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________________ ५६ । तट दो : प्रवाह एक आघात किया। क्रूरता ने ऋ रता को जन्म दिया। बहुत क्रूर बने और थोड़ों की क्रूरता को नहीं, किन्तु स्वयं को ही मिटा डाला। यह रक्तक्रान्ति का इतिहास है। व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के अपहरण या अधिनायकवाद का आधार व्यक्ति का स्वार्थ-विस्तार और उससे उत्पन्न करता है। मनुष्य अप्रमाणिक बनता है, खाद्य-वस्तुओं में मिश्रण करता है, शोषण करता है, दूसरों के हितों की उपेक्षा करता है, स्वल्पतम लाभ देकर अति लाभ लेता है, दोष जन्म नहीं लेते, यदि मनुष्य क्रूर नहीं होता। बहुत लोग ऐसे हैं, जो दूसरों को सहन नहीं कर सकते। वे अपनी मान्यता, अपने चिंतन और अपनी कार्य-पद्धति को सर्वोपरि महत्त्व देते हैं। अपने से भिन्न मत को सुनते ही उबल उठते हैं। पारिवारिक कलह इसलिए होता है कि एक-दूसरे की स्वतन्त्र रुचि या भूल को सहन नहीं करते । जातीय-कलह की उत्पत्ति का भी यही कारण है। दूसरा उचित परामर्श देता है उसे सुनने की भी क्षमता नहीं होती। दूसरों के शिक्षा-वचनों को सुनने की वृत्ति नहीं-जैसी होती है। बहुधा उत्तर होता है-मैं तुमसे अधिक जानता हूं। बहुत छोटी बात को लेकर लड़ लेते हैं, गालियां देते हैं, तिरस्कार करते हैं, सम्मानयोग्य व्यक्तियों का सम्मान नहीं किया जाता । सामुदायिक शक्ति के उपयोग से वंचित रहते हैं, दल-बन्दी का प्रसार होता है, एक-दूसरे को गिराने का यत्न करते हैं, अपनी बात रखने की धुन में तथ्यों की तोड़-मरोड़ की जाती है-ये दोष जन्म नहीं लेते, यदि मनुष्य असहिष्णु नहीं होता। क्रूरता और असहिष्णुता-ये दोनों असामाजिक तत्त्व हैं। समाज में रहने पर भी जो क्रूर है, असहिष्णु है, वह सामाजिक प्राणी नहीं है । मनुष्यों का समाज ईंटों-पत्थरों का ढेर नहीं है । वह अनुभूतिशील, चेतनावान् प्राणियों का समुदाय है। उन सबमें प्रिय-अप्रिय का मनोभाव, सुख-दुःख का संवेदन, अनुकूल-प्रतिकूल स्थिति का प्रभाव, क्रिया की प्रतिक्रिया आदि-आदि तत्त्व हैं। जो मनुष्य अपनी प्रिय, सुखद और अनुकूल परिस्थिति बनाने के लिए दूसरों के लिए अप्रिय, दुःखद और प्रतिकूल परिस्थिति का निर्माण करता है, उसे क्या सामाजिक प्राणी कहा जा सकता है ? मनुष्य-मनुष्य में बुद्धि-बल और क्रियात्मक शक्ति का तारतम्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003076
Book TitleTat Do Pravah Ek
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1967
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
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