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३२ । तट दा प्रवाह एक
यह विरोधाभास कितना आश्चर्यकारी है कि एक ओर जनतंत्र के विस्तार की अदम्य उत्कण्ठा और दूसरी ओर एक महान् जनतंत्र के विकासमान पौधे पर कुठाराघात ?
इसी बिन्दु पर पहुंचकर हम राजनीति की आत्मा को देख पाते हैं कि उसका गठबन्धन सिद्धान्त के साथ उतना नहीं होता, जितना स्वार्थ पूर्ति के साथ होता है ।
कुछ राष्ट्रों का आदर्श साम्प्रदायिकता है तो कुछ राष्ट्रों का सम्प्रदाय - निरपेक्षता । एशिया में दोनों प्रकार के राष्ट्र हैं । हिन्दुस्तान सम्प्रदायनिरपेक्ष राष्ट्र है । पाकिस्तान का आधार साम्प्रदायिकता है । साम्प्रदायिक राष्ट्र साम्प्रदायिकता के आधार पर दूसरे राष्ट्रों से समर्थन पाते और देते हैं ।
स्वार्थ पूर्ति और साम्प्रदायिकता के आधार पर किया जाने वाला पक्षपात जनतंत्र के भविष्य के लिए सबसे बड़ा खतरा है । इस खतरे के परिणाम केवल एशिया के जनतंत्र देशों को ही नहीं, सारी दुनिया के जनतंत्र देशों को भुगतने होंगे ।
जनतंत्र का विकास और सुरक्षा दूसरे राष्ट्रों की स्वतंत्र चेतना को कुण्ठित करने के प्रयत्न से नहीं हो सकती । वह हो सकती है उनकी स्वतंत्र चेतना के उपभोग में सहयोग देने से । यदि इस तथ्य की ओर ध्यान नही दिया गया तो एशिया में ही नहीं, सारी दुनिया में जनतंत्र का भविष्य उज्ज्वल नहीं है ।
साम्प्रदायिक कट्टरता वैज्ञानिक उपलब्धियों के साथ अपने-आप मिटने वाली है । इससे जनतंत्र को दीर्घकालीन खतरा नहीं है । जिससे दीर्घकालीन खतरा है, वह है प्रभुत्व - विस्तार की भावना । यह परतंत्रता का सूत्र है, जो जनतंत्र के मूल आधार —- स्वतंत्रता पर प्रहार करता है ।
स्वतंत्रता और आर्थिक विकास की सम्भावना जनतंत्र में किसी अन्य प्रणाली से अधिक है, यह मान्यता पुष्ट होती जा रही है। इसलिए उक्त कठिनाइयों के उपरान्त भी जनतंत्र का भविष्य प्रकाशमय प्रतीत होता है जिस एशिया ने इस आध्यात्मिक मंत्र को पढ़ा है— आत्मा का शासन आत्मा के द्वारा, आत्मा के लिए वह महामनीषी लिंकन के उस वाक्य कं अनादृत नहीं करेगा-जनता का शासन, जनता के द्वारा, जनता के लिए
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