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जीव का तर्कातीत अस्तित्व । ४७
वह मान्य नहीं होता। यही है संस्कारगत सत्य । इसी आधार पर भिन्नभिन्न विचारधाराएं बनती हैं। दर्शनशास्त्र के जीव-समर्थक तर्कों को पढ़कर आस्तिक संस्कार वाला एक व्यक्ति जीव को मानता है, नास्तिक संस्कार वाला नहीं मानता । कभी-कभी उसके निमित्त से संस्कार-परिवर्तन भी हो जाता है। किन्तु यह सारा संस्कार-परिवर्तन या संस्कारगत सिद्धान्त के स्वीकार या अस्वीकार का प्रश्न है। वास्तविक आस्था का प्रश्न ध्यान की विशिष्ट अवस्था से जुड़ा हुआ है। आत्मा का साक्षात्कार उसी व्यक्ति को होता है, जो ध्यान का विशिष्ट अभ्यास करता है । इसीलिए मेरा यह विश्वास है कि जीव ध्यानगम्य है, तर्कगम्य नहीं है। ___दर्शनशास्त्र ने जीव के विषय में जो तर्क प्रस्तुत किए हैं, उनका मेरे मन पर क्या प्रभाव पड़ा, यह मैंने अपने हृदय की सचाई के साथ प्रकट किया है और मैं समझता हूं कि यह तर्क अनात्मवादी के समक्ष बड़ा कठोर तर्क है। अनात्मवादी कोरी मान्यता के आधार पर तर्क प्रस्तुत करता है। उसके पास अतीन्द्रिय की सत्ता के विषय में हां या ना कहने की कोई संभावना ही नहीं है । आत्मवादी के पास संभावना है और वह है प्रत्यक्ष ज्ञान । इसी संभावना के बल पर आत्मवादी ध्यान का आलम्बन ले तर्क की तमिस्रा के उस पार पहुंच जाता है।
द्धितीय प्रकार की प्रतिक्रिया बालचन्दजी नाहटा की है, जो एक लेख के रूप में मेरे सामने है । वे मेरी सूत्रात्मक शैली से सुपरिचित हैं। फिर भी उन्होंने मेरे निम्न तर्कसूत्र की संजय वेलट्ठि के संशयवाद से तुलना की है। मेरा तर्कसूत्र यह है-"चेतन तत्त्व के विषय में मैंने दर्शनशास्त्र के जितने स्थल पढ़े, उनसे न तो मेरी यह आस्था बनी कि जीव है और न यह आस्था बनी कि जीव नहीं है। जो जीव का अस्तित्व स्वीकार रहा है, वह भी संस्कारगत सत्य है और जो उनका अस्तित्व नहीं स्वीकार रहा है, वह भी संस्कारगत सत्य है। वास्तविक सत्य वह होगा कि जब हम मानेंगे नहीं कि जीव है या नहीं है, किन्तु यह जान लेंगे कि वह है या नहीं है।”
इसका विस्तार किया जाए तो इसका रूप यह होगा-मान्यता और वास्तविकता दो हैं। मान्यता अपनी-अपनी होती है, इसलिए वह संख्या में 'अनेक' हो सकती है। वास्तविकता अपनी-अपनी नहीं होती, वह सबके
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