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८ । तट दो : प्रवाह एक
प्रकाश नहीं दिखाई देता । अनन्त परमाणु चक्कर लग रहे हैं पर दिखाई नहीं देते ।
जहां समानाभिहार होता है, वहां आंखों से नहीं देखा जा सकता है । हजारों मन धान में सरसों का एक बीज यदि डाल दिया जाए तो वह होते हुए भी दिखाई नहीं पड़ता । इसीलिए हमारे ऋषियों, मुनियों तथा दार्शनिकों ने कहा- आपका देखना अधूरा है । एक सड़क हमारे सामने है । यदि हम उसे दूर से देखते हैं तो वह केवल पतली-सी काली रेखा के समान ही दिखाई पड़ती है । यह दर्शन है ही नहीं । यह सही है कि दर्शन का अर्थ देखना होता है परन्तु देखना वही है जहां आंखें मूंदकर देखा जाए ।
दर्शन का अर्थ है साक्षात् । जो मन को एकाग्र कर देखने का प्रयास करते हैं, वही सही देखना है। जहां दूरी सूक्ष्मता देखने में बाधक नहीं बनती, वही देखना है । भगवान् महावीर ने एक जगह कहा हैजो मनुष्य क्रोध, मान, लोभ पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह परमात्मा को प्राप्त कर लेता है । जब हम अपने आप में देखते हैं तब दर्शन पूर्ण हो जाता है । जहां चित्त को अपने आप में केन्द्रित किया जाता है वही है दर्शन । शेष सब तर्क का मायाजाल । यह सरल तो बहुत है परन्तु इसे पाने में कठिनाई होती है, पर जिन्होंने थोड़ा प्रयत्न किया उन्हें मिला भी अवश्य । एक व्यक्ति सोते के पास खड़ा है । वह देखता है कि एक हिरणी पांव से लंग
ती हुई आती है और सोते में पांव कुछ देर तक रखने के बाद पुनः वापस चली जाती है । तीन दिनों तक यही क्रम चलता रहा और चौथे दिन हिरणी बिलकुल स्वस्थ हो गई । उस मनुष्य ने देखने का यत्न किया और उसी से प्राकृतिक चिकित्सा का जन्म हुआ । एक मनुष्य बीमार है । वह देखता है कि एक बच्चा 'लाला' का उच्चारण करता हुआ जोरों से सांस ले रहा है। उसने देखने का प्रयत्न किया, उससे स्वर - चिकित्सा ( ट्युनोपैथी) का जन्म हुआ। जिस किसी ने भी देखने का प्रयत्न किया शायद कभी व्यर्थ नहीं गया। बड़े-बड़े कहानीकार, कलाकार आदि जिन्होंने भी इतनी ख्याति प्राप्त की उन्होंने एकाग्रता से देखने का प्रयत्न किया था । महाकवि कालिदास ने 'अभिज्ञान शाकुन्तल' का ऐसा सृजन किया है जिसे
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