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आत्म-दमन । ११७
पर है वस्तुतः हिंसा का रस-दमन और प्रतिरोध का सुख। यह तप नहीं, आत्मवंचना है।
आज दमन का अर्थ बदल गया है। इसलिए यह प्रयोग चुभता-सा लगता है। किन्तु इसका मूल अर्थ मनोविज्ञान के प्रतिकूल नहीं है। दमन शब्द दम धातु से निष्पन्न हुआ है। उसका अर्थ है–उपशम-शमु-दमु उपशमे । शान्त्याचार्य ने आत्म-दमन का अर्थ किया है—आत्मिक-उपशमन। ... महाभारत (आपद्धर्म पर्व, अध्याय १६०) में दमन की बहुत सुन्दर परिभाषा मिलती है । वहाँ लिखा है : ।
क्षमा धतिरहिंसा च समता सत्यमार्जवम् । इन्द्रियाभिजयो दाक्ष्यं च मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥१५॥ अकार्पण्यसंरम्भः सन्तोषः प्रियवादिता।
अविहिंसावसूया चाप्येषां समुदयो दमः ॥१६॥ क्षमा, धीरता, अहिंसा, समता, सत्यवादिता, सरलता, इन्द्रिय-विजय, दक्षता, कोमलता, लज्जा, स्थिरता, उदारता, क्रोध-हीनता, सन्तोष, प्रिय वचन बोलने का स्वभाव, किसी भी प्राणी को कष्ट न देना और दूसरों के दोष न देखना-इन सद्गुणों का उदय होना ही दम है।
दान्त का अर्थ है, उपशान्त । जो उपशान्त होता है, वह निम्न दोषों से अपना बचाव करता है। महाभारत (आपद्धर्म पर्व, अध्याय १६०) में लिखा है :
गुरुपूजा च कौरव्यं दया भूतेष्व पैशुनम् । जनवादं मृषावादं स्तुति निन्दा विसर्जनम् ॥१७।। काम क्रोधं च लोभं च दर्प स्तम्भं विकत्थनम् ।
रोषमीया॑वमानं च नैव दान्तो निषेवते ।।१८।। कुरुनन्दन ! जिसने मन और इन्द्रियों का दमन कर लिया है, उसमें गुरुजनों के प्रति आदर का भाव, समस्त प्राणियों के प्रति दया और किसी की भी चुगली न खाने की प्रवृत्ति होती है । वह जनापवाद, असत्य भाषण, निन्दा-स्तुति की प्रवृत्ति, काम, क्रोध, लोभ, दर्प, जड़ता, डींग हांकना, रोष, ईर्ष्या और दूसरों का अपमान-इन दुर्गुणों का कभी सेवन नहीं करता।
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