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जीव का तर्कातीत अस्तित्व
'अनेकान्त' (अगस्त, १९६५) में 'जीव का अस्तित्व जिज्ञासा और समाधान' शीर्षक मेरा लेख प्रकाशित हुआ। उसके विषय में दो प्रकार की प्रतिक्रियाएं मुझे प्राप्त हुई हैं। प्रथम प्रकार की प्रतिक्रिया यह है"दर्शनशास्त्र के स्थलों को पढ़कर मुझे जीव के अस्तित्व में आस्था नहीं हुई, ऐसी अभिव्यक्ति क्या एक जैन मुनि के लिए उपयुक्त हो सकती है ?" ___मैं पाठक की मेधा को क्या दोष दं? यह मेरी संक्षिप्त-शैली का ही दोष है कि मैं अपना हार्द पाठक के मन तक नहीं पहुंचा सका। मैं समझता हूं जो मैंने लिखा है, उसे विस्तार से लिखूगा तो साधारण पाठक भी मुझसे असहमत नहीं होगा।
जैन तत्त्व-विद्या के अनुसार जीव अरूपी सत्ता है। उत्तराध्ययन (१४१६) में लिखा है--वह अमूर्त होने के कारण इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं है. “नो इंदिय गेज्झ अमुत्त भावा।।
आचारांग (५।६) में कहा है-जीव का वास्तविक स्वरूप शब्दातीत है। उत्प्रेक्षणीय भी नहीं है। अर्थात् तर्क का विषय भी नहीं है। तर्क सम्भवतः पदार्थ-विशेष के अस्तित्व का निर्णय करता है, वह वहां नहीं है, इसलिए वह तर्कातीत है । वह तर्कातीत इसलिए भी है कि मति (मन के व्यापार) से उसका ग्रहण नहीं होता।
'सव्वे सरा नियति, तक्का जत्थ न विज्जइ, मई तत्थ न गाहिया ।'
आगम का उद्घोष यह है कि जीव इन्द्रिय, तर्क और मति से प्राप्त नहीं है, तब उनके द्वारा जीव के प्रति आस्था या अनास्था हो सकती है, यह कैसे माना जाए ?
दर्शनशास्त्र हो या दूसरे शास्त्र, वे सब दिशासूचक होते हैं। वे सिद्धान्त या मान्यता प्रस्तुत करते हैं। जिस व्यक्ति के संस्कार में सिद्धान्त पैठता है, उसे वह मान्य हो जाता है; जिसके संस्कार में नहीं पैठता, उसे
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