SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्रह्मचर्य । १०१ इन्द्रियां सहजतया बाहर दौड़ती हैं, उन्हें अन्तर्मुखी बनाना प्रतिसंलीनता है। उसकी प्रतिक्रिया यह है कोई आकार सामने आए तो उसकी उपेक्षा कर भीतर में देखा जाय, वैसे ही भीतर में सुना जाय, सूंघा जाय, स्वाद लिया जाय और स्पर्श किया जाय । प्रतिसंलीनता के लिए कंभक की आवश्यकता होती है। कुंभक का अर्थ है--श्वास को भीतर या बाहर जहां का तहां रोक देना । प्राण, मन और बिन्दु (वीर्य) का परस्पर गहरा सम्बन्ध है। प्राण पर विजय पाने से मन और बिन्दु स्वतः वश में हो जाते हैं। मन पर विजय पाने से प्राण और बिन्दु स्वतः वश में हो जाते हैं। बिन्दु पर विजय पाने से प्राण और मन स्वतः वश में हो जाते हैं। तीनों में से किसी एक को साधने से शेष दो स्वयं सध जाते हैं। प्राण को स्थिर करने के लिए कंभक करना चाहिए। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है—दाएं नथुने से श्वास भरें। कुछ देर रोककर अन्तः कुंभक करें। फिर बाएं नथुने से श्वास को बाहर निकाल दें। कुछ देर बाह्य कुंभक करें। दूसरे क्रम में पहले से विपरीत अर्थात् बाएं नथुने से श्वास लें । अन्तः कुंभक कर, दाएं नथुने से श्वास बाहर निकाल दें और बाह्य कुंभक करें। इस प्रकार एक बार कुंभक होता है। प्रतिदिन बारह-तेरह बार इसका अभ्यास करना चाहिए। वीर्य की उत्पत्ति समान वायु से होती है। उसका स्थान नाभि है। इसलिए कुंभक के साथ नाभि पर ध्यान करें। पूरक करते समय संकल्प करें कि वीर्य नाड़ियों द्वारा मस्तिष्क में जा रहा है। संकल्प में ऐसी दृढ़ता लाएं कि अपनी कल्पना के साथ वीर्य ऊपर चढ़ता दिखाई देने लगे। चाप में भी सहस्रार-चक्र पर ध्यान कर संकल्प करें कि नीचे खाली हो रहा है और ऊपर भर रहा है। वीर्य नीचे से ऊपर जा रहा है । ऐसा करने से वीर्य का चाप वीर्याशय पर नहीं पड़ेगा । फलतः उसके चाप से होने वाली मानसिक उत्तेजना से सहज ही बचाव हो जाएगा। इस विषय में यौन-शास्त्रियों के अभिमत भी माननीय हैं—विज्ञानविशारद स्कॉट हाल का मत है-अण्ड और डिम्ब ग्रन्थियों के अन्तःस्राव जब रक्त के साथ मिलकर शरीर के विभिन्न अंगों में प्रवाहित होते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003076
Book TitleTat Do Pravah Ek
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1967
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy