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________________ एकता की समस्या हमारे जीवन में एकता और अनेकता का ऐसा विचित्र योग है कि हम एक होकर भी अनेक हैं और अनेक होकर भी एक हैं। हमारी एकता का अर्थ है, समानता की अनुभूति और अनेकता का अर्थ है आवश्यकताओं का विभाजन । हम सब मनुष्य हैं। मनुष्य-मनुष्य समान है, इसलिए सब एक हैं। किन्तु हमारी आवश्यकता-पूर्ति के स्रोत विभिन्न हैं। उनसे हम विभक्त हैं, इसलिए अनेक भी हैं। जिससे हमारी अपेक्षा पूरी होती है, उससे हमारा मोह हो, यह स्वाभाविक है। जिनसे मोह होता है, उन्हें महत्त्व देने की भावना भी अस्वाभाविक नहीं है । हम सबसे अधिक महत्त्व अपने शरीर को देते हैं। फिर अपने रंग-रूप, भाषा, जाति, गांव, ज़िला, प्रांत और राष्ट्र को देते हैं। उन्हें महत्त्व देना कोई अपराध भी नहीं है, यदि हम दूसरों को हीन माने बिना, बाधा पहुंचाएं बिना उन्हें महत्त्व दें। किन्तु हमारे में अपने भौतिक साधनों को सीमा से अधिक महत्त्व देने की प्रवृत्ति होती है। इसीलिए हम दूसरों के साधनों से अपने साधनों की योग्यता प्रमाणित करना चाहते हैं। इस प्रक्रिया में हमारा मन घृणा, स्पर्धा, गर्व आदि अनेकता के बीजों को बुआई करता है । हम नहीं चाहते कि साधनों की अनेकता के आधार पर मानवीय एकता खण्डित हो, पर साधनों को असीम महत्त्व देते हए हम कैसे कह सकते हैं कि हम नहीं चाहते कि साधनों की अनेकता के आधार पर मानवीय एकता खण्डित हो। भौतिक साधनों के प्रति हमारा आकर्षण जितना अधिक होगा, उतनी ही अधिक मानवीय एकता खण्डित होगी। हम मानवीय एकता को बनाए रखना चाहते हैं और भौतिकता के आकर्षण को कम करना नहीं चाहते, फिर वह कैसे संभव होगी ? मानवीय एकता को खण्डित करने वाले प्रमखतः तीन श्रेणी के लोग होते हैं । एक वे जो शक्तिशाली होते हैं। दूसरे वे जिनका बद्धि-बल प्रखर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003076
Book TitleTat Do Pravah Ek
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1967
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
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