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________________ विभूषा व्यवहार की भूमिका में जीवन की आवश्यकता और विभूषा के बीच रेखा खींचना कठिन है। पर आचार्यों ने एक रेखा खींची है। वह है देहाध्यास। उसके इस पार आवश्यकता विभूषा से मुक्त नहीं होती और उस पार शुद्ध आवश्यकता शेष रहती है। उदाहरण की भाषा में इस प्रकार समझिए कि व्यक्ति में देहाध्यास होता है तो साधारण वस्त्र ओढ़ने में भी विभूषा का भाव जाग आता है। देहाध्यास न हो तो मूल्यवान वस्त्र ओढ़ लेने पर भी विभूषा की भावना नहीं जागती। __ मनुष्य के पास प्रवृत्ति के लिए देह, वाणी और मन तीन साधन हैं। उनमें पहला देह है । प्रश्न यह है कि हम देह में रहते हैं या आत्मा में । जब आत्मा में रहते हैं तब देहाध्यास क्षीण होता चला जाता है । विभूषा का भाव अपने-आप विजित होता चला जाता है । देह में रहते हैं तब ममत्व बढ़ जाता है और विभूषा का भाव प्रबल हो उठता है । देहधारी प्राणी दो धाराओं के बीच जी रहे हैं। एक बाहर की है और दूसरी भीतर की। बाहर की धारा में कौतुक है, इन्द्रजाल है और भीतर की धारा में ज्योति है । जो अबुद्ध हैं वे कौतुक की ओर भाग रहे हैं और जो प्रबुद्ध हैं वे ज्योति की ओर जा रहे हैं। कहा भी है बहिस्तुष्यति मूढात्मा, पिहितं ज्योति रन्तरे। तुष्यत्यन्तः प्रबुद्धात्मा, बहि व्यवृत्तकौतुकः ॥ हम साधु हैं। इसलिए हमारी गति ज्योति की ओर होनी चाहिए। वह होगी तो बाहरी आकर्षण अपने-आप क्षीण हो जाएगा। साधु को बाहर के प्रति युक्त नहीं होना चाहिए। किन्तु देह के रहते हुए वह बाहरी द्रव्यों से सर्वथा मुक्त भी नहीं होता । भले न हो, युक्त नहीं होता है तब उसकी आवश्यकता के उपकरण (वस्त्र, पात्र आदि) धर्मोपकरण हो जाते हैं। वे धर्मोपकरण इसलिए हो जाते हैं कि उनके प्रति उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003076
Book TitleTat Do Pravah Ek
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1967
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
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