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________________ ८२ । तट दो : प्रवाह एक दीर्घकालीन कठोर प्रयत्नों के उपरान्त भी यह खण्डता की मनोवृत्ति अभी टूट नहीं पायी है। यदि रूसी समाजवाद अखण्डता की ओर गतिशील होता तो उसके पास अणु-अस्त्र नहीं होते। उसका सामुदायिकता का सिद्धान्त केवल अपने राष्ट्र की व्यवस्था पर है । खण्डता की मनोवृत्ति वहाँ भी उतनी है, जितनी अन्यत्र है। इसीलिए शस्त्रों की होड़ चल रही है। पहले मान्यता स्थिर होती है, फिर कार्य होता है। लोगों ने मान रखा है कि शक्ति-संतुलन ही शान्ति का सर्वोत्तम उपाय है। रूस और अमेरिका में से कोई भी इस दौड़ में पिछड़ जाता तो यद्ध शुरू हो जाता । दोनों साथसाथ चल रहे हैं, इसलिए युद्ध रुका है। तर्क के प्रति कोई तर्क नहीं है । क्योंकि बहुतों ने इसे अकाट्य मान रखा है। जो अकाट्य हो उसे काटने का यत्न क्यों किया जाय ? हम तर्क से ऊपर उठकर देखते हैं तो लगता है कि इस दौड़ का मूल्य कल्पनाजगत् में है। यथार्थ में वह शून्य है । यदि युद्ध छिड़ता है तो दोनों सुरक्षित नहीं हैं। दुनिया का कोई कोना सुरक्षित नहीं है और यदि युद्ध नहीं होता है तो अणु-अस्त्रों का निर्माण कोरा अपव्यय है। इसका निर्माण दोनों दृष्टियों से व्यर्थ है । पर कोई एक करता है तो दूसरा बच भी कैसे सकता है ? मानवता के प्रति सबसे बड़ा अन्याय उसने किया जिसने अण-अस्त्रों के निर्माण में पहल की। हम वर्तमान प्रश्न पर सोचें तो क्या यह सर्वथा निश्चित है कि शक्ति-संतुलन रहने पर युद्ध नहीं होगा ? कभी-कभी आदमी में उन्माद भी जागता है, आवेग भी आता है । मानसिक-संतुलन खो बैठने पर क्या कोई भी आदमी आगे-पीछे की सोचता है । मानवीय दुर्बलताओं से हम अपरिचित नहीं हैं। हम इससे भी सुपरिचित हैं कि कुछेक व्यक्तियों की भूल का परिणाम समूचे संसार को भोगना पड़ता है । द्वितीय महायुद्ध का परिणाम किसने नहीं भोगा ? अणुयुद्ध का परिणाम कितना भयंकर है, इसकी कल्पना ही थर्रा देती है। जो लोग मानवता की दृष्टि से देखते हैं, वे अण-अस्त्रों के निर्माण का विरोध कर रहे हैं, पर वे कितने हैं ? बहुत थोड़े। अधिक वे हैं जो मानवता के विनाश को अपने सिरहाने रखकर सोते हैं। अपने विनाश की तैयारी पशु भी नहीं करता। मनुष्य महापशु बन रहा है जो अपने ही हाथों अपनी चिता रच रहा है । मृत्यु से घबराना नहीं चाहिए किन्तु ऐसा मूर्खतापूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003076
Book TitleTat Do Pravah Ek
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1967
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
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