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________________ २० । तट दो : प्रवाह एक होता है । तीसरे वे जो प्रकृति के दुष्ट होते हैं। शक्तिशाली और बुद्धिसम्पन्न लोग जब अधिकार-लोलुप बन जाते हैं, प्रत्यक्ष या परोक्ष साम्राज्य जब प्रिय हो जाता है, तब मानवीय एकता का भंग होता है । दुष्ट-प्रकृति के लोग अपने पर संतुलन न रखने के कारण भेद का वातावरण उत्पन्न कर डालते हैं । इतिहास स्वयं साक्ष्य देता है कि जब-जब मानवीय एकता का भंग हुआ है, तब-तब ऐसे ही लोगों के द्वारा हुआ है। यदि हम चाहते हैं कि मानवीय एकता पुनः स्थापित हो, भौतिक उपकरण को लेकर मनुष्य मनुष्य का शत्रु न बने तो हमें मानव-निर्माण के प्रति विशेष ध्यान देना होगा। तात्कालिक उपचार यह हो सकता है कि एकता के प्रबल आन्दोलन द्वारा मनुष्य को मानवीय एकता की अनुभूति कराई जाए किन्तु इसका स्थायी समाधान यह है कि हम अपने प्रशिक्षणक्रम में (१) शक्ति-संगोपन, (२) बुद्धि-संयम और (३) भाव-पवित्रता की शिक्षा को अनिवार्यता दें। शक्ति-संगोपन की शिक्षा प्राप्त होतो बहमत अल्पमत के प्रति कभी आक्रमणकारी नहीं हो सकता और अल्पमत बहुमत के प्रति कभी उदंड नहीं हो सकता। शक्ति के संगोपन को उसकी उपलब्धि से अधिक महत्त्व है। बौद्धिक-संयम का अभ्यास हो तो किसी भी प्रकार का साम्राज्य स्थापित नहीं हो सकता और शोषण भी नहीं हो सकता । स्वभाव की पवित्रता प्राप्त हो जाए तो आए दिन होने वाले संघर्ष समाप्त हो जाएं। ____ राष्ट्रीय एकता की बात सोची जाती है पर हमारा विश्वास है कि मानवीय एकता को आधार माने बिना राष्ट्रीय एकता स्थितिशील नहीं बनती । मनुष्य के मूल्यांकन का हमारा दृष्टिकोण विशुद्ध नहीं हैं । हम मनुष्य को मनुष्य की दृष्टि से नहीं जानते-पहचानते । हम उसका अंकन जातीय, प्रांतीय, राष्ट्रीय, भाषायी आदि माध्यमों से करते हैं। इसलिए वह हमसे बहुत दूर रह जाता है। उसके माध्यम हमारे माध्यमों से भिन्न होते हैं इसलिए भेद मिट ही नहीं पाता। फिर भी जो राष्ट्रीय एकता का ज्वलंत प्रश्न है उस पर विचार करना चाहिए। वर्तमान में जो भेद वाली प्रवत्तियां बढ़ रही हैं, उनके प्रभावशाली हेतु हैं : १. प्रांतीयता, २. जातीयता, ३. भाषा, ४. राजनीतिक-दल Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003076
Book TitleTat Do Pravah Ek
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1967
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
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