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मानव मन की ग्रन्थियाँ
कोई भी भौगोलिक राज्य उतना बड़ा नहीं है, जितना मनोराज्य है । कोई भी यान उतना द्रुतगामी नहीं है, जितना मनोयान है । कोई भी शस्त्र उतना संहारक नहीं है, जितना मनःशस्त्र है । कोई भी शास्त्र उतना तारक नहीं है, जितना मनःशास्त्र है । उसकी ग्रन्थियों को खोल फैलाया जाए तो पाँचों महाद्वीपों में नहीं समा पातीं । इस छोटे-से शरीर में इन असंख्य ग्रन्थियों की संहति बहुत ही आश्चर्यजनक है । वे मुकुलित रहती हैं । सामग्री का योग मिलने पर उनके तार खुल जाते हैं। सामग्री का हमारे जीवन में बहुत बड़ा स्थान है। आत्मा की प्रत्येक प्रवृत्ति उससे प्रभावित है। समुदाय भी एक सामग्री है । इसके योग में मन की अनेक ग्रन्थियां संकुचित होती हैं तो अनेक विस्तार पाती हैं । मन विशाल होता है । समुदाय असत्य नहीं होता, विघ्न नहीं बनता । मन छोटा होता है, समुदाय बाधक बन जाता है । परिवार में दो आदमी बढ़ते हैं तो पृथक्करण की प्रवृत्ति जाग जाती है । कुछ व्यक्तियों को पृथक्करण नहीं भाता, भले फिर दस व्यक्ति बढ़ जाएं। ये दोनों मन की संकुचित और विकुचित ग्रन्थियों के ही कार्य हैं ।
जहां दस आदमी रहते हैं, वहां अवांछनीय भी कुछ हो जाता है । एक व्यक्ति उसे देख तत्काल उबल पड़ता है और दूसरा उसका परिमार्जन करता है । ये दोनों मन की उष्ण और शीत ग्रन्थियों के ही परिणाम हैं ।
अणु बमों के परीक्षण हो रहे हैं । पर वे संहारक कम हैं । इस महाशून्य में अनन्त अनन्त विषैले परमाणु भरे पड़े हैं । वे कभी विस्फोट नहीं करते । संहारक हैं कैनेडी और खुश्चोव । उनके मन की ग्रन्थियाँ भी भय की शंका से खुलती हैं। तभी बमों का विस्फोट होता है ।
हमें तारने वाला दूसरा कौन है ? हमारा मन जब अन्तर की ओर झांकता है, तब हम तर जाते हैं । विग्रह और क्या है ? बाहर झांकने के सिवाय और कोई विग्रह नहीं है । परिवार में जो कलह होती है, यह इसी
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