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________________ ५४ । तट दो : प्रवाह एक है, वह भी संस्कारगत सत्य है। वास्तविक सत्य वह होगा कि जब हम मानेंगे नहीं कि जीव है या नहीं है किन्तु यह जान लेंगे कि वह है या नहीं है। ___ यदि आप कहें कि वास्तविक सत्य है, इसे क्या हम जानते हैं ? नहीं जानते हुए भी जब हम मानते हैं कि वह है तो फिर इसी को वास्तविक सत्य क्यों न मान लें कि जीव है या नहीं है ? जो मेरे लिए रहस्य है, उसे मैं मान रहा हूं। जान तो नहीं रहा हूं। यदि मैं उसे जान रहा होता तो वह मेरे लिए रहस्य ही नहीं होता। आज हम सबके सामने अतीत और भविष्य तथा बहुलांश में वर्तमान भी इतना अपूर्ण है कि उनके विषय में हम अपनी मान्यताएं ही स्थापित कर सकते हैं। तो मेरी मान्यता यह है कि हमारा वर्तमान व्यक्तित्व न सर्वथा पौदगलिक ही है और न सर्वथा अपौदानिक ही है । यदि उसे सर्वथा पौद्गलिक मानें तो उसमें चैतन्य नहीं हो सकता और यदि उसे सर्वथा अपौदालिक मानें तो उसमें संकोच-विस्तार, (देखें प्रश्नांक ४), प्रकाशमय अनुभव (देखें प्रश्नांक ५), ऊर्ध्व गौरव धर्मता (देखें प्रश्नांक ७), राग आदि (देखें प्रश्नांक १०) नहीं हो सकते। मैं जहां तक समझ सका हूं कोई भी शरीरधारी जीव अपौद्गलिक नहीं है। जिन-आचार्यों ने उनमें संकोच-विस्तार, बन्धन आदि माने हैं। अपौद्गलिकता उसकी अन्तिम परिणति है, जो शरीर-मुक्त से पहले कभी प्राप्त नहीं होती। और वह हमारी परीक्षानुभूति का विषय नहीं है। जहां तक हमारी प्रत्याक्षानुभूति का प्रश्न है, जीव का भूत और भविष्य दोनों अज्ञात हैं। वर्तमान जो ज्ञात है, उसे प्रश्नकर्ता चैतन्य-गुण-विशिष्ट पुदगल कहना चाहते हैं और मैं पद्गल-युक्त चैतन्य कहना चाहता हूं। पुद्गल और चैतन्य ये दोनों दोनों में हैं। प्रश्नकर्ता को चैतन्य को गौण और पुद्गुल' को मुख्य स्थान देना इष्ट है । इस रेखा पर पहुंचते ही हमारी दूरी केवल गौणता और मुख्यता तक सीमित हो जाती है। जिस चैतन्य की प्रक्रिया से ही शरीर दूसरे पुद्गलों का ग्रहण, स्वीकरण (आत्मसात्करण) और विसर्जन करता है और अपनी हर प्रवृत्ति में जिसकी अधीनता स्वीकार करता है, क्या उसे गौण स्थान दिया जा सकता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003076
Book TitleTat Do Pravah Ek
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1967
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
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