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________________ वासना - विजय । १११ वाला प्रबल होता है तो सापों को जीत लेता है और दुर्बल होता है तो साप उसे मार डालता है । यही बात वासना को जीतने के समय होती है । यदि तुम उसे कुरेदने का प्रयत्न करोगे तो वह उभरेगी । उसे नहीं छेड़ोगे तो वह फुफकार नहीं मारेगी । उसे छोड़ने वाले को कुशल गुरु का संरक्षण प्राप्त होना चाहिए। साधक का गुरु कुशल होता है तो वह उभार को संभाल लेता है; अन्यथा साधक घबरा जाता है । वासना-विजय की अनेक प्रक्रियाएं हैं, उनमें कुछ ये हैं : इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता तप के बारह भेदों में यह एक है । इसकी प्रक्रिया आज विस्मृत है । औपपातिक सूत्र में प्रतिसंलीनता के चार प्रकार निर्दिष्ट हैं — इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, योग प्रतिसंलीनता, कषाय प्रतिसंलीनता, विवक्त शयनासन प्रतिसंलीनता । मुनि के लिए दांत विशेषण आता है। दांत का अर्थ है - जिसने दमन किया हो । दमन का अर्थ दण्ड नहीं है, जैसा कि आज समझा जा रहा है। उसका अर्थ वही है, जो प्रतिसंलीनता का है । शंकराचार्य ने लिखा हैइन्द्रियों को विषय से हटाकर अपने-अपने गोलक में स्थापित कर देना दम है। विषयेभ्यः परावर्त्य, स्थापनं स्वस्व गोलके । उभयेषा मिन्द्रियाणां स दमः परिकीर्तितः ॥ इन्द्रियों की गति बाहर की ओर है। आंख बाहर की ओर देखती है । कान बाहर की बात सुनता है। जीभ बाहर की वस्तु को चखती है। नाक बाहर की गंध को ग्रहण करती है। त्वचा बाहर की वस्तु को छूती है । इस प्रकार बाह्य जगत् से जो सम्पर्क है उसे विच्छिन्न कर डालना प्रति संलीनता का प्रयोजन है । इन्द्रियों की प्रतिसंलीनता करने के लिए 'सर्वेन्द्रियविषयोपरम' मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए । इसके अभ्यास से इन्द्रियां बाहरी विषयों से अपना सम्बन्ध तोड़ लेती हैं । योग साधना में जानने का उतना महत्त्व नहीं है जितना उसके अभ्यास का है । मुद्रा करने की विधि इस प्रकार है— दोनों अंगूठों से दोनों कान के छेदों को बन्द करें, दोनों तर्जनी अंगुलियों से दोनों आंखों को धीमे से दबाएं, दोनों मध्यमा अंगुलियों For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003076
Book TitleTat Do Pravah Ek
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1967
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
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