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८८ । तट दो : प्रवाह एक
खोलना-ये व्यान-वायु के कार्य हैं। (४) अन्न को ग्रहण करना, पचाना, विवेचन करना, सार और
असार में भेद करना और असार भाग (मल-सूत्र) को नीचे
सरकाना-ये समान वायु के कार्य हैं। (५) वीर्य, रज, मल, मूत्र को बाहर निकालना अपान-वायु का
कार्य है। विकृति और परिणाम १. रुक्षता, व्यायाम, लंघन, चोट, यात्रा तथा वेग-निरोध से प्राण-वाय
विकृत होती है । इसके परिणाम हैं-चक्षु आदि इन्द्रियों का विनाश,
पीनस आदित, प्यास, कास, श्वास आदि रोगों की उत्पत्ति । २. छींक, डकार, वमन एवं नींद के वेगों को रोकने तथा अति रुदन, अति
हास्य एवं भारी बोझ उठाने से उदान-वायु विकृत होती है। इसके परिणाम हैं—कण्ठ-रोध, मन-भ्रंश, वमन, रुचि का नाश, पीनस,
गलगण्ड आदि रोगों की उत्पत्ति । ३. अति भ्रमण, चिन्ता, खेल, विषय-चेष्टा, रुक्ष भोजन, भय, हर्ष एवं शोक
से व्यान-वायु विकृत होती है। इसके परिणाम हैं-पुरुषत्व-हानि, उत्साह-हानि, बल-हानि, चित्त की बेचैनी, अंगों में जड़ता, कुष्ठ,
विसर्प आदि रोगों की उत्पत्ति । ४. विषम भोजन, अजीर्ण भोजन, शीत भोजन और संकीर्ण भोजन तथा
असमय में सोने या जागने से समान-वायु विकृत हो जाती है। इसके
परिणाम हैं-शूल, गुल्म, ग्रहणी आदि पक्काशय के रोगों की उत्पत्ति । ५. सूक्ष्म तथा भारी अन्न के सेवन, वेगों को रोकने या अति प्रवृत्ति करने,
अति बैठने, खड़े रहने तथा चलने से अपान-वायु विकृत होती है। इसके परिणाम हैं—पक्काशयगत कष्टसाध्य रोगों एवं वीर्य रोगों, अर्श, गुद-भ्रंश आदि रोगों की उत्पत्ति ।
कुछ योग-ग्रन्थों में इस विषय का प्रतिपादन निम्न प्रकार मिलता है। यह संक्षिप्त-सरल है :
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