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मानव-मन की ग्रन्थियाँ । ६३
लिए होती है कि पारिवारिक सदस्य अपनी अपेक्षा दूसरों को अधिक देखता है। अपने को भी देखता है पर उस आंख से नहीं देखता जिससे दूसरों को देखता है। अपना काम दीखता है, दूसरों का आराम । अपनी विशेषता दीखती है, दूसरों की कमी। उस आराम में से ईर्ष्या उपजती है और कमी से अहं । मन की गांठ घुल जाती है। कलह का बीज अंकुरित हो जाता है।
मन की अन्तर्-मुखता केवल धर्म ही नहीं है, व्यवहार का दर्शन भी है। ग्रन्थिभेद धर्म का पहला सोपान है। उसके बिना सम्यग-दर्शन नहीं होता। राग और द्वेष इन दो शब्दों में मन की अनन्त ग्रन्थियाँ समाविष्ट होती हैं। रागात्मक प्रवृत्ति से व्यक्ति एक में अनुरक्त होता है। द्वषात्मक प्रवृत्ति से वह दूसरे से दूर होता है। इस परिधि में तटस्थता टूट जाती है। उसके बिना पारिवारिक जीवन कठिन हो जाता है।
सामुदायिक जीवन बहुत बड़ी कला है। समुदाय में रहना बहुत बड़ी बात नहीं है । उसमें शान्ति, सामंजस्य और प्रसन्नतापूर्वक रहना सचमुच बहुत बड़ी बात है, और बहुत बड़ी कला है। इसकी साधना के लिए मन की कुछ ग्रन्थियों को खोलना पड़ता है और कुछेक को भारहीन करना पड़ता है। यह भारहीनता जिसे हमारे धर्मग्रन्थों ने लाघव कहा है, सामुदायिकता का बहुत बड़ा मर्म है।
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