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आकाश की उड़ान भारत को चनौती
पाताल, पृथ्वी और अन्तरिक्ष-लोक इन तीनों भागों में विभक्त है । इन्हीं को जैन-आगमों में अधोलोक, तिर्यग-लोक और ऊर्ध्व-लोक कहा है। मनुष्य तिर्यग-लोक में रहता है। शेष दो लोक उसके लिए सदा जिज्ञासा के विषय रहे हैं । भूगर्भ में वह गया है भूमि को खोदकर और अन्तरिक्ष में वह गया है उड़ान भरकर । विमानों का इतिहास बहुत पुराना है । उनमें बैठ अनेक मनुष्यों ने उड़ानें भरी हैं और अनन्त आकाश को देखने का यत्न किया है। किन्तु विमानों के बिना उड़ने का इतिहास भी बहुत पुराना है। जैन-साहित्य के अनेक पृष्ठ इस रहस्यमय विवरण से भरे पड़े हैं।
चरित्र की विशुद्धि से नभो-गमन की शक्ति विकसित होती है। वह विद्या की आराधना से भी विकसित होती है। औषध-कल्प से भी मनुष्य आकाश में उड़ सकता है। जंघा-चारण सूर्य की रश्मियों का आलम्बन ले आकाश में उड़ सकता है। वह एक उड़ान में लाखों योजनों की दूरी पर चला जाता है। ऊंचाई में वह एक ही उड़ान में हजारों योजन ऊंचा चला जाता है । व्योमचारी मुनि पद्मासन की मुद्रा में बैठे-बैठेही आकाश में उड़ जाते हैं । जल-चारण मुनि जल के जीवों को कष्ट दिए बिना समुद्र आदि जलाशयों पर चलते हैं। दूसरी प्रकार के जंघा-चारण धरती से चार अंगुल ऊपर पैरों को उठाकर चलते हैं। पुष्प-चारण मुनि वनस्पति को कष्ट दिए बिना फूलों के सहारे चलते हैं। श्रेणी-चारण पर्वत के शिखरों पर चलते हैं। अग्निशिखा-चारण अग्नि की शिखा पर चलते हैं । ये न अग्नि के जीवों को कष्ट पहुंचाते हैं और न स्वयं जलते हैं। धूम-चारण धूम की पंक्ति को पकड़कर उड़ जाते हैं। मर्कटतन्तु-चारण मकड़ी के जाल पर चलते हैं। उसे कोई कष्ट पहुंचाए बिना वे ऐसा करते हैं। ज्योतिरश्मिचारण सूरज, चांद या अन्य किसी ग्रह-नक्षत्र की रश्मियों को पकड़ ऊपर
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