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जीव का अस्तित्व : जिज्ञासा और समाधान । ५१
छाया को अपने में अंकित करने की योग्यता पायी जाती है।
४. तत्त्वार्थ सूत्रादि में सौक्षम्य-स्थौल्य को पुद्गल का पर्याय माना गया है और जीव में संकोच-विस्तार होने से सौक्ष्म्य-स्थौल्य स्पष्ट है, तथा 'आत्मप्रवाद' पूर्व में जीव का नाम 'पुद्गल' भी दिया है; जैसा कि उक्त पूर्व का वर्णन करते हुए 'धवला' सिद्धान्त टीका के प्रथम खण्ड में 'उक्तं च' रूप से जो दो गाथाएं दी हैं, उनके निम्न अंश से तथा वहीं 'पोग्गल' शब्द के प्राकृत में ही दिए हुए निम्न अर्थ से प्रकट होता है :
जीवो कत्ताय वत्ताय पाणी भोत्ताय पोग्गलो। छव्विह संठाणं बहु विह देहेहि पूरदिगलदित्ति पोग्गलो।।
श्वेताम्बरों के भगवती सूत्र में भी जीव को पुद्गल नाम दिया है, कोशों में भी 'देहे चात्मनि पुद्गल:' रूप से पुद्गल का आत्मा अर्थ भी दिया है। बौद्धों के यहां तो आमतौर पर पुद्गल नाम का प्रयोग पाया जाता है। तब जीवों को पौद्गलिक क्यों न माना जाय ?
५. जीव को 'परंज्योति' तथा 'ज्योतिस्वरूप' कहा गया है और ध्यान द्वारा उसका अनुभव भी 'प्रकाशमय' बतलाया गया है-अन्तःकरण के द्वारा वह प्रत्यक्ष भी होता है। सब बातें भी उसके पौद्गलिक होने को सुचित करती हैं-उद्योत और प्रकाश पुद्गल का ही गुण माना गया है। ऐसी हालत में भी जीव को पौद्गलिक क्यों न माना जाय ?
.. ६. अमूर्ति का लक्षण पंचाध्यायी के 'मूर्त स्यादिन्द्रिय ग्राह्यं तद्ग्राह्यममूर्तिमत्' (२-७), इस वाक्य के अनुसार यदि यही माना जाय कि जो इन्द्रियगोचर न हो वह अमूर्तिक, तो जीव के पौद्गलिक होते हुए भी उसके अमूर्तिक होने में कोई बाधा नहीं आती। असंख्य पुद्गलों के प्रचयरूप होकर भी काणिवर्गणा जैसे इन्द्रियगोचर नहीं है और इसलिए अमूर्तिक है, ऐसा कहा जा सकता है। इसमें क्या बाधा आती है ? यदि निराकार ही होना अमूर्तिक का लक्षण हो तो उसे खरविषाणवत् अवस्तु क्यों न समझा जाय ?
७. पुद्गल के यदि दो भेद किए जाएं--एक चैतन्य-गुण-विशिष्ट और दूसरा चैतन्य-गुण-रहित, चैतन्य-णगु-विशिष्ट पुद्गलों को केवल 'वर्णवन्तः'—वह भी 'चक्षुरगोचरवर्णवन्तः' माना जाय और दूसरों को स्पर्श रस
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