________________
४८ । तट दो : प्रवाह एक
लिए एक होती है ।
वास्तविकता तक उन लोगों की पहुंच होती है, जिनका ज्ञान अतीन्द्रिय ( इन्द्रियातीत ) होता है । हमारा ज्ञान एन्द्रियिक है इसलिए हमारा जगत् मान्यता का जगत् है । हमारे संस्कार आत्मवादी धारा के हैं, इसलिए हम मानते हैं कि जीव है । जिनके संस्कार अनात्मवादी धारा के होते हैं, वे मानते हैं कि जीव नहीं है । वास्तव में जीव है या नहीं है— इस वास्तविकता तक पहुंचने के साधन न उनके पास हैं जो संस्कारवश जीववादी हैं और न उनके पास हैं जो संस्कारवश अनात्मवादी हैं ।
हम वास्तविकता तक तब पहुंच पाते हैं, जब हमारा ज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष हो जाता है और हमारे संस्कार आत्मानुभूति के आलोक में विलीन हो जाते हैं ।
संस्कार जब विलीन हो जाते हैं, तब हमारी मान्यताएं समाप्त हो जाती हैं और हमारी आस्था में प्रत्यक्ष ज्ञान का उदय होता है। मान्यता की दृष्टि से एक आदमी कहता है, जीव है और दूसरा कहता है, जीव नहीं है । इन दोनों मान्यताओं को दर्शनशास्त्र का विषय न मानना अर्थात् शब्दातीत या तर्कातीत मानना संशयवाद या अनिश्चितवाद नहीं है । संशय की परिभाषा है—उभय कोटि संस्पर्शीज्ञान या दो अनिश्चित विकल्पों का स्वीकार, जैसे वह सामने खम्भा है या आदमी ? किन्तु दो निश्चित विकल्पों का दो अपेक्षाओं से होने वाला प्रतिपादन संशय नहीं हो सकता ।
संजय वेलट्ठि के संशयवाद का आकार इस तर्कसूत्र से भिन्न है । उसका आकार इस प्रकार होगा - " मैं नहीं कह सकता कि जीव है या नहीं है ।" यह संशयवाद है । यह एक व्यक्ति के दो अनिश्चित विकल्प हैं । मेरे तर्कसूत्र में दो व्यक्तियों के दो निश्चित विकल्प हैं । इसमें वास्तविक सत्य के लिए स्थान सुरक्षित नहीं है । मैंने जो तर्कसूत्र प्रस्तुत किया है, उसमें संस्कारगत सत्य माध्यमिक कसौटी और वास्तविक सत्य अन्तिम कसौटी है । इसलिए वह संशयवाद नहीं, किन्तु अन्तिम सत्य की मान्यता का सिद्धान्त है । इसकी तुलना सर्वज्ञता के तर्क सूत्र से होती है । असर्वज्ञवादी जब तर्क प्रस्तुत किया है कि सर्वज्ञ नहीं है तब सर्वज्ञवादी ने प्रतितर्क
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org