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यदि मनुष्य क्रूर नहीं होता। ५७
एक बुद्धिमान् आदमी कम बुद्धि वाले लोगों को ठगता है, एक शक्तिशाली व्यक्ति दुर्बल व्यक्तियों को अभिभूत करता है, क्रियात्मक शक्ति का दुरुपयोग कर दूसरों को बेकार करता है ये दोष जन्म नहीं लेते, यदि मनुष्य सामाजिक होता।
धर्म का स्वरूप समता है। जिसमें समभाव नहीं है, राग-द्वेष या प्रियअप्रिय में तटस्थ दृष्टिकोण नहीं है, वह धार्मिक नहीं है। सब आत्मा समान हैं--यह धार्मिक मान्यता की रीढ़ है। दैहिक भेद वास्तविक नहीं है। जातीय, क्षेत्रीय, प्रान्तीय, राष्ट्रीय और भाषागत भेद कृत्रिम है, यह जानकर भी मनुष्य अपनी जाति का गर्व और दूसरी जाति का तिरस्कार करता है। क्षेत्रवाद, प्रान्तवाद, राष्ट्रवाद और भाषावाद के आधार पर मनुष्य मनुष्य में विरोध का बीज बोता है, मनुष्य की वास्तविक एकता को काल्पनिक सिद्धान्तों के आधार पर छिन्न-भिन्न करता है, मनुष्य मनुष्य का शत्रु बनता है ये दोष जन्म नहीं लेते, यदि मनुष्य धार्मिक होता।
क्रूरता और असहिष्णुता अमैत्री के मूल हैं । सामाजिक जीवन में मैत्री की अपेक्षा है। धार्मिकता मैत्री का उद्गम-स्थल है। मैत्री के लिए उसकी चर्चा ही पर्याप्त नहीं है । आवश्यकता यह है कि क्रूरता और असहिष्णुता पर विजय पाने का यत्न किया जाए। उससे जीवन में धार्मिकता विकसित होगी और सामाजिक जीवन में जो मैत्री की अपेक्षा है, वह अपने-आप पूर्ण होगी।
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