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जीवन और दर्शन जीवन भी सबके पास है और दर्शन भी सबके पास है । संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं जिसके पास जीवन हो और दर्शन न हो । परन्तु जीवन और दर्शन में मेल होना चाहिए। यदि दर्शन जीवन में होता है तो दोनों मिलकर एकप्राण बन जाते हैं। प्रश्न होता है-जीवन क्या है ? दर्शन क्या है ? यह सरल भी है और गढ़ भी है। सभी लोग कहते हैंसुनकर काम करो, देखकर चलो। देखने का सब जगह महत्त्व है । यदि जीवन न होता तो शायद देखने की आवश्यकता नहीं होती। आदमी जीता है, वही जीवन है । इन्द्रियों और प्राण के संयोग से ही वह बनता है । प्रो० ल्योनिदवासिलियेव ने लिखा है कि मैंने मस्तिष्क संस्थान के परीक्षणों द्वारा ज्ञात किया कि मनुष्य में अक्षय शक्ति है, अनन्त शक्ति है । उसकी शक्ति विद्युत तरंगों की तरह नहीं है। सोवियत पत्रों में इसकी काफी चर्चा हुई है। जीवन का क्षेत्र बहत विशाल है। थोड़े दिन पहले एक डॉक्टर ने कहा था--आज भी मनुष्य अवधिज्ञानी तथा मनःपर्यायज्ञानी हो सकता । जीवन की परिधि विशाल होती जा रही है। जीवन आगे बढ़ रहा है।
हम जो आंखों से देखते हैं, वही दर्शन है। परन्तु सब कुछ सीधा ही सीधा नहीं होता, उल्टा भी होता है। हमारे ऋषियों, मुनियों ने कुछ बातें उल्टी भी कहीं। उन्होंने कहा-हम जो देखते हैं, वह दर्शन नहीं, वह देखना देखना नहीं है । देखने का अर्थ है-आंखें बन्द करके देखना । मनुष्य देखता हुआ भी नहीं देखता । सुनता हुआ भी नहीं सुनता । यह बात बिलकुल उल्टी है। समझ से परे है। आपको कहा जाए कि आंखें मूंद कर देखो, नहीं दिखेगा। हमारी इन्द्रियां इतनी क्षीण होती हैं कि थोड़ा-सा भी व्यवधान आया कि दर्शन रुक जाता है। यदि हम ऊपर चढ़कर देखते हैं तो उदयपुर का पहाड़ दिखाई देता है परन्तु यहां से नहीं दिखाई पड़ता है । कारण स्पष्ट कि व्यवधान आ गया। दोपहर में दीप जलता है परन्तु उसका
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