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________________ जीवन और दर्शन । ६ पढ़कर जर्मन कवि गेटे नाच उठा । हमारे यहां रामायण में आता है कि हनुमान ने देखा, सूर्य अस्त हो रहा है, उनके मन में वैराग्य की भावना उमड़ पड़ी। आज जैसा देखना चाहिए वैसा नहीं देखा जा रहा है। जिसे पीलिया की बीमारी हो जाती है, उसे सब कुछ पीला ही पीला नजर आता है। आज इस बीमारी को मिटाने की आवश्यकता है। जीवन के प्रति दृष्टिकोण क्या हो, लोग इसे भूल गए। मेरे विचार से तो नब्बे प्रतिशत लोगों का जीवन के प्रति कोई दृष्टिकोण नहीं है। आप खाते हैं, पीते हैं, श्वास-निःश्वास लेते हैं केवल जीवित रहने के लिए ; परन्तु किसलिए जीते हैं, यह नहीं बता सकते। हो सकता है कि मौत नहीं आ रही हो, इसीलिए जीवित रहते हों। - हमारा जीवन इतना मूल्यवान है कि उसके द्वारा बहुत बड़े-बड़े काम किए जा सकते हैं। यदि जीवन उद्देश्यपूर्वक होता है तो उसमें गति आती है, बिना उद्देश्य का जीवन लड़खड़ाता रहता है । मनुष्य खा लेता है परन्तु कब खाना चाहिए, क्यों खाना चाहिए, यह नहीं जानता। सांस लेता है परन्तु कैसे लेना चाहिए, यह नहीं जानता । कोई मनुष्य धर्म को माने या नहीं परन्तु अपने अस्तित्व पर तो विचार करना ही चाहिए । उदयपुर आने पर एक समझदार व्यक्ति ने कहा कि आत्मा पर मेरा विश्वास नहीं । यह भावुकता है, और कुछ नहीं। वास्तव में चंचलता के द्वारा कुछ नहीं हो सकता। जब तक हमारा मन स्थिर नहीं होता तब तक हम कुछ नहीं समझ सकते । हमारा निवृत्ति-धर्म पलायनवाद नहीं । चंचलता में फंसकर लोग सत्य से दूर हो जाते हैं। सत्य के निकट हो सकें इसी का नाम निवृत्ति है । लोग दर्शन को भूलभुलैया मानकर चलते हैं परन्तु ऐसी बात. नहीं है। आज दार्शनिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। प्रत्येक काम में दर्शन की आवश्यकता है। जिस प्रकार एक लंगड़ा आदमी लाठी के सहारे चलता है उसी प्रकार यदि हमारे पास दर्शन का आलम्बन हो तो हम सत्य तक अवश्य पहुंच सकते हैं। १. आत्मा है, २. वह अमर है, ३. अपना किया हुआ फल अपने आप भुगतना पड़ेगा-चाहे इहलोक में, चाहे परलोक में ; जिसमें ये तीनों बातें पायी जाएंगी वह मनुष्य बुराइयों से घबराएगा। चाहे उसने देखा हो या नहीं। भय से नहीं, अभय के द्वारा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003076
Book TitleTat Do Pravah Ek
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1967
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
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