों रेखाएं अपने-अपने क्षेत्र में विकसित होती हैं, तब असदाचार सदाचार पर हावी नहीं हो सकता। नीति-निर्धारण का दायित्व सरकार परहै । कर्तव्य-बद्धि जगाने का दायित्व सामाजिक कार्यकर्ताओं पर है । धार्मिक पवित्रता को विकसित करने का दायित्व धार्मिक गुरुओं पर है। __ वर्तमान स्थिति को बदलने के लिए यह अपेक्षित है कि कोई आदमी रिश्वत न ले और न दे। मिलावट न करे। व्यक्तिगत संग्रह को प्रोत्साहन न दे। दायित्व को लेकर जनता के प्रति अन्याय न करे। सामाजिक कुरीतियों का बहिष्कार करे। इन्हें राष्ट्रीय नीति, राष्ट्रीय कर्तव्य और राष्ट्रीय धर्म के रूप में मान्यता मिलने पर वह सहज ही हो जाएगा, जो सब लोग करना चाहते हैं। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकता की समस्या हमारे जीवन में एकता और अनेकता का ऐसा विचित्र योग है कि हम एक होकर भी अनेक हैं और अनेक होकर भी एक हैं। हमारी एकता का अर्थ है, समानता की अनुभूति और अनेकता का अर्थ है आवश्यकताओं का विभाजन । हम सब मनुष्य हैं। मनुष्य-मनुष्य समान है, इसलिए सब एक हैं। किन्तु हमारी आवश्यकता-पूर्ति के स्रोत विभिन्न हैं। उनसे हम विभक्त हैं, इसलिए अनेक भी हैं। जिससे हमारी अपेक्षा पूरी होती है, उससे हमारा मोह हो, यह स्वाभाविक है। जिनसे मोह होता है, उन्हें महत्त्व देने की भावना भी अस्वाभाविक नहीं है । हम सबसे अधिक महत्त्व अपने शरीर को देते हैं। फिर अपने रंग-रूप, भाषा, जाति, गांव, ज़िला, प्रांत और राष्ट्र को देते हैं। उन्हें महत्त्व देना कोई अपराध भी नहीं है, यदि हम दूसरों को हीन माने बिना, बाधा पहुंचाएं बिना उन्हें महत्त्व दें। किन्तु हमारे में अपने भौतिक साधनों को सीमा से अधिक महत्त्व देने की प्रवृत्ति होती है। इसीलिए हम दूसरों के साधनों से अपने साधनों की योग्यता प्रमाणित करना चाहते हैं। इस प्रक्रिया में हमारा मन घृणा, स्पर्धा, गर्व आदि अनेकता के बीजों को बुआई करता है । हम नहीं चाहते कि साधनों की अनेकता के आधार पर मानवीय एकता खण्डित हो, पर साधनों को असीम महत्त्व देते हए हम कैसे कह सकते हैं कि हम नहीं चाहते कि साधनों की अनेकता के आधार पर मानवीय एकता खण्डित हो। भौतिक साधनों के प्रति हमारा आकर्षण जितना अधिक होगा, उतनी ही अधिक मानवीय एकता खण्डित होगी। हम मानवीय एकता को बनाए रखना चाहते हैं और भौतिकता के आकर्षण को कम करना नहीं चाहते, फिर वह कैसे संभव होगी ? मानवीय एकता को खण्डित करने वाले प्रमखतः तीन श्रेणी के लोग होते हैं । एक वे जो शक्तिशाली होते हैं। दूसरे वे जिनका बद्धि-बल प्रखर Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० । तट दो : प्रवाह एक होता है । तीसरे वे जो प्रकृति के दुष्ट होते हैं। शक्तिशाली और बुद्धिसम्पन्न लोग जब अधिकार-लोलुप बन जाते हैं, प्रत्यक्ष या परोक्ष साम्राज्य जब प्रिय हो जाता है, तब मानवीय एकता का भंग होता है । दुष्ट-प्रकृति के लोग अपने पर संतुलन न रखने के कारण भेद का वातावरण उत्पन्न कर डालते हैं । इतिहास स्वयं साक्ष्य देता है कि जब-जब मानवीय एकता का भंग हुआ है, तब-तब ऐसे ही लोगों के द्वारा हुआ है। यदि हम चाहते हैं कि मानवीय एकता पुनः स्थापित हो, भौतिक उपकरण को लेकर मनुष्य मनुष्य का शत्रु न बने तो हमें मानव-निर्माण के प्रति विशेष ध्यान देना होगा। तात्कालिक उपचार यह हो सकता है कि एकता के प्रबल आन्दोलन द्वारा मनुष्य को मानवीय एकता की अनुभूति कराई जाए किन्तु इसका स्थायी समाधान यह है कि हम अपने प्रशिक्षणक्रम में (१) शक्ति-संगोपन, (२) बुद्धि-संयम और (३) भाव-पवित्रता की शिक्षा को अनिवार्यता दें। शक्ति-संगोपन की शिक्षा प्राप्त होतो बहमत अल्पमत के प्रति कभी आक्रमणकारी नहीं हो सकता और अल्पमत बहुमत के प्रति कभी उदंड नहीं हो सकता। शक्ति के संगोपन को उसकी उपलब्धि से अधिक महत्त्व है। बौद्धिक-संयम का अभ्यास हो तो किसी भी प्रकार का साम्राज्य स्थापित नहीं हो सकता और शोषण भी नहीं हो सकता । स्वभाव की पवित्रता प्राप्त हो जाए तो आए दिन होने वाले संघर्ष समाप्त हो जाएं। ____ राष्ट्रीय एकता की बात सोची जाती है पर हमारा विश्वास है कि मानवीय एकता को आधार माने बिना राष्ट्रीय एकता स्थितिशील नहीं बनती । मनुष्य के मूल्यांकन का हमारा दृष्टिकोण विशुद्ध नहीं हैं । हम मनुष्य को मनुष्य की दृष्टि से नहीं जानते-पहचानते । हम उसका अंकन जातीय, प्रांतीय, राष्ट्रीय, भाषायी आदि माध्यमों से करते हैं। इसलिए वह हमसे बहुत दूर रह जाता है। उसके माध्यम हमारे माध्यमों से भिन्न होते हैं इसलिए भेद मिट ही नहीं पाता। फिर भी जो राष्ट्रीय एकता का ज्वलंत प्रश्न है उस पर विचार करना चाहिए। वर्तमान में जो भेद वाली प्रवत्तियां बढ़ रही हैं, उनके प्रभावशाली हेतु हैं : १. प्रांतीयता, २. जातीयता, ३. भाषा, ४. राजनीतिक-दल ___ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकता की समस्या । २१ जातीयता किसी दिन समाप्त हो सकती है। तब सब लोग अपनेआपको भारतीय मानने में गौरव अनुभव करेंगे। जन्मना कोई बड़ाछोटा, स्पश्य-अस्पृश्य नहीं होता यानी जातिवाद समाप्त हो जाएगा। प्रांतों की व्यवस्था में भी सम्भव है परिवर्तन हो जाए। प्रांतों का विभाजन प्रशासन की सुविधा का साधन रहकर अलगाव का प्रमुख हेतु बनता है तो यह स्वयं एक दिन चिन्तनीय होगा किन्तु भाषा और राजनीतिक दल एकता के स्थायी शत्रु हैं। भाषा या राजनीतिक दल एक ही हो, यह कल्पना कुछ जटिल है। फिर भी ये दोनों जीवन को बहुत निकटता से प्रभावित करने वाले तत्त्व हैं। इसलिए इनके बारे में बहुत गहराई से सोचना चाहिए । भाषा का प्रश्न भी राजनीति से मिला नहीं है। परन्तु राजनीतिक व्यक्ति ही अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए भाषायी विवाद खड़ा करते हैं। जो लोग राष्ट्र-संचालन के लिए अधिक उत्तरदायी हैं, उनके द्वारा भी राष्ट्रीय एकता को प्रोत्साहन नहीं मिलता है, यह सचमुच आश्चर्य की बात है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमय की शक्ति हम जितना जीवन के बारे में जानते हैं, उतना मृत्यु के बारे में नहीं जानते । जीवन की शक्ति से हम जितने परिचित हैं, उतने ही हम मृत्यु की शक्ति से अपरिचित हैं। मृत्यु हमारी शत्रु नहीं किन्तु बहुत बड़ी मित्र है । हमारे मन में भय होता है तब हम उसे शत्रु मानते हैं। हमारा मन अभय होता है, तो वह हमारी मित्र बन जाती है। जो मृत्युंजय होता है, वह अकुतोभय होता है-उसे कहीं से भी भय नहीं होता। आज भारत के लिए अभय की आराधना का बहुत बड़ा प्रसंग उपस्थित है । वह सैनिक शिक्षा को अनिवार्य करके भी उतना शक्तिशाली नहीं बन सकता जितना मृत्यु को मित्र बनाकर बन सकता है । भय को भय से परास्त करने में मनुष्य को अधिक विश्वास है। इसीलिए शत्रु के प्रति शस्त्र का प्रयोग किया जाता है। शस्त्र भय का प्रतीक है। जिसका भय बहुत बड़ा होता है यानी जिसका शस्त्र बहुत शक्तिशाली होता है, वह उसे परास्त कर देता है जिसका भय छोटा होता है यानी जिसका शस्त्र कम शक्तिशाली होता है। भय से भय या शस्त्र से शस्त्र को परास्त करने की शक्ति प्राप्त होने पर कुछ समय के लिए प्रत्येक युद्ध को टाला जा सकता है, किन्तु उसके परिणाम को नहीं टाला जा सकता। शस्त्र-निष्ठा के साथ जो अशान्ति, शिथिलता और आतंक उपजता है, वह समूचे राष्ट्र की पवित्र चेतना को लील जाता है। मनुष्य के मन में भय होता है, इसलिए सहज उसमें शस्त्र-निष्ठा होती है। अवसर पाकर वह और प्रबल बन जाती है। चीन ने आक्रमण किया और भारत की शस्त्र-निष्ठा प्रबल हो गई। आज उसके सामने अहिंसा की चर्चा करना अपराध जैसा हो गया पर यह हमारे लिए बहुत ही चिन्तनीय है। हम थोड़ी-सी जटिल स्थिति आने पर इस प्रकार अहिंसा को विसर्जित कर दें तो उसका दूरगामी परिणाम अच्छा नहीं होगा। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभय की शक्ति । २३ आचार्यश्री तुलसी ने सशस्त्र-प्रतिरोध को अस्वाभाविक नहीं कहा तो बहुत लोगों ने उसे पसंद किया। आचार्यश्री ने जब अहिंसक-प्रतिरोध का विकल्प सुझाया तो बहुत लोग उससे सहमत नहीं हुए । इससे भारतीय आत्मा की नाड़ी-परीक्षा हो गई । आज भी अधिकांश भारतीय अहिंसा को कायरता मान बैठे हैं। वे सोचते हैं कि पराक्रमी लोग उसे नहीं अपना सकते। उनका यह चिन्तन कारण-शून्य भी नहीं है । हमारे यहां अहिंसा का जितना प्राणि-दया के रूप में विश्वास हुआ है, उतना प्रतिकारात्मक शक्ति के रूप में नहीं हुआ है। हम किसी को न मारें-यह अहिंसा का एक पक्ष है । इस करुणात्मक पक्ष से हम दूसरों पर अपने द्वारा होने वाले अन्याय से बच सकते हैं किन्तु कोई दूसरा हमारे पर अन्याय करे, उससे नहीं बच सकते । उससे बचने का उपाय है अहिंसा की प्रतिकारात्मक शक्ति का विकास । यदि यह हो तो कोई हमारे साथ अन्याय करने का दुस्साहस कर ही नहींसक ता। आचार्यश्री तुलसी अहिंसक प्रतिकार की बात कहकर जनता को कायर नहीं बनाना चाहते किन्तु उस कायरता से उबारना चाहते हैं जो शस्त्र-सज्जा होने पर भी मन के गह्वर में छिपी रहती है। आचार्यश्री ने यह नहीं सुझाया कि आपकी निष्ठा शस्त्र-बल में हो। मन में भय और कायरता छिपी हो उस स्थिति में आप अहिंसकप्रतिकार करें। शस्त्र, भय और कायरता का अहिंसा से कोई मेल ही नहीं है। आचार्यश्री कहते हैं कि केवल भारत ही नहीं समूचा संसार अहिंसकप्रतिकार का मार्ग अपनाए । पर अपनाए वही और उसी स्थिति में जब उसका पराक्रम आत्मा से प्रस्फुटित हो, मन का कोई एक भी कोना भय से भरा न हो और शस्त्र पर से आस्था उठ गई हो। वे चाहते हैं कि भारत ऐसा शक्तिशाली बने । मैं नहीं कहता कि उनकी कल्पना एक ही दिन, मास या वर्ष में सफल हो जाएगी किन्तु मैं मानता हूं कि कोई भी कल्पना एक दिन अवश्य सफल होती है। इसलिए उसकी सफलता में हमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए। प्रथम बार हम उसकी सफलता की परीक्षा करने का यत्न न करें किन्तु यही देखें कि वह अच्छी है या नहीं। मुझे लगता है कि वह कल्पना बहुत अच्छी है । युद्ध समस्या का स्थायी समाधान नहीं है । दास-प्रथा और Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ । तट दो : प्रवाह एक राजतंत्र-प्रथा के विरोध का आदिम इतिहास भी सन्देह की संकरी पगडण्डियों में से गुजरा है पर आज कोई दास नहीं है और राजे भी इतिहास की वस्तु बन गए हैं। अहिंसा के प्रति जन-मानस में जो सन्देह है, वह निर्हेतुक नहीं है। अहिंसा में निष्ठा न रखने वालों ने करुणात्मक पक्ष को जिस रूप में प्रस्तुत किया उस रूप में प्रतिकारात्मक पक्ष को नहीं। इसीलिए अहिंसक भी बहुत बार भीरुवत् व्यवहार करते दिखाई देते हैं । सही अर्थ में वे अहिंसक हैं भी कहां ? __ प्रतिकारात्मक शक्ति का विकास स्थिति के अस्वीकार पर निर्भर है। हिंसा का अर्थ है स्थिति का स्वीकार और अहिंसा का अर्थ है स्थिति का अस्वीकार । यह तभी हो सकता है जब हमारी निष्ठा अध्यात्म में हो यानी आत्मा की स्वतंत्र सत्ता को हम स्वीकार करें। जो स्थिति को स्वीकार करता है, वह आत्मा की स्वतंत्र सत्ता को अस्वीकार करता है और जो आत्मा की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करता है, वह स्थिति को अस्वीकार करता है । वह कैसा अहिंसक और कैसा अध्यात्मवादी जो स्थिति को मान्यता दे, यह समझ में आने वाली बात है; पर आत्मा की स्वतंत्र सत्ता में निष्ठा रखने वाला उसे मान्य करे, यह समझ से परे है। प्रतिकारात्मक शक्ति का अर्थ किसी की सत्ता या किसी के कर्म का प्रतिरोध करना नहीं है । उसका अर्थ है, स्वतंत्र कर्म-शक्ति का निर्माण । परिस्थिति से प्रभावित होकर हम जितना भी कर्म करते हैं, वह हमारा कर्म नहीं, किन्तु प्रतिकर्म होता है। हमारी अधिकांश प्रवृत्तियां क्रियात्मक नहीं किन्तु प्रतिक्रियात्मक ही होती हैं। हम बाह्य परिस्थिति से अप्रभावित रहकर कर्म करने लगें तो हममें प्रतिकारात्मक शक्ति का उदय स्वयं हो जाय। ___ अंधेरे में भूत को स्वीकार करने से डर लगता है। गाली को स्वीकार करने से क्रोध उभरता है। अपनी हीनता के स्वीकार से ही दूसरे के प्रति जलन पैदा होती है। यह दोष स्थिति में नहीं है, उसके स्वीकार में है। हम किसी दूसरे व्यक्ति के हस्तक्षेप को अपनी स्वतंत्र सत्ता में बाधा मानते हैं पर परिस्थिति के हस्तक्षेप को वैसा नहीं मानते । सचाई तो यह है कि वह Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभय की शक्ति । २५ हमारे कर्म में जितना हस्तक्षेप करती है, उतना कोई व्यक्ति कर ही नहीं सकता। चीन ने भारत पर आक्रमण किया, यह स्थिति का स्वीकार है। भारत यदि अपने स्वतंत्र कर्म में संलग्न होता, वर्तमान के प्रति नितांत जागरूक होता तो वह ऐसा कर ही नहीं पाता। भारत का सशस्त्र प्रत्याक्रमण भी स्थिति का स्वीकार है। यह कोई स्वतंत्र कर्म नहीं केवल प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया है। हम कहते हैं कि क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। पर वास्तव में हमें कहना चाहिए कि प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया होती है। स्थिति से दबे हुए जगत् में शुद्ध क्रिया होती कहां है ? मैं अपनी श्लाघा सुनकर फूलता हूं और अपनी निन्दा सुनकर म्लान होता हं, ये दोनों---फूलना और म्लान होना स्वतंत्र कर्म नहीं हैं, किन्तु प्रतिकर्म हैं। मैं ऐसा करके अपनी स्वतंत्र सत्ता का अनुभव नहीं करता किन्तु परिस्थिति का खिलौना बनता हूं। इस दशा में मैं अहिंसक का नाम रखकर भी अहिंसक नहीं हो सकता हूं। हम लोग स्थिति के स्वीकार की दुनिया में खड़े होकर सशस्त्र प्रतिकार की बात सुनते हैं तब हमें वह असंभव लगती है। अपनी पूर्ण स्वतंत्रता की आस्था के जगत् में खड़े होकर हम देखें तो दिखेगी कि सुरक्षा वस्तु में नहीं अपने में है, शक्ति वस्तु में नहीं अपने में है। वस्तु में हम ही अपनी शक्ति को आरोपित करते हैं और हम स्वयं को उसके सामने शक्तिहीन अनुभव करते हैं। अहिंसक प्रतिकार हमारी आस्था का प्रश्न है। हिंसा में निष्ठा है, वे शस्त्र-बल' को जगा रहे हैं। अहिंसा-निष्ठ व्यक्ति अभय को जगाएं। वह परमाणु बम से भी अधिक शक्तिशाली अस्त्र है। उसकी शक्ति की हम कोई कल्पना नहीं कर सकते। हमारे मन में भय होता है तभी हमारे पर कोई आक्रमण कर सकता है, शासन थोप सकता है और कुछ भी कर सकता है। हम अभय हो जाते हैं, हमें मृत्यु की असीम शक्ति प्राप्त हो जाती है, दुनिया की कोई भी शक्ति हमें आक्रान्त नहीं कर सकती। परशासित वही जाति होती है, जिसके पास अपना आस्था-बल नहीं होता। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व का प्रश्न यह हमारी दुनिया अनेक व्यक्तियों, जातियों, धर्मों, भाषाओं, राष्ट्रों और शासन-प्रणालियों का संगम है । मनुष्यों में अनेक प्रकार की आकां क्षाएं, संदेह, भय, परस्पर विरोधी हित भावनाएं हैं। विस्तार और प्रसारवादी शक्तियां सदा सक्रिय हैं । संघर्ष इन परिस्थितियों का अपरिहार्य परिणाम है। संघर्ष के स्फुलिंग तब तक उछलते रहेंगे जब तक अनेकता, भेद या विभाजन की रेखाएं होंगी । इस निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद शान्ति के प्रयत्न शिथिल नहीं होते किन्तु अधिक उद्दीप्त होते हैं । शान्ति के प्रयत्न संघर्ष के स्फुलिंगों को अस्तित्वहीन बनाने के लिए नहीं हैं किन्तु इसलिए हैं कि स्फुलिंग अग्नि के रूप में न बदल जाएं। शान्ति के प्रयत्न करते रहना मानवीय विवेक की अपरिहार्य मांग है । शान्ति का भाग्य उन कुछेक लोगों की छत्रछाया में पल रहा है, जो सत्ता पर आरूढ़ हैं । जनता के भाग्य में अशान्ति का परिणाम भुगतना बचा है पर शान्ति की डोर उसके हाथ से छूट चुकी है । एकाधिकार राजनीतिक प्रभुत्व के युग में जनता के प्रतिनिधि शान्ति की चर्चा करें, उसका क्या विशेष अर्थ है, मैं नहीं जानता । यह बहुत स्पष्ट है कि जनता शान्ति और अशान्ति के लिए आज प्रत्यक्ष उत्तरदायी नहीं है । मेरी दृष्टि में आज का मुख्य प्रश्न शान्ति या तनाव कम करने का नहीं है । आज का मुख्य प्रश्न यह है कि शान्ति और अशान्ति के लिए जनता प्रत्यक्ष उत्तरदायी कैसे हो ? यदि युद्ध और आक्रमण की लगाम जनता और सरकार दोनों के सामंजस्यपूर्ण हाथों में हो तो अन्तर्राष्ट्रीय तनाव में अकल्पित परिवर्तन आ जाए । जन-शक्ति हमेशा मानवता का समर्थन करती है । किन्तु राज्य - शक्ति Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व का प्रश्न । २७ का ध्यान हमेशा विस्तार और प्रसार की ओर केन्द्रित रहता है। उपनिवेशवाद इसी मनोवृत्ति की देन है। शस्त्रीकरण और उपनिवेश दोनों एक ही स्रोत से फूटे हुए दो प्रवाह हैं । आदि में दोनों एक हैं, मध्य में दोनों विभक्त हो जाते हैं और अन्त में दोनों फिर मिल जाते हैं। राज-शक्ति का अपना महत्त्व है। पर उसे जितना असीम महत्त्व दिया जा रहा है उतना ही दिया जाता रहा तो निःशस्त्रीकरण की समस्या कभी नहीं सुलझेगी। विश्व-राज्य या अन्तर्राष्ट्रीय सरकार की स्थापना उपनिवेश और शस्त्रीकरण की बढ़ती हुई होड़ के अंत का एक महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता है। विभाजन उपयोगिता के लिए होता है पर उसकी जितनी रेखाएं खींची जाती हैं, उतनी ही दूरी बढ़ जाती है। विश्व-शान्ति के लिए यह बहुत अपेक्षित है कि इन विभाजन-रेखाओं को जितना संभव हो सके, उतना कम करने का प्रयत्न किया जाए। यातायात के साधनों की अविकसित दशा में अनेक राष्ट्र, अनेक जातियां और शासन-प्रणालियां अपनी-अपनी परिधि में चलती थीं। आज के यातायात के विकसित साधनों ने दुनिया को बहत छोटा बना दिया है। उसकी दूरी सिमट गई है। परिधियां समाप्त हो गई हैं। इस नयी स्थिति में एक राष्ट्र, एक जाति और एक शासन-प्रणाली के सिद्धान्त का बहुत महत्त्व बढ़ गया है। इसका भविष्य बहुत उज्ज्वल दिखाई दे रहा है। इस कल्पना को मूर्त रूप देने में कम उलझनें नहीं हैं, किन्तु विभाजन की रेखाओं को मिटाए बिना उलझनों का अंत ही नहीं आ सकता तब उन-उन उलझनों को सुलझाने के सिवाय शान्ति के पक्ष में और चारा ही क्या है ? विश्व-राज्य का सिद्धान्त भी मेरी दृष्टि में राजनीतिक सिद्धान्त है। शान्ति का आध्यात्मिक सिद्धान्त सह-अस्तित्व का विचार है। अनेक धाराएं भी सह-अस्तित्व का विकास होने पर एक धारा की भांति व्यवहार कर सकती हैं। किन्तु यह चार आना राजनैतिक पक्ष है और बारह आना आध्यात्मिक पक्ष है। और गहराई में उतरें तो अनुभव होगा कि यह सोलह आना आध्यात्मिक पक्ष है। इस पक्ष की पुष्टि के लिए आध्यात्मिक सिद्धान्तों को विकसित और पुष्ट करना आवश्यक है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ । तट दो : प्रवाह एक : सत्य सह-अस्तित्व की सिद्धान्त-शृंखला इस प्रकार होगीशान्ति का आधार : व्यवस्था व्यवस्था का आधार : सह-अस्तित्व सह-अस्तित्व का आधार : समन्वय समन्वय का आधार सत्य का आधार अभय अभय का आधार : अहिंसा अहिंसा का आधार : अपरिग्रह अपरिग्रह का आधार : संयम जनता जो कुछ कर सकती है, वह यही कि विश्वभर के शान्तिवादी संगठनों का एकीकरण हो। वे एक भावना से विश्व-मानस को इन सिद्धान्तों से प्रभावित करें : १. निरपेक्ष या आग्रहपूर्ण नीति का परित्याग। २. सापेक्ष या तटस्थ नीति का स्वीकरण । ३. स्थिति का स्थायित्व की दृष्टि से मूल्यांकन । ४: स्थिति का परिवर्तन की दृष्टि से मूल्यांकन । ५. अनाक्रमण और उसका समर्थन । ६. आत्म-विश्वास और पारस्परिक सौहार्द्र का विकास । ७. मानवीय एकता की तीव्र अनुभूति । यह विश्व अखण्डता से किसी भी रूप में नहीं जुड़ा हुआ खण्ड और खण्ड से विहीन अखण्ड नहीं है। यह विश्व यदि अखण्ड ही होता, तो व्यवहार नहीं होता, उपयोगिता नहीं होती, प्रयोजन नहीं होता। अगर विश्व खण्डात्मक ही होता तो ऐक्य नहीं होता। अस्तित्व की दृष्टि से यह विश्व अखण्ड भी है, प्रयोजन की दृष्टि से यह विश्व खण्ड भी है। __ आज मनुष्य-जाति के सामने अस्तित्व का प्रश्न प्रबल है। उसे यह विश्व-राज्य या सह-अस्तित्व-इनमें से किसी एक सिद्धान्त के सहारे ही समाहित कर सकती है। यथार्थवादी और धार्मिक धारणा से सह-अस्तित्व का विकल्प अधिक संभव है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एशियामें जनतंत्र का भविष्य मनुष्य में वृत्तियों के दो वर्ग होते हैं। पहले वर्ग में तीन एषणाएं आती हैं और दूसरे वर्ग में तीन आकांक्षाएं । तीन एषणाएं : १. कामैषणा २. वित्तैषणा ३. सुत्तैषणा कामैषणा ' मनुष्य की मूल-वृत्ति है । वित्तैषणा उसकी पूरक है । सुत्तैषणा अपने को अमर रखने की मनोवृत्ति है । तीन आकांक्षाएं : १. जिजीविषा २. मुमुक्षा ३. वीप्सा : काम-वृत्ति : अर्थार्जन की वृत्ति : सन्तान की इच्छा : जीने की इच्छा : स्वतंत्र रहने की इच्छा : विस्तार की इच्छा मनुष्य की ये एषणाएं और आकांक्षाएं क्रियान्वित होती हैं । इनका क्रियान्वयन ही सामाजिक जीवन है। जहां सामाजिक जीवन है, वहां शासन है । विश्व के अंचल में अनेक शासन पद्धतियां थीं और हैं । जो वर्तमान है, उनमें जनतंत्र अधिक स्वस्थ प्रतीत होता है । इसमें व्यक्ति को आर्थिक, सामाजिक, वैचारिक और राजनीतिक सभी प्रकार की स्वतन्त्रता प्राप्त होती है । मेरी दृष्टि में जनतंत्र अहिंसा का राजनीतिक स्वरूप है । अहिंसा के तीन आधार हैं : १. अपरिग्रह, २. समानता, जनतंत्र के भी तीन आधार हैं : १. व्यक्तिगत परिग्रह का नियमन २. समानता ३. स्वतन्त्रता ३. स्वतन्त्रता । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० । तट दो : प्रवाह एक जिस व्यक्ति के मन में विषमता होती है, उसमें अहिंसा पनप नहीं सकती। जिस राष्ट्र में आर्थिक, जातीय और साम्प्रदायिक विषमता होती है, वहां जनतन्त्र नहीं पनप सकता। ऐशियायी राष्ट्र अभी जनतंत्र के प्रभात की स्थिति में हैं। अभी उनमें विषमता के तीनों प्रकार प्राप्त हैं । ऐशियायी राजनयिकों ने जनतंत्र का मार्ग पूर्व-मान्यता के रूप में चुना है। उसे वरदान के रूप में प्रमाणित करना अभी शेष है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जनतंत्र का विकल्प शासन-प्रणाली के इतिहास में सर्वाधिक सफल है। स्वतन्त्रता व्यक्ति की सर्वोत्तम निधि है। वह उसकी सुरक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने को भी तत्पर रहता है। शासन-क्षेत्र में स्वतन्त्रता अपहृत होती है किन्तु जनतन्त्र की प्रणाली स्वतन्त्रता-अपहरण के दोष से अपने को अधिक मुक्त रख सकी है। व्यक्ति शासन के अधीन होता है, उसके दो हेतु हैं : १. सुरक्षा का आश्वासन २. सहयोग का आश्वासन व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता देता है और उसके बदले में सुरक्षा एवं सहयोग प्राप्त करता है। किन्तु कोई भी व्यक्ति सुरक्षा और सहयोग की उपलब्धि के लिए अपनी स्वतन्त्रता से हाथ धोना नहीं चाहता। अधिनायकतावादी शासन-प्रणाली में तंत्र की सुव्यवस्था और सुस्थिरता होती है, फिर भी उसमें व्यक्ति को वह मूल्य प्राप्त नहीं होता, जो उसे चेतनावान् होने के नाते प्राप्त है। ___लोकतंत्रीय प्रणाली में व्यवस्था और स्थिरता का पक्ष कभी-कभी दुर्बल भी रहता है पर उसमें हर व्यक्ति को विकास का समान अवसर प्राप्त होता है। व्यक्ति समाज में विलीन होकर भी जहां अपनी वैयक्तिकता को सुरक्षित पाता है, वहां वह अधिक संतोष का अनुभव करता है। इस तोष की अनुभूति ने ही जनतन्त्र को विकासशील बनाया है। एशिया अभी तक वर्तमान युग की गति के साथ नहीं है। आर्थिक, राजनीतिक और वैज्ञानिक उपलब्धियों में अभी वह पश्चिमी राष्ट्रों से Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एशिया में जनतंत्र का भविष्य । ३१ पीछे है । किन्तु जनतन्त्र के लिए जिस मानवीय चेतना का विकास अपेक्षित है, वह एशिया में कम नहीं है । मानवीय स्वतंत्रता और समानता के संस्कार यहां चिर अतीत से पल्लवित होते रहे हैं। एशिया की आध्यात्मिक चेतना के साथ यदि किसी शासन-प्रणाली का समुचित योग हो सकता है तो वह लोकतंत्र ही है । जनतंत्र के विकास के लिए एशिया अत्यन्त उर्वर है । फिर भी सामयिक स्थितियों का विश्लेषण करते समय उसमें जनतंत्र के पल्लवन की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती । इस संदेह की पृष्ठभूमि में तीन तत्त्व छिपे हैं : १. प्रभुत्व - विस्तार की भावना २. गुटबन्दी ३. साम्प्रदायिक पक्षपात बड़े राष्ट्र हैं, आर्थिक, राजनीतिक और वैज्ञानिक उपलब्धियों से सम्पन्न हैं । वे अपने प्रभुत्व का विस्तार चाहते हैं । इस आकांक्षा के आधार पर दो गुट बन गए हैं : 1 १. साम्यवादी २. असाम्यवादी एशिया में दोनों प्रकार के राष्ट्र हैं और तीसरे प्रकार के भी हैंजो किसी गुट में नहीं हैं, तटस्थ हैं । हिन्दुस्तान दुनिया का सबसे बड़ा जनतन्त्र होने के साथ-साथ दुनिया का सबसे बड़ा तटस्थ राष्ट्र है । गुटों के बीच में शक्तिशाली तटस्थ राष्ट्रों का अस्तित्व सेतु का काम करता है । किन्तु राजनीति में सेतु की अपेक्षा अपने स्वार्थों की पूर्ति का महत्त्व कहीं अधिक है । अमरीका जनतंत्र की सुरक्षा या साम्यवाद के विस्तार को रोकने के लिए हर संभव प्रयत्न कर रहा है । क्या इस तथाकथित प्रचार में सचाई है ? पाकिस्तान अमरीकी गुट में है। सही अर्थ में वह जनतंत्री भी नहीं, साम्यवादी भी नहीं है । किन्तु अधिनायकतावादी है। उसने महान् लोकतंत्र को क्षत-विक्षत करने का शक्तिशाली प्रयत्न किया और उस अमरीका के शक्ति-संरक्षण में किया, जो जनतंत्र के विस्तार में सबसे अगुआ है । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ । तट दा प्रवाह एक यह विरोधाभास कितना आश्चर्यकारी है कि एक ओर जनतंत्र के विस्तार की अदम्य उत्कण्ठा और दूसरी ओर एक महान् जनतंत्र के विकासमान पौधे पर कुठाराघात ? इसी बिन्दु पर पहुंचकर हम राजनीति की आत्मा को देख पाते हैं कि उसका गठबन्धन सिद्धान्त के साथ उतना नहीं होता, जितना स्वार्थ पूर्ति के साथ होता है । कुछ राष्ट्रों का आदर्श साम्प्रदायिकता है तो कुछ राष्ट्रों का सम्प्रदाय - निरपेक्षता । एशिया में दोनों प्रकार के राष्ट्र हैं । हिन्दुस्तान सम्प्रदायनिरपेक्ष राष्ट्र है । पाकिस्तान का आधार साम्प्रदायिकता है । साम्प्रदायिक राष्ट्र साम्प्रदायिकता के आधार पर दूसरे राष्ट्रों से समर्थन पाते और देते हैं । स्वार्थ पूर्ति और साम्प्रदायिकता के आधार पर किया जाने वाला पक्षपात जनतंत्र के भविष्य के लिए सबसे बड़ा खतरा है । इस खतरे के परिणाम केवल एशिया के जनतंत्र देशों को ही नहीं, सारी दुनिया के जनतंत्र देशों को भुगतने होंगे । जनतंत्र का विकास और सुरक्षा दूसरे राष्ट्रों की स्वतंत्र चेतना को कुण्ठित करने के प्रयत्न से नहीं हो सकती । वह हो सकती है उनकी स्वतंत्र चेतना के उपभोग में सहयोग देने से । यदि इस तथ्य की ओर ध्यान नही दिया गया तो एशिया में ही नहीं, सारी दुनिया में जनतंत्र का भविष्य उज्ज्वल नहीं है । साम्प्रदायिक कट्टरता वैज्ञानिक उपलब्धियों के साथ अपने-आप मिटने वाली है । इससे जनतंत्र को दीर्घकालीन खतरा नहीं है । जिससे दीर्घकालीन खतरा है, वह है प्रभुत्व - विस्तार की भावना । यह परतंत्रता का सूत्र है, जो जनतंत्र के मूल आधार —- स्वतंत्रता पर प्रहार करता है । स्वतंत्रता और आर्थिक विकास की सम्भावना जनतंत्र में किसी अन्य प्रणाली से अधिक है, यह मान्यता पुष्ट होती जा रही है। इसलिए उक्त कठिनाइयों के उपरान्त भी जनतंत्र का भविष्य प्रकाशमय प्रतीत होता है जिस एशिया ने इस आध्यात्मिक मंत्र को पढ़ा है— आत्मा का शासन आत्मा के द्वारा, आत्मा के लिए वह महामनीषी लिंकन के उस वाक्य कं अनादृत नहीं करेगा-जनता का शासन, जनता के द्वारा, जनता के लिए Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकतन्त्र और नागरिक अनुशासन सारी इच्छाओं का केन्द्र मन है और मन की इच्छा का केन्द्र है स्वतन्त्रता। मन अपनी इच्छा से चलना चाहता है। वह अपने क्षेत्र में दूसरों का हस्तक्षेप नहीं चाहता। यह सार्वभौम स्वतन्त्रता मन का शाश्वत स्वभाव है। व्यक्ति यदि अकेला ही होता तो वह अपनी सार्वभौम स्वतन्त्रता का उपयोग कर पाता, किन्तु आज वह अकेला नहीं है। वह सामाजिक जीवन जी रहा है। इसलिए उसकी स्वतन्त्रता सीमित है। चाहे-अनचाहे उसमें दूसरों का हस्तक्षेप भी होता है। इसका अर्थ यह है कि सामाजिक जीवन स्वतन्त्रता और परतन्त्रता का मिश्रित रूप है। प्रजातन्त्र व्यक्ति को अपेक्षाकृत अधिक स्वतन्त्रता देता है। किन्तु आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना क्या सामाजिक या राजनीतिक स्वतन्त्रता फलित होती है ? गरीबी के कारण न जाने कितने लोग आज भी अनेक परतन्त्रताओं या विवशताओं से जकड़े हुए हैं। चिन्तन की स्वतन्त्रता के बिना भी ऐसा ही होता है। अशिक्षित लोग भी विवशता की पकड़ से मुक्त नहीं होते। मैं जिस भाषा में सोचता हूं उसमें जनतन्त्र का स्वरूप कुछ दूसरा है । वर्तमान स्वरूप से भिन्न और बहुत भिन्न। मैं निर्वाचन पद्धति को देखता हूं तो लगता है यह जनतन्त्र है और जब शासन प्रणाली को देखता हूं तो लगता है कि यह कठोर राजतन्त्र है।। जिस शासन में नियन्त्रणों का अधिक भार, शासन का अधिक दबाव और कानून का अधिक विस्तार हो, क्या वह जनतन्त्र हो सकता है ? सीमित नियन्त्रण, सीमित दबाव और सीमित कानून-इनका समन्वित रूप जनतन्त्र । असीम इच्छा, असीम प्रयत्न और असीम उच्छखलता-इनका समन्वित रूप मनुष्य का सामान्य स्वभाव । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ । तट दो : प्रवाह एक प्राकृतिक रूप में मनुष्य-स्वभाव और जनतन्त्र की पद्धति में मेल नहीं है, किन्तु उनका मेल बिठाया जाता है। मनुष्य कुछ स्वभाव से बदलता है और कुछ जनतन्त्र । नियन्त्रण काथोड़ा विस्तार और इच्छा का थोडासंकोच, दबाव का थोड़ा विस्तार और प्रयत्न का थोड़ा संकोच, कानून का थोड़ा विस्तार और उच्छृखलता का थोड़ा संकोच-यह जनतन्त्र का आकार बनता है। आज का जनतन्त्र इस आकार का नहीं है, इसलिए जनता और शासन दोनों ओर से अधिक दबाव आ रहा है। मैं नहीं कहता कि जनता का दबाव कम हो और सरकार का दबाव बढ़े, या सरकार का दबाव कम हो और जनता का दबाव बढ़े। ये दोनों विकल्प जनतन्त्र के लिए स्वस्थ नहीं हैं । उसकी स्वस्थता इसमें है कि दोनों ओर का दबाव घटे । जनतन्त्र में निरंकुश शासक और निरंकुश जनता दोनों खतरनाक होते हैं। इस खतरनाक स्थिति के लक्षण हाल की घटनाओं में प्रकट हो रहे हैं। दूकानों की लूट, अग्निकाण्ड, शस्त्रों का प्रयोग, पथराव और गोलियों की बौछार—ये अनुशासित नागरिकों के चरण-चिह्न नहीं हैं । सरकारी निर्णय के विरुद्ध वैधानिक उपाय काम में लिए जाते हैं, यह अनुचित नहीं, किन्तु अराजकतापूर्ण स्थिति का निर्माण उचित भी नहीं है। इससे जनतन्त्रीय प्रणाली को आघात पहुंचता है और एकाधिनायकता को बल मिलता है। सरकारी निर्णय सभी पक्षों को प्रिय लगें यह सम्भव नहीं । अप्रिय निर्णय का विरोध न हो यह भी जनतन्त्र में असम्भव है। सम्भव यह है कि विरोध की पद्धति वैधानिक एवं शालीन हो । जनता को अनुशासन-विहीन बनाने में शायद किसी भी दल का हित नहीं है। आज एक दल को जनता की उत्तेजनापूर्ण और अनुशासन-विहीन प्रवृत्तियों का सामना करना पड़ रहा है, कल किसी दूसरे-तीसरे दल को भी करना पड़ सकता है। जनतन्त्र का भविष्य इस प्रश्न पर निर्भर नहीं है कि शासन किस दल का है ? उसका भविष्य इस तथ्य पर सुरक्षित है कि उसकी जनता अनुशासित है और हर परिस्थिति का अनुशासित ढंग से सामना कर सकती है। शासक लोग भी आग्रह से मुक्त होकर जनता की स्थिति को जानना न चाहें, वस्तुस्थिति के साथ आंख-मिचौनी करें तो निश्चित रूप से अ-लोकतन्त्रीय प्रवत्तियों को प्रोत्साहन मिलता है । यत्र-तत्र विधान Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकतन्त्र और नागरिक अनुशासन । ३५ सभा की घटनाएं भी अनुशासन के प्रति अनुराग उत्पन्न करने में सफल नहीं हुई हैं। फिर केवल जनता से अनुशासन और समय की आशा कैसी की जाए ? सामंजस्य, समन्वय और सह-अस्तित्व की बात केवल अन्तराष्ट्रीय क्षेत्र में ही अपेक्षित नहीं है। पहले उनकी अपेक्षा राष्ट्र में हैविभिन्न राजनैतिक दलों में है। विशेषतः सार्वजनिक महत्त्व की समस्याओं के समाधान के समय है। लोकतन्त्र अ-लोकतन्त्रीय उपायों से कभी सक्षम नहीं बनता । उसे सक्षम बनाने का प्रत्यक्ष दायित्व जनता पर है, प्रत्यक्षतर विधायकों पर और प्रत्यक्षतम शासकों पर । दायित्व के आधार पर यह स्वतः प्राप्त होता है—जनता अनुशासित हो, विधायक अनुशासिततर और शासक अनुशासिततम । भारतीय जनता का बहुत बड़ा भाग अशिक्षित है। यह कहना कठिन है कि जो अशिक्षित हैं वे अनुशासित नहीं हैं और जो शिक्षित हैं वे अनुशासित हैं । हमारे विद्यालयों में लोकतन्त्र के शिक्षण की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है, इसलिए जनता से विशिष्ट अनुशासन की आशा ही कैसे की जा सकती है? वर्तमान वातावरण में जो परिणाम सामने आ रहे हैं, उनसे भिन्न परिणामों की आशा नहीं की जा सकती। ___ इन घटनाओं की पुनरावृत्तियों से हमें न आश्चर्यचकित होने की ज़रूरत है और न खिन्न होने की, किन्तु एक पाठ लेने की ज़रूरत है। वह है लोकतन्त्रीय शिक्षण की समुचित व्यवस्था । मैं इसमें अधिक सफलता देखता हूं कि हमारा ध्यान वर्तमान की घटनाओं पर ही न अटके किन्तु जिन कारणों से वे घटित हो रही हैं, वहां तक पहुंचे और उनके निवारण में लगे। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्ध और अहिंसा भारत आहसा का मूल स्रोत है। वह उसकी प्रतिष्ठा चाहता है । भारतीय धार्मिकों एवं दार्शनिकों ने ही नहीं किन्तु वर्तमान राजनयिकों ने भी अहिंसा की प्रतिष्ठा का प्राणपण से प्रयत्न किया है । प्रधानमन्त्री श्री नेहरू ने विश्वशान्ति के लिए प्रभावपूर्ण ढंग से अहिंसा का अवलम्बन लिया था। शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व, सहिष्णुता, अनाक्रमण, समझौता वार्ता द्वारा विवादों का निपटारा और निःशस्त्रीकरण-सब राजनीति के आकाश में एक दिन पंचशील नक्षत्र की भांति चमक उठा। लगा कि विश्वशान्ति में उसका महत्त्वपूर्ण योग होगा। चीन और भारत जैसे दो महान देशों के प्रमुखों ने विश्व के सम्मुख उसका यह रूप प्रस्तुत किया १. एक-दूसरे की प्रादेशिक या भौगोलिक अखण्डता एवं सार्वभौमिकता का सम्मान । २. आक्रमण न करना। ३. आर्थिक, राजनैतिक अथवा सैद्धान्तिक—किन्हीं भी कारणों से एक दूसरे के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप न करना। ४. समानता एवं परस्पर लाभ । ५. शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व । बांडुग सम्मेलन में पंचशील में पांच और सिद्धान्तों का समावेश कर वह २६ राष्ट्र द्वारा स्वीकृत किया गया। १. मूल मानव अधिकारों और संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्यों, प्रयोजन और सिद्धान्तों के प्रति आदर।। २. सभी राष्ट्र की प्रभुसत्ता और प्रादेशिक अखण्डता के लिए सम्मान ३. छोटे-बड़े सभी राष्ट्र और जातियों की समानता की मान्यता । ४. अन्य देशों के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप न करना। ५. संयुक्त राष्ट्र उद्देश्य-पत्र के अनुसार अकेले अथवा सामूहिक रूप से Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्ध और अहिंसा । ३७ आत्मरक्षा के प्रत्येक राष्ट्र के अधिकार के प्रति आदर । ६. किसी भी बड़ी शक्ति के स्वार्थ की पूर्ति के लिए सामूहिक सुरक्षा के आयोजनों के उपयोग से अलग रहना, एक देश का दूसरे देश पर दबाव न डालना। ७. ऐसे कार्यों, आक्रमण अथवा बल-प्रयोग की धमकियों से अलग रहना जो किसी देश की प्रादेशिक अथवा राजनैतिक स्वाधीनता के विरुद्ध हों। ८. सभी आन्तरिक झगड़ों का शान्तिपूर्ण उपायों से निपटारा करना । ६. पारस्परिक हित एवं उपयोग को प्रोत्साहन देना । १०. न्याय और अन्तर्राष्ट्रीय दायित्वों के लिए सम्मान । १३ जून, १९५५ को नेहरू-बुलगानिन के संयुक्त वक्तव्य पर हस्ताक्षर होने के साथ पंचशील का क्षेत्र सैकड़ों गुना बढ़ गया। इस वक्तव्य में पंचशील का तीसरा सिद्धान्त और भी व्यापक रूप में स्वीकार किया गया। तीसरे सिद्धान्त का जो नया रूप बना, वह इस प्रकार था-किसी भी राजनीतिक, आर्थिक अथवा सैद्धान्तिक कारण से एक-दूसरे के मामलों में हस्तक्षेप न करना। भारत ने अपने शान्ति-प्रयत्न और भी तीव्र कर दिये थे । उसके शासक संभवतः इस तथ्य को भुला चुके थे जहां भौतिकता होती है, वहां स्वत्व होता है और जहां स्वत्व होता है, वहां सुरक्षा भी आवश्यक होती है और इस तथ्य को भी विस्मृत कर चुके थे कि कूटनीति की छाया में पलने वालों का अंतस्तल कभी भी अपने को बाह्य जगत् में प्रकट नहीं करता। भारत में चीन का आक्रमण होने पर ही उनको इस सत्य का साक्षात् हुआ कि भारत-जैसे शान्तिप्रिय और शान्तिरत देश पर भी कोई आक्रमण कर सकता है और वह भी एक प्राचीन मित्र। ' वर्तमान युद्ध का अतीत यह है और वर्तमान सामने है । युद्ध का समय सबके लिए बड़ा विकट होता है। उसके समर्थन और असमर्थन का प्रश्न ज्वलन्त हो जाता है। इस समय सिद्धान्तवादी लोग लगभग तीन विचारश्रेणियों में बंटे हुए हैं : १. आक्रमण में विश्वास रखने वाले हिंसावादी। ___ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ । तट दो : प्रवाह एक २. प्रत्याक्रमण में विश्वास रखने वाले मध्यममार्गी । ३. अनाक्रमण में विश्वास रखने वाले अहिंसावादी। अन्तर्राष्ट्रीय साम्यवाद में विश्वास रखने वाले हिंसावादी लोग जैसे अपने देश के प्रति कोई विशेष अनुराग नहीं रखते, वैसे ही प्राणी-मात्र के प्रति सद्भावना में विश्वास रखने वाले अहिंसावादी भी किसी देश विशेष के प्रति अनुराग नहीं रखते, किन्तु दोनों एक श्रेणी के नहीं होते। हिंसावादी के सामने शत्रु और मित्र का विभाग होता है। अहिंसावादी के सामने वह विभाग नहीं होता। वह किसी को शत्रु नहीं मानता । ___ आचार्यश्री तुलसी अहिंसावादी हैं। अहिंसा की सक्रिय आराधना में वे प्राणपण से संलग्न हैं। उनकी आत्मा युद्ध का क्या, किसी छोटे-से-छोटे विग्रह का भी सर्मथन नहीं कर सकती। वे आक्रमण को घोर हिंसा मानते हैं। प्रत्याक्रमण उनकी दृष्टि में अहिंसा नहीं है, किन्तु आक्रमण और प्रत्याक्रमण भी एक कोटि की हिंसा है, यह भी उनका अभिमत नहीं है। आक्रमण घोर और अनर्थकारी हिंसा है। इसलिए उसके समर्थन का प्रश्न ही नहीं आता । प्रत्याक्रमण भी अहिंसा नहीं है, इसलिए उसका समर्थन भी एक अहिंसावादी कैसे कर सकता है ? किन्तु जैसे आक्रमण का तिरस्कार या विरोध किया जा सकता है, वैसे प्रत्याक्रमण का तिरस्कार या विरोध नहीं किया जा सकता। कुछ अहिंसावादी लोग जिनका हिंसा और अहिंसा-सम्बन्धी चिन्तन बहुत स्पष्ट नहीं है इस पर आश्चर्यचकित हैं कि आचार्यश्री तुलसी ने युद्ध का विरोध नहीं किया। उनका मानना है कि भारत अहिंसा और निःशस्त्रीकरण की बातें और युद्ध टालने का प्रयत्न करता रहा है। आज जब उस पर संकट आया तो वह तत्काल शस्त्रीकरण करने तथा युद्ध करने में संलग्न हो गया। जब कोई संकट न आए तब अहिंसा की बात और जब संकट आए तब युद्ध, यह कैसी अहिंसा? यही तो कसौटी का समय है । इसी समय उसे अहिंसा के द्वारा हिंसा को परास्त कर विश्व के सम्मुख एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए था। यह चिन्तन अहिंसावादी के लिए सर्वथा अर्थशून्य है, यह तो नहीं कहा जा सकता किन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता है कि यह सर्वथा भ्रान्तिशून्य है और यह भ्रान्ति इसलिए उत्पन्न हुई है Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्ध और अहिंसा । ३६ कि उनकी मान्यता के अनुसार अहिंसा के द्वारा सब कुछ निष्पन्न हो सकता है । आचार्यश्री तुलसी अहिंसा की मर्यादा और उसके निश्चित परिणाम में विश्वास करते हैं । जैसा कि उन्होंने लिखा है - मैं अध्यात्म और अहिंसा के प्रति पूर्ण आस्थावान हूं, फिर भी उनसे ( राष्ट्र और समाज की ) सारी समस्याओं का समाधान होता है -- इसे मैं भ्रम मानता हूं । भौतिक उपकरणों पर स्वत्व का विसर्जन करें तो हमारी सारी समस्याएं अध्यात्म तथा अहिंसा से सुलझ सकती हैं । किन्तु उन पर स्वत्व स्थापित रखना चाहें और शस्त्र -सज्जा से विमुख भी रहना चाहें तथा ( जब ) अहिंसा से सब भौतिक उपकरणों की सुरक्षा न हो तब उसे असफल भी बताएं - यह दुहरा - तिहरा भ्रम है । हमें हिंसा और अहिंसा की मर्यादा और उनके परिणामों को समझ कर ही चलना चाहिए । भारत एक राष्ट्र है । वह भूमि, अर्थ, पदार्थ, सत्ता और अधिकार का संगठित संस्थान है । उसके शासक, जो अहिंसा की बात करते थे, वे इस अर्थ में करते थे और आज भी करते हैं कि कोई किसी पर आक्रमण न करे और आक्रमण के लिए शस्त्र - सज्जा न बढ़ाए । कोई भी राष्ट्र जो स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपना अस्तित्व बनाए रखना चाहता है, प्रत्याक्रमण की मर्यादा से अपने को मुक्त नहीं रख सकता। हां, प्रत्याक्रमण की मर्यादा से राष्ट्र को तब मुक्त रखा जा सकता है, जब उसका शासक- - वर्ग और जनता यह मान ले कि इस राष्ट्र पर हमारा कोई स्वत्व नहीं है, जो चाहे वह आए और इसे अपने स्वत्व में ले, यह भावना हो तो प्रत्याक्रमण की कोई भी आवश्यकता नहीं रहती । भौतिक पदार्थों का स्वत्व भी रखना चाहे और उनका संरक्षण अहिंसा के द्वारा करना चाहे - यह दुहरी भूल है । उनका संरक्षण स्वयं हिंसा है और फिर वह अहिंसा का परिणाम कैसे हो सकता है ? अहिंसा के द्वारा उसी वस्तु की रक्षा हो सकती है, जो उसके परिणाम - काल में भी अहिंसा हो । भौतिक पदार्थ, सत्ता और अधिकार ये सब स्वयं हिंसा हैं, तब अहिंसा उनका संरक्षण कर पाए, वह कैसे हो सकता है ? उक्त विचारधारा के कुछ लोग कहते हैं—अहिंसा अणुव्रत अहिंसा का विभाजन है । आचार्य श्री तुलसी की दृष्टि में अणुव्रत अहिंसा की विभक्ति Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० । तट दो : प्रवाह एक नहीं किन्तु पहुंच का तारतम्य है। कोई भी व्यक्ति एक ही डग में चोटी तक नहीं पहुंच सकता । वह धीमे-धीमे आगे बढ़ता है। भगवान् महावीर, ने अहिंसा की पहुंच के कुछ स्तर निर्धारित किए थे। वे वस्तु-स्थिति पर आधारित हैं। उन्होंने हिंसा को तीन भागों में विभक्त किया : १. संकल्पजा २. विरोधजा ३. आरम्भजा संकल्पजा हिंसा आक्रमणात्मक हिंसा है। वह सबके लिए सर्वथा परिहार्य है। विरोधजा हिंसा प्रत्याक्रमण हिंसा है। उसे छोड़ने में वह असमर्थ होता है, जो भौतिक संस्थानों पर अपना अस्तित्व रखना चाहता है। आरम्भजा हिंसा आजीविकात्मक हिंसा है। उसे छोड़ने में वे सब असमर्थ होते हैं, जो भौतिक साधनों के अर्जन-संरक्षण द्वारा अपना जीवन चलाना चाहते हैं। आज चीन संकल्पजा हिंसा या आक्रमणात्मक हिंसा की स्थिति में है और हिन्दुस्तान प्रत्याक्रमण की स्थिति में है। इस स्थिति में भारतीय शासक यह निर्णय कैसे ले सकते हैं कि वे चीनी सैनिकों का सशस्त्र प्रतिरोध न करें। यदि वे ऐसा निर्णय लें तो वे शासक रह ही नहीं सकते । यह निर्णय तो भारत की पैतालीस करोड़ जनता ही ले सकती है कि चीनी जिस गति से आ रहे हैं, उन्हें आने दिया जाए । उनका सशस्त्र प्रतिरोध न किया जाय। यह निर्णय वह तभी ले सकती है, जब भौतिक सत्तासे अपना स्वत्व हटा ले । यदि ऐसा न चाहे, भौतिक सत्ता को बनाए रखना चाहे और उसका संरक्षण चाहे अहिंसा से, यह असम्भव नहीं तो तभी सम्भव है जब सब लोग और सब राष्ट्र आक्रमण को अमानवीय कार्य मानने लग जाएं। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा की सफलता या विफलता १. शक्ति का उत्तर शक्ति, यह अहिंसा की पराजय नहीं, किन्तु उसके प्रति उत्पन्न भ्रम का निरसन है। अहिंसा का स्वरूप और मर्यादा को नहीं समझने के कारण अनेक लोग अहिंसा और अशक्ति या अहिंसा और कायरता को पर्यायवाची मानने लगे । अहिंसा को समर्थन देने वाले राष्ट्र ने शक्ति का उत्तर शक्ति से दिया तो उन लोगों का भ्रम निरस्त हो गया कि अहिंसा और अशक्ति या अहिंसा और कायरता पर्यायवाची नहीं हैं। कोई भी सरकार, भले फिर वह भारत की हो या दुनिया के किसी अन्य राज्य की, अहिंसा को अपनी नीति का आधार मान सकती है, किन्तु उसे नियामक तत्त्व नहीं मान सकती। अहिंसा को नियामक तत्त्व मानने वाली संस्था अपरिग्रही होगी, इसलिए वह राज्य पर नियंत्रण बनाए नहीं रख सकती। कोई संस्था परिग्रही है और हिंसा में प्रवृत्त नहीं है, यह उतना ही असंभव है, जितना यह है कि कोई व्यक्ति जीवनधारी है पर श्वास लेने की क्रिया से मुक्त है।। परिग्रह और हिंसा एक सिक्के के दो पहलू हैं। राष्ट्र परिग्रह है। उसकी रक्षा अहिंसा से होगी, यह भ्रम है। अहिंसा अपरिग्रह की रक्षा हो सकती है, परिग्रह की नहीं। इस' सिद्धान्त के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि शक्ति का उत्तर, शक्ति की नीति अहिंसा की पराजय नहीं, किन्तु उसके प्रति उत्पन्न भ्रम का निरसन है। २. जीवन-रक्षा परिग्रह से सम्बद्ध है। अहिंसा से उसी गुण के रक्षण की आशा की जा सकती है, जिसका सम्बन्ध परिग्रह से नहीं है । ___ ३. शक्ति का गठबंधन केवल हिंसा से नहीं है । वह अहिंसा में भी होता है। अल्प हिंसा की शक्ति बड़ी हिंसा की शक्ति से परास्त होती है । इस Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ । तट दोः प्रवाह एक लिए हिंसा के क्षेत्र में कहा जाता है, शक्ति का सफल प्रतिकार शक्ति ही अल्प अहिंसा की शक्ति बड़ी अहिंसा की शक्ति से परास्त नहीं, इसलिए अहिंसा के क्षेत्र में नहीं कहा जा सकता कि शक्ति का सफल प्रतिकार शक्ति ही है। अहिंसा की शक्ति से हिंसा की शक्ति परास्त नहीं होती, किन्तु परिवर्तित हो जाती है। अहिंसा में मारक शक्ति नहीं है। उससे हिंसक का हृदय प्रभावित हो सकता है, परिवर्तित हो सकता है, अहिंसक बन सकता है पर उसका प्रभावित-परिवर्तित होना अनिवार्य नहीं है। ४. अन्तिम प्रश्न प्रथम प्रश्न से भिन्न नहीं है, उसी का पूरक है। अहिंसा का स्वरूप है मैत्री का अनन्त प्रवाह। उसका जगत् सीमाओं या विभाजन-रेखाओं से मुक्त होता है। राष्ट्र एक भौगोलिक सीमा है । इसलिए अहिंसा के सामने इस या उसकी सुरक्षा का प्रश्न ही नहीं होता। उसके सामने सबकी सुरक्षा का प्रश्न होता है। ___अहिंसा की मर्यादा है सबकी सुरक्षा-प्राणी-मात्र की सुरक्षा । एक की सुरक्षा और दूसरे की अ-सुरक्षा यह अहिंसा की मर्यादा का भंग है। अहिंसा की मर्यादा है आत्मिक सुरक्षा । भौतिक सुरक्षा उससे हो सकती है—यह कहने की अपेक्षा यह कहना अधिक सरल है कि उससे नहीं हो सकती। __ शस्त्र-शक्ति से आत्मिक सुरक्षा नहीं हो सकती तब हम कैसे आशा करें कि अहिंसा की शक्ति से भौतिक सुरक्षा हो सकती है। ५. अहिंसा का अस्त्र आणविक अस्त्र से भी अधिक शक्तिशाली है। किन्तु उसका प्रयोग शक्तिशाली व्यक्ति ही कर सकता है। हर व्यक्ति से उसके प्रयोग की आशा करना कठिन है। शस्त्र-शक्ति का प्रयोग एक कायर आदमी के लिए संभव नहीं, वैसे ही अहिंसा की शक्ति का प्रयोग उस शूरवीर के लिए भी संभव नहीं, जिसके मन में परिग्रह और जीवन का मोह है तथा जिसका मन घृणा से भरा है। __अहिंसा की शक्ति का सामान्य प्रयोग हर आदमी कर सकता है पर उसके असाधारण प्रयोग की अपेक्षा उन व्यक्तियों से ही की जा सकती है, जिनका प्रेमघृणा पर विजय पा चुका, जिनकी दृष्टि में मनुष्य केवल मनुष्य Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा की सफलता या विफलता। ४३ है—जातीय, साम्प्रदायिक आदि बंधनों से मुक्त । अहिंसा की शक्ति के भिन्न स्तर नहीं हैं। किन्तु उसकी प्रयोग-शक्ति के अनेक स्तर हैं । हर स्तर से समान आशा कैसे की जा सकती है ! ___ अहिंसा के प्रयोग की पद्धति भी हर व्यक्ति को ज्ञात नहीं होती। प्रयोग की पद्धति और क्षमता यदि प्राप्त हो तो अहिंसा के सामने हिंसा की शक्ति सफल नहीं हो सकती। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह-अस्तित्व किसी युग में सारे मनुष्य 'आस्तिक और नास्तिक इन दो धाराओं में बंटे हुए थे । वर्तमान में सब लोग सह-अस्तित्व और असह-अस्तित्व की धारा में बंटे हुए हैं । अधिकांश देश सह-अस्तित्व, निःशस्त्रीकरण और समझौता-नीति में विश्वास करते हैं तथा युद्ध से घृणा करते हैं । कुछ देश असह-अस्तित्व और विवाद बढ़ाने में विश्वास करते हैं तथा युद्ध को अनिवार्य मानते हैं । जितने भी विग्रह, कलह या युद्ध होते हैं, वे सब निरपेक्षता से होते हैं। सामाजिक जीवन का मूल आधार सापेक्षता है । भौगोलिक सीमाओं से विभक्त होने पर भी सब मनुष्य एक ही समाज के अविभक्त अंग हैं । शरीर के अंगों की संस्थान - रचना और कार्य-प्रणाली जैसे भिन्न होती है, वैसे ही समाज के अंग-भूत मनुष्यों की संस्थान - रचना और कार्य - प्रणाली भिन्न होती है । भेद को ही सामने रखकर यदि एक अंग दूसरे से निरपेक्ष होता है, उसकी उपेक्षा करता है, तो अंगी स्वस्थ नहीं रहता । एक की क्षति का फल भोग समूचे अंगी को, दूसरी भाषा में सभी अंगों को करना पड़ता है । आज कोई एक देश दूसरे देश पर आक्रमण करता है, उससे निरपेक्ष व्यवहार करता है या उसकी उपेक्षा करता है तो उसकी प्रतिक्रिया एक छोर से दूसरे छोर तक होती है । वह प्रश्न अन्तर्राष्ट्रीय प्रश्न बन जाता है । अन्तर्राष्ट्रीयता का अर्थ ही सह-अस्तित्व है । उसका आधार है भेद और अभेद का समन्वय । विश्व में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है, जो सर्वथा भिन्न हो या सर्वथा अभिन्न ही हो । भिन्नता और अभिन्नता की समन्विति ही पदार्थ का अस्तित्व है और वही वास्तविक सचाई है । असह-अस्तित्व का सिद्धान्त इसे झुठलाने का प्रयत्न है । पर वह सफल नहीं हो सकता । मनुष्य के अस्तित्व का आधार सह-अस्तित्व ही हो सकता है । असहअस्तित्व का सिद्धान्त एक मानसिक उन्माद है । एक दिन हिटलर इससे Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह-अस्तित्व । ४५ ग्रस्त हुआ और दूसरा महायुद्ध छिड़ गया। __ असह-अस्तित्व में विश्वास करने का अर्थ है, शस्त्रीकरण तथा युद्ध में विश्वास और समझौता-नीति और सापेक्षता में अविश्वास। मनुष्य यदि यांत्रिक होता तो वह एक ही प्रकार से सोचता और एक ही प्रकार से काम करता । परन्तु वह यांत्रिक नहीं है। वह अपनी पूर्ण चैतन्य-सत्ता का उपभोक्ता है। इसीलिए वह अपने-आप में पूर्ण स्वतंत्र है। वह एक ही प्रकार से नहीं सोचता और एक ही प्रकार से नहीं करता। वह उसकी सहज प्रवृत्ति है। किन्तु मनुष्य ने मनुष्य-जाति की इस सहज प्रवृत्ति को ही कलह या युद्ध का हेतु बना रखा है। सापेक्षता में अविश्वास करने वाले इस बात को भुला देते हैंमनुष्य यांत्रिक नहीं है । वह अपनी पूर्ण चैतन्य-सत्ता का उपभोक्ता है।' इस विस्मृति का परिणाम ही असह-अस्तित्व है। जिनको सह-अस्तित्व में विश्वास नहीं है, उन्हें मानवता में विश्वास नहीं है । उनका विश्वास मनुष्य को यांत्रिक बनाने में ही है। किन्तु यह मनुष्य-जाति के प्रति बहुत जघन्य अपराध है। सह-अस्तित्व का अर्थ है--मनुष्य के सोचने, करने तथा अपने ढंग से चलने की स्वतन्त्रता में विश्वास । 'या मैं या तुम' यह विनाश का मार्ग है। विकास का मार्ग यह है कि 'मैं भी रहं और तुम भी रहो' । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव का तर्कातीत अस्तित्व 'अनेकान्त' (अगस्त, १९६५) में 'जीव का अस्तित्व जिज्ञासा और समाधान' शीर्षक मेरा लेख प्रकाशित हुआ। उसके विषय में दो प्रकार की प्रतिक्रियाएं मुझे प्राप्त हुई हैं। प्रथम प्रकार की प्रतिक्रिया यह है"दर्शनशास्त्र के स्थलों को पढ़कर मुझे जीव के अस्तित्व में आस्था नहीं हुई, ऐसी अभिव्यक्ति क्या एक जैन मुनि के लिए उपयुक्त हो सकती है ?" ___मैं पाठक की मेधा को क्या दोष दं? यह मेरी संक्षिप्त-शैली का ही दोष है कि मैं अपना हार्द पाठक के मन तक नहीं पहुंचा सका। मैं समझता हूं जो मैंने लिखा है, उसे विस्तार से लिखूगा तो साधारण पाठक भी मुझसे असहमत नहीं होगा। जैन तत्त्व-विद्या के अनुसार जीव अरूपी सत्ता है। उत्तराध्ययन (१४१६) में लिखा है--वह अमूर्त होने के कारण इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं है. “नो इंदिय गेज्झ अमुत्त भावा।। आचारांग (५।६) में कहा है-जीव का वास्तविक स्वरूप शब्दातीत है। उत्प्रेक्षणीय भी नहीं है। अर्थात् तर्क का विषय भी नहीं है। तर्क सम्भवतः पदार्थ-विशेष के अस्तित्व का निर्णय करता है, वह वहां नहीं है, इसलिए वह तर्कातीत है । वह तर्कातीत इसलिए भी है कि मति (मन के व्यापार) से उसका ग्रहण नहीं होता। 'सव्वे सरा नियति, तक्का जत्थ न विज्जइ, मई तत्थ न गाहिया ।' आगम का उद्घोष यह है कि जीव इन्द्रिय, तर्क और मति से प्राप्त नहीं है, तब उनके द्वारा जीव के प्रति आस्था या अनास्था हो सकती है, यह कैसे माना जाए ? दर्शनशास्त्र हो या दूसरे शास्त्र, वे सब दिशासूचक होते हैं। वे सिद्धान्त या मान्यता प्रस्तुत करते हैं। जिस व्यक्ति के संस्कार में सिद्धान्त पैठता है, उसे वह मान्य हो जाता है; जिसके संस्कार में नहीं पैठता, उसे Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव का तर्कातीत अस्तित्व । ४७ वह मान्य नहीं होता। यही है संस्कारगत सत्य । इसी आधार पर भिन्नभिन्न विचारधाराएं बनती हैं। दर्शनशास्त्र के जीव-समर्थक तर्कों को पढ़कर आस्तिक संस्कार वाला एक व्यक्ति जीव को मानता है, नास्तिक संस्कार वाला नहीं मानता । कभी-कभी उसके निमित्त से संस्कार-परिवर्तन भी हो जाता है। किन्तु यह सारा संस्कार-परिवर्तन या संस्कारगत सिद्धान्त के स्वीकार या अस्वीकार का प्रश्न है। वास्तविक आस्था का प्रश्न ध्यान की विशिष्ट अवस्था से जुड़ा हुआ है। आत्मा का साक्षात्कार उसी व्यक्ति को होता है, जो ध्यान का विशिष्ट अभ्यास करता है । इसीलिए मेरा यह विश्वास है कि जीव ध्यानगम्य है, तर्कगम्य नहीं है। ___दर्शनशास्त्र ने जीव के विषय में जो तर्क प्रस्तुत किए हैं, उनका मेरे मन पर क्या प्रभाव पड़ा, यह मैंने अपने हृदय की सचाई के साथ प्रकट किया है और मैं समझता हूं कि यह तर्क अनात्मवादी के समक्ष बड़ा कठोर तर्क है। अनात्मवादी कोरी मान्यता के आधार पर तर्क प्रस्तुत करता है। उसके पास अतीन्द्रिय की सत्ता के विषय में हां या ना कहने की कोई संभावना ही नहीं है । आत्मवादी के पास संभावना है और वह है प्रत्यक्ष ज्ञान । इसी संभावना के बल पर आत्मवादी ध्यान का आलम्बन ले तर्क की तमिस्रा के उस पार पहुंच जाता है। द्धितीय प्रकार की प्रतिक्रिया बालचन्दजी नाहटा की है, जो एक लेख के रूप में मेरे सामने है । वे मेरी सूत्रात्मक शैली से सुपरिचित हैं। फिर भी उन्होंने मेरे निम्न तर्कसूत्र की संजय वेलट्ठि के संशयवाद से तुलना की है। मेरा तर्कसूत्र यह है-"चेतन तत्त्व के विषय में मैंने दर्शनशास्त्र के जितने स्थल पढ़े, उनसे न तो मेरी यह आस्था बनी कि जीव है और न यह आस्था बनी कि जीव नहीं है। जो जीव का अस्तित्व स्वीकार रहा है, वह भी संस्कारगत सत्य है और जो उनका अस्तित्व नहीं स्वीकार रहा है, वह भी संस्कारगत सत्य है। वास्तविक सत्य वह होगा कि जब हम मानेंगे नहीं कि जीव है या नहीं है, किन्तु यह जान लेंगे कि वह है या नहीं है।” इसका विस्तार किया जाए तो इसका रूप यह होगा-मान्यता और वास्तविकता दो हैं। मान्यता अपनी-अपनी होती है, इसलिए वह संख्या में 'अनेक' हो सकती है। वास्तविकता अपनी-अपनी नहीं होती, वह सबके Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ । तट दो : प्रवाह एक लिए एक होती है । वास्तविकता तक उन लोगों की पहुंच होती है, जिनका ज्ञान अतीन्द्रिय ( इन्द्रियातीत ) होता है । हमारा ज्ञान एन्द्रियिक है इसलिए हमारा जगत् मान्यता का जगत् है । हमारे संस्कार आत्मवादी धारा के हैं, इसलिए हम मानते हैं कि जीव है । जिनके संस्कार अनात्मवादी धारा के होते हैं, वे मानते हैं कि जीव नहीं है । वास्तव में जीव है या नहीं है— इस वास्तविकता तक पहुंचने के साधन न उनके पास हैं जो संस्कारवश जीववादी हैं और न उनके पास हैं जो संस्कारवश अनात्मवादी हैं । हम वास्तविकता तक तब पहुंच पाते हैं, जब हमारा ज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष हो जाता है और हमारे संस्कार आत्मानुभूति के आलोक में विलीन हो जाते हैं । संस्कार जब विलीन हो जाते हैं, तब हमारी मान्यताएं समाप्त हो जाती हैं और हमारी आस्था में प्रत्यक्ष ज्ञान का उदय होता है। मान्यता की दृष्टि से एक आदमी कहता है, जीव है और दूसरा कहता है, जीव नहीं है । इन दोनों मान्यताओं को दर्शनशास्त्र का विषय न मानना अर्थात् शब्दातीत या तर्कातीत मानना संशयवाद या अनिश्चितवाद नहीं है । संशय की परिभाषा है—उभय कोटि संस्पर्शीज्ञान या दो अनिश्चित विकल्पों का स्वीकार, जैसे वह सामने खम्भा है या आदमी ? किन्तु दो निश्चित विकल्पों का दो अपेक्षाओं से होने वाला प्रतिपादन संशय नहीं हो सकता । संजय वेलट्ठि के संशयवाद का आकार इस तर्कसूत्र से भिन्न है । उसका आकार इस प्रकार होगा - " मैं नहीं कह सकता कि जीव है या नहीं है ।" यह संशयवाद है । यह एक व्यक्ति के दो अनिश्चित विकल्प हैं । मेरे तर्कसूत्र में दो व्यक्तियों के दो निश्चित विकल्प हैं । इसमें वास्तविक सत्य के लिए स्थान सुरक्षित नहीं है । मैंने जो तर्कसूत्र प्रस्तुत किया है, उसमें संस्कारगत सत्य माध्यमिक कसौटी और वास्तविक सत्य अन्तिम कसौटी है । इसलिए वह संशयवाद नहीं, किन्तु अन्तिम सत्य की मान्यता का सिद्धान्त है । इसकी तुलना सर्वज्ञता के तर्क सूत्र से होती है । असर्वज्ञवादी जब तर्क प्रस्तुत किया है कि सर्वज्ञ नहीं है तब सर्वज्ञवादी ने प्रतितर्क Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन का तर्कातीत अस्तित्व । ४६ प्रस्तुत किया कि सर्वज्ञ नहीं है, यह तुम्हारा तर्क वास्तविक सत्य नहीं है। जो व्यक्ति सर्व-देश और सर्व-काल की सर्व-घटनाओं को जानता है, वही कह सकता है कि सर्वज्ञ नहीं है। तुम नहीं जानते, इसलिए तुम कैसे कहते हो कि कोई सर्वज्ञ नहीं है। ___ असर्वज्ञवादी का प्रतितर्क होता है तो तुम किस आधार पर कहते हो कि सर्वज्ञ है ? क्या तुम्हें अतीन्द्रिय ज्ञान है, जिससे सर्व-देश और सर्व-काल की सर्व-घटनाओं को जानकर तुम कह सको कि सर्वज्ञ है। सर्वज्ञवादी का उत्तर इस भाषा में होता है कि वास्तविक सत्य, प्रत्यक्ष ज्ञान या अतीन्द्रिय ज्ञान से देखकर मैं भी नहीं कह रहा हूं कि सर्वज्ञ है और तुम भी नहीं कह रहे हो कि सर्वज्ञ नहीं है। संस्कार की दृष्टि से या युक्ति से मैं कहता हूं सर्वज्ञ है और तुम कहते हो सर्वज्ञ नहीं है। ___इन दोनों के तर्क और प्रतितर्क को पढ़कर संस्कार उद्बुद्ध हो सकते. हैं किन्तु यह आत्मानुभूति नहीं हो सकती कि सर्वज्ञ है या नहीं है । वह तो अपनी साधना से ही हो सकती है। उसका अपना स्व वहीं है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव का अस्तित्व : जिज्ञासा और समाधान बालचन्दजी नाहटा को मैं लम्बी अवधि से जानता हं। पूनर्भवी आत्मा में उन्हें विश्वास नहीं है। फिर भी इस विषय की खोज में वे अपना समय लगाते हैं। आचार्यश्री तुलसी वि० २०२० का चातुर्मास जब लाडनूं में बिता रहे थे, तब वे वहां आए। उन्होंने मुझे 'अनेकान्त' (जून, १९४२) का एक पत्र दिया और कहा कि इस प्रश्नावली पर आप अपना अभिमत लिखें। मैंने उसे पढ़ा और कहा कि अभी मैं उत्तराध्ययन के सम्पादन-कार्य में बहुत व्यस्त हूं, इसलिए इस पत्र को अपने पास रख लेता हूं। समय पर लिख सकूँगा। लगभग डेढ़ वर्ष के बाद उस पर मैं अपना अभिमत लिख प्रस्तुत प्रश्नावली जुगलकिशोरजी मुख्तार की है। वे स्वतः तत्त्वविद् व्यक्ति हैं । उनके मन में कुछ प्रश्न उठे हैं जिन्हें उन्होंने जिज्ञासु भाव से प्रस्तुत किए हैं। तेईस वर्ष पुरानी प्रश्नावली पर लिखू, यह लगता कैसा ही है पर एक व्यक्ति ने चाहा, तब मेरा कर्तव्य हो गया कि उस पर कुछ लिखू । इस प्रश्नावली में दस प्रश्न हैं और वे परस्पर सम्बद्ध हैं । इसलिए मैं अविभक्त रूप से उनकी समीक्षा करना चाहूंगा। प्रश्नावली १. चैतन्य गुण विशिष्ट सूक्ष्मातिसूक्ष्म अखण्ड पुद्गल पिण्ड (काय) को यदि 'जीव' कहा जाय तो इसमें क्या हानि है—युक्ति से कौन-सी बाधा आती है ? २. जीव यदि पौद्गलिक नहीं है तो उसमें सौक्ष्म्य-स्थौल्य अथवा संकोच-विस्तार, क्रिया और प्रदेश परिस्पन्द कैसे बन सकता है ? ३. जीव के अपौद्गलिक होने पर आत्मा में पदार्थों का प्रतिबिम्बित होना--दर्पण तलवत् झलकना-भी कैसे बन सकता है ? क्योंकि प्रतिबिम्ब का ग्राहक पुद्गल ही होता है उसी में प्रतिबिम्ब-ग्रहण की अथवा ___ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव का अस्तित्व : जिज्ञासा और समाधान । ५१ छाया को अपने में अंकित करने की योग्यता पायी जाती है। ४. तत्त्वार्थ सूत्रादि में सौक्षम्य-स्थौल्य को पुद्गल का पर्याय माना गया है और जीव में संकोच-विस्तार होने से सौक्ष्म्य-स्थौल्य स्पष्ट है, तथा 'आत्मप्रवाद' पूर्व में जीव का नाम 'पुद्गल' भी दिया है; जैसा कि उक्त पूर्व का वर्णन करते हुए 'धवला' सिद्धान्त टीका के प्रथम खण्ड में 'उक्तं च' रूप से जो दो गाथाएं दी हैं, उनके निम्न अंश से तथा वहीं 'पोग्गल' शब्द के प्राकृत में ही दिए हुए निम्न अर्थ से प्रकट होता है : जीवो कत्ताय वत्ताय पाणी भोत्ताय पोग्गलो। छव्विह संठाणं बहु विह देहेहि पूरदिगलदित्ति पोग्गलो।। श्वेताम्बरों के भगवती सूत्र में भी जीव को पुद्गल नाम दिया है, कोशों में भी 'देहे चात्मनि पुद्गल:' रूप से पुद्गल का आत्मा अर्थ भी दिया है। बौद्धों के यहां तो आमतौर पर पुद्गल नाम का प्रयोग पाया जाता है। तब जीवों को पौद्गलिक क्यों न माना जाय ? ५. जीव को 'परंज्योति' तथा 'ज्योतिस्वरूप' कहा गया है और ध्यान द्वारा उसका अनुभव भी 'प्रकाशमय' बतलाया गया है-अन्तःकरण के द्वारा वह प्रत्यक्ष भी होता है। सब बातें भी उसके पौद्गलिक होने को सुचित करती हैं-उद्योत और प्रकाश पुद्गल का ही गुण माना गया है। ऐसी हालत में भी जीव को पौद्गलिक क्यों न माना जाय ? .. ६. अमूर्ति का लक्षण पंचाध्यायी के 'मूर्त स्यादिन्द्रिय ग्राह्यं तद्ग्राह्यममूर्तिमत्' (२-७), इस वाक्य के अनुसार यदि यही माना जाय कि जो इन्द्रियगोचर न हो वह अमूर्तिक, तो जीव के पौद्गलिक होते हुए भी उसके अमूर्तिक होने में कोई बाधा नहीं आती। असंख्य पुद्गलों के प्रचयरूप होकर भी काणिवर्गणा जैसे इन्द्रियगोचर नहीं है और इसलिए अमूर्तिक है, ऐसा कहा जा सकता है। इसमें क्या बाधा आती है ? यदि निराकार ही होना अमूर्तिक का लक्षण हो तो उसे खरविषाणवत् अवस्तु क्यों न समझा जाय ? ७. पुद्गल के यदि दो भेद किए जाएं--एक चैतन्य-गुण-विशिष्ट और दूसरा चैतन्य-गुण-रहित, चैतन्य-णगु-विशिष्ट पुद्गलों को केवल 'वर्णवन्तः'—वह भी 'चक्षुरगोचरवर्णवन्तः' माना जाय और दूसरों को स्पर्श रस Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ । तट दो : प्रवाह एक गन्धवर्णवन्तः' माना जाय और उन्हीं में रूपादि की रसादि के साथ व्याप्ति स्वीकार की जाय तो इसमें क्या हानि है ? ऐसा होने पर प्रथम भेदरूप जीवों को तत्त्वार्थ-सार के कथनानुसार (८-३२) 'ऊर्ध्व गौरव धर्माणः' और द्वितीय भेदरूप पुद्गलों को 'अधो गौरव धर्माणः' कहना भी तब निरापद हो सकता है। अन्यथा, अपौद्गलिक में गौरव का होना नहीं बनता। गुरुता-लघुता यह पुद्गल का ही परिणाम है। ८. यदि पुद्गल मात्र को स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण इन चार गुणों वाला माना जाय-उसी को मूर्तिक कहा जाय और जीव में वर्ण गुण भी न मानकर उसे अमूर्तिक स्वीकार किया जाय तो ऐसे अपौद गलिक और 'अमूर्तिक जीवात्मा का पौद्गलिक तथा मूर्तिक कमों के साथ बद्ध होकर विकारी होना कैसे बन सकता है ? इस प्रकार के बन्ध का कोई भी दृष्टान्त उपलब्ध नहीं है। और इसलिए ऐसा कथन (अनुमान) अनिदर्शन होने से (आप्तपरीक्षा की 'ज्ञानशक्त्यैव निःशेषकार्योत्पत्तौ प्रभुः किल । सदेश्वर इति ख्याते नमानमानदर्शनम्' इस आपत्ति के अनसार) अग्राह्य ठहरता है-सुवर्ण और पाषाण के अनादि बन्ध का जो दृष्टान्त दिया जाता है वह विषम दृष्टान्त है और एक प्रकार से सुवर्ण-स्थानी जीव के पौद्गलिक होने को ही सूचित करता है। यदि ऐसा कहा जाय तो इस पर क्या आपत्ति खड़ी होती है ? ___६. स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण में से कोई भी गुण जिसमें हो उसे मूर्तिक मानने पर (स्पर्शो रसश्च गन्धश्च वर्णो मी मूर्तिसंज्ञकाः' आदि पंचाध्यायी २-६) और जीव को वर्ण-गणे-विशिष्ट स्वीकार करने पर (जिसका कुछ अभ्यास 'शक्लध्यान' शब्द के प्रयोग से भी मिलता है) जीव भी मर्तिक ठहरता है और तब मूर्तिक जीव का मूर्तिक कर्मों के साथ बद्ध होकर विकारी होने में कोई बाधा नहीं आती। वह सजातीय-विजातीय-पुद्गलों का ही बन्ध ठहरता है, यदि ऐसा कहा जाय तो वह क्योंकर आपत्ति के योग्य हो सकता १०. रागादिक को 'पौद्गलिक' बतलाया गया है (अन्ये तु रागाद्या: हेयाः पौद्गलिका अमी, पंचा० २-४५७) और रागादिक जीव के. अशुद्ध परिणाम हैं-बिना जीव के उनका अस्तित्व नहीं। यदि जीव पौद्गलिक Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव का अस्तित्व : जिज्ञासा और समाधान । ५३ नहीं तो रागादिक पौद्गलिक कैसे सिद्ध हो सकेंगे ? रागादिक का अस्तित्व क्या जीव से अलग सिद्ध किया जा सकता है ? इसके सिवाय अपौद्गलिक जीवात्मा में कृष्ण नीलादि लेश्याएं भी कैसे बन सकती हैं ? । चैतन्य-गुण-विशिष्ट सूक्ष्मातिसूक्ष्म अखण्ड पुद्गल पिण्ड (काय)को जीव मानने पर निष्पन्न क्या होगा ? कुछ पुद्गल चैतन्य-गुण-विशिष्ट हैं और और कुछ पुद्गल चैतन्य-गुण-रहित हैं—यह श्रेणी-विभाग वैसे ही रहा, जैसे माना जाता है कि जीव चैतन्य-गुण-विशिष्ट है और पुद्गल चैतन्य-गुणरहित हैं। सब पुगाल चैतन्य-गुण-विशिष्ट होते तो स्थिति में अन्तर आता। कुछ पुद्गलों को चैतन्य-गुण-विशिष्ट भानने से नामान्तर मात्र हुआ, अर्थान्तर कुछ भी नहीं। समीक्षा मूल प्रश्न यह है कि चेतन और अचेतन के बीच एक भेद-रेखा अवश्य है। और वह वर्तनाशिक सत्य है । अतीत और भविष्य का सत्य क्या है ? १.. क्या चेतन अचेतन से चेतन के रूप में विकसित हुआ है या सदा चेतन ही रहा है ? २. क्या चेतन कभी अचेतन के रूप में परिवर्तित हो जाएगा या सदा चेतन ही रहेगा ?, ३. क्या पहले चेतन ही था और अचेतन उससे सृष्ट हुआ? ४. क्या पहले अचेतन ही था और चेतन उससे सष्ट हुआ? ५. क्या चेतन और अचेतन दोनों स्वतंत्र थे ?. अद्वैतवादं के अनुसार चेतन से अचेतन अस्तित्व में आया है.। चार्वाक और कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार अचेतन से चेतन अस्तित्व में आया है। जैन तत्त्व-विद्या के अनुसार दोनों का अस्तित्व स्वतंत्र है। तीनों मत हमारे लिए प्रत्यक्ष नहीं हैं, इसीलिए इनके सम्बन्ध में सत्य क्या है, नहीं बता सकते। मैं अपनी बात कहं-चेतन तत्त्व के विषय में मैंने दर्शनशास्त्र के जितने स्थल पढ़े उनले न तो मेरी यह आस्था बनी कि जीव है और न यह आस्था बनी कि जीव नहीं है। जो जीव का अस्तित्व स्वीकार कर रहा है, वह भी संस्कारगत सत्य है और जो उनका अस्तित्व नहीं स्वीकार रहा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ । तट दो : प्रवाह एक है, वह भी संस्कारगत सत्य है। वास्तविक सत्य वह होगा कि जब हम मानेंगे नहीं कि जीव है या नहीं है किन्तु यह जान लेंगे कि वह है या नहीं है। ___ यदि आप कहें कि वास्तविक सत्य है, इसे क्या हम जानते हैं ? नहीं जानते हुए भी जब हम मानते हैं कि वह है तो फिर इसी को वास्तविक सत्य क्यों न मान लें कि जीव है या नहीं है ? जो मेरे लिए रहस्य है, उसे मैं मान रहा हूं। जान तो नहीं रहा हूं। यदि मैं उसे जान रहा होता तो वह मेरे लिए रहस्य ही नहीं होता। आज हम सबके सामने अतीत और भविष्य तथा बहुलांश में वर्तमान भी इतना अपूर्ण है कि उनके विषय में हम अपनी मान्यताएं ही स्थापित कर सकते हैं। तो मेरी मान्यता यह है कि हमारा वर्तमान व्यक्तित्व न सर्वथा पौदगलिक ही है और न सर्वथा अपौदानिक ही है । यदि उसे सर्वथा पौद्गलिक मानें तो उसमें चैतन्य नहीं हो सकता और यदि उसे सर्वथा अपौदालिक मानें तो उसमें संकोच-विस्तार, (देखें प्रश्नांक ४), प्रकाशमय अनुभव (देखें प्रश्नांक ५), ऊर्ध्व गौरव धर्मता (देखें प्रश्नांक ७), राग आदि (देखें प्रश्नांक १०) नहीं हो सकते। मैं जहां तक समझ सका हूं कोई भी शरीरधारी जीव अपौद्गलिक नहीं है। जिन-आचार्यों ने उनमें संकोच-विस्तार, बन्धन आदि माने हैं। अपौद्गलिकता उसकी अन्तिम परिणति है, जो शरीर-मुक्त से पहले कभी प्राप्त नहीं होती। और वह हमारी परीक्षानुभूति का विषय नहीं है। जहां तक हमारी प्रत्याक्षानुभूति का प्रश्न है, जीव का भूत और भविष्य दोनों अज्ञात हैं। वर्तमान जो ज्ञात है, उसे प्रश्नकर्ता चैतन्य-गुण-विशिष्ट पुदगल कहना चाहते हैं और मैं पद्गल-युक्त चैतन्य कहना चाहता हूं। पुद्गल और चैतन्य ये दोनों दोनों में हैं। प्रश्नकर्ता को चैतन्य को गौण और पुद्गुल' को मुख्य स्थान देना इष्ट है । इस रेखा पर पहुंचते ही हमारी दूरी केवल गौणता और मुख्यता तक सीमित हो जाती है। जिस चैतन्य की प्रक्रिया से ही शरीर दूसरे पुद्गलों का ग्रहण, स्वीकरण (आत्मसात्करण) और विसर्जन करता है और अपनी हर प्रवृत्ति में जिसकी अधीनता स्वीकार करता है, क्या उसे गौण स्थान दिया जा सकता है ? ___ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि मनुष्य क्रूर नहीं होता मनुष्य सीमा में बँधा हुआ जन्म लेता है । असीम बनने का प्रयत्न उसका सिद्धान्त पक्ष है। मनुष्य व्यक्ति के रूप में आता है, सामुदायिक बनता है जीवन की उपयोगिता के लिए। जीवन में कुछ ऐसे तत्त्व हैं, जो प्रसरणशील नहीं हैं। उनकी सीमा में मनुष्य की वैयक्तिकता सुरक्षित रहती है। कुछ तत्त्व प्रसरणशील होते हैं, वे उसे सामुदायिक बनाते हैं। समाज की भाषा में वैयक्तिकता अच्छी नहीं है, तो कोरी सामुदायिकता भी अच्छी नहीं है। ___दोनों की अपनी-अपनी सीमाएं हैं। व्यक्ति को सामुदायिकता के उस बिन्दु पर नहीं पहंचना चाहिए, जहां उसकी स्वतन्त्र सत्ता ही न रहे। उसे वैयक्तिकता की वह रेखा भी निर्मित नहीं करनी चाहिए, जो स्वार्थ के लिए औरों के अस्तित्व को अपने में विलीन कर दे । स्वस्थ विचार वही है, जो दोनों की मर्यादा का व्यवस्थापन करे। वैयक्तिकता का नाश सत्तात्मक अधिनायकवाद से होता है। सत्ता को उत्तेजन देता है व्यक्ति का स्वार्थ—सामुदायिक सीमा का अतिक्रमण । __मनुष्य में अपनी सुख-सुविधा के लिए एक विशेष प्रकार का रागात्मक मनोभाव होता है। वही उसे दूसरों के प्रति क्रूर बनाता है। यदि स्व के प्रति अनुराग न हो तो पर के प्रति क्रूर होने का कोई कारण ही न रहे । शत्रुता इसीलिए उत्पन्न होती है कि मनुष्य अपने हितों को दूसरों के हितों के विनाश की सीमा तक ले जाता है। यदि वह अपनी सीमा में रहे, तो सब एक-दूसरे के मित्र ही मिलें। मैत्री में जो आनन्द, शान्ति और अभय है, वह शत्रुता में नहीं है । शत्रु-भाव की सृष्टि सहज है, किन्तु उसके परिणामों से बचना सहज नहीं है। विश्व के रंगमंच पर अनेक रक्तक्रान्तियाँ हुईं। कुछेक व्यक्ति क्रू र बने । उन्होंने दूसरों के स्वार्थों पर Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ । तट दो : प्रवाह एक आघात किया। क्रूरता ने ऋ रता को जन्म दिया। बहुत क्रूर बने और थोड़ों की क्रूरता को नहीं, किन्तु स्वयं को ही मिटा डाला। यह रक्तक्रान्ति का इतिहास है। व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के अपहरण या अधिनायकवाद का आधार व्यक्ति का स्वार्थ-विस्तार और उससे उत्पन्न करता है। मनुष्य अप्रमाणिक बनता है, खाद्य-वस्तुओं में मिश्रण करता है, शोषण करता है, दूसरों के हितों की उपेक्षा करता है, स्वल्पतम लाभ देकर अति लाभ लेता है, दोष जन्म नहीं लेते, यदि मनुष्य क्रूर नहीं होता। बहुत लोग ऐसे हैं, जो दूसरों को सहन नहीं कर सकते। वे अपनी मान्यता, अपने चिंतन और अपनी कार्य-पद्धति को सर्वोपरि महत्त्व देते हैं। अपने से भिन्न मत को सुनते ही उबल उठते हैं। पारिवारिक कलह इसलिए होता है कि एक-दूसरे की स्वतन्त्र रुचि या भूल को सहन नहीं करते । जातीय-कलह की उत्पत्ति का भी यही कारण है। दूसरा उचित परामर्श देता है उसे सुनने की भी क्षमता नहीं होती। दूसरों के शिक्षा-वचनों को सुनने की वृत्ति नहीं-जैसी होती है। बहुधा उत्तर होता है-मैं तुमसे अधिक जानता हूं। बहुत छोटी बात को लेकर लड़ लेते हैं, गालियां देते हैं, तिरस्कार करते हैं, सम्मानयोग्य व्यक्तियों का सम्मान नहीं किया जाता । सामुदायिक शक्ति के उपयोग से वंचित रहते हैं, दल-बन्दी का प्रसार होता है, एक-दूसरे को गिराने का यत्न करते हैं, अपनी बात रखने की धुन में तथ्यों की तोड़-मरोड़ की जाती है-ये दोष जन्म नहीं लेते, यदि मनुष्य असहिष्णु नहीं होता। क्रूरता और असहिष्णुता-ये दोनों असामाजिक तत्त्व हैं। समाज में रहने पर भी जो क्रूर है, असहिष्णु है, वह सामाजिक प्राणी नहीं है । मनुष्यों का समाज ईंटों-पत्थरों का ढेर नहीं है । वह अनुभूतिशील, चेतनावान् प्राणियों का समुदाय है। उन सबमें प्रिय-अप्रिय का मनोभाव, सुख-दुःख का संवेदन, अनुकूल-प्रतिकूल स्थिति का प्रभाव, क्रिया की प्रतिक्रिया आदि-आदि तत्त्व हैं। जो मनुष्य अपनी प्रिय, सुखद और अनुकूल परिस्थिति बनाने के लिए दूसरों के लिए अप्रिय, दुःखद और प्रतिकूल परिस्थिति का निर्माण करता है, उसे क्या सामाजिक प्राणी कहा जा सकता है ? मनुष्य-मनुष्य में बुद्धि-बल और क्रियात्मक शक्ति का तारतम्य है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि मनुष्य क्रूर नहीं होता। ५७ एक बुद्धिमान् आदमी कम बुद्धि वाले लोगों को ठगता है, एक शक्तिशाली व्यक्ति दुर्बल व्यक्तियों को अभिभूत करता है, क्रियात्मक शक्ति का दुरुपयोग कर दूसरों को बेकार करता है ये दोष जन्म नहीं लेते, यदि मनुष्य सामाजिक होता। धर्म का स्वरूप समता है। जिसमें समभाव नहीं है, राग-द्वेष या प्रियअप्रिय में तटस्थ दृष्टिकोण नहीं है, वह धार्मिक नहीं है। सब आत्मा समान हैं--यह धार्मिक मान्यता की रीढ़ है। दैहिक भेद वास्तविक नहीं है। जातीय, क्षेत्रीय, प्रान्तीय, राष्ट्रीय और भाषागत भेद कृत्रिम है, यह जानकर भी मनुष्य अपनी जाति का गर्व और दूसरी जाति का तिरस्कार करता है। क्षेत्रवाद, प्रान्तवाद, राष्ट्रवाद और भाषावाद के आधार पर मनुष्य मनुष्य में विरोध का बीज बोता है, मनुष्य की वास्तविक एकता को काल्पनिक सिद्धान्तों के आधार पर छिन्न-भिन्न करता है, मनुष्य मनुष्य का शत्रु बनता है ये दोष जन्म नहीं लेते, यदि मनुष्य धार्मिक होता। क्रूरता और असहिष्णुता अमैत्री के मूल हैं । सामाजिक जीवन में मैत्री की अपेक्षा है। धार्मिकता मैत्री का उद्गम-स्थल है। मैत्री के लिए उसकी चर्चा ही पर्याप्त नहीं है । आवश्यकता यह है कि क्रूरता और असहिष्णुता पर विजय पाने का यत्न किया जाए। उससे जीवन में धार्मिकता विकसित होगी और सामाजिक जीवन में जो मैत्री की अपेक्षा है, वह अपने-आप पूर्ण होगी। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन के नये मूल्य आज हिन्दुस्तान संक्रमणकाल में गुजर रहा है, उसके पुराने मूल्य बदल रहे हैं और नये मूल्य अभी स्थिर नहीं हुए हैं। इसीलिए वह अनेक नयी कठिनाइयों का सामना करने को विवश है। पुराने लोग धर्म को सर्वाधिक मूल्य देते थे। आज के बुद्धिवादी युवक की दृष्टि में उसका कोई मूल्य नहीं है। धर्म को सर्वाधिक मूल्य इसलिए दिया जाता था कि उससे मोक्ष मिलता है, मनुष्य सारे बन्धनों से मुक्त होता है । स्वतन्त्रता का मूल्य आज भी सर्वोपरि है। किन्तु उसका सम्बन्ध केवल राष्ट्र से है-भौगोलिक सीमा से है । मनुष्य की इन्द्रियों, मन और चेतना की स्वतन्त्रता से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। धर्म का सिद्धान्त पारलौकिक होते हुए भी इहलौकिक था। उससे वर्तमान जीवन भी पूर्णरूपेण अनुशासित होता था । आत्मानुशासन और संयम का अविरल प्रवाह जहां होता है, वहां दायित्वों, कर्तव्यों और मर्यादाओं के प्रति जागरूकता सहज ही हो जाती है। राष्ट्रीय स्वतन्त्रता का सिद्धान्त सर्वथा इहलौकिक है। वर्तमान जीवन को अनुशासित करने के लिए इसे सर्वोपरि माध्यम माना गया है। किन्तु भारतीय युवक में जितनी धर्म-चेतना विलुप्त हुई है, उतनी राष्ट्रीय चेतना जागृत नहीं हुई है। इसीलिए उसमें आत्मानुशासन और संयम का अपेक्षाकृत अभाव है और इसीलिए वह दायित्वों, कर्तव्यों और मर्यादाओं के प्रति कम जागरूक है। भारत का प्राचीन साहित्य विनय की गुण-गाथा से भरा पड़ा है । अविनीत विद्यार्थी विद्या का अपात्र समझा जाता था। अविनीत पुत्र पिता का उत्तराधिकार नहीं पा सकता था । अविनीत आदमी समाज में अनादृत होता था। इसीलिए विनय को बहुत मूल्य दिया जाता था । वह व्यक्ति और समाज दोनों को एक शृंखला में पिरोए हुए था । आज का अध्यापक विद्यार्थी को विनय के आधार पर विद्या नहीं देता। वह यह नहीं देखता कि Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन के नये मूल्य | ५६ उसका विद्यार्थी पात्र है या अपात्र । वह उसे पढ़ाता है, जो पहले वर्ष की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है । उत्तराधिकार का प्रश्न आज मिट चुका है । समाज में वह अधिक समादृत होता है, जो अधिक जोड़-तोड़ कर सकता है। विनय को कोई प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है । उसे गुलाममनोवृत्ति का सूत्र माना जा रहा है । इसीलिए आज व्यक्ति और समाज दोनों एक सुदृढ़ श्रृंखला से आबद्ध नहीं हैं । पुराने ज़माने में यह माना जाता था कि वचन का मूल्य सर्वोपरि है । जो महान् आदमी होते हैं उनके वचन पत्थर की लकीर के समान अमिट होते हैं । जिस आदमी का वचन जल की लकीर के समान क्षणिक होता है वह महान् नहीं माना जाता । वर्तमान में अपने वचन से मुकर जाना बड़ा कौशल है और बड़े आदमियों की खास पहचान है । पारस्परिक अविश्वास बढ़ाने में इसने बहुत बड़ा योग दिया है। पहले लोग केवल भारतीय थे । उनका सोचने-समझने का सारा ढंग भारतीय था । वे भारतीय पद्धति से ही जीते और उसी पद्धति से मरते थे । अब वैज्ञानिक उपलब्धियों ने सारे विश्व को बहुत निकट ला दिया है । अब भारतीय केवल भारतीय नहीं है, वह जागतिक है । इसलिए वह बहुत व्यापक दृष्टि से देखता है और उन्मुक्त मस्तिष्क से सोचता- समझता है । जब वह बुद्ध, महावीर, व्यास और शंकर को पढ़ता था तब उसे नैतिक मर्यादाएं अनिवार्य लगती थीं । अब वह फ्रायड को पढ़ता है तो उसे लगता है कि ये मर्यादाएं कृत्रिम हैं, इच्छाओं के दमन से निष्पन्न हैं । इनके पीछे वास्तविकता का कोई हाथ नहीं है । इसीलिए आज एक-एक कर मर्यादाएं समाप्त हो रही हैं । नैतिक मानदण्ड गिर रहे हैं । आज विश्वविद्यालयों में ब्रह्मचर्य की चर्चा उपहास का विषय बन जाती है । दिल्ली विश्वविद्यालय के वाइस चान्सलर श्री गांगुली ने बातचीत के प्रसंग में कहा" मुनिजी ! हम जब पढ़ते थे तब हमें ब्रह्मचर्य के विषय में बहुत बातें बताई जाती थीं । हमारा यह विश्वास हो गया था कि ब्रह्मचर्य बहुत बड़ी शक्ति है ।" Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० । तट दो : प्रवाह एक शक्ति-संचय बहुत आवश्यक है । आज स्थिति बहुत भिन्न है। विश्वविद्यालय में मैं ब्रह्मचर्य के बारे में कहूं तो विद्यार्थी समझेंगे यह किस युग की बात कर रहा है। आज ब्रह्मचर्य के प्रति बहुत आदर की भावना नहीं है। उसकी अच्छाई के प्रति आस्था भी नहीं है। इसीलिए आज विलास का निरकुंश चक्र चल रहा है। स्वस्थ समाज की अपेक्षाएं आत्मानुशासन तथा संयम, विनम्रता, पारस्परिक विश्वास और इन्द्रिय-संयम-ये स्वस्थ समाज की अनिवार्य अपेक्षाएं हैं। प्राचीन समाज में ये अपेक्षाएं धर्म, विनय, वचन-निर्वाह और मर्यादाओं के द्वारा पूर्ण होती थी। अब इनके प्रति निष्ठा कम हो रही है । इसीलिए आज का युवक इनसे दूर हो रहा है। इन नामों से भले ही कोई दूर हो जाए पर इन अपेक्षाओं से कोई सामाजिक प्राणी दूर नहीं हो सकता। आत्मानुशासन के अभाव से व्यक्तिगत स्वतन्त्रता सुरक्षित नहीं रह सकती। जिस समाज में अपने-आप पर नियंत्रण करने की क्षमता होती है उस पर राज्य का नियंत्रण बहुत कम होता है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता बहुत व्यापक होती है। जैसे-जैसे समाज में आत्म-नियंत्रण की शक्ति कम होती है, वैसे-वैसे राज्यशक्ति व्यापक हो जाती है। लोग चाहते हैं राज्य बड़ा न हो और व्यक्ति इतना छोटा न हो और यह चाह अनुचित भी नहीं है । पर इसके लिए आत्म-नियन्त्रण की शक्ति का पुनर्मूल्यन अपेक्षित है। ___विनय के बिना शिष्टता समाप्त हो जाती है और बड़ों के प्रति छोटों का व्यवहार अशिष्ट हो जाता है। जहां अनुज अपने पूर्वजों का सम्मान नहीं करते, वहां प्रेम की धारा सूख जाती है । जीवन रेगिस्तान बन जाता है। ऐसा न हो वह सरसब्ज रहे। उसके लिए शिष्टता का पुनर्मूल्यन आवश्यक है। वचन की प्रामाणिकता के अभाव में सामाजिक व्यवहार अस्त-व्यस्त हो जाता है। हर आदमी चाहता है हमारा व्यवहार ठीक ढंग से चले । पर उसके लिए कथनी और करनी की समानता का पुनर्मल्यन आवश्यक है । इन्द्रिय-संयम के बिना समाज' शक्तिहीन बन जाता है । सब लोग Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन के नये मूल्य । ६१ चाहते हैं, हमारा समाज और राष्ट्र तेजस्वी रहे। पर उसके लिए इन्द्रियसंयम का पुनर्मूल्यन अपेक्षित है। समाज को शक्तिशाली रखना है, व्यवहार को सुशृंखलित रखना है, सरसता को बनाए रखना है और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की लौ को प्रज्वलित रखना है तो उन पुराने मूल्यों को नया रूप देना ही होगा। आज के समाज के लिए नये मूल्य होंगे--स्वतन्त्रता, शिष्टता, पारस्परिक विश्वास और संयम-शक्ति। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव मन की ग्रन्थियाँ कोई भी भौगोलिक राज्य उतना बड़ा नहीं है, जितना मनोराज्य है । कोई भी यान उतना द्रुतगामी नहीं है, जितना मनोयान है । कोई भी शस्त्र उतना संहारक नहीं है, जितना मनःशस्त्र है । कोई भी शास्त्र उतना तारक नहीं है, जितना मनःशास्त्र है । उसकी ग्रन्थियों को खोल फैलाया जाए तो पाँचों महाद्वीपों में नहीं समा पातीं । इस छोटे-से शरीर में इन असंख्य ग्रन्थियों की संहति बहुत ही आश्चर्यजनक है । वे मुकुलित रहती हैं । सामग्री का योग मिलने पर उनके तार खुल जाते हैं। सामग्री का हमारे जीवन में बहुत बड़ा स्थान है। आत्मा की प्रत्येक प्रवृत्ति उससे प्रभावित है। समुदाय भी एक सामग्री है । इसके योग में मन की अनेक ग्रन्थियां संकुचित होती हैं तो अनेक विस्तार पाती हैं । मन विशाल होता है । समुदाय असत्य नहीं होता, विघ्न नहीं बनता । मन छोटा होता है, समुदाय बाधक बन जाता है । परिवार में दो आदमी बढ़ते हैं तो पृथक्करण की प्रवृत्ति जाग जाती है । कुछ व्यक्तियों को पृथक्करण नहीं भाता, भले फिर दस व्यक्ति बढ़ जाएं। ये दोनों मन की संकुचित और विकुचित ग्रन्थियों के ही कार्य हैं । जहां दस आदमी रहते हैं, वहां अवांछनीय भी कुछ हो जाता है । एक व्यक्ति उसे देख तत्काल उबल पड़ता है और दूसरा उसका परिमार्जन करता है । ये दोनों मन की उष्ण और शीत ग्रन्थियों के ही परिणाम हैं । अणु बमों के परीक्षण हो रहे हैं । पर वे संहारक कम हैं । इस महाशून्य में अनन्त अनन्त विषैले परमाणु भरे पड़े हैं । वे कभी विस्फोट नहीं करते । संहारक हैं कैनेडी और खुश्चोव । उनके मन की ग्रन्थियाँ भी भय की शंका से खुलती हैं। तभी बमों का विस्फोट होता है । हमें तारने वाला दूसरा कौन है ? हमारा मन जब अन्तर की ओर झांकता है, तब हम तर जाते हैं । विग्रह और क्या है ? बाहर झांकने के सिवाय और कोई विग्रह नहीं है । परिवार में जो कलह होती है, यह इसी Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव-मन की ग्रन्थियाँ । ६३ लिए होती है कि पारिवारिक सदस्य अपनी अपेक्षा दूसरों को अधिक देखता है। अपने को भी देखता है पर उस आंख से नहीं देखता जिससे दूसरों को देखता है। अपना काम दीखता है, दूसरों का आराम । अपनी विशेषता दीखती है, दूसरों की कमी। उस आराम में से ईर्ष्या उपजती है और कमी से अहं । मन की गांठ घुल जाती है। कलह का बीज अंकुरित हो जाता है। मन की अन्तर्-मुखता केवल धर्म ही नहीं है, व्यवहार का दर्शन भी है। ग्रन्थिभेद धर्म का पहला सोपान है। उसके बिना सम्यग-दर्शन नहीं होता। राग और द्वेष इन दो शब्दों में मन की अनन्त ग्रन्थियाँ समाविष्ट होती हैं। रागात्मक प्रवृत्ति से व्यक्ति एक में अनुरक्त होता है। द्वषात्मक प्रवृत्ति से वह दूसरे से दूर होता है। इस परिधि में तटस्थता टूट जाती है। उसके बिना पारिवारिक जीवन कठिन हो जाता है। सामुदायिक जीवन बहुत बड़ी कला है। समुदाय में रहना बहुत बड़ी बात नहीं है । उसमें शान्ति, सामंजस्य और प्रसन्नतापूर्वक रहना सचमुच बहुत बड़ी बात है, और बहुत बड़ी कला है। इसकी साधना के लिए मन की कुछ ग्रन्थियों को खोलना पड़ता है और कुछेक को भारहीन करना पड़ता है। यह भारहीनता जिसे हमारे धर्मग्रन्थों ने लाघव कहा है, सामुदायिकता का बहुत बड़ा मर्म है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख और शान्ति सुख की खोज सुलभ नहीं तो शायद उसका प्रतिपादन भी सुलभ नहीं । १५ अगस्त के दिन सुख और शान्ति पर चर्चा चली परन्तु समय हो चला, उसे अधर में ही छोड़ देना पड़ा । पर उसे छोड़ा कैसे जा सकता है ? मनुष्य की सारी साधना सुख और शान्ति के लिए होती है । यह मनुष्य का नैसर्गिक स्वभाव है । प्रश्न यह होता है कि जब मनुष्य सुख और शान्ति की साधना करता है तो उसे अशान्ति क्यों मिलती है ? बिना चाहे ही अशान्ति क्यों आ जाती है ? अब इस पर हमें विचार करना है । अशान्ति दो प्रकार की होती है— एक कल्पनाप्रसूत अशान्ति और दूसरी मान्यताप्रसूत अशान्ति । इसी तरह सुख के कई प्रकार हैं- आरोग्य सुख, दीर्घायु सुख, सम्पन्नता सुख, आदि आदि । प्रत्येक मनुष्य स्वस्थ रहना चाहता है, प्रत्येक मनुष्य दीर्घायु होना चाहता है और प्रत्येक मनुष्य सम्पन्न होना चाहता है । मनुष्य ही क्यों, प्रत्येक राष्ट्र के अधिनायक भी यही चाहते हैं कि हमारा राष्ट्र सब प्रकार से समृद्धिशाली, सुखी बनें। आजकल जिस राष्ट्र की जनता सुखी नहीं होती उसको अच्छा नहीं समझा जाता । हमारे देश के प्रधानमंत्री ने अभी कुछ ही दिन हुए अपने एक भाषण में कहा था कि स्वतन्त्रता के प्राप्त होने के पश्चात् हमारे देशवासियों की आयु में वृद्धि हुई है। इसी प्रकार प्रत्येक राष्ट्र के कर्णधार यही चाहते हैं कि हमारे देश के वासी अधिक-से-अधिक सुखमय जीवन व्यतीत करें । मनुष्य में जब माया, मोह और लोभ आदि का आवेग आ जाता है तब उसे अशान्ति होती है । शान्ति नहीं तो सुख भी नहीं । शान्ति के बिना मनुष्य सुख की अनुभूति भी नहीं कर सकता । धन सुख का साधन माना जाता है परन्तु यदि एक धनी मनुष्य रुग्ण है तो उसे शान्ति की अनुभूति नहीं होती । इसी प्रकार यदि एक मनुष्य अच्छा-अच्छा भोजन करने में सुख का अनुभव करता है और वही यदि उसे बुखार से पीड़ित होने पर Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख और शान्ति । ६५ दिया जाए तो उसे वह अच्छा नहीं लगेगा । एक मनुष्य की संगीत में रुचि है परन्तु यदि उसके मन में अशान्ति है तो उसे सुख की अनुभूति नहीं होगी। शान्ति और सुख का साहचर्य है, उनमें कार्य-कारण का भाव नहीं । हमारा साध्य सुख है, शान्ति नहीं । शान्ति के अभाव में सुख नहीं मिलता, इसीलिए शान्ति को महत्त्व अधिक दिया जाता है। शान्ति का अर्थ है शमन । रोग को शान्त करने के लिए चिकित्सा की जाती है। लोग कहते हैं रोग शान्त हो गया। परन्तु शान्त क्या हुआ ? जो उभार आया था वह मिट गया। फोड़ा हुआ, उपचार किया, मिट गया । शमन के लिए यही बात है। सुख के दो रूप हैं। वह भौतिक भी है और आध्यात्मिक भी। मकान, वस्त्र, रोटी—जिनसे सुख की अनुभूति होती है वे भौतिक हैं। आज इसी को प्रधान सुख मान लिया गया है। परन्तु हमारे महर्षियों ने, हमारे आचार्यों ने इसे व्याधि माना है। हमें भूख लगी है, समझ लीजिए व्याधि उत्पन्न हो गई है। भोजन किया, व्याधि मिट गई । बुखार आया, दवा ली और बुखार दूर हुआ। इसमें सुख की कैसी अनुभूति हुई ? हां, उपकरणों द्वारा सुख की अनुभूति अवश्य होती है। __ आज मनुष्य का मानसिक तनाव इतना बढ़ गया है कि शायद इतना पहले कभी नहीं था। अमेरिका आज की दुनिया का सबसे धनी देश है। वहां पर खाने, पीने, पहनने की कोई कमी नहीं है। घी-दूध की नदियाँ बहती हैं। गेहूं आदि अनाज जानवरों को खिलाया जाता है परन्तु इसके उपरान्त भी वहां मानसिक तनाव के रोगियों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक है। यदि बाह्य उपकरण ही सूख के साधन होते तो शायद ऐसा नहीं होता । मनुष्य के पास आज समय का बहुत अभाव हो गया है। वैसे तो भाव सभी चीज़ों का बढ़ गया है। कलकत्ता में एक वर्ग फुट का किराया एक रुपया है। परन्तु समय का भाव सबसे अधिक बढ़ गया है । गर्मी-प्रधान देश होने के कारण भारत के लोग अधिक आलसी भी होते हैं, फिर भी समय की कमी उन्हें सदैव सताती है। यह भी एक मानसिक असंतुलन है। अमेरिका में मानसिक तनाव बाह्य उपकरण की प्रचुरता के कारण ही अधिक फैला है। रूस में ऐसी बात नहीं है। वहां के लोग अधिक संघर्षरत हैं । फ्रांस में भी मानसिक तनाव के रोगियों की संख्या Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ । तट दो : प्रवाह एक इतनी बढ़ी है कि वहां के लोग यह अनुभव करने लगे हैं कि यदि आध्यात्मिकता का जीवन में प्रवेश नहीं हुआ तो बिना किसी एटम बम या हाइड्रोजन बम के ही हम सब समाप्त हो जाएँगे। आज का पढ़ा-लिखा आदमी अधिक असंतुलित हो गया है। जिस प्रकार शारीरिक संतुलन बिगड़ने पर मनुष्य के शरीर में गड़बड़ रहती है, ठीक उसी प्रकार मानसिक संतुलन बिगड़ने पर लोग घबराए-से रहते हैं। वैसे तो प्रत्येक मनुष्य में कुछ न कुछ पागलपन अवश्य होता ही है, परन्तु बहुत पढ़े-लिखे लोग और अधिक पागल देखे जाते हैं। बड़े-बड़े दार्शनिकों को कभी-कभी यह भी याद नहीं आता है कि उन्होंने भोजन किया है या नहीं, इसके बारे में वे अपने नौकरों से पूछते हैं। किन्तु वह पागलपन विकास के लिए बहुत ही आवश्यक होता है परन्तु उसकी भी एक सीमा है। यदि यहां के पहाड़ों की सीमा न होती तो क्या उदयपुर यहां होता ? जयसमन्द की सीमा नहीं होती तो क्या गुजरात होता ? वे दोनों ससीम हैं। इसीलिए उदयपुर भी है, गुजरात भी। __ आज अर्थ को इतनी अधिक मान्यता दे दी गई है कि उसके आगे कुछ सोचने को शेष ही नहीं रह जाता है। ईश्वर, आकाश एवं मनुष्य की तृष्णा, ये तीन चीजें असीम मानी गई हैं। आज के लोगों ने ईश्वर को उखाड़ फेंका, आकाश को ससीम माना परन्तु अपनी तृष्णा को असीम ही रहने दिया। तृष्णा का विस्तार अधिक हुआ है, कम नहीं । आज के मनुष्य को जन्म से जो विचार, जो धारणाएं प्राप्त होती हैं, उनके साथ आत्मानुशासन जैसी कोई चीज़ जुड़ी ही नहीं है। धर्म की तो लोग मखौल उड़ाते हैं। आदिवासी जातियों में आपको नैतिकता अधिक मिल सकती है । लोक-कला मण्डल में आचार्यश्री के पधारने पर श्री सांभरजी ने बताया कि भारत की प्राचीन संस्कृति का दर्शन आदिवासियों में ही हो सकता है। आधुनिक सभ्यता के लोग उन्हें सभ्य बनाने जाते हैं परन्तु मेरे विचार से वे भारतीय संस्कृति का अन्त करना चाहते हैं। इसी प्रकार दक्षिणी अफ्रीका के एक विद्वान ने लिखा है कि हम यहां के आदिवासियों को सभ्य नहीं बना रहे हैं बल्कि उन्हें बर्बाद कर रहे हैं । आज की नयी सभ्यता के लोग प्राचीन चीज़ों को अंधविश्वास कहकर मखौल उड़ाते हैं परन्तु सारी चीजें अंध Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख और शान्ति । ६७ विश्वास ही नहीं हैं। ग्रहों के साथ भारतीय ज्योतिष में हीरे-सोने का सम्बन्ध बताया गया है और इसकी पुष्टि वैज्ञानिक भी आज कर रहे हैं। आज का बुद्धिवाद भी अशान्ति का एक कारण बन रहा है। यदि आप जीवन में शान्ति चाहते हैं, सूख की कल्पना साकार करना चाहते हैं तो अपने मन पर नियंत्रण करिए। सुख तीन प्रकार का होता है—शारीरिक सुख, इन्द्रिय सुख और मानसिक सुख । शारीरिक सुख आपको प्रिय है। इसे प्राप्त करने के लिए आप काफी सचेष्ट भी रहते हैं। इन्द्रियों के सुख के लिए भी आप बहुत ही प्रयत्नशील' रहते हैं परन्तु मानसिक सुख की ओर आपका ध्यान नहीं जाता। आप मान लेते हैं कि यदि शारीरिक सुख एवं इन्द्रिय सुख की प्राप्ति हुई तो मानसिक सुख स्वतः प्राप्त हो जाएगा। परन्तु आपसे मूल में ही भूल हुई है। आप यदि मन को मालिक मानकर चलेंगे तो सुख की अनुभूति कदापि नहीं हो सकती। हां, सेवक मानने से सुख अवश्य प्राप्त होगा। मन चाहता है कि सुख मिले परन्तु यदि उस पर अधिकार नहीं किया गया तो सुख नहीं मिल सकता। यदि आप मन को अपने नियंत्रण में रखेंगे तो सुख का समुद्र लहराएगा, शान्ति मिलेगी। मन को सेवक मानने पर इन्द्रियां स्वयं सेवक बन जाएंगी। आपके सामने दुःख नाम की कोई चीज़ ही नहीं रह जाएगी। परन्तु यह स्थिति तभी होगी जब मन को मालिक मानकर नहीं, सेवक मानकर चलेंगे। चन्द्रमा की सैर करने से भी अधिक सुख की अनुभूति इसमें होगी। भगवान् महावीर ने कहा है-बारह मास का दीक्षित साधु सारे पौद्गलिक सुखों को लांघ जाता है। उसे उस सुख की अनुभूति होती है जो चक्रवर्ती सम्राट को भी नहीं होती। आप अपने जीवन को प्रयोगशाला बनाकर यह निर्णय कीजिए कि जिन मान्यताओं को आप स्वीकार किए हुए हैं, वे काल्पनिक हैं या यथार्थ ? एक बार मन को सेवक मानकर हमें अवश्य परीक्षा करनी चाहिए । मैं आपको यह परामर्श नहीं दे सकता कि आप शरीर-सुख और इन्द्रिय-सुख की ओर सर्वथा ध्यान न दें। किन्तु इतना-सा परामर्श अवश्य दूंगा कि आप मन को सेवक मानकर चलें, स्वामी मानकर नहीं। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विस्मृति का वरदान मैं कोई नयी बात नहीं कह रहा हूं। वही कह रहा हूं, जिसका जीवन में अनेक बार अनुभव होता है। जिन लोगों ने स्मृति का अभिशाप भोगा है, वे बड़ी तीव्रता से अनुभव करते हैं कि विस्मृति वरदान है किन्तु बहुत दुर्लभ । स्मृति वरदान से भी अधिक दुर्लभ । १. स्मृति उसकी होती है, जो अतीत में अनुभूत हो। जो हमने देखा, सुना, संवेदन किया, वह हमारी ज्ञानधारा में समाकर संस्कार का रूप ले लेता है। निमित्त बनकर वह उदबुद्ध होता है और अतीत वर्तमान में प्रतिबिम्बित हो जाता है। २. यह हमारे जीवन की ज्वलन्त समस्या है कि जिसकी स्मति होनी चाहिए, उसकी विस्मति हो जाती है और जिसकी विस्मति होनी चाहिए, उसकी स्मृति होती रहती है। ३. उपकार की बात लोग भूल जाते हैं पर अपकार की बात नहीं भूलते। किसी मित्र के सामने आने पर सारी बातें याद नहीं भी आतीं पर शत्रु के सामने आते ही अतीत साकार हो उठता है। भलाई के प्रति भलाई का हेतु भी स्मृति है। और बुराई के प्रति बुराई का हेतु भी वही है। इसीलिए स्मृति वरदान भी है और अभिशाप भी। करणीय कार्य को भुलाकर हम बहुत बार ऐसी भूल कर बैठते हैं कि उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। अकरणीय को बार-बार याद करके भी हम अपने प्रति न्याय नहीं करते। इसीलिए विस्मृति अभिशाप भी है और वरदान भी। स्मृति के अभिशाप से वही मुक्त हो सकता है, जिसे विस्मति का वरदान प्राप्त हो। दुर्व्यसनों की स्मृति अभिशाप से भी लम्बी बनती है। प्रियजन की स्मृति ही असंख्य आत्महत्याओं का हेतु बनती है । साम्प्रदायिक एकता में सबसे बडी बाधा स्मति ही तो है। स्मति का सत्र Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विस्मति का वरदान । ६६ नहीं होता तो प्रतिशोध की बात ही नहीं होती। जो साथ रहते हैं, उनमें कलह भी हो जाता है। जिसे विस्मृति का वरदान प्राप्त है, वह उसे भुला देता है और सुख से जीता है । कुछ आदमी सुख से नहीं जी सकते । वे विस्मृति के धागों में उलझकर दूसरों पर आग उगलते रहते हैं। ___ मैं जब-जब अपने सुखी जीवन की कल्पना करता हूं, तब-तब भूलने का अभ्यास करता हूं। उतना सब भूल जाना चाहता हूं जितना सिर का भार है। बहुत याद रखना ज़रूरी नहीं। उतना ही काफी है, जितना जीवन-रथ को आगे ले जाए। स्मृति ! तुम मेरे जीवन-रथ को पीछे की ओर घसीटना चाहो तो तुम्हें मेरा दूर से ही प्रणाम है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण और अपूर्ण आत्मा पूर्ण है पर व्यक्ति पूर्ण नहीं है । वह अपूर्ण है, इसीलिए उसमें लिप्सा है। लिप्सा अपूर्णता का चिह्न है। जिसमें जितनी अपूर्णता होगी, उसमें उतनी ही लि सा होगी। मनुष्य की अपूर्णता अतृप्ति के द्वारा अभिव्यक्त होती है। उसका शरीर अतृप्त है और मन भी। शारीरिक तृप्ति के लिए मनुष्य पदार्थ पाने की इच्छा करता है। और मन की तृप्ति के लिए वह उसे भी पाना चाहता है, जो पदार्थ नहीं है। यश कोई पदार्थ नहीं है। पद भी पदार्थ नहीं है। किन्तु मनुष्य में यशोलिप्सा भी है और पद-लिप्सा भी है। यश से मनुष्य को कुछ भी नहीं मिलता पर तप्ति ऐसी मिलती है, जैसी सम्भवतः और किसी से नहीं मिलती। अधिकारशून्य पद की भी यही दशा है। अधिकारयुक्त पद से कुछ मिलता भी है पर वह नहीं मिलता, जिससे अपूर्णता मिटे। ___ अपने-आप में सब पूर्ण हैं। कोई उसे पा गया है, कोई प्राप्ति के पथ पर है । किसी की उसमें रुचि नहीं है तो किसी में उसकी समझ नहीं है। पर बहुत सच है कि पदार्थों की संचिति से कोई भी परिपूर्ण नहीं है। एक की पूर्णता दूसरे की पूर्णता के सामने अपूर्णता में परिणत हो जाती है। पदार्थ अपने-आप में पूर्ण हैं । वे न हमें पूर्ण बनाते हैं और न अपूर्ण । हम उन पर अपने ममत्व का धागा डालकर अपूर्ण बन जाते हैं। पूर्णता का मार्ग यही है कि ममत्व का धागा टूट जाए। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाश की उड़ान भारत को चनौती पाताल, पृथ्वी और अन्तरिक्ष-लोक इन तीनों भागों में विभक्त है । इन्हीं को जैन-आगमों में अधोलोक, तिर्यग-लोक और ऊर्ध्व-लोक कहा है। मनुष्य तिर्यग-लोक में रहता है। शेष दो लोक उसके लिए सदा जिज्ञासा के विषय रहे हैं । भूगर्भ में वह गया है भूमि को खोदकर और अन्तरिक्ष में वह गया है उड़ान भरकर । विमानों का इतिहास बहुत पुराना है । उनमें बैठ अनेक मनुष्यों ने उड़ानें भरी हैं और अनन्त आकाश को देखने का यत्न किया है। किन्तु विमानों के बिना उड़ने का इतिहास भी बहुत पुराना है। जैन-साहित्य के अनेक पृष्ठ इस रहस्यमय विवरण से भरे पड़े हैं। चरित्र की विशुद्धि से नभो-गमन की शक्ति विकसित होती है। वह विद्या की आराधना से भी विकसित होती है। औषध-कल्प से भी मनुष्य आकाश में उड़ सकता है। जंघा-चारण सूर्य की रश्मियों का आलम्बन ले आकाश में उड़ सकता है। वह एक उड़ान में लाखों योजनों की दूरी पर चला जाता है। ऊंचाई में वह एक ही उड़ान में हजारों योजन ऊंचा चला जाता है । व्योमचारी मुनि पद्मासन की मुद्रा में बैठे-बैठेही आकाश में उड़ जाते हैं । जल-चारण मुनि जल के जीवों को कष्ट दिए बिना समुद्र आदि जलाशयों पर चलते हैं। दूसरी प्रकार के जंघा-चारण धरती से चार अंगुल ऊपर पैरों को उठाकर चलते हैं। पुष्प-चारण मुनि वनस्पति को कष्ट दिए बिना फूलों के सहारे चलते हैं। श्रेणी-चारण पर्वत के शिखरों पर चलते हैं। अग्निशिखा-चारण अग्नि की शिखा पर चलते हैं । ये न अग्नि के जीवों को कष्ट पहुंचाते हैं और न स्वयं जलते हैं। धूम-चारण धूम की पंक्ति को पकड़कर उड़ जाते हैं। मर्कटतन्तु-चारण मकड़ी के जाल पर चलते हैं। उसे कोई कष्ट पहुंचाए बिना वे ऐसा करते हैं। ज्योतिरश्मिचारण सूरज, चांद या अन्य किसी ग्रह-नक्षत्र की रश्मियों को पकड़ ऊपर Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ । तट दो : प्रवाह एक चले जाते हैं । वायु-चारण हवा को पकड़ उड़ जाते हैं। जलद-चारण मेघ के, अवश्याय-चारण ओस के सहारे उड़ जाते हैं । इस प्रकार नभोगति की विविध रूप-रेखाएं हैं। यूरी गारिन की आकाश की उड़ान से आज समचा विश्व आश्चर्यचकित है। भारत के अपने आन्तरिक बल से एक दिन समूचा संसार आश्चर्यचकित था। आज यन्त्रवाद फिर अध्यात्म को चुनौती दे रहा है। क्या भारत में उसे झेलने की क्षमता है ? Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार-प्रवाह इस विश्व में जो है वह प्रवहमान भी है। केवल स्थायी कुछ नहीं है। प्रत्येक स्थूल पदार्थ से रश्मियां निकलती हैं और वे समूचे आकाश-मण्डल में व्याप जाती हैं। हमारी वाणी जल-तरंगवत् भाषात्मक जगत् को प्रकम्पित कर देती है। हमारा मन चिन्तन के पश्चात् अपनी पौद्गलिक आकृतियों का विसर्जन करता है, आकाश उनसे भर जाता है। इस प्रकार हमारा शरीर, वाणी और मन सब प्रवहमान हैं। इसीलिए समरूपता, समप्रयोग और समचिन्तन एक तत्त्वज्ञ के लिए आश्चर्यजनक नहीं होता। यहां मैं समचिन्तन की थोड़ी चर्चा करना चाहता हूं। आचार्य पूज्यवाद ने लिखा--'महावीर ने तेरह भेदों (पांच महाव्रतों, पांच समितियों और तीन गुप्तियों) का अपने ढंग से निरूपण किया।' आचार्य भिक्षु ने सम्भवतः इस विचार को पढ़ा ही नहीं, फिर भी उन्होंने तेरापंथ की व्याख्या में भगवान् के इन्हीं तेरह भेदों को आधार माना। आचार्य भिक्षु ने कहा था—'धर्म और राजनीति भिन्न हैं ।' इसी आधार पर आचार्यश्री तुलसी ने बहत वर्षों पहले लिखा था-'राजनीति से धर्म पृथक् है ।' राष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन ने कहा था—'हम धर्म और राजनीति को मिलाना नहीं चाहते। हमारा यही प्रयत्न है कि इन्हें दूर रखा जाए।' आचार्य भिक्षु ने लिखा था- 'भौतिक उपलब्धि अहिंसा का परिणाम नहीं है। उसका परिणाम है आत्म-शुद्धि और मानसिक-शान्ति।' महात्मा भगवानदीन ने इस विचार को इन शब्दों में व्यक्त किया है-'यह कहकर मैं हिंसा को बढ़ावा नहीं दे रहा, मैं तो सिर्फ अहिंसा की हद बता रहा हूं। सत्य, अहिंसा, अचौर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य-इन सभी धर्मों का मैं पुजारी हूं। इन सब पर अमल भी करता हूँ पर मैं यह मानने को तैयार नहीं कि इन धर्मों की मदद से किसी को स्वराज्य मिल सकता है या कोई ___ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ । तट दो : प्रवाह एक आदमी मालदार हो सकता है, किसी तरह का शारीरिक सुख प्राप्त कर सकता है। इन धर्मों के पालने से तो केवल मानसिक सुख मिल सकता है और जो आत्मा में विश्वास रखते हैं, उनकी आत्मा को सुख प्राप्त हो सकता है। इसलिए यह समझना कि स्वराज्य हमारे अहिंसा-धर्म का नतीजा है, बहुत बड़ी भूल है। ____ मैं फिर दोबारा कहता हूं कि मैं अहिंसा का निरादर नहीं कर रहा। मैं अहिंसा का पुजारी हूं। मैं तो केवल यह कहना चाहता हूं कि अहिंसा से जिस कार्य की आशा की जाती है, वह ग़लत है।' भारतीय-संस्कृति के विकास में संयम और संकल्प का बहुत बड़ा योग रहा है। उनके साथ निषेध का गहरा सम्बन्ध है। अणुव्रत-आन्दोलनका प्रवर्तन हुआ तब कई चिन्तक व्यक्ति निषेध ही निषेध मेंबल नहीं देख पाते थे। कुछ लोग प्रतिज्ञा मात्र के प्रति सहमत नहीं थे। किन्तु जब राष्ट्रीय एकता सम्मेलन ने सात निषेध स्वीकृत किए तब लगा कि निषेध-संकल्प का स्वर राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिध्वनित हो रहा है। राष्ट्रीय एकता सम्मेलन ने सर्व सेवा संघ के सुझाव पर एक प्रतिज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ करने का अनुरोध किया। उसके अनुसार देश के प्रत्येक वयस्क से निम्न प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर करने को कहा जाएगा-'भारत का नागरिक होने के नाते मैं सुसंस्कृत समाज के सार्वभौम सिद्धान्तों अर्थात् नागरिकों, दलों, संस्थाओं और संगठनों के बीच उत्पन्न विवादों को शान्तिपूर्ण तरीकों से निबटाने के सिद्धान्तों में विश्वास रखता हूं तथा एकता और देश की अखण्डता के सम्मुख आए खतरे को ध्यान में रखते हुए प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं विवादों को, चाहे वे मेरे पड़ोस में हों अथवा देश के किसी और हिस्से में, सुलझाने के लिए हिंसा का सहारा नहीं लूंगा।' कुछ वर्ष पूर्व आचार्यश्री तुलसी के धवल-समारोह के प्रथम चरण का आयोजन था। उस अवसर पर तीन प्रतिज्ञाएं दिलवाई गई थीं। उनमें एक थी—'मैं साम्प्रदायिक, भाषायी तथा जातीय आधार पर किसी प्रकार की घणा नहीं फैलाऊंगा।' देश-काल की विच्छिन्नता में भी विचार किस प्रकार अविच्छिन्न रूप में प्रवाहित होते हैं, यह सचमुच आश्चर्य का विषय Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिर सत्यों की अनुस्यूति सत्य के दो रूप होते हैं-वस्तु-सत्य और व्यवहार-सत्य । व्यवहारसत्य बहुरूपी होता है। वस्तु-सत्य का रूप चिर पुराण होता है । वह देशकाल से व्यवच्छिन्न नहीं होता। जो देश-काल से व्यवच्छिन्न नहीं होता वही वस्तु-सत्य होता है । उसी के कुछ उदाहरण हैं १. योगिक अनुभूति है कि लघिमा सिद्धि को प्राप्त करने वाला योगी जैसे भूमि पर खड़ा रहता है वैसे ही भालों की नोक पर खड़ा रह सकता है। भूमि और भाले की नोक में तभी अन्तर होता है, जब भार होता है। योगी प्राण-विजय द्वारा भार-मुक्त हो जाता है। अतः उसके लिए भूमि और भाले की नोक में कोई अन्तर नहीं होता। कोशा वेश्या सरसों की राशि पर नत्य करती और वह राशि अस्तव्यस्त नहीं होती थी। भार-मुक्ति का यह विचित्र प्रयोग था। भूमि के वातावरण में भार-मुक्ति साधना-लभ्य होती है। अंतरिक्ष में वह सहज ही प्राप्त हो जाती है। रूसी वैज्ञानिक जियोलकोव्स्की के शब्दों में--"अंतरिक्ष में कोई भी वस्तु दबाव नहीं डालती। यदि मैं पृथ्वी पर सूई की नोक पर खड़ा हो जाऊं तो मेरा पैर सूई के अन्दर घुस जाएगा। लेकिन यदि ऐसा अंतरिक्ष में हो तो मेरा पैर सूई पर इस तरह खड़ा रहेगा, मानो मैं पृथ्वी पर खड़ा हूं।" २. भगवान महावीर ने कहा था-'पृथ्वी के असंख्य योजन की ऊंचाई पर देवों का एक मुहूर्त बीतता है, उतने में यहां हजारों वर्ष बीत जाते हैं।' आइन्स्टीन ने इसी सत्य को इन शब्दों में व्यक्त किया है-'सूरज को भेजी जाने वाली एक घड़ी पृथ्वी की तुलना में धीमी गति से चलेगी।' अंतरिक्ष यात्रा के समय भी यही सत्य उद्भावित हुआ था। डॉ० बोरिसल्कोसोव्स्की ने सोवियत आर्थिक पत्रिका में लिखा था-'अंतरिक्ष में पृथ्वी की अपेक्षा समय बहुत धीमी गति से बढ़ता है।' ___ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ । तट दो : प्रवाह एक ३. परमाणुवाद के अनुसार एक आकाश-प्रदेश में एक परमाणु समा सकता है, वहां अनन्त परमाणुओं का स्कन्ध भी समा सकता है। रसायनशास्त्र के अनुसार एक तोले बुभुक्षित पारद में सौ तोला स्वर्ण समा सकता है। अवकाशवाद की इस रहस्यपूर्ण पद्धति पर एडिंगटन ने इन शब्दों में प्रकाश डाला था—'मनुष्य-शरीर के सारे खोखले स्थानों को निकाल दिया जाए और शेष प्रोटोनों और इलेक्ट्रोनों को एक जगह इकट्ठा कर लिया जाए तो छः फुट और ढाई मन का मनुष्य एक छोटे-से बिन्दु का रूप ले लेगाइतना छोटा बिन्दु कि आप उसे अणुवीक्षण यंत्र से ही देख सकेंगे। विश्व के सभी प्रकार के प्राणियों को इस प्रकार बिन्दुओं में बदल दिया जाए तो वे सब-के-सब हमारे पानी पीने के गिलास में समा सकेंगे । एक हाथी पूर्व की ओर मुंह करके खड़ा है और एक हाथी का बच्चा पश्चिम की ओर मुंह करके हाथी की सूंड और दूसरे पैर के बीच में खड़ा है । इस हाथी और उसके बच्चे के शरीर के परमाणुओं को मींजकर एक-दूसरे में मिला दें तो केवल इतना द्रव्य रहेगा जो एक सूई के छेद से निकाला जा सके। सभी पदार्थों के अवयवों का यही हाल है । यदि समूचे संसार के पदार्थों को मींजकर हम इन अणु-परमाणुओं को एक-दूसरे में मिला दें तो हमें एक छोटी नारंगी के बराबर की चीज़ मिलेगी। ४. कुछ लोगों ने कहा—भिक्षु जी व्याख्यान देते हैं तब रात एक प्रहर से बहुत अधिक चली जाती है। आचार्य भिक्षु ने कहा—सुख की रात छोटी होती है, दुःख की रात बहुत बड़ी लगती है। महाकवि कालिदास ने 'अणो रणीयान् महतो महीयान्,' इस समस्यापूर्ति में यही कहा था “मैं परम पवित्र यज्ञोपवीत को हाथ में ले, सौगन्ध खाकर कहता हूं कि प्रिया के योग में दिन अणु से भी अणु लगता है और उसके वियोग में महान् से भी महान् ।” __महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने भी अपनी पत्नी को सापेक्षवाद इसी उदाहरण द्वारा समझाया था। उन्होंने कहा- "प्रिया के पास बैठे व्यक्ति को एक घंटा दो मिनट के बराबर लगता है और भट्ठी के पास बैठे व्यक्ति को दो मिनट घंटा के बराबर लगते हैं।" Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वतन्त्रता और आत्मानुशासन कितना मधुर है यह स्वतन्त्रता शब्द । एक तोता पेड़ की टहनी पर बैठकर जिस खुशी से झूमता है, वह उसी खुशी से सोने के पिंजड़े में नहीं झूमता । पिंजड़ा आखिर पिंजड़ा ही है, भले फिर वह लोहे का हो या सोने का । स्वतन्त्रता की मादकता का एक कण परतन्त्रता के सागर से अधिक मूल्यवान् और प्राणदायी होता है । परन्तु आश्चर्य है कि स्वतन्त्रता के अठारह वर्षों के बाद भी हिन्दुस्तान पूरी मादकता से नहीं झूम रहा है । ऐसा लगता है कि वह राजनीति की परतन्त्रता से मुक्त होकर भी मानसिक परतन्त्रता से मुक्त नहीं है । वाणी की स्वतन्त्रता उसे प्राप्त है, पर वाणी का संयम उसे प्राप्त नहीं है । लेखन की स्वतन्त्रता उसकी निर्बाध है पर लेखनी का संयम उसे ज्ञात नहीं है । उसके विचारों की अभिव्यक्ति पर कोई रोक नहीं लगा सकता पर उसे अपने आप पर रोक लगाना भी पसन्द नहीं है । इस स्वतन्त्रता का अर्थ है मानसिक परतन्त्रता का उदय । 1 जनतंत्र का मूल आधार है स्वतन्त्रता और उसका मूल आधार है व्यक्ति का आत्मानुशासन जब कोई व्यक्ति अपने-आप पर अपना नियंत्रण रख सकता है, तभी वह स्वतन्त्रता की लौ प्रज्वलित कर सकता है । अधिनायकता के युग में भय और आतंक का राज्य होता है, इसलिए व्यक्ति के आत्मानुशासन का विशेष मूल्य नहीं होता । जनतंत्र के युग में अभय का राज्य होता है, इसलिए उसमें आत्मानुशासन का मूल्य बहुत बढ़ जाता है । हिन्दुस्तान दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र है । उसके नागरिकों का आत्मानुशासन कैसा है, इस प्रश्न पर चाहे अनचाहे दृष्टि जा टिकती है। इसका उत्तर जो मिलता है, वह सन्तोष नहीं देता । शासनतंत्र के प्रमुख लोगों में सर्वाधिक आत्मानुशासन होना चाहिए पर वह नहीं है । वे अपने पद का लाभ भी उठाते हैं । पक्षपात की भी उनमें कमी नहीं है । अपने Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ । तट दो : प्रवाह एक कृपापात्रों के लिए वे कुबेर हैं तो अप्रियजनों के लिए अनुदार भी कम नहीं हैं। वे शासनतंत्र संभालते हैं जनता की भलाई के लिए और उनका संघर्ष चलता है सदा कुर्सी की सुरक्षा के लिए। आर्थिक घोटालों के अनेक आरोप उन पर लगाए जाते हैं और वे प्रमाणित भी हो जाते हैं। आत्मानुशासन की जन्मभूमि है शिक्षा-संस्थान । वहां राष्ट्र की नयी पौध का निर्माण होता है। उसकी स्थिति भी स्वस्थ नहीं है। वहां विलास, फैशन और स्वच्छन्दता का इतना प्रबल अस्तित्व है कि आत्मानुशासन की एक अस्फुट रेखा भी नहीं दिखाई देती। धर्म का क्षेत्र आत्मानुशासन का मुख्य क्षेत्र है। परन्तु स्वार्थों का संघर्ष वहां भी अपनी जड़ें जमा चुका है। इसलिए उसकी तेजस्विता भी संदिग्ध हो चुकी है। एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि एक साधु कहता है, मेरा नाम पहले क्यों नहीं आया? उसका पहले क्यों आया? कोई कहता है, प्रमुख मैं हं, उसे प्रमुखता क्यों दी गई ? इस वातावरण में आत्मानुशासन की गंध ही कहां है ? ___यह स्थिति का प्रत्यक्ष दर्शन है । इसके द्रष्टा अनेक लोग हैं, हम द्रष्टा रहकर स्थिति को नहीं बदल सकते। उसमें अपने संयम की आहुति देकर ही बदल सकते हैं। आज यह बहुत अपेक्षित है कि सब लोग आत्मानुशासन का संकल्प लें और जन-जन को यह समझाएं कि स्वतन्त्रता का अर्थ है, आत्मानुशासन का विकास । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-विकास के सूत्र समानता मेरा अस्तित्व मुझे प्रिय है। किन्तु 'मैं' पर जैसा मेरा अधिकार है, वैसा अस्तित्व पर नहीं है । मुझसे जो भिन्न है, उसका भी अस्तित्व है और वह उसे उतना ही प्रिय है जितना कि मेरा अस्तित्व मुझे प्रिय है। बाहरी उपकरणों की दृष्टि से हम भिन्न भी हो सकते हैं किन्तु अस्तित्व की शृंखला में हम सब समान हैं। शरीर, भाषा, भौगोलिक सीमाएं, सम्प्रदाय, जाति--ये सब समानता के समर्थक नहीं हैं किन्तु इनमें प्राण-संचार चैतन्य से होता है और उसके जगत् में हम सब समान हैं। हमारे मन में असमानता के संस्कार अधिक तीव्र हैं। हमारी इन्द्रियां बाहर की ओर झांकती हैं और जो बाहर है, वह सब असमान है। असमानता के भाव से प्रेरित होकर हम अपने ही जैसे लोगों के साथ अन्याय करते हैं। हमारी न्याय-बुद्धि तभी जागत हो सकती है, जब हम समानता की धारा को अविरल प्रवाहित करें । लोकतंत्र समानता की प्रयोग-भूमि है। समान अधिकार का सिद्धान्त दार्शनिक समानता का व्यावहारिक रूप है। लोकतंत्र की सफलता के लिए यह अपेक्षित है कि उसके नागरिकों में समानता के प्रति आस्था हो। स्वतन्त्रता कोई आदमी अन्याय करता है, इसका अर्थ है वह दूसरे के अधिकार का अपहरण करता है। कोई दूसरे के अधिकार का अपहरण करता है, इसका अर्थ है वह उसे अपने तंत्र में रखना चाहता है। अपने तंत्र में रखने का अर्थ है, उसे वह अपने-जैसा नहीं मानता। . बुद्धि और कर्मजा-शक्ति की विविधता होती है । बुद्धिमान और समर्थ व्यक्ति मन्दबुद्धि और अक्षम व्यक्तियों को शासित करता है। यह सर्वथा अनुचित भी नहीं है। उनका हित-सम्पादन करने के लिए यविह ऐसाद Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० जवन विकास के सूत्र करता है, तो कोई तर्क नहीं कि उसे अनुपादेय कहा जाए। किन्तु यदि वह अपना हित-साधन के लिए उन्हें शासित करता है तो वह समानता की आधार-शिला को जर्जरित करता है। दूसरों की स्वतंत्रता में अमिट विश्वास हो तो क्या कोई व्यक्ति अन्याय कर सकता है ? स्वतंत्रता लोकतंत्र की आत्मा है । यदि उसे लोकतंत्र से अलग कर दिया जाए तो लोकतंत्र का अर्थ होगा निरंकुश राज्य । स्वतंत्रता में अमेघ आस्था रखने वाला आक्रान्ता कैसे होगा ? परतंत्रता की श्रृंखला का निर्णय केवल दूसरों के लिए नहीं होता। स्वतंत्रता में अभेघ आस्था रखने वाला आक्रान्त कैसे होगा ? चिनगारी जो है, वह कभी भी अग्नि का रूप ले सकती है। प्रामाणिकता दूसरों के प्रति सच्चा रहना प्रमाणिकता तो है किन्तु यह भाषा कभी भी मुझे आकृष्ट नहीं कर सकी । प्रामाणिकता की जो परिभाषा मुझे आकृष्ट कर सकी, वह है "अपने प्रति सच्चा रहना । जो दूसरों का कुरा करने में अपना बुरा देखता है, वह बुराई से बच सकता है, पर-निरपेक्ष दृष्टि से प्रामाणिक रह सकता है। जिसकी सचाई का आधार व्यवहार की पृष्ठभूमि होता है, वह सच्चा रहता है तब, जब कोई दूसरा देखता है । वह सच्चा रहता है तब, जब प्रकाश में होता है। अकेले में और अंधेरे में जो सच्चाई प्राप्त होती है, वह अपने पर ही आधारित हो सकती है। जो अपने प्रति सच्चा नहीं होता, वह राष्ट्र के प्रति कभी भी सच्चा नहीं होता। कई आदमी राष्ट्र की भलाई के लिए सच्चे होते हैं और कई अपनी भलाई के लिए । सचाई का बीज हर मनुष्य में होता है । वह निमित्त का निमित्त पाकर अंकुरित हो उठता है । जो अपनी आतरिक प्रेरणा से अंकुरित होता है, वह परिस्थिति से प्रभावित नहीं होता। बाहरी प्रेरणा से अंकुरित होने वाले के लिए यह निश्चित भाषा नहीं बनाई जा सकती कि वह परिस्थिति से प्रभावित नहीं होता, पर प्रामाणिकता लोकतंत्र का सौन्दर्य तो है ही, फिर चाहे वह किसी भी निमित्त से प्रस्फुटित हो। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणु-अस्त्र और मानवीय दृष्टिकोण आज का युग अणु-युग के नाम से प्रसिद्ध है । अणु पहले भी उतने ही थे, जितने आज हैं पर अणु-युग होने का श्रेय अतीत को नहीं मिला, वर्तमान को ही मिला है। एक युग में आत्म-द्रष्टा महर्षियों ने अपने प्रत्यक्ष-दर्शन के बल पर अणुओं की चर्चा की थी। आज का वैज्ञानिक अपने यंत्र-बल के सहारे अणुओं की चर्चा करता है । स्थूल से सूक्ष्म और संहात से भेद अधिक शक्तिशाली होता है, यह रहस्य आज सर्वविदित हो चुका है। यह इसी सिद्धान्त की एक परिणति है। जब तक मनुष्य में आत्मानुशासन था, असंग्रह था और अपने में 'स्व' का सन्तोष मानने का मनोभाव था तब तक वह निर्भय था। इसका अर्थ है कि वह शस्त्रहीन था। भय और शस्त्र में कार्य-कारण का सम्बन्ध है । भय होता है, शस्त्र का निर्माण होता है। भय नष्ट होता है, शस्त्र विलीन हो जाता है । आत्मानुशासन घटा, संग्रह बढ़ा, दूसरों के 'स्व' को हड़पने का मनोभाव बना तब भय बढ़ा या उसकी सृष्टि ने शस्त्रों की परम्परा को जन्म दिया। इस परम्परा में अणु-अस्त्र अन्तिम है। भविष्य के गर्भ में इससे अधिक प्रलयकारी शस्त्र भी हो सकता है पर वर्तमान में यह सर्वाधिक प्रलयकारी है । सहज ही जिज्ञासा होती है कि मनुष्य निर्माण चाहता है, फिर उसने प्रलय का संग्रह क्यों किया? इसके अनेक उत्तर हो सकते हैं किन्तु मेरी मान्यता में इसका कारण मनुष्य की खण्डता है । यदि वह अखण्ड होता तो किसके प्रति आकृष्ट होता और किससे दूर होता ? किससे डरता और किसके लिए शस्त्र बनाता ? पर किया क्या जाय, यह अखण्डता नैसर्गिक है। एक-एक मनुष्य शरीर, मानसिक चिन्तन, परिवार, जाति, समाज, प्रान्त और राष्ट्र आदि अनेक खण्डताओं में खण्डित है । बाहरी और भीतरी चारों ओर के वातावरण ने उसे व्यक्तिवादी बना रखा है। समाजवाद के Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ । तट दो : प्रवाह एक दीर्घकालीन कठोर प्रयत्नों के उपरान्त भी यह खण्डता की मनोवृत्ति अभी टूट नहीं पायी है। यदि रूसी समाजवाद अखण्डता की ओर गतिशील होता तो उसके पास अणु-अस्त्र नहीं होते। उसका सामुदायिकता का सिद्धान्त केवल अपने राष्ट्र की व्यवस्था पर है । खण्डता की मनोवृत्ति वहाँ भी उतनी है, जितनी अन्यत्र है। इसीलिए शस्त्रों की होड़ चल रही है। पहले मान्यता स्थिर होती है, फिर कार्य होता है। लोगों ने मान रखा है कि शक्ति-संतुलन ही शान्ति का सर्वोत्तम उपाय है। रूस और अमेरिका में से कोई भी इस दौड़ में पिछड़ जाता तो यद्ध शुरू हो जाता । दोनों साथसाथ चल रहे हैं, इसलिए युद्ध रुका है। तर्क के प्रति कोई तर्क नहीं है । क्योंकि बहुतों ने इसे अकाट्य मान रखा है। जो अकाट्य हो उसे काटने का यत्न क्यों किया जाय ? हम तर्क से ऊपर उठकर देखते हैं तो लगता है कि इस दौड़ का मूल्य कल्पनाजगत् में है। यथार्थ में वह शून्य है । यदि युद्ध छिड़ता है तो दोनों सुरक्षित नहीं हैं। दुनिया का कोई कोना सुरक्षित नहीं है और यदि युद्ध नहीं होता है तो अणु-अस्त्रों का निर्माण कोरा अपव्यय है। इसका निर्माण दोनों दृष्टियों से व्यर्थ है । पर कोई एक करता है तो दूसरा बच भी कैसे सकता है ? मानवता के प्रति सबसे बड़ा अन्याय उसने किया जिसने अण-अस्त्रों के निर्माण में पहल की। हम वर्तमान प्रश्न पर सोचें तो क्या यह सर्वथा निश्चित है कि शक्ति-संतुलन रहने पर युद्ध नहीं होगा ? कभी-कभी आदमी में उन्माद भी जागता है, आवेग भी आता है । मानसिक-संतुलन खो बैठने पर क्या कोई भी आदमी आगे-पीछे की सोचता है । मानवीय दुर्बलताओं से हम अपरिचित नहीं हैं। हम इससे भी सुपरिचित हैं कि कुछेक व्यक्तियों की भूल का परिणाम समूचे संसार को भोगना पड़ता है । द्वितीय महायुद्ध का परिणाम किसने नहीं भोगा ? अणुयुद्ध का परिणाम कितना भयंकर है, इसकी कल्पना ही थर्रा देती है। जो लोग मानवता की दृष्टि से देखते हैं, वे अण-अस्त्रों के निर्माण का विरोध कर रहे हैं, पर वे कितने हैं ? बहुत थोड़े। अधिक वे हैं जो मानवता के विनाश को अपने सिरहाने रखकर सोते हैं। अपने विनाश की तैयारी पशु भी नहीं करता। मनुष्य महापशु बन रहा है जो अपने ही हाथों अपनी चिता रच रहा है । मृत्यु से घबराना नहीं चाहिए किन्तु ऐसा मूर्खतापूर्ण Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणु अस्त्र और मानवीय दृष्टिकोण । ८३ निमंत्रण भी उसे नहीं देना चाहिए । वे थोड़े से व्यक्ति, जिनके हाथ में सत्ता है, इस प्रश्न पर मानवीय दृष्टि से नहीं सोच रहे हैं । वे सोच रहे हैं, राष्ट्रीय दृष्टि से । पर राष्ट्र रहेगा कैसे जब मनुष्य ही नहीं होगा ? अणु अस्त्रों से मृतप्राय मनुष्यजति क्या राष्ट्र को समुन्नत रख सकेगी ? अणु अस्त्रों से अभिशप्त अन्धी, बहरी भावी पीढ़ी से क्या राष्ट्र समुन्नत होंगे ? सारी स्थिति बहुत स्पष्ट है, निर्विवाद है, उसे जानते हुए भी जो अनजान बन रहे हैं, उन्हें कैसे जगाया जाए ? आज इस दिशा में तीव्र प्रयत्न की आवश्यकता है । शान्ति प्रतिष्ठान ने अभी-अभी एक अणु अस्त्र-विरोधी सम्मेलन बुलाया था । वह भी शायद शीघ्रता में हुआ होगा । इसीलिए वहाँ शान्ति के लिए अनवरत प्रयत्न करने वाले अनेक संस्थाओं के प्रतिनिधि नहीं थे । अध्यात्मवादी या शान्ति की दिशा में प्रयत्न करने वाले शायद मिलना नहीं जानते । वे किसी - किसी बहाने पृथक् होकर चलते हैं । हिंसा में अपूर्व मेल होता है । उसकी शक्ति तत्काल एकत्रित हो जाती है । हमें अहिंसा की शक्ति को संचित करना है । निःशस्त्रीकरण की दिशा में कोई राष्ट्र पहल करने को तैयार नहीं है । पूर्ण निःशस्त्रीकरण सर्वथा वांछनीय होते हुए भी, सम्भव है तंत्र के लिए व्यावहारिक न हो किन्तु अणु अस्त्र जैसे मानव जाति के प्रलयकारी अस्त्रों के निर्माण तथा संग्रह का उत्सर्ग करना अनिवार्य है । इस दिशा में जो पहल करेगा, वह मानवता का सबसे बड़ा पुजारी होगा । युद्ध की कल्पना करना बहुत धृष्टता की बात है । किन्तु युद्धकाल में भी युद्धस्थली से अतिरिक्त क्षेत्र को प्रभावित करने वाले अस्त्रों के निर्माण और प्रयोग पर एक अन्तर्राष्ट्रीय नियंत्रण हो और यदि वह मानवता की अखण्डता के आधार पर हो तो वह विकास का एक बहुत बड़ा चरण होगा । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग योग शब्द युज् घातु से बनता है । उसके दो अर्थ हैं— जोड़ना और समाधि | साधना काल में मन आत्मा से जुड़ता है, इसलिए आत्मा और मन के सम्बन्ध को योग कहा जाता है । साधना काल में मन की समाधिहो जाती है, अतः उस समाधि दशा को योग कहा जाता है । जैन - साहित्य में योग के अर्थ में समाधि का प्रयोग अधिक होता है । महर्षि पतंजलि के अनुसार चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा जाता है | आचार्य हरिभद्र के अनुसार मोक्ष से सम्बन्ध कराने वाला समूचा धर्मव्यापार योग है । 'मनोनुशासनम्' में योग की परिभाषा इन दोनों से भिन्न है । समाधि का अर्थ है, आत्मा की सहज अवस्था । वह आहार, श्वासउच्छ्वास, शरीर, इन्द्रिय, वाणी और मन के शोधन तथा निरोध से प्राप्त होती है । इसलिए उन्हीं के शोधन तथा निरोध को योग कहा गया है । आहार-शुद्धि के बिना समाधि-दशा प्राप्त नहीं हो सकती, इसलिए आहार की शुद्धि करो और पूर्ण समाधि के लिए आहार का निरोध करो । इसी प्रकार श्वास- उच्छ्वास, इन्द्रिय, वाणी और मन की शुद्धि के बिना समाधि-दशा प्राप्त नहीं हो सकती । इसलिए इनकी शुद्धि करो और पूर्ण समाधि के लिए इनका निरोध करो । योग के चार प्रकार योग के आचार्यों ने योग के चार प्रकार बतलाए हैं (१) हठयोग ( २ ) लययोग (३) मंत्रयोग (४) राजयोग हठयोग : हठयोग का सांकेतिक अर्थ है सूर्य और चन्द्र को एकत्र करने कला । हठयोगी 'हकार' का अर्थ सूर्य और 'ठकार' का अर्थ चन्द्र Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग । ८५ करते है। सूर्य और चन्द्र दोनों लाक्षणिक शब्द हैं । सूर्य प्राण-वायु और चन्द्र अपान-वायु का वाचक है । इन दोनों पर विजय प्राप्त करना हठयोग का मुख्य उद्देश्य है। हठयोग के आठ अंग हैं : (१) यम (५) प्रत्याहार (२) नियम (६) धारणा (३) आसन (७) ध्यान (४) प्राणायाम (८) समाधि वायुविजय के लिए इनमें प्राणायाम ही मुख्य है । उसके तीन रूप हैं : (१) पूरक (२) रेचक ... (३) कुम्भक 'श्वास भरने को पूरक, बाहर निकालने को रेचक और रोकने को कुम्भक कहा जाता है । श्वास बाहर रोका जाता है, उसे बहिः कुम्भक और भीतर रोका जाता है, उसे आन्तरिक कुम्भक कहा जाता है। सूर्य अर्थात् प्राण-वायु का स्थान हृदय है। चन्द्र अर्थात् अपान-वायु का स्थान नासिकाग्र से बारह अंगुल पर है। इन दोनों का मिलन दोनों कुम्भकों में होता है। हृदय में चन्द्र (अपान-वायु) लय पाता है और सूर्य प्राण-रूप होकर बाहर नहीं निकलता तब तक आन्तरिक कुम्भक होता है। चन्द्र के स्थान में सूर्य (प्राण-वायु) लय पाता है और चन्द्र अपान-रूप में ऊपर उठना प्रारम्भ नहीं करता तब तक बहिः कुम्भक होता है। इन दोनों दशाओं में दोनों वायु मिलते हैं । इसलिए इसे सूर्य-चन्द्र का एकत्रीकरण, मिलन अथवा हठयोग कहा जाता है। __ लययोग : छह या नव चक्रों (नाड़ी-ग्रन्थि स्थानों) में धारणा ध्यान करते-करते मन का लय होता है, वह लययोग है। लय अर्थात् बाह्य ज्ञान से शून्य हो जाना, चित्त को किसी वस्तु में खो देना, चित्त का किसी अनिर्देश्य आकार में विलय कर देना। मंत्रयोग : मंत्र का जप अथवा इष्ट की आराधना करते-करते जो मन ___ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ । तट दो : प्रवाह एक का लय होता है, वह मंत्रयोग है। राजयोग : शरीर, वायु और मन को स्थिर करना राजयोग है। यह प्राणायाम या प्राणविजय की प्रक्रिया है। योग-चतुष्ट्य के परिवार के रूप में बन्ध, नाड़ी, वायु, तत्त्व, जप, चक्र आदि का ज्ञान आवश्यक है। बन्ध बन्ध तीन हैं : (१) जालन्धर (२) उड्डीयान (३) मूल (१) जालन्धर : ठुड्डी को कण्ठ कूप में स्थापित करने को जालन्धर बन्ध कहा जाता है। सर्वांगासन, हलासन तथा मत्स्यासन की एक मुद्रा में यह अपने-आप हो जाता है। मानसिक विकास के लिए यह बहुत उपयोगी है। इससे कण्ठमणि (थाइरायड ग्लैण्ड) पर उचित दबाव पड़ता है। आधुनिक शरीर-शास्त्रियों के अनुसार कण्ठमणि ही शरीर में रक्त-ताप तथा प्रेम, ईर्ष्या, द्वेष आदि वत्तियों को उत्पन्न करने वाला है। इससे थाइरोक्लिन रस का स्राव होता है । वह उक्त वृत्तियों को उत्पन्न करता है । यह हमारे शरीर की नियामक ग्रन्थि है। इस पर जालन्धर बन्ध के द्वारा हम नियंत्रण रख सकते हैं और अनेक उपयोगी रसों का स्राव कर सकते हैं। (२) उड्डीयान : पेट को अन्दर सिकोड़ने और फिर बाहर फुलाने को उड्डीयान बन्ध कहा जाता है। (३) मूल : गुदा के ऊर्वाकर्षण को मूल बन्ध कहा जाता है। नाड़ियां प्रधान नाड़ियां तीन हैं : (१) सूर्य नाड़ी इड़ा (२) चन्द्र नाड़ी—पिंगला (३) सुषुम्णा सूर्य नाड़ी की उत्पत्ति मणिपूर चक्र से दाएं नथुने से मिलती हुई होती है, इसलिए उसका श्वास गर्म होता है। बाएं नथुने से श्वास अनाहत चक्र Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग । ८७ तक जाकर वापस आता है, यह श्वास चन्द्रामृत से आता है, इसलिए ठण्डा होता है। सूर्य (हृदय) का स्पर्श कर जो वायु बाहर निकलता है, वह ऊष्ण और जो चन्द्र (नासिकाग्र से बाहर बारह अंगुल स्थान) का स्पर्श कर अन्दर आता है, वह शीत होता है। ___ चन्द्र नाड़ी में प्राण की गति होती है, तब शरीर शीत होता है। सूर्य नाड़ी में प्राण की गति होती है, तब शरीर उष्ण होता है, इसलिए यह मान्यता है कि दिन में चन्द्र और रात को सूर्य नाड़ी चलानी चाहिए। प्रातः और मध्याह्न में जिस व्यक्ति का चन्द्र-स्वर और सायंकाल में सूर्य-स्वर चलता है, वह स्वस्थ होता है। भोजन के बाद आधी घड़ी तक सूर्य-स्वर और जल पीने के बाद आधी घड़ी तक चन्द्र-स्वर चलता रहे तो स्वास्थ्य के लिए हितकर होता है। चन्द्र-स्वर से पित्त-प्रकोप से उत्पन्न रोग दूर होते हैं और सूर्य-स्वर से वात-कफ के प्रकोप से उत्पन्न रोग दूर होते हैं। वायु वायु के पांच प्रकार हैं : (१) प्राण (२) उदान (३) व्यान (४) समान (५) अपान इनके स्थान, गति और कार्य इस प्रकार हैं : स्थान : सिर, छाती, हृदय, पाचकाग्नि के पास, गुदा । गति : छाती, कण्ठ, नासा, नाभि, गला, सर्वत्वचा, कोष्ठ, श्रोणि, वस्ति, मेहन, ऊरु। कार्य : (१) बुद्धि, हृदय, इन्द्रिय और मन को धारण करना तथा थूकना; छींक, डकार, निःश्वास और अन्न-प्रवेश--ये प्राण-वायु के कार्य हैं। (२) वाणी की प्रवृत्ति, उत्साह, बल, वर्ण, कफ, स्मृति—ये उदान-वायु के कार्य हैं। (३) गति, अंग के नीचे ले जाना, ऊपर लाना, आंख को मूंदना Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ । तट दो : प्रवाह एक खोलना-ये व्यान-वायु के कार्य हैं। (४) अन्न को ग्रहण करना, पचाना, विवेचन करना, सार और असार में भेद करना और असार भाग (मल-सूत्र) को नीचे सरकाना-ये समान वायु के कार्य हैं। (५) वीर्य, रज, मल, मूत्र को बाहर निकालना अपान-वायु का कार्य है। विकृति और परिणाम १. रुक्षता, व्यायाम, लंघन, चोट, यात्रा तथा वेग-निरोध से प्राण-वाय विकृत होती है । इसके परिणाम हैं-चक्षु आदि इन्द्रियों का विनाश, पीनस आदित, प्यास, कास, श्वास आदि रोगों की उत्पत्ति । २. छींक, डकार, वमन एवं नींद के वेगों को रोकने तथा अति रुदन, अति हास्य एवं भारी बोझ उठाने से उदान-वायु विकृत होती है। इसके परिणाम हैं—कण्ठ-रोध, मन-भ्रंश, वमन, रुचि का नाश, पीनस, गलगण्ड आदि रोगों की उत्पत्ति । ३. अति भ्रमण, चिन्ता, खेल, विषय-चेष्टा, रुक्ष भोजन, भय, हर्ष एवं शोक से व्यान-वायु विकृत होती है। इसके परिणाम हैं-पुरुषत्व-हानि, उत्साह-हानि, बल-हानि, चित्त की बेचैनी, अंगों में जड़ता, कुष्ठ, विसर्प आदि रोगों की उत्पत्ति । ४. विषम भोजन, अजीर्ण भोजन, शीत भोजन और संकीर्ण भोजन तथा असमय में सोने या जागने से समान-वायु विकृत हो जाती है। इसके परिणाम हैं-शूल, गुल्म, ग्रहणी आदि पक्काशय के रोगों की उत्पत्ति । ५. सूक्ष्म तथा भारी अन्न के सेवन, वेगों को रोकने या अति प्रवृत्ति करने, अति बैठने, खड़े रहने तथा चलने से अपान-वायु विकृत होती है। इसके परिणाम हैं—पक्काशयगत कष्टसाध्य रोगों एवं वीर्य रोगों, अर्श, गुद-भ्रंश आदि रोगों की उत्पत्ति । कुछ योग-ग्रन्थों में इस विषय का प्रतिपादन निम्न प्रकार मिलता है। यह संक्षिप्त-सरल है : Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग । ८६ वायु प्राण अपान समान उदान व्यान तत्त्व केन्द्र स्थान हृदय गुदा नाभि कण्ठ नसों के समीप नाम वेग १. पृथ्वी अल्पतर २. जल अल्प ३. तेजस् तीव्र ४. वायु तीव्रतर ५. आकाश तीव्रतम लम्बाई १. पृथ्वी : मूलतः प्राण तत्त्व एक ही है । अणुओं के न्यूनाधिक वेग या कम्पन के अनुसार उसके पांच विभाग होते हैं । उनके नाम, वेग, रंग, आकार आदि इस प्रकार हैं : ५. आकाश : अस्पष्ट कार्य श्वासोच्छ्वास, फेफड़ों को साफ़ करना । मल-मूत्र विसर्जन । रंग भुक्त आहार को पाचन - योग्य करना । मस्तिष्क में रस पहुंचाना । रुधिराभिसरण व संधियों को गति देना । आकार पीला चतुष्कोण सफ़ेद या बैंगनी अर्धचन्द्राकार लाल नीला या आसमानी अनेक बिंदु गोल बेस्वाद ( या आकारशून्य ) गति नाक से बाहर १२ अंगुल नासिका के समीप नासिका के नीचे १६ अंगुल तक स्पर्श । २. जल : नाक से बाहर १६ अंगुल नासिका के नीचे भाग में – १२ अंगुल तक स्पर्श । ३. तेजस् : नाक से बाहर ४ अंगुल नासिका के ऊपरी भाग मेंअंगुल तक स्पर्श । ४. वायु : नाक से बाहर ८ अंगुल नासिका के दाएं-बाएं - ४ अंगुल तक स्पर्श । त्रिकोण गोल काला या नीलाभ रस- स्वाद मधुर चरपरा तीखा खट्टा ८ दोनों स्वरों के अन्दर बहकर गतिशून्य हो जाता है । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० । तट दो : प्रवाह एक गुण कार्य इन्द्रिय-व्यापार १. पृथ्वी रिक्तस्थान जड़ता हड्डी, मांस, त्वचा, सूंघना नाड़ी, रोम २. जल कम्पन शीतलता वीर्य, रक्त, मज्जा, स्वाद मूत्र, लाल ३. तेजस् प्रसरण उष्णता क्षुधा, प्यास, नींद, देखना जड़ता, आलस्य ४. वायु संकोचन सावधानता धावन, चलन, मोटन, स्पर्श करना संकोच, प्रसारण ५. आकाश निरोध शान्ति राग, द्वेष, लज्जा, सुनना भय, मोह, स्वर और तत्त्व १. चन्द्र-स्वर पृथ्वी : मानसिक धैर्य, उत्साह आदि की प्राप्ति । २. चन्द्र-स्वर जल : मित्र-प्रेम, सम्मान आदि की प्राप्ति । ३. चन्द्र-स्वर तेजस् : क्लेश-हानि आदि । ४. चन्द्र-स्वर वायु : क्लेश-हानि आदि । ५. चन्द्र-स्वर आकाश : शून्यता, आलस्य, प्रमाद । १. सूर्य-स्वर पृथ्वी : सुख-विनोद आदि की प्राप्ति । २. सूर्य-स्वर जल : विराग, विवेक, सन्तोष आदि । ३. सूर्य-स्वर तेजस् : उग आदि । ४. सूर्य-स्वर वायु : दु:ख, सन्ताप आदि। ५. सूर्य-स्वर आकाश : रोग, भय, शोक आदि । करणीय कार्य १. पृथ्वी तत्त्व में विचारप्रधान स्थिर कार्य । २. जल तत्त्व में चर कार्य। ३. तेजस् तत्त्व में बहुश्रमसाध्य कार्य । ४. वायु तत्त्व में क्रूरतापूर्ण कार्य । ५. आकाश तत्त्व में केवल तत्त्व विद्या का अभ्यास। . सौम्य कार्यों में चन्द्र-स्वर और पृथ्वी तत्त्व व्यवहृत किए जाते हैं; क्रूर Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग । ६१ कार्यों में सूर्य स्वर और अग्नि-तत्त्व । पृथ्वी और जल तत्त्व आरोग्यकारक और सफलता के हेतु होते हैं। वायु और आकाश तत्त्व आरोग्यकारी किन्तु शुभ कार्यों के लिए अनुपयुक्त होते हैं । सूर्य-स्वर में अग्नि और वायु तत्त्व उत्तम होते हैं । चन्द्र-स्वर और जल तत्त्व प्रवहमान हो तो ज्वर-निवृत्ति होती है। चन्द्र-स्वर में जल तत्त्व चले तो शरीर में प्रविष्ट स्थावर जंगम विष दूर होता है। पृथ्वी तत्त्व की अधिकतासे यकृत-सम्बन्धी रोग दूर होते पृथ्वी 4. बीज १. पृथ्वी : लं : सोम-बुद्ध : २. जल : वं : मंगल-शुक्र : अग्नि ३. तेजस् : हं : गुरु : वायु ४. वायु : यं : शनि-रवि : जल ५. आकाश : सूर्योदय के समय ये तत्त्व चलते हैं तो शरीर को निरोग समझना चाहिए। तत्त्व की पहचान सर्वेन्द्रिय गोपन मुद्रा करने पर जिस रंग का बिंदु दीखे, वही तत्त्व प्रवहमान समझना चाहिए। अभ्यास-काल में जो तत्त्व प्रवहमान हो, उसके बीज मंत्र का जप करना चाहिए। काम, क्रोध, भय आदि से तत्त्व के आन्दोलन में न्यूनाधिकता होती है। उससे तत्त्व विषम हो जाते हैं। तत्त्व की विषमता से रोग उत्पन्न होते हैं । क्रोध से अग्नि तत्त्व प्रधान हो जाता है, मोह से जल तत्त्व और भय से पृथ्वी तत्त्व-रोग का अर्थ है तत्त्व-वैषम्य और आरोग्य का अर्थ है तत्त्व-साम्य । लोम-विलोम प्राणायाम से तत्त्व-वैषम्य दूर होता है। चक्र और तत्त्व मूलाधार चक्र पृथ्वी तत्त्व स्वाधिष्ठान चक्र जल तत्त्व मणिपूर चक्र तेजस् तत्त्व अनाहत चक्र वायु तत्त्व विशुद्ध चक्र आकाश तत्त्व Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ । तट दो : प्रवाह एक जप रंग ऊं—ओंकार का जप मंत्रों में सर्वोपरि स्थान है । इसके उच्चारण का शरीर और मन पर अद्भुत परिणाम होता है। ऊं का सन्धिविच्छेद दो प्रकार से होता है : (१) अ उ म्, (२) अ अ आ उ म् । प्रथम विकल्प के जप में 'अ' का उच्चारण करते समय पेडू पर लाल रंग, 'उ' का उच्चारण करते समय हृदय पर नील रंग और 'म' का उच्चारण करते समय आज्ञाचक्र पर सफेद रंग का चिन्तन करना चाहिए। दूसरे विकल्प का जप-मंत्र है-अ सि आ उ सा। इनके धारणा-स्थान और रंग-चिन्तन इस प्रकार हैं : स्थान नाभि-कमल सफेद सि : मस्तक-कमल लाल आ मुख-कमल पीला हृदय-कमल हरा सा : कण्ठ काला सोहम् 'हकार' के उच्चारण से प्राणवायु बाहर निकलता है। 'सो' के उच्चारण से प्राण-वायु अन्दर प्रवेश करता है । 'सो' का कण्ठचक्र पर, 'ह' का आज्ञाचक्र पर और 'म्' का सहस्रार चक्र पर ध्यान करना चाहिए। इस का जप प्रातःकाल, मध्याह्न और रात को इन तीनों समयों में करना चाहिए। प्रारम्भ में जप पांच मिनट तक करना चाहिए। प्रति सप्ताह दोदो मिनट बढ़ाते हुए पन्द्रह मिनट तक पहुंच जाना चाहिए । इस प्रक्रिया से अन्तर्मन जाग्रत होता है। चक्र का अर्थ है चेतना के केन्द्र-स्थान । वे सात माने जाते हैं। उनके नाम हैं : चक्र दल स्थान १. मूल चार गुह्य-देश और लिंग-मूल के मध्य २. स्वाधिष्ठान छह बार मुख-देश और लिंग-भूल के मध्य लिंग-मूल ___ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग । ६३ ३. मणिपूर ४. अनाहत ५. विशुद्ध ६. आज्ञा ७. सहस्रार १. मूल २. स्वाधिष्ठान : ३. मणिपूर ४. अनाहत ५. विशुद्ध ६. आज्ञा ७. सहस्रार हजार चक्र-जागरण के फल इस प्रकार माने जाते हैं : : मुमुक्षु भाव वासना-नाश' दस बारह सोलह दो : आत्मलय : आशा-नाश : माया-नाश : 4. नाभि हृदय कण्ठ आत्म-ज्ञान आत्म-साक्षात्कार भूमध्य मस्तिष्क Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग साधना का अर्थ है अध्यवसान, (अचेतन) मन में निमग्न होना। उसकी अनेक कक्षाएं हैं। पहली कक्षा हैकायोत्सर्ग--देह-विसर्जन या शिथिलीकरण का अभ्यास । दूसरी कक्षा है आत्म-विश्लेषण की पद्धति द्वारा अचेतन, अर्धचेतन और चेतन भावनाओं का प्रकटीकरण । अवदमित सम्पर्कों, विचारों और आवेगों का प्रकटीकरण, परिवर्तन और शोधन । आत्म-विश्लेषण के तीन अंग हैं : १. आत्म-निरीक्षण, २. आलोचना, ३. प्रायश्चित्त । तीसरी कक्षा हैभावना—आत्मोन्मुखी प्रवृत्तियों का बार-बार अभ्यास । चौथी कक्षा हैध्यान-चित्त का एकाग्रीकरण या निरोध । पांचवीं कक्षा है-- स्वाध्याय, आत्मोन्मुखी चिन्तन-मननगत तन्मयता। छठी कक्षा हैप्रतिसंलीनता---इन्द्रियों को अन्तर्मुखी बनाना। सातवीं कक्षा हैयोगासन। आठवीं कक्षा हैसुखद सामुदायिक जीवन । इसके दो अंग हैं : Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग। ६५ १. विनय, २. सेवा। नवीं कक्षा है---- आहार-संयम। साधना की ये नौ कक्षाएं हैं । प्रस्तुत निबन्ध में मैं पहली कक्षा पर प्रकाश डालूंगा। कायोत्सर्ग : सिद्धान्त पक्ष - प्रवृत्ति के तीन स्रोत हैं-काय, वाणी और मन । इनमें मुख्य काय है। वाणी और मन उसके माध्यम से ही प्रवृत्त होते हैं। काय के स्पन्दनकाल में वाणी और मन प्रस्फुटित होते हैं। उसकी अस्पन्द-दशा में वे विलीन हो जाते हैं। शास्त्रीय परिभाषा यह है—भाषा और मन की पुद्गल वर्गणाओं का ग्रहण काय-योग के द्वारा होता है। फिर उनका भाषा और मन के रूप में परिणमन होता है और विसर्जन-काल में वे भाषा और मन कहलाते हैं-भाष्यमाणी भाषा होती है, पहले-पीछे नहीं होती, इसी प्रकार मन्यमान मन होता है, पहले-पीछे नहीं होता। काय वाणी और मन की प्रवृत्ति का स्रोत है, इसीलिए उसकी निवृत्ति या स्थिरता वाणी और मन की स्थिरता का आधार बनती है। काय का त्याग होने पर वाणी और मन स्वयं त्यक्त हो जाते हैं । कायोत्सर्ग : अभ्यास-पक्ष कायोत्सर्ग (शरीर-विसर्जन) की पहली प्रक्रिया शिथिलीकरण है। यदि आप बैठे-बैठे कायोत्सर्ग करना चाहते हैं तो सुखासन में बैठ जाइएपालथी बाँधकर या अर्ध पद्मासन या पद्मासन लगाइए। फिर पृष्ठ वंश (रीढ की हड्डी) और गर्दन को सीधा कीजिए। यह ध्यान रहे कि उनमें न झुकाव हो और न तनाव हो। वे शिथिल भी रहें और सीधे सरल भी। अब दीर्घ श्वास लीजिए। श्वास को उतना लम्बाइए जितना बिना किसी कष्ट के लम्बा सकें । इससे शरीर और मन दोनों के शिथिलीकरण में बड़ा सहारा मिलेगा। आठ-दस बार दीर्घ श्वास लेने के बाद वह क्रम सहज हो जाएगा। फिर शिथिलीकरण में मन को लगाइए। स्थिर बैठने से कुछ-कुछ शिथिलीकरण तो अपने-आप हो जाता है। अब विचारधारा द्वारा प्रत्येक अवयव को शिथिल कीजिए। मन को उसी अवयव में टिकाइए, जिसे आप Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ । तट दो : प्रवाह एक शिथिल कर रहे हैं । अवयवों को शिथिल करने का क्रम यह रखिए-गर्दन, कन्धा, छाती, पेट-दाएं-बाएं, पृष्ठ-भाग, भुजा, हाथ, हथेली, उंगली, कटि, टांग, पैर और उंगली। अब मांसपेशियों को शिथिल कीजिए। मन से शरीर के भाग और मांसपेशियों का अवलोकन कीजिए। इस प्रकार अवयवों और मांसपेशियों के शिथिलन के बाद स्थूल-शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद और सूक्ष्म-शरीर से दृढ़ सम्बन्ध स्थापन का ध्यान कीजिए। सूक्ष्म शरीर दो हैं : (१) तैजस, (२) कार्मण। तैजस-शरीर विद्युत्व का शरीर है। उसके साथ सम्बन्ध स्थापित कर प्रकाश का अनुभव कीजिए। शक्ति और दीप्ति की प्राप्ति का यह प्रबल माध्यम है। कार्मण शरीर के साथ सम्बन्ध स्थापित कर भेद-विज्ञान का अभ्यास कीजिए। इस भूमिका में ममत्व-विसर्जनहो जाएगा। शरीर मेरा है—यह मानसिक भ्रांति विजित हो जाएगी। यदि आप सोकर कायोत्सर्ग करना चाहते हैं तो१. सीधे लेट जाएं। २. सिर से लेकर पैर तक के अवयवों को पहले तानें और फिर क्रमशः उन्हें स्थिर करें। ३. दीर्घ श्वास लें। ४. सम मात्रा में श्वास लें। ५. मन को श्वास-प्रश्वास में लगा किसी एक विचार पर स्थिर हो जाएं। सुप्त कायोत्सर्ग में दोनों हाथों-पैरों को अलग-अलग रखिए। यदि आप खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करना चाहते हैं तो१. पैरों के पंजों को पीछे से सटाकर और आगे से चार अंगुल के अन्तर से स्थापित कर खड़े हो जाइए। २. दोनों हाथों को नीचे की ओर फैला दीजिए । ३. दीर्घ श्वास लीजिए। ४. मानसिक निरीक्षण के साथ-साथ शरीर के हर अवयव को शिथिल __ कीजिए और ध्यान में मग्न हो जाइए। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग । ६७ कायोत्सर्ग के साथ यथास्थान इन संकल्पों को दोहराइए : १. शरीर शिथिल हो रहा है। २. श्वास शिथिल हो रहा है। ३. स्थूल शरीर का विसर्जन हो रहा है। ४. तैजस शरीर प्रदीप्त हो रहा है। ५. कार्मण शरीर भिन्न हो रहा है । ६. ममत्व विसर्जन हो रहा है। ७. मैं आत्मस्थ हो रहा हूं।* * साधु-साध्वियों के प्रणिधान-कक्ष में दिए गए भाषण से। ___ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य जब हम दीक्षित हुए थे उस समय हमने पाँच महाव्रत स्वीकार किए थे। वह स्वीकार संकल्पज स्वीकार था। संकल्पज स्वीकार से साधना का प्रवेशद्वार खुलता है, किन्तु सिद्धि नहीं मिलती। उसके लिए अधिक साधना अपेक्षित है। वह अनेक उतारचढ़ावों के बाद प्राप्त होती है। ___ब्रह्मचर्य दो भागों में विभक्त है--संकल्प सिद्ध-ब्रह्मचर्य और सिद्धब्रह्मचर्य । सिद्ध-ब्रह्मचर्य की भूमिका तक पहुंचना हमारा लक्ष्य है । शास्त्रों में 'घोर बंभयारी' शब्द आता है। वह एक विशेष प्रकार की लब्धि (योगजशक्ति) है । वह दीर्घकालीन साधना से उपलब्ध होती है। राजवातिक के अनुसार जिसका वीर्य स्वप्न में भी स्खलित न हो, वह घोर ब्रह्मचारी होता है। जिसका मन स्वप्न में भी अणु-मात्र विचलित नहीं होता उसे घोर-ब्रह्मचर्य की लब्धि प्राप्त होती है। शुभ संकल्पों और साधना के द्वारा इस भूमिका तक पहुंचा जा सकता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है---मैथुन विरति या सर्वेन्द्रियोपरम । असत्य, चोरी आदि का सम्बन्ध मुख्यत: मानसिक भूमिका से है। ब्रह्मचर्य दैहिक और मानसिक दोनों भूमिकाओं से सम्बन्धित है। अत: उसकी पालना के लिए शरीर-शास्त्रीय ज्ञान भी आवश्यक है। उसके अभाव में ब्रह्मचर्य को समझने में भी कठिनाई होती है। अब्रह्मचर्य के दो कारण हैं : १. मोह, २. शारीरिक परिस्थिति। व्यक्ति जो कुछ खाता है उसके शरीर में प्रक्रिया चलती है। उसकी पहली परिणति रस है । वह शोणित आदि धातुओं में परिणत होता हुआ सातवीं भूमिका में वीर्य बनता है। उसके बाद वह ओज के रूप में शरीर में व्याप्त होता है। ओज केवल वीर्य का ही सार नहीं है। वह सब धातओं का सार है। शरीर में अनेक नाड़ियां हैं। उनमें एक काम-वाहिनी Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य । ६६ नाड़ी है। उसका स्थान पैर के अंगूठे से लेकर मस्तिष्क के पिछले भाग तक है। काम-वासना को मिटाने के लिए जो आसन किए जाते हैं उन आसनों से इसी नाड़ी पर नियंत्रण किया जाता है। खाने से वीर्य बनता है। वह रक्त के साथ भी रहता है और वीर्याशय में भी जाता है। वीर्याशय में अधिक वीर्य जाने से अधिक उत्तेजना होती है और काम-वासना भी अधिक जागती है । ब्रह्मचारी के सामने यह एक कठिनाई है कि वह जीते-जी खाना नहीं छोड़ सकता। जो खाता है उसका रस आदि भी बनता है। वीर्य भी बनता है। वह अण्डकोश में जाकर संग्रहीत भी होता है और वह वीर्याशय में भी जाता है। योगियों ने इस समस्या पर विचार किया कि इस परिस्थिति को विवशता ही माना जाय या इस पर नियंत्रण पाने का कोई उपाय ढूंढा जाय। उन्होंने स्पष्ट अनुभव किया–वीर्य केवल वीर्याशय में जाएगा तो पीछे से चाप पड़ने से आगे का वीर्य बाहर निकलेगा, फिर दूसरा आएगा और वह भी खाली होगा। खाली होना और भरना यही क्रम रहेगा तो शरीर के अन्य तत्त्वों को पोषण नहीं मिलेगा। इसलिए उन्होंने वीर्य को मार्गान्तरित करने की पद्धति खोज निकाली। मार्गान्तरण के लिए ऊर्ध्वाकर्षण की साधना का विकास किया। उनका प्रयत्न रहा कि वीर्य वीर्याशय में कम जाए और ऊपर सहस्रार-चक्र में अधिक जाए । इस प्रक्रिया में वे सफल हए । वीर्य को ऊर्ध्व ले जाने से वे ऊर्ध्वरेता बन गए। चाप पड़ने का कारण वीर्याशय पर चाप पड़ने का एक कारण आहार है। ब्रह्मचर्य के लिए आहार का विवेक अत्यन्त आवश्यक है। अतिमात्र-आहार और प्रणीतआहार दोनों वर्जनीय हैं । गरिष्ठ आहार नहीं पचता, इसलिए वह कब्ज करता है । मलावरोध होने से कुवासना जागती है और वीर्य का क्षय होता है। इसलिए पेट भारी रहे उतना मत खाओ और प्रणीत-आहार मत करो। संतुलित आहार करो, जिससे पेट साफ रहे । खाना जितना आवश्यक है उससे कहीं अधिक आवश्यक है मल-शुद्धि । मल के अवरोध से वायु बनती है। वायु जितनी अधिक बनेगी उतना ही अहित होगा । वायु-विकार से अधिक बचो। वीर्य का जब अधिक चाप होता है तब ब्रह्मचर्य के प्रति Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० । दो तट : प्रवाह एक सन्देह उत्पन्न हो जाता है। _ 'उत्तराध्ययन' में कहा गया है-"बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, केवलियन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा।" शंका, कांक्षा और विचिकित्सा उत्पन्न होती है, भेद होता है, उन्माद होता है, दीर्घकालिक रोग और आतंक भी हो जाता है तथा केवलि-प्रज्ञप्तधर्म से भ्रष्ट हो जाता है। ब्रह्मचर्य की साधना के लिए कुछेक साधनों की सूचना दी जाती है। उनका अभ्यास किया जाए तो वह निश्चित परिणाम लाएगा। इनमें पहला साधन वीर्य-स्तम्भ प्राणायाम है । इसका दूसरा नाम ऊर्ध्वाकर्षण प्राणायाम भी है। सिद्धासन में बैठकर पूर्ण रूप से रेचन करें। रेचन-काल में चिन्तन करें कि मेरा वीर्य रक्त के साथ मिलकर समूचे शरीर में व्याप्त हो रहा है। परक करें। जालन्धर बंध और मूल बंध करें। पूरक काल में पेट को सिकोड़ें और फुलाएं। सिकोड़ने और फुलाने की क्रिया को पांच-सात पूरकों में सौ बार दोहराएं। दूसरा ध्यान है । तीसरा अल्पकालीन कुम्भक है। चौथा प्रतिसंलीनता इन्द्रियां चंचल होती हैं। पर वह उनकी स्वतंत्र प्रवृत्ति नहीं है । मन से प्रेरित होकर ही वे चंचल बनती हैं । मन जब स्थिर और शान्त होता है तब वे अपने-आप स्थिर और शान्त हो जाती हैं। मन अन्तर्मुखी बनता है, तब इन्द्रियां अन्तर्मुखी हो जाती हैं। महर्षि पतंजलि ने इसी आशय से लिखा है-'स्वविषया सम्प्रयोगे चिन्तस्य स्वरूपानुकारइवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः' । अपने विषयों के असंप्रयोग में चित्त के स्वरूप का अनुकरण जैसा करना इन्द्रियों का प्रत्याहार कहलाता है । प्रत्याहार के स्थान पर जैन आगमों में प्रतिसंलीनता का उल्लेख है। औपपातिक सूत्र में इन्द्रिय प्रतिसंलीनता के पांच प्रकार बतलाए गए हैं। ___ इन्द्रिय प्रतिसं लीनता के दो मार्ग हैं-विषय-प्रचार का विरोध और राग-द्वेष का निग्रह । आँखों से न देखें यह विषय प्रचार का निरोध है । विषय के साथ सम्बन्ध स्थापित हो जाए वहां राग-द्वेष न करना, रागद्वेष निग्रह है। प्रतिसंलीनता का अर्थ है-अपने-आप में लोन होना। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य । १०१ इन्द्रियां सहजतया बाहर दौड़ती हैं, उन्हें अन्तर्मुखी बनाना प्रतिसंलीनता है। उसकी प्रतिक्रिया यह है कोई आकार सामने आए तो उसकी उपेक्षा कर भीतर में देखा जाय, वैसे ही भीतर में सुना जाय, सूंघा जाय, स्वाद लिया जाय और स्पर्श किया जाय । प्रतिसंलीनता के लिए कंभक की आवश्यकता होती है। कुंभक का अर्थ है--श्वास को भीतर या बाहर जहां का तहां रोक देना । प्राण, मन और बिन्दु (वीर्य) का परस्पर गहरा सम्बन्ध है। प्राण पर विजय पाने से मन और बिन्दु स्वतः वश में हो जाते हैं। मन पर विजय पाने से प्राण और बिन्दु स्वतः वश में हो जाते हैं। बिन्दु पर विजय पाने से प्राण और मन स्वतः वश में हो जाते हैं। तीनों में से किसी एक को साधने से शेष दो स्वयं सध जाते हैं। प्राण को स्थिर करने के लिए कंभक करना चाहिए। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है—दाएं नथुने से श्वास भरें। कुछ देर रोककर अन्तः कुंभक करें। फिर बाएं नथुने से श्वास को बाहर निकाल दें। कुछ देर बाह्य कुंभक करें। दूसरे क्रम में पहले से विपरीत अर्थात् बाएं नथुने से श्वास लें । अन्तः कुंभक कर, दाएं नथुने से श्वास बाहर निकाल दें और बाह्य कुंभक करें। इस प्रकार एक बार कुंभक होता है। प्रतिदिन बारह-तेरह बार इसका अभ्यास करना चाहिए। वीर्य की उत्पत्ति समान वायु से होती है। उसका स्थान नाभि है। इसलिए कुंभक के साथ नाभि पर ध्यान करें। पूरक करते समय संकल्प करें कि वीर्य नाड़ियों द्वारा मस्तिष्क में जा रहा है। संकल्प में ऐसी दृढ़ता लाएं कि अपनी कल्पना के साथ वीर्य ऊपर चढ़ता दिखाई देने लगे। चाप में भी सहस्रार-चक्र पर ध्यान कर संकल्प करें कि नीचे खाली हो रहा है और ऊपर भर रहा है। वीर्य नीचे से ऊपर जा रहा है । ऐसा करने से वीर्य का चाप वीर्याशय पर नहीं पड़ेगा । फलतः उसके चाप से होने वाली मानसिक उत्तेजना से सहज ही बचाव हो जाएगा। इस विषय में यौन-शास्त्रियों के अभिमत भी माननीय हैं—विज्ञानविशारद स्कॉट हाल का मत है-अण्ड और डिम्ब ग्रन्थियों के अन्तःस्राव जब रक्त के साथ मिलकर शरीर के विभिन्न अंगों में प्रवाहित होते हैं Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ । तट दो : प्रवाह एक तो वे युवक और युवती के सर्वांगीण विकास में जादू की तरह नवजीवन का प्रभाव छोड़ते हैं। । हेलेना राइट ने इसके लिए बड़ा उपयोगी मार्ग बतलाया है-आत्मविकास के लिए कोई एक कार्य अपना लेना चाहिए और एकाग्रचित्त से दिन में कई बार यह सोचना चाहिए कि जननेन्द्रिय में केन्द्रित प्राण-शक्ति सारे स्नायु मण्डल में प्रवाहित होकर अंग-प्रत्यंग को पुष्ट कर रही है। थोड़े समय में ही इस मानसिक सूचना से तन और मन नये चैतन्य स्फूर्त एवं प्रफुल्ल हो उठेगे। इन साधनों के सिवाय शास्त्रों का अध्ययन, मनन, चिन्तन, व्यत्सर्ग आदि साधन भी मन को एकाग्र करने में सहायक होते हैं। मेरा विश्वास है कि ब्रह्मचर्य के लिए केवल मानसिक चिन्तन ही पर्याप्त नहीं है, दैहिक प्रश्नों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। भोजन-सम्बन्धी विवेक और मलशुद्धि का ज्ञान भी कम महत्त्व का नहीं है। यदि इनकी उपेक्षा की गई तो मानसिक चिन्तन अकेला पड़ जायेगा। मानसिक पवित्रता, प्रतिभा की सूक्ष्मता, धैर्य और मानसिक विकास के लिए ब्रह्मचर्य आवश्यक है । और उसकी सिद्धि के लिए उक्त साधनों का अभ्यास आवश्यक है।* * १-२-६५ को साधु-साध्वियों के प्रणिधान-कक्ष (साधना-शिविर) में दिए गए भाषण से। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य का शरीर-शास्त्रीय अध्ययन ग्रन्थियां शरीर-शास्त्र के अनुसार शरीर में आठ ग्रन्थियां होती हैं : १. श्लैष्मिक या पीयूष (पिच्यूटरी) २. कण्ठमणि (थाइरायड) ३. वृषण ४. सर्वकिण्वी (पैनक्रिया) ५. एड्रीनल या सुप्रारीनल ६. पैराथाइरायड ७. तृतीय नेत्र (पीनियल बाडी) ८: यौवन लुप्त (थाइमस) पीयूष ग्रन्थि यह ग्रन्थि दिमाग के नीचे होती है। यह थाइरायड, पैराथाइरायड, एडीनल, पैनक्रिया व वषण कोषों के स्रावों को नियंत्रित करती है। इस ग्रन्थि के रसों का कार्य इस प्रकार है : प्रथम रस का कार्य—शरीर-विकास । द्वितीय रस का कार्य-शरीर के जल तथा नमक का संतुलन । तृतीय रस का कार्य—गुर्दे के कार्य का नियंत्रण। पीयूष ग्रन्थि काम कम करे तो काम-शक्ति नष्ट हो जाती है । कण्ठमणि ग्रन्थि - यह गर्दन में श्वास नली से जुड़ी हुई होती है। इसका आकार तितली के समान होता है। इसका रस-स्राव अधिक होने पर शरीर को अधिक पोषण की जरूरत होती है । क्षुधा बढ़ जाती है। किन्तु अन्य अंग साथ नहीं देते इसलिए वह कमी पूरी नहीं होती। ऐसी स्थिति में दुर्बलता आ जाती Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ । तट दो : प्रवाह एक है। इस ग्रन्थि से रस कम निकले तो बुढ़ापा आ जाता है। सर्दी अधिक लगती है, भूख कम हो जाती है, शिथिलता और उदासी रहती है। वृषण ग्रन्थि यह पुरुष के ही होती है । यह अण्डकोषों में होती है। इसके रस-स्राव से पौरुष जागता है और दाढ़ी-मूंछे आती हैं। पैनक्रिया ग्रन्थि यह दो आँतों के बीच में होती है। एड्रीनल या सुप्रारीनल ग्रन्थि ये दोनों ग्रन्थियां गुर्दे के ऊपरी हिस्से में होती हैं। इनके स्राव शरीर के लिए बहुत आवश्यक होते हैं। इनसे साहस मिलता है। ये स्राव यकृत की चीनी को रक्त के द्वारा मांसपेशियों में ले जाते हैं। वह मांसपेशियों को जूझने की शक्ति देती है। पैराथाइरायड ग्रन्थि कण्ठमणि के पास गेहूं के दाने के बरावर चार ग्रन्थियां होती हैं । इन्हें पैराथाइरायड कहा जाता है। ये रक्त में कैलसियम, फासफोरस आदि का उचित संतुलन बनाए रखती हैं। ततीय नेत्र ग्रन्थि ___ यह मस्तिष्क में होती है। यौवन लप्त ग्रन्थि यह सीने में होती है। इनका कार्य अज्ञात है। प्रस्तुत विषय का सम्बन्ध वृषण-ग्रन्थियों से है। वीर्य की उत्पत्ति और धाराएं वृषण ग्रन्थियां दो स्राव उत्पन्न करती हैं बहिःस्राव और अन्तःस्राव। धमनियों द्वारा वृषण-ग्रन्थियों में रस-रक्त आता है। उसे प्राप्त कर दोनों स्रावों के उत्पादक अवयव अपने-अपने स्राव को उत्पन्न करते हैं। वीर्य अण्डकोष में उत्पन्न होता है। उसकी दो धाराएं हैं । एक वीर्याशय-जो मूत्राशय और मलाशय के मध्य में है—में जाती है। दूसरी रक्त के साथ मिलकर शरीर में दीप्ति, मस्तिष्क में शक्ति, उत्साह आदि पैदा करती है । वीर्याशय भरा रहे तो दूसरी धारा रक्त में अधिक जाती Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य का शरीर-शास्त्रीय अध्ययन । १०५ है। यह स्थिति शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभप्रद है। वीर्याशय खाली होता रहे तो वीर्य पहली धारा में इतना चला जाता है कि दूसरी को वह पर्याप्त रूप से मिल ही नहीं पाता। फलतः दोनों प्रकार के स्वास्थ्य को हानि पहुंचती है। वीर्याशय खाली न हो, इसकाध्यान रखना स्वास्थ्य का प्रथम प्रश्न है। वीर्य और ओज जीवन के दस स्थान हैं : १. मूर्धा ६. वस्ति २. कण्ठ ७. ओज ३. हृदय ८. शुक्र ४. नाभि ६. शोणित १०. मांस ये दस स्थान दूसरे प्रकार से भी मिलते हैं : १-२ : दो शंख-पटपड़ियां। ३-४-५ : तीन मर्म-हृदय, वस्ति और सिर । ६. कण्ठ । ७. रक्त । ८. शुक्र । ६. ओज । १०. गुदा। ओज इन दोनों प्रकारों में है। वह वीर्य (धात) का अन्तिम सार नहीं है, किन्तु सातों धातुओं (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र) का अन्तिम सार है। उसका केन्द्र-स्थान हृदय है, फिर भी वह व्यापी है। इससे दो बातें निरापन्न होती हैं : १. ओज का सम्बन्ध केवल वीर्य से नहीं है। २. वीर्य का स्थान अण्डकोष है, जबकि ओज' का स्थान हृदय है। ओज और वीर्य में तीसरा अन्तर यह है कि वीर्य का मध्यम परिमाण हो लाभप्रद होता है। वह हीन-मात्रा में हो तो क्षीणता आदि दोष बढ़ते हैं। वह अति-मात्रा में हो तो उससे मैथुन को प्रबल इच्छा और शुक्राश्मरी १. ओजस्तु तेजो धातूनां, शुक्रान्तानां परं स्मृतम् । हृदयस्थ मपि व्यापि, देह स्थिति निबन्धनम् ॥–शुश्रुत : ११॥३७॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ । तट दो : प्रवाह एक ( शुक्रजनित पथरी) रोग उत्पन्न होता है । ओज जितना बढ़े उतना ही लाभप्रद है । उसकी वृद्धि से मन की तुष्टि, शरीर की पुष्टि और बल का उदय होता है । २ वीर्य - व्यय के मार्ग वीर्य - व्यय के दो मार्ग हैं— जननेन्द्रिय और मस्तिष्क । भोगी तथा रोगी व्यक्ति के काम-वासना की उद्दीप्ति तथा वायु-विकार आदि शारीरिक रोग होने पर वीर्य का व्यय जननेन्द्रिय से होता है योगी लोग वीर्य का प्रवाह ऊपर की ओर मोड़ देते हैं । अतः उनके वीर्य का व्यय मस्तिष्क में होता है । वीर्य का प्रवाह नीचे की ओर अधिक होने से काम-वासना बढ़ती है और उसका प्रवाह ऊपर की ओर होने से कामवासना घटती है । अब्रह्मचर्य का प्रभाव काम-वासना के कारण जननेन्द्रिय द्वारा जो वीर्य व्यय होता है, वह ब्रह्मचर्य का ही एक प्रकार है । वह सीमित होता है तो उसका शरीर पर अधिक हानिकर प्रभाव नहीं होता । मन में मोह और संस्कारों में अशुद्धि उत्पन्न होती है, इसे आध्यात्मिक दृष्टि से हानि ही कहा जाएगा । जो आदमी अब्रह्मचर्य में अति आसक्त होता है, उसकी वृषण - ग्रन्थियों में आने वाले रस-रक्त का उपयोग बहिःस्राव उत्पन्न करने वाले अवयव कर लेते हैं । इसका फल यह होता है कि अन्तःस्राव उत्पन्न करने वाले अवयव उचित सामग्री के अभाव में अपना काम करने में अक्षम रह जाते हैं । फलतः सर्वधातुओं और सर्वांग पर होने वाले अन्तःस्राव के महत्त्वपूर्ण प्रभावों से वह वंचित रह जाता है और अनेक प्रकार के विकार उसके शरीर उत्पन्न होते हैं । आयुर्वेद के ग्रन्थों में इस विषय को एक उदाहरण के द्वारा समझाया गया है । " सात क्यारियों में सातवीं क्यारी में बड़ा गर्त हो किंवा उसमें से जल के निकलने के लिए छेद हो तो सीधी-सी बात है कि पहले सम्पूर्ण जल १. अतिस्त्रीकामतां वृद्धं, शुक्रं शुक्राश्मरीमपि । २. ओजो वृद्धौ हि देहस्य, तुष्टिपुष्टि बलोदयः ॥ - शुश्रुत: ११।१२॥ - शुश्रुत : १२।४१ ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य का शरीर-शास्त्रीय अध्ययन । १०७ उस गढ़े में भरने लगेगा या उस क्यारी को पूर्ण करने में व्यय होगा। यही स्थिति अति मैथुन आदि के कारण होने वाले शुक्रक्षय में होती है । निश्चित ही सम्पूर्ण रस प्रथम शुक्र-धातु की पुष्टि में लगता है परन्तु अति मैथुनवश शुक्र पुष्ट हो ही नहीं पाता। परिणामतया अन्य धातुओं की पुष्टि रस से हो नहीं पाती और शरीर में विभिन्न विकार उत्पन्न हो जाते हैं।" ब्रह्मचर्य का महत्त्व ब्रह्मचर्य से इन्द्रिय-विजय और इन्द्रिय-विजय से ब्रह्मचर्य सिद्ध होता है। वस्तुतः इन्द्रिय-विजय और ब्रह्मचर्य दो नहीं हैं। ब्रह्मचर्य की इन्द्रियविजय से एकात्मकता है, इसलिए उससे शरीर की स्थिरता, मन की स्थिरता और अनुद्विग्नता, अदम्य उत्साह, प्रबल सहिष्णुता, धैर्य आदि अनेक गुण विकसित होते हैं। ब्रह्मचर्य से हमारे स्थूल अवयव उतने प्रभावित नहीं होते, जितने सूक्ष्म अवयव होते हैं। कुछ लोगों का मत है कि पूर्ण ब्रह्मचर्य का शरीर और मन पर अनूकूल प्रभाव नहीं होता। इस मत में सचाई का अंश भी है पर उसी स्थिति में जब ब्रह्मचर्य का पालन केवल विवशता की परिस्थिति में हो। चिन्तन के प्रवाह को काम-वासना की लहरों से मोड़कर अन्य उदात्त भावनाओं की ओर ले जाया जाए तो ब्रह्मचर्य स्वशता की परिस्थिति में विकास पाता है। वह शरीर और मन की सूक्ष्मतम स्थितियों पर बड़ा लाभदायी प्रभाव डालता है। ब्रह्मचर्य की भावना क्यों ? बहुत सारे लोग ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते हैं, फिर भी नहीं कर पाते, ऐसा क्यों होता है ? अब्रह्मचर्य की भावना सहज ही क्यों उभर आती है ? इस प्रश्न का उत्तर कर्म-शास्त्रीय भाषा में यह है कि यह सब मोह के कारण होता है पर शरीर-शास्त्र की भाषा में कर्म का स्थान नहीं है। उसके अनुसार काम-वाहिनी नाड़ियों में रक्त का संचरण होने से अब्रह्मचर्य की भावना उभरती है। उसका संचरण नहीं होता तो वह भावना नहीं उभरती, कम हो तो कम और अधिक हो तो अधिक। इस सन्दर्भ में हम उस तथ्य की ओर संकेत कर सकते हैं कि ब्रह्मचारी के लिए गरिष्ठ या दर्पक आहार Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ । तट दो : प्रवाह एक का निषेध क्यों किया गया ? ब्रह्मचर्य के उपाय __ अब्रह्मचर्य एक आवेग है। हर आवेग पर मनुष्य अपनी नियंत्रण-शक्ति से विजय पाता है। मन की नियंत्रण-शक्ति का विकास ब्रह्मचर्य का प्रमुख उपाय है। पर यह प्रथम उपाय नहीं है। प्रथम है ब्रह्मचर्य के प्रति गाढ़ श्रद्धा होना। दूसरा है वीर्य या रक्त के प्रवाह को मोड़ने की साधना । इससे ब्रह्मचर्य जितना सहज हो सकता है, उतना नियंत्रण-शक्ति से नहीं। काम-वासना मस्तिष्क के पिछले भाग में प्रारम्भ होती है, इसलिए जैसे ही वह उभरे वैसे ही उस स्थान में मन को एकाग्र कर कोई शुभ संकल्प किया जाए, जिससे वह उभार शान्त हो जाए। पेट में मल, मूत्र और वायु का दबाव बढ़ने से काम-वाहिनी नाड़ियां उत्तेजित होती हैं। खान-पान और मल-शुद्धि में सजग रहना ब्रह्मचर्य की बहुत बड़ी शर्त है । वायु-विकार न बढ़े, इस ओर ध्यान देना भी बहुत ही आवश्यक है। काम-जनक अवयवों के स्पर्श से भी वासना बहत अपेक्षित है। इन सारी बातों का ब्रह्मचर्य के परिपार्श्व में बहुत महत्त्व है पर इस सबसे जिसका अधिक महत्त्व है,वह है वीर्य या रक्त-प्रवाह को मोड़ने की प्रक्रिया। उसकी कुछ विधियां इस प्रकार हैं : ऊर्ध्वाकर्षण (क) सिद्धासन में बैठे। श्वास का रेचन करें-बाहर निकालें । बाह्यकुंभक करें-श्वास को बाहर रोके हुए रहें । इस स्थिति में संकल्प करेंवीर्य रक्त के साथ मिलकर समूचे शरीर में बूम रहा है। वीर्य का प्रवाह ऊपर की ओर हो रहा है। ___ संकल्प इतनी तन्मयता से करें कि वैसा प्रत्यक्ष अनुभव होने लगे। जितनी देर सुविधा से कर सकें, यह संकल्प करें, फिर पूरक करें--श्वास को अन्दर भरें। पूरक की स्थिति में मूल बन्ध करें--गुदा को ऊपर की ओर खींचें तथा जालन्धर बंध करें--ठुड्डी को तानकर कण्ठ-कूप में लगाएं। फिर पेट को सिकोड़ें और फुलाएं। आराम से जितनी बार ऐसा कर सकें करें, फिर रेचन करें। यह एक क्रिया हुई । इसे अभ्यास बढ़ाते-बढ़ाते सात Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य का शरीर शास्त्रीय-अध्ययन । १०६ या नौ बार दोहराएँ। (ख) पीठ के बल चित्त लेट जाएं। सिर, गर्दन और छाती को सीध में रखें । शरीर को बिलकुल शिथिल करें। मुंह को बन्द कर पूरक करें। पूरक करते समय यह संकल्प करें कि काम-शक्ति का प्रवाह जननेन्द्रिय से मुड़ मस्तिष्क की ओर जा रहा है। मानसिक चक्ष से यह देखें कि वीर्य रक्त के साथ ऊपर जा रहा है। काम-वाहिनी (जननेन्द्रिय के आस-पास की) नाड़ियां हल्की हो रही हैं और मस्तिष्क की नाड़ियां भारी हो रही हैं। पूरक के बाद अन्तःकुंभक करें-श्वास को सुखपूर्वक अन्दर रोके रहें। फिर धीमे-धीमे रेचन करें। पूरक और रेचन का समय समान और कुंभक का समय उससे आधा होना चाहिए। यह क्रिया बढ़ाते-बढ़ाते पन्द्रह-बीस बार तक करनी चाहिए। वीर्य के ऊर्ध्वारोहण का संकल्प जितना दृढ़ और स्पष्ट होगा, उतनी ही कामवासना कम होती जाएगी। कुक्कुडासन इससे कामवाहिनी स्नायुओं पर दबाव पड़ता है। उससे मन शक्तिशाली और प्रशान्त होता है, काम-वासना क्षीण होती है। मन की स्थिरता होने से वायु की स्थिरता होती है। वायु की स्थिरता से वीर्य को स्थिरता होती है। वीर्य की स्थिरता से शरीर की स्थिरता प्राप्त होती है। कहा भी है मनः स्थैर्य स्थिरो वायुः, ततो बिन्दु स्थिरो भवेत् । बिन्दुस्थैर्यात् सदा सत्त्वं, पिण्डस्थैर्यं च जायते । ऊर्ध्वाकर्षण की प्रक्रिया केवल पुरुषों के लिए है। स्त्रियों के लिए संकल्प-शुद्धि का अभ्यास सहायक हो सकता है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासना-विजय आज का चिन्त्य विषय है-वासना-विजय। उसके दो पहल हैं : १. वासना क्या है ? २. उस पर विजय कैसे पा सकते हैं ? एक व्यक्ति दरवाजे से प्रवेश करता है। उसके चरण धूलि पर टिकते हैं। व्यक्ति चला जाता है। उसके चले जाने पर भी चरण-चिह्न रह जाते हैं। वह वासना है। चित्रपट के फीते पर अनेक आकृतियां अंकित होती हैं। वह अंकन वासना है। यह अमिट सिद्धान्त है कि क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। हमारा मन मार्ग-धूलि है; जो विचार पथिक आते हैं, वे अपने चरण-चिह्न छोड़ जाते हैं। हमारा मन फीता है; जो विचार आते हैं, वे उस पर अपनी आकृतियां अंकित कर जाते हैं। यही वासना है। जो अनभूत विषय की विस्मति है वह वासना है। उसे भावना और संस्कार भी कहते हैं । सामान्यतः वासना का अर्थ बुरा ही समझा जाता है किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। वह अच्छी भी होती है और बुरी भी । अच्छे विचारों को वासना अच्छी और बुरे विचारों की वासना बुरी होती है। हम वासना-मुक्त होना चाहते हैं। हमारा अन्तिम लक्ष्य वासना-विजय नहीं, वासना-मुक्ति है। प्रथम भूमिका में वासना-विजय करना प्राप्त है। उसका एक निश्चित कम है। पहले हम बुरी वासनाओं को जीतें, फिर उनको जीतें, जो अच्छी हैं। हम साधु हैं। साधुत्व का अर्थ है-वासना पर विजय पाना। वासना-विजय की साधना का पहला चरण संकल्प है। संकल्प जब दृढ़ होता है तव दबी हुई वासनाएं एक साथ उभरती हैं। संकल्प से पूर्व वे उतनी नहीं उभरती जितनी संकल्प के समय उभरती हैं। कहा जाता है कि श्वेत आक के नीचे धन का निधान होता है। कोई उसे निकालने का यत्न करता है तो सांप फफकारने लग जाता है। निकालने Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासना - विजय । १११ वाला प्रबल होता है तो सापों को जीत लेता है और दुर्बल होता है तो साप उसे मार डालता है । यही बात वासना को जीतने के समय होती है । यदि तुम उसे कुरेदने का प्रयत्न करोगे तो वह उभरेगी । उसे नहीं छेड़ोगे तो वह फुफकार नहीं मारेगी । उसे छोड़ने वाले को कुशल गुरु का संरक्षण प्राप्त होना चाहिए। साधक का गुरु कुशल होता है तो वह उभार को संभाल लेता है; अन्यथा साधक घबरा जाता है । वासना-विजय की अनेक प्रक्रियाएं हैं, उनमें कुछ ये हैं : इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता तप के बारह भेदों में यह एक है । इसकी प्रक्रिया आज विस्मृत है । औपपातिक सूत्र में प्रतिसंलीनता के चार प्रकार निर्दिष्ट हैं — इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, योग प्रतिसंलीनता, कषाय प्रतिसंलीनता, विवक्त शयनासन प्रतिसंलीनता । मुनि के लिए दांत विशेषण आता है। दांत का अर्थ है - जिसने दमन किया हो । दमन का अर्थ दण्ड नहीं है, जैसा कि आज समझा जा रहा है। उसका अर्थ वही है, जो प्रतिसंलीनता का है । शंकराचार्य ने लिखा हैइन्द्रियों को विषय से हटाकर अपने-अपने गोलक में स्थापित कर देना दम है। विषयेभ्यः परावर्त्य, स्थापनं स्वस्व गोलके । उभयेषा मिन्द्रियाणां स दमः परिकीर्तितः ॥ इन्द्रियों की गति बाहर की ओर है। आंख बाहर की ओर देखती है । कान बाहर की बात सुनता है। जीभ बाहर की वस्तु को चखती है। नाक बाहर की गंध को ग्रहण करती है। त्वचा बाहर की वस्तु को छूती है । इस प्रकार बाह्य जगत् से जो सम्पर्क है उसे विच्छिन्न कर डालना प्रति संलीनता का प्रयोजन है । इन्द्रियों की प्रतिसंलीनता करने के लिए 'सर्वेन्द्रियविषयोपरम' मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए । इसके अभ्यास से इन्द्रियां बाहरी विषयों से अपना सम्बन्ध तोड़ लेती हैं । योग साधना में जानने का उतना महत्त्व नहीं है जितना उसके अभ्यास का है । मुद्रा करने की विधि इस प्रकार है— दोनों अंगूठों से दोनों कान के छेदों को बन्द करें, दोनों तर्जनी अंगुलियों से दोनों आंखों को धीमे से दबाएं, दोनों मध्यमा अंगुलियों Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१२ । तट दो : प्रवाह एक से नासा छिद्रों को बन्द करें तथा शेष चारों अंगुलियां दोनों होंठों पर टिकाएं । वायु - ि - विजय मन में संकल्प-विकल्प उठते हैं, ये क्या हैं ? दबी हुई वासनाएं ही तो हैं । व्यक्ति के मस्तिष्क में करोड़ों सेल ( कोष) होते हैं। एक-एक सेल को विस्तार दिया जाए तो भारतवर्ष जितना भूभाग भर सकता है। एक-एक कोष में अनेक वासनाएं स्थित होती हैं । कल्पना करिए, उनका कितना बड़ा जाल है । यह तो स्थूल शरीर की बात है । सूक्ष्म शरीर में न जाने और कितनी वासनाएं दबी पड़ी हैं। एक-एक कर इन सबको मिटाने का प्रयत्न सफल हो सके, यह सम्भव नहीं । इसी बात को ध्यान में रखकर योगाचार्यों ने कहा—-वायु पर विजय प्राप्त करो, वासनाएं अपने-आप शान्त और क्रमशः क्षीण हो जाएंगी। वायु पांच प्रकार की होती हैं- प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान । इनमें व्यान वायु के साथ मन का योग होने से संकल्प - विकल्प पैदा होते हैं । व्यान वायु पर विजय पाने अर्थात् उसके साथ मन का योन न होने देने से संकल्प - विकल्प अपने-आप शान्त हो जाते हैं । कण्ठ देश यानी विशुद्धि चक्र पर संयम करने से वायु-विजय होता है । संकल्प - विकल्प शान्त होते हैं । सुषुम्णा में श्वास शरीर में तीन नाड़ियां प्रमुख हैं—इड़ा, पिंगला और सुषुम्णा । हमारा श्वास जब इड़ा और पिंगला में बहता है तब मन की चंचलता होती है । जब श्वास को सुषुम्णा में स्थापित कर दिया जाता है तब वह चंचलता मिट जाती है और उससे वासनाएं क्षीण होती हैं । जीभ सबसे सुगम और सुन्दर उपाय है जीभ के अग्र भाग को शून्य में रखना । होंठों को दृढ़ता से बंद करने के बाद जीभ को अधर में रखें – ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं स्पर्श न करें । * * ३१ जनवरी, १९६५ को साधु-साध्वियों के प्रणिधान कक्ष ( साधना शिविर) में दिए गए भाषण से । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभूषा व्यवहार की भूमिका में जीवन की आवश्यकता और विभूषा के बीच रेखा खींचना कठिन है। पर आचार्यों ने एक रेखा खींची है। वह है देहाध्यास। उसके इस पार आवश्यकता विभूषा से मुक्त नहीं होती और उस पार शुद्ध आवश्यकता शेष रहती है। उदाहरण की भाषा में इस प्रकार समझिए कि व्यक्ति में देहाध्यास होता है तो साधारण वस्त्र ओढ़ने में भी विभूषा का भाव जाग आता है। देहाध्यास न हो तो मूल्यवान वस्त्र ओढ़ लेने पर भी विभूषा की भावना नहीं जागती। __ मनुष्य के पास प्रवृत्ति के लिए देह, वाणी और मन तीन साधन हैं। उनमें पहला देह है । प्रश्न यह है कि हम देह में रहते हैं या आत्मा में । जब आत्मा में रहते हैं तब देहाध्यास क्षीण होता चला जाता है । विभूषा का भाव अपने-आप विजित होता चला जाता है । देह में रहते हैं तब ममत्व बढ़ जाता है और विभूषा का भाव प्रबल हो उठता है । देहधारी प्राणी दो धाराओं के बीच जी रहे हैं। एक बाहर की है और दूसरी भीतर की। बाहर की धारा में कौतुक है, इन्द्रजाल है और भीतर की धारा में ज्योति है । जो अबुद्ध हैं वे कौतुक की ओर भाग रहे हैं और जो प्रबुद्ध हैं वे ज्योति की ओर जा रहे हैं। कहा भी है बहिस्तुष्यति मूढात्मा, पिहितं ज्योति रन्तरे। तुष्यत्यन्तः प्रबुद्धात्मा, बहि व्यवृत्तकौतुकः ॥ हम साधु हैं। इसलिए हमारी गति ज्योति की ओर होनी चाहिए। वह होगी तो बाहरी आकर्षण अपने-आप क्षीण हो जाएगा। साधु को बाहर के प्रति युक्त नहीं होना चाहिए। किन्तु देह के रहते हुए वह बाहरी द्रव्यों से सर्वथा मुक्त भी नहीं होता । भले न हो, युक्त नहीं होता है तब उसकी आवश्यकता के उपकरण (वस्त्र, पात्र आदि) धर्मोपकरण हो जाते हैं। वे धर्मोपकरण इसलिए हो जाते हैं कि उनके प्रति उसका Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ । तट दो : प्रवाह एक अध्यास नहीं होता । देह के प्रति आसक्ति जितनी तीव्र होगी बाह्य वस्तुओं पर उसका उतना ही अधिक असर होगा। देहाध्यास नहीं होगा तो बाहरी चीजों को सजाने-संवारने की वृत्ति क्यों जागेगी ? वह विभूषा क्यों करेगा ? नगिणस्स वावि मुंडस्स, दीहरोमन हंसिणो मेहुणा उपसंतस्स, किं विभूषाए कारियं ?। व्युत्सर्ग और विवेक का बार-बार अध्यास किया जाय तो देहाध्यास सहज ही छूट जाता है। विवेक सम्बन्ध-विच्छेद की प्रक्रिया है। जो बाह्य है, वह मेरा नहीं है । यह शरीर भी मेरा नहीं है । इस प्रकार सब,पदार्थों से अपनी आत्मा को पृथक करना विवेक है। विवेक की भावना स्थिर होने पर व्युत्सर्ग सहज निष्पन्न हो जाता है। देह के प्रति ममत्व और खिंचाव दोनों व्यक्त हो जाते हैं । पूज्यवाद में कहा है योजयेत् मनसात्मानं, वाक्कायाभ्यां वियोजयेत् । मनसाव्यवहारं तु, त्यजेद् वाक्काययोजितम् ।। शरीर, वाणी, मन और आत्मा, ये चार हैं। इनमें आत्मा के सबसे निकट मन है। उसके बाद वाणी और शरीर है । इसलिए साधक मन के साथ आत्मा का योग करे और वाणी तथा देह से उसे वियुक्त करे। वाणी और देह के द्वारा आयोजित व्यवहार मन से भी न करे। देह और वाणी का व्यवहार जितना कम होगा उतना ही मन शान्त होगा। शान्त मन में कोई भ्रान्ति उत्पन्न नहीं होती। हम सब साधु हैं-साधना करने वाले हैं। सिद्ध नहीं हैं । जो कोई साधु होता है वह साधना का भाव लेकर आता है, सिद्ध होकर नहीं आता किन्तु सिद्ध होने के लिए आता है। हम नहीं मान सकते कि साधु होते ही हमारी सारी ममता क्षीण हो जाती है। साधना के प्रति जागरूकता रहे तो वह क्षीण हो सकती है और एक दिन हो ही जाती है। विवेक और व्युत्सर्ग पर इसलिए अधिक बल दिया गया कि उनसे साधना शक्तिशाली बने। प्राचीन ग्रन्थों में मुनि के लिए दिन में दसों बार व्युत्सर्ग करने का विधान मिलता है । वह सोने से पहले व्युत्सर्ग करे और उठने के बाद फिर Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभूषा। ११५ व्युत्सर्ग करे । स्वाध्याय करे तब व्युत्सर्ग करे और प्रतिक्रमण के बीच में भी व्युत्सर्ग करे। बाहर जाकर स्थान में आए तब व्युत्सर्ग करे। इस प्रकार बार-बार व्युत्सर्ग करना ममत्व की जड़ को उखाड़ फेंकना है। ऊपर के प्रयत्न पत्तों को तोड़ने के समान होते हैं, पर पत्तों का क्या ? वे पतझड़ में चले जाते हैं और वसन्त में फिर आ जाते हैं । जड़ सदा हरी रहती है । वह हरी रहती है इसीलिए गए हुए पत्ते वापस आ जाते हैं। देह-व्युत्सर्ग के बिना देहाध्यास छूटे यह सम्भव नहीं। देहाध्यास छूटे बिना विभूषा के भाव न जागें, यह भी असम्भव है। यदि हम आवश्यकता को विशुद्ध रखना चाहते हैं, विभूषा से वियक्त रखना चाहते हैं तो जिस देह में ममत्व छिपा बैठा है, उसके व्युत्सर्ग का स्थिर और चिर अध्यास करें। देहं के प्रति हमारा ममत्व इसीलिए पलता है कि हम देह के अन्तरंग से परिचय नहीं रखते । हम दूसरी वस्तुओं से जितने परिचित हैं उतने अपनी निकटवर्ती देह से नहीं। योग की एक प्रक्रिया है कि अपनी देह के अवयवों से परिचय प्राप्त करोऔर अति निकटता से करो। प्रत्येक अवयव के अन्तरंग रूप को निकट से देखो । सचाई सामने आएगी। उनके प्रति जो झूठा आकर्षण है, वह टूट जाएगा और देहाध्यास क्षीण हो जाएगा। उसके क्षीण होने पर विभूषा का प्रश्न अपने-आप समाहित हो जाएगा। * ३-२-६५ को साधु-साध्वियों के प्रणिधान-कक्ष (साधना-शिविर) में दिए गए भाषण से। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-दमन भारतीय दर्शन आत्म-दमन पर विशेष बल देते रहे हैं। आज के मनोविज्ञान से प्रभावित मानव को यह अप्रिय लगता है। मैं औरों की बात क्या कहँ । मैं अपने मन की बात आपको बताऊं। मैंने जब-जब 'उत्तराध्ययन' के निम्न दो श्लोक पढ़े, तब-तब मेरा मन आहत-सा हुआ। वे श्लोक ये हैं : अप्पा चेव दमेयव्वो अप्पाहु खलु दुद्दमो। अप्पा दन्तो सही होइ अस्सि लोए परत्थ य । १।१५। वरं मे अप्पा दन्तो संजमेण तवेण य। माहं परेहिं दम्मतो बन्धणेहि वहेहि य । १।१६। आत्मा का ही दमन करना चाहिए। क्योंकि आत्मा ही दुर्दम है। दमित-आत्मा ही इहलोक और परलोक में सुखी होती है। अच्छा यही है कि मैं संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा का दमन करू । दूसरे लोग बन्धन और वध के द्वारा मेरा दमन करें—यह अच्छा नहीं है। मेरे साथी और भी बहत होंगे? दमन शब्द मेरी तरह उनके मन को भी आहत करता होगा ? आचार्य रजनीशजी का मन भी इसी शब्द से आहत हुआ है। उन्होंने लिखा है—'एक प्रवचन कल सुना है । उसका सार था : आत्म-दमन । प्रचलित रूढ़ि यही है। सोचा जाता है कि सबसे प्रेम करना है पर अपने से-अपने से घृणा करनी है, स्वयं अपने से शत्रुता करनी है, तब कहीं आत्म-जय होती है। पर यह विचार जितना प्रचलित है, उतना ही ग़लत भी है। इस मार्ग से व्यक्तित्व दैन्य में टूट जाता है और आत्म-हिंसा की शुरुआत होती है और हिंसा सब कुरूप कर देती है । __मनुष्य को वासनाएं इस तरह दमन नहीं करनी हैं, न की जा सकती हैं । यह हिंसा का मार्ग धर्म का मार्ग नहीं है । इसके परिणाम में ही शरीर को सताने के कितने रूप विकसित हो गए हैं। उनमें दीखती है तपश्चर्या, Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-दमन । ११७ पर है वस्तुतः हिंसा का रस-दमन और प्रतिरोध का सुख। यह तप नहीं, आत्मवंचना है। आज दमन का अर्थ बदल गया है। इसलिए यह प्रयोग चुभता-सा लगता है। किन्तु इसका मूल अर्थ मनोविज्ञान के प्रतिकूल नहीं है। दमन शब्द दम धातु से निष्पन्न हुआ है। उसका अर्थ है–उपशम-शमु-दमु उपशमे । शान्त्याचार्य ने आत्म-दमन का अर्थ किया है—आत्मिक-उपशमन। ... महाभारत (आपद्धर्म पर्व, अध्याय १६०) में दमन की बहुत सुन्दर परिभाषा मिलती है । वहाँ लिखा है : । क्षमा धतिरहिंसा च समता सत्यमार्जवम् । इन्द्रियाभिजयो दाक्ष्यं च मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥१५॥ अकार्पण्यसंरम्भः सन्तोषः प्रियवादिता। अविहिंसावसूया चाप्येषां समुदयो दमः ॥१६॥ क्षमा, धीरता, अहिंसा, समता, सत्यवादिता, सरलता, इन्द्रिय-विजय, दक्षता, कोमलता, लज्जा, स्थिरता, उदारता, क्रोध-हीनता, सन्तोष, प्रिय वचन बोलने का स्वभाव, किसी भी प्राणी को कष्ट न देना और दूसरों के दोष न देखना-इन सद्गुणों का उदय होना ही दम है। दान्त का अर्थ है, उपशान्त । जो उपशान्त होता है, वह निम्न दोषों से अपना बचाव करता है। महाभारत (आपद्धर्म पर्व, अध्याय १६०) में लिखा है : गुरुपूजा च कौरव्यं दया भूतेष्व पैशुनम् । जनवादं मृषावादं स्तुति निन्दा विसर्जनम् ॥१७।। काम क्रोधं च लोभं च दर्प स्तम्भं विकत्थनम् । रोषमीया॑वमानं च नैव दान्तो निषेवते ।।१८।। कुरुनन्दन ! जिसने मन और इन्द्रियों का दमन कर लिया है, उसमें गुरुजनों के प्रति आदर का भाव, समस्त प्राणियों के प्रति दया और किसी की भी चुगली न खाने की प्रवृत्ति होती है । वह जनापवाद, असत्य भाषण, निन्दा-स्तुति की प्रवृत्ति, काम, क्रोध, लोभ, दर्प, जड़ता, डींग हांकना, रोष, ईर्ष्या और दूसरों का अपमान-इन दुर्गुणों का कभी सेवन नहीं करता। ___ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ । तट दो : प्रवाह एक दमन की परिभाषा शंकराचार्य ने बहुत ही मूलस्पर्शी की है। उनके मतानुसार : विषयेभ्य :. परावर्त्य, स्थापनं स्वस्वगोलके । उभयेषामिन्द्रियाणां, स दमः परिकीर्तितः ।। इसका अर्थ है इन्द्रियों को विषयों से हटाकर अपने-अपने गोलक में स्थापित कर देना दम है । मैं अनुभव करता हूं कि दमन का मूल अर्थ समझने के पश्चात् अब मेरा मन आत्म-दमन का प्रयोग सुनकर आहत नहीं होता है। आत्म-दमन की प्रक्रिया मनोविज्ञान के प्रतिकूल है—इस मान्यता में भी मैंने संशोधन कर लिया है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकाल-मत्यु उत्पन्न की मृत्यु और मृत की उत्पत्ति—यह चक्र है। इसी चक्र का नाम संसार है । संसार में ऐसा कोई प्राणी नहीं जिसकी उत्पत्ति है और मृति नहीं है । मृत्यु होती है,यह मीमांसनीय नहीं है । मीमांसनीय यह है कि वह कब होती है-अवधि पूरी होने पर या उससे पूर्व ? जिस राष्ट्र के नागरिक काल-मृत्यु से मरते हैं, वह राष्ट्र सुसंस्कृत, स्वस्थ और शान्तिप्रिय होता है। जो राष्ट्र ऐसा नहीं होता, उसके नागरिक अकाल-मृत्यु से मरते हैं। अकाल-मृत्यु व्यक्ति या राष्ट्र की अशक्ति और अस्वस्थता की सूचक है। स्थानांग में अकाल-मृत्यु के सात हेतु बतलाए गए हैं। उनसे भी यही फलित होता है । अकाल-मृत्यु के सात हेतु : १. अध्यवसान-राग, स्नेह, भय, घृणा आदि । २. निमित्त-शस्त्र आदि। ३. आहार-असंतुलित या अधिक । ४. वेदना-रोग । ५. पराघात—चोट आदि । ६. स्पर्श—सर्प-दंश आदि । ७. आनापान-उच्छ्वास-निःश्वास का .... इनमें दूसरा हेतु मानसिक स्वस्थता से सम्बन्धित है । शस्त्र का प्रयोग असंतुलित मस्तिष्क और मनवाला व्यक्ति करता है। जिस प्रदेश के निवासी संतुलित मन वाले होते हैं, वहाँ निमित्त-जनित अकाल मृत्यु नहीं होती। जिस प्रदेश की चिकित्सा-पद्धति विकसित होती है, वहां वेदना, पराघात, स्पर्श और आनापान-जनित अकाल-मृत्यु का अनुपात बहुत कम हो जाता है । जो व्यक्ति खाद्य-संयम रखता है, वह आहार-जनित अकालमृत्यु से ग्रसित नहीं होता। निमित्त, वेदना आदि से अकाल-मृत्यु होती है, इसे प्रायः सभी लोग जानते हैं। अधिक खाने से अकाल-मृत्यू होती है, इसे Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० । तट दो : प्रवाह एक कम लोग जानते हैं । अध्यवसान से अकाल-मृत्यु होती है, इसे तो बहुत ही कम लोग जानते हैं । राग, स्नेह, भय, घृणा आदि भाव हर व्यक्ति में होते हैं । सामान्यतः वे हर व्यक्ति के मन को प्रभावित करते रहते हैं। किन्तु जब वे तीव्र मात्रा में व्यक्ति को प्रभावित करने लगते हैं, तब व्यक्ति अकालमृत्यु की ओर चल पड़ता है और उनसे तीव्रतर मात्रा में प्रभावित होने वाला व्यक्ति तत्काल काल-कवलित हो जाता है। शरीर और मन का गहरा सम्बन्ध है। शरीर की प्रक्रिया से मन और मन की प्रक्रिया से शरीर प्रभावित होता है। शरीर की अस्वस्थता मन को अस्वस्थ बनाती है और अस्वस्थ मन शरीर को अस्वस्थ बनाता है। द्वेष, घृणा, स्नेह आदि मानसिक आवेग तीव्रतर होते ही रक्त को प्रभावित करते हैं। उनकी प्रबल प्रक्रिया से मस्तिष्क के मूल भागवर्ती रक्ताभिसरण-केन्द्र और श्वसन-केन्द्र ठप्प हो जाते हैं। मांसपेशियां सिकुड़ जाती हैं। हृदय पर एक साथ असह्य चाप पड़ने से उसकी केशिकाएं अवरुद्ध हो जाती हैं। मनुष्य मृत्यु का ग्रास बन जाता है। ___ मानसिक संतुलन से केवल आत्मिक प्रसन्नता ही प्राप्त नहीं होती, दीर्घायु और दैहिक स्वस्थता भी प्राप्त होती है । मानसिक संतुलन का अर्थ है मानसिक भावों के उतार-चढ़ावों का समीकरण । अनुकूल संयोगों में मन हर्षातिरेक से भर जाता है और प्रतिकूल संयोगों में वह खिन्न हो उठता है। ये दोनों असंतुलन की स्थितियां हैं। प्रिय और अप्रिय दोनों को सहने की क्षमता का विकास भावना और क्रियात्मक अभ्यास से हो सकता है। ___ कुछ लोग सोचते हैं--यह समभावी मनोवृत्ति योगियों के लिए आवश्यक है, हर व्यक्ति के लिए नहीं। किन्तु यह चिन्तन त्रुटिपूर्ण है। योगी की समता चरमकोटि की हो सकती है पर समभाव के सामान्य धरातल पर चले बिना कोई भी व्यक्ति शान्त और सुखी जीवन नहीं बिता सकता। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन परिवर्तन की नयी दिशा साधना के प्रथम चरण में प्रत्यक्षतः तीन परिवर्तन देखने को मिलते १. वेशभूषा २ भोजन ३. अनुशासन वेशभूषा का परिवर्तन विशेषतः बह्नों में हुआ है । वे परदे से मुक्त होकर सादे वेश में आ गई हैं । किन्तु इस साधना शिविर से लौटकर जब जाती हैं, तब पुनः वेश परिवर्तन कर लेती हैं। उसके पीछे उनकी कमज़ोरी बोलती है । भय और दुर्बलता ही अनिष्ट के मूल हैं । अच्छाई का मूल अभय है, उसका विकास होना चाहिए और उसके साथ विवेक का विकास भी होना चाहिए। उसके अभाव में कहीं-कहीं अभय के नाम पर उच्छृंखलता पनप जाती है । जो साधना के मार्ग पर चलता है उसके सामने अनेक कठिनाइयां उपस्थित होती हैं, किन्तु साधक को उनका दृढ़ता से सामना करना चाहिए, त डरकर अपने कर्तव्य - मार्ग से हटना चाहिए और न परिस्थिति के प्रति उद्दण्ड होना चाहिए । भोजन परिवर्तन भी महत्त्वपूर्ण है । आजकल खाने की पद्धति भी दूषित हो गई है। अधिक चीजें वे खायी जाती हैं जो अधिक-से-अधिक अनावश्यक हैं । खाने का प्रत्यक्ष सम्बन्ध शरीर से है । मन पर भी उसका सीधा असर होता है। भोजन का विवेक अत्यन्त आवश्यक है । जो सात्विक भोजन करता है उसका मन सरल होता है, उसे क्रोध नहीं आता, उसका स्वभाव चिड़चिड़ा नहीं होता । दीया जलता है तब वह प्रकाश के साथ धुआँ भी देता है । यह इसलिए कि जलते समय वह तिमिर को खाता है । जो जैसा Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ । तट दो : प्रवाह एक खाता है, वह वैसा ही उगलता है । अधिक खाने से शरीर में बीमारी होती है और मानसिक शक्ति कुंठित हो जाती है । सारी शक्ति भोजन को पचाने में ही लग जाती है, तब चिन्तन के लिए आवश्यकता ही नहीं रहती । सत्यदेव विद्यालंकार एक बार कह रहे थे— ' मैं जब भी अच्छी पुस्तक लिखता हूं, भोजन हल्का करता हूं ।' हर व्यक्ति चाहता है, उसकी शक्ति का उपयोग अच्छे कार्यों में हो । जिनका ध्यान केवल खाने में रहता है, वे अन्न के कीड़े होते हैं । उनमें अच्छा काम करने का उत्साह नहीं रहता । खाने का संगम तथा विवेक रखने वाले बीमारी में भी शरीर को अधिक क्षत-विक्षत होने से बचा लेते हैं । कुछ लोग पूछते हैं कितना खाना चाहिए ? इसका निश्चित परिमाण तो नहीं बताया जा सकता किन्तु शरीर-शास्त्रियों ने यह बतलाया है कि उतना ही खाना चाहिए जितना शरीर के लिए आवश्यक हो, आवश्यकता से अधिक खाना आँतों पर अत्याचार करना है । अधिकांशतया जितना अनर्थ शत्रु नहीं करता, अपना अविवेक कर देता है । इसलिए भोजन में विवेक रखना अत्यन्त आवश्यक है। भोजन का संयम शारीरिक और धार्मिक दृष्टियों से लाभप्रद है । आयुर्वेद के आचार्यों ने कहा है- यदि पथ्य भोजन चलता है तो औषधि की क्या आवश्यकता ? यदि अपथ्य भोजन चलता है तो भी फिर औषधि की क्या आवश्यकता ? अनुशासन सबसे बड़ी समस्या बन गया है । युग का प्रवाह ही ऐसा है कि कोई किसी की आज्ञा मानना नहीं चाहता। छोटे बड़ों की सुनना नहीं चाहते तब वे क्यों आशा करें कि वे छोटों से आज्ञा मनाएंगे । साधना का अर्थ है-संतुलन का अभ्यास । प्रतिकूलता में पारा गर्म होना, आपे से बाहर होना, अनुकूलता में फूलकर कुप्पा बनना, दोनों ही असंतुलन के परिणाम हैं। मनुष्य को हर स्थिति में संतुलित रहना चाहिए। अभ्यास के बिना संतुलित रहना कठिन होता है । किन्तु साधना का लक्ष्य होने के बाद कठिन भी सरल हो जाता है । खाना, बोलना, बैठना आदि सारे अनुशासन 'के अंग हैं । खाना प्रत्येक व्यक्ति खाता है पर खाने की कला कम लोग जानते हैं। जल्दी खाना, बिना चबाकर खाना खाए हुए पर खाना - ये सारे खाने के दोष हैं । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-परिवर्तन की नयी दिशा । १२३ - अधिक बोलना, ज़ोर से बोलना, बिना प्रयोजन बोलना वाणी का असंयम है। अधिक बातें करना या मन की भाप को न रोक सकना मानसिक दुर्बलता है। ___पंक्तिबद्ध न बैठना और एकासन में न बैठना-आसन की अव्यवस्था __अनुशासन से इन क्रियाओं की कला सीखने को मिलती है। प्रत्येक क्रिया के साथ कब, क्या, कैसे और क्यों लगाने से जो उत्तर हमें प्राप्त होता है, उससे क्रिया का विवेक मिलता है। कुछ उदाहरण देखिए : भोजन कब करना चाहिए ? इसका सामान्य उत्तर यह है कि कम-सेकम तीन घंटे से पहले नहीं। अगर भूख न हो तो उस समय भी नहीं। आत्रेय ने अपनी एक लाख पद्य वाली संहिता का सार एक चरण में यही कहा-'जीर्ण भोजन मात्रेय'। अगला भोजन जीर्ण होने के बाद खाना चाहिए, पहले नहीं । शरीर-शास्त्रियों ने इस बारे में कहा है । जैसे क्या खाना चाहिए ? जो शरीर के लिए आवश्यक हो। कैसे खाना चाहिए ? चबाकर। कहां खाना चाहिए ? शान्त वातावरण में। क्रोध-अवस्था में भोजन करने से रस की परिणति अच्छी नहीं होती। कब वोलना चाहिए? जब बोलने की आवश्यकता हो और अनुकूल अवसर हो। दो व्यक्ति बातें करते हों, तब बीच में नहीं बोलना चाहिए। तनाव का वातावरण हो, तब नहीं बोलना चाहिए। स्थिति को समझकर और देखकर बोलना चाहिए। क्या बोलना चाहिए ? जो बोलना आवश्यक हो । कैसे बोलना चाहिए ? Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ । तट दो : प्रवाह एक शीतलता, स्वाभाविकता और नम्रता से बोलना चाहिए | हँसते हुए बोलने से उसका असर नहीं होता । मधुरता से दिया जाने वाला उपालंभ अधिक ग्राही होता है । 'यह सदा का ही ऐसा है । इसने सदा ऐसा ही किया है' आदि वाक्य कहने से कटुता बढ़ती है । इसके स्थान पर यदि ऐसा कहा जाए कि 'यदि तुम ऐसा करते तो कैसा रहता' तो वह बुरा नहीं मानता। उसे स्वयं अपनी ग़लती अनुभव होने लगती है । कहां बोलना चाहिए ? हां बोलने का अपनी दृष्टि में कोई लाभ हो । इस प्रकार खान-पान, रहन-सहन आदि सभी क्रिया-कलापों में इन चार दृष्टियों का प्रयोग करना चाहिए, जिससे उस क्रिया का विवेक मिले । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________