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________________ १४ । तट दो : प्रवाह एक बनता जा रहा है। इसका अर्थ है कि निरपेक्षता आ रही है। सापेक्ष की कड़ी टूटने पर कोई बड़ी हानि नहीं ; व्यवस्था न रहे तो कोई दोष नहीं ; शासन न रहे तो कोई आपत्ति नहीं; यदि स्व-शासन आ जाए । स्व-शासक न शासन से शासित होता है और न शासन से मुक्त। 'कुसले पुण नो बढे नो मुक्के'--कुशल वह है जो न बद्ध होता है और न मुक्त। एक ही व्यक्ति जो न बँधा हुआ हो और न मुक्त हो, यह कैसे हो सकता है ? शासन छोड़ा नहीं जा सकता। शासन नहीं वहां त्राण नहीं। कोई भी अत्राण रहना नहीं चाहता--इसलिए आत्मानुशासन आता है। कुशल इसलिए है कि वह परशासन से बद्ध नहीं है और आत्मानुशासन से मुक्त नहीं है।। __ आत्मानुशासन के मनोभाव को विकसित करना आवश्यकता है। कहीं भी देखा जाय, ईर्ष्या है, स्पर्धा है, एक-दूसरे को नीचे गिराने का भाव है और असहनशीलता है। समाज में जहां सापेक्षता है, वहां ऐसा क्यों होता है, यह आज भी एक प्रश्नचिह्न बना हुआ है। साम्यवादी शासनमुक्त समाज की कल्पना लेकर चलते हैं । वहां क्या होता है ? अपनी सुरक्षा और अपने प्रतिस्पर्धी का पतन । एक ओर शासन मुक्ति की कल्पना, दूसरी ओर इतना स्वार्थ-संघर्ष, यह दर्शन की दूरी नहीं तो और क्या है ? ___व्यक्ति ने मान लिया, उत्कर्ष हो तो मेरा हो। मुख्य या शक्तिशाली मैं ही बनूं । यह व्यक्तिवादी मनोवृत्ति ही सामाजिकता को वास्तविकता नहीं बनने देती; किन्तु आत्मानुशासन का विकास होने पर व्यक्ति व्यक्ति रहकर भी असामाजिक नहीं रहता।। व्यक्ति में जो स्व की सीमा है, उसे न समझकर वह अपने में पर का आरोप कर लेता है। संक्रान्ति वेला में प्रत्येक वस्तु छोटी दीखती है। विशाल वस्तु भी दर्पण में समा जाती है। व्यवित भी सोचता है, सारी सृष्टि मुझमें समाहित हो जाए, पर ऐसा सोचनेवाला सत्य के निकट नहीं पहुंच पाता। व्यक्ति समुद्र है। राग-द्वेष की उमियाँ उसमें कल्लोलें कर रही हैं। वहां सत्य-दर्शन नहीं होता। उन उमियों से ऊपर आने वाले की ही दष्टि स्पष्ट हो सकती है, भीतर रहने वाले की नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org ww
SR No.003076
Book TitleTat Do Pravah Ek
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1967
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
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