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अस्तित्व का प्रश्न
यह हमारी दुनिया अनेक व्यक्तियों, जातियों, धर्मों, भाषाओं, राष्ट्रों और शासन-प्रणालियों का संगम है । मनुष्यों में अनेक प्रकार की आकां क्षाएं, संदेह, भय, परस्पर विरोधी हित भावनाएं हैं। विस्तार और प्रसारवादी शक्तियां सदा सक्रिय हैं । संघर्ष इन परिस्थितियों का अपरिहार्य परिणाम है। संघर्ष के स्फुलिंग तब तक उछलते रहेंगे जब तक अनेकता, भेद या विभाजन की रेखाएं होंगी ।
इस निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद शान्ति के प्रयत्न शिथिल नहीं होते किन्तु अधिक उद्दीप्त होते हैं । शान्ति के प्रयत्न संघर्ष के स्फुलिंगों को अस्तित्वहीन बनाने के लिए नहीं हैं किन्तु इसलिए हैं कि स्फुलिंग अग्नि के रूप में न बदल जाएं। शान्ति के प्रयत्न करते रहना मानवीय विवेक की अपरिहार्य मांग है । शान्ति का भाग्य उन कुछेक लोगों की छत्रछाया में पल रहा है, जो सत्ता पर आरूढ़ हैं । जनता के भाग्य में अशान्ति का परिणाम भुगतना बचा है पर शान्ति की डोर उसके हाथ से छूट चुकी है । एकाधिकार राजनीतिक प्रभुत्व के युग में जनता के प्रतिनिधि शान्ति की चर्चा करें, उसका क्या विशेष अर्थ है, मैं नहीं जानता । यह बहुत स्पष्ट है कि जनता शान्ति और अशान्ति के लिए आज प्रत्यक्ष उत्तरदायी नहीं है । मेरी दृष्टि में आज का मुख्य प्रश्न शान्ति या तनाव कम करने का नहीं है । आज का मुख्य प्रश्न यह है कि शान्ति और अशान्ति के लिए जनता प्रत्यक्ष उत्तरदायी कैसे हो ? यदि युद्ध और आक्रमण की लगाम जनता और सरकार दोनों के सामंजस्यपूर्ण हाथों में हो तो अन्तर्राष्ट्रीय तनाव में अकल्पित परिवर्तन आ जाए ।
जन-शक्ति हमेशा मानवता का समर्थन करती है । किन्तु राज्य - शक्ति
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