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________________ अभय की शक्ति । २३ आचार्यश्री तुलसी ने सशस्त्र-प्रतिरोध को अस्वाभाविक नहीं कहा तो बहुत लोगों ने उसे पसंद किया। आचार्यश्री ने जब अहिंसक-प्रतिरोध का विकल्प सुझाया तो बहुत लोग उससे सहमत नहीं हुए । इससे भारतीय आत्मा की नाड़ी-परीक्षा हो गई । आज भी अधिकांश भारतीय अहिंसा को कायरता मान बैठे हैं। वे सोचते हैं कि पराक्रमी लोग उसे नहीं अपना सकते। उनका यह चिन्तन कारण-शून्य भी नहीं है । हमारे यहां अहिंसा का जितना प्राणि-दया के रूप में विश्वास हुआ है, उतना प्रतिकारात्मक शक्ति के रूप में नहीं हुआ है। हम किसी को न मारें-यह अहिंसा का एक पक्ष है । इस करुणात्मक पक्ष से हम दूसरों पर अपने द्वारा होने वाले अन्याय से बच सकते हैं किन्तु कोई दूसरा हमारे पर अन्याय करे, उससे नहीं बच सकते । उससे बचने का उपाय है अहिंसा की प्रतिकारात्मक शक्ति का विकास । यदि यह हो तो कोई हमारे साथ अन्याय करने का दुस्साहस कर ही नहींसक ता। आचार्यश्री तुलसी अहिंसक प्रतिकार की बात कहकर जनता को कायर नहीं बनाना चाहते किन्तु उस कायरता से उबारना चाहते हैं जो शस्त्र-सज्जा होने पर भी मन के गह्वर में छिपी रहती है। आचार्यश्री ने यह नहीं सुझाया कि आपकी निष्ठा शस्त्र-बल में हो। मन में भय और कायरता छिपी हो उस स्थिति में आप अहिंसकप्रतिकार करें। शस्त्र, भय और कायरता का अहिंसा से कोई मेल ही नहीं है। आचार्यश्री कहते हैं कि केवल भारत ही नहीं समूचा संसार अहिंसकप्रतिकार का मार्ग अपनाए । पर अपनाए वही और उसी स्थिति में जब उसका पराक्रम आत्मा से प्रस्फुटित हो, मन का कोई एक भी कोना भय से भरा न हो और शस्त्र पर से आस्था उठ गई हो। वे चाहते हैं कि भारत ऐसा शक्तिशाली बने । मैं नहीं कहता कि उनकी कल्पना एक ही दिन, मास या वर्ष में सफल हो जाएगी किन्तु मैं मानता हूं कि कोई भी कल्पना एक दिन अवश्य सफल होती है। इसलिए उसकी सफलता में हमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए। प्रथम बार हम उसकी सफलता की परीक्षा करने का यत्न न करें किन्तु यही देखें कि वह अच्छी है या नहीं। मुझे लगता है कि वह कल्पना बहुत अच्छी है । युद्ध समस्या का स्थायी समाधान नहीं है । दास-प्रथा और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003076
Book TitleTat Do Pravah Ek
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1967
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
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