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________________ सुख और शान्ति । ६५ दिया जाए तो उसे वह अच्छा नहीं लगेगा । एक मनुष्य की संगीत में रुचि है परन्तु यदि उसके मन में अशान्ति है तो उसे सुख की अनुभूति नहीं होगी। शान्ति और सुख का साहचर्य है, उनमें कार्य-कारण का भाव नहीं । हमारा साध्य सुख है, शान्ति नहीं । शान्ति के अभाव में सुख नहीं मिलता, इसीलिए शान्ति को महत्त्व अधिक दिया जाता है। शान्ति का अर्थ है शमन । रोग को शान्त करने के लिए चिकित्सा की जाती है। लोग कहते हैं रोग शान्त हो गया। परन्तु शान्त क्या हुआ ? जो उभार आया था वह मिट गया। फोड़ा हुआ, उपचार किया, मिट गया । शमन के लिए यही बात है। सुख के दो रूप हैं। वह भौतिक भी है और आध्यात्मिक भी। मकान, वस्त्र, रोटी—जिनसे सुख की अनुभूति होती है वे भौतिक हैं। आज इसी को प्रधान सुख मान लिया गया है। परन्तु हमारे महर्षियों ने, हमारे आचार्यों ने इसे व्याधि माना है। हमें भूख लगी है, समझ लीजिए व्याधि उत्पन्न हो गई है। भोजन किया, व्याधि मिट गई । बुखार आया, दवा ली और बुखार दूर हुआ। इसमें सुख की कैसी अनुभूति हुई ? हां, उपकरणों द्वारा सुख की अनुभूति अवश्य होती है। __ आज मनुष्य का मानसिक तनाव इतना बढ़ गया है कि शायद इतना पहले कभी नहीं था। अमेरिका आज की दुनिया का सबसे धनी देश है। वहां पर खाने, पीने, पहनने की कोई कमी नहीं है। घी-दूध की नदियाँ बहती हैं। गेहूं आदि अनाज जानवरों को खिलाया जाता है परन्तु इसके उपरान्त भी वहां मानसिक तनाव के रोगियों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक है। यदि बाह्य उपकरण ही सूख के साधन होते तो शायद ऐसा नहीं होता । मनुष्य के पास आज समय का बहुत अभाव हो गया है। वैसे तो भाव सभी चीज़ों का बढ़ गया है। कलकत्ता में एक वर्ग फुट का किराया एक रुपया है। परन्तु समय का भाव सबसे अधिक बढ़ गया है । गर्मी-प्रधान देश होने के कारण भारत के लोग अधिक आलसी भी होते हैं, फिर भी समय की कमी उन्हें सदैव सताती है। यह भी एक मानसिक असंतुलन है। अमेरिका में मानसिक तनाव बाह्य उपकरण की प्रचुरता के कारण ही अधिक फैला है। रूस में ऐसी बात नहीं है। वहां के लोग अधिक संघर्षरत हैं । फ्रांस में भी मानसिक तनाव के रोगियों की संख्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003076
Book TitleTat Do Pravah Ek
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1967
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
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