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जीवन के नये मूल्य | ५६
उसका विद्यार्थी पात्र है या अपात्र । वह उसे पढ़ाता है, जो पहले वर्ष की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है । उत्तराधिकार का प्रश्न आज मिट चुका है । समाज में वह अधिक समादृत होता है, जो अधिक जोड़-तोड़ कर सकता है। विनय को कोई प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है । उसे गुलाममनोवृत्ति का सूत्र माना जा रहा है । इसीलिए आज व्यक्ति और समाज दोनों एक सुदृढ़ श्रृंखला से आबद्ध नहीं हैं ।
पुराने ज़माने में यह माना जाता था कि वचन का मूल्य सर्वोपरि है । जो महान् आदमी होते हैं उनके वचन पत्थर की लकीर के समान अमिट होते हैं । जिस आदमी का वचन जल की लकीर के समान क्षणिक होता है वह महान् नहीं माना जाता ।
वर्तमान में अपने वचन से मुकर जाना बड़ा कौशल है और बड़े आदमियों की खास पहचान है । पारस्परिक अविश्वास बढ़ाने में इसने बहुत बड़ा योग दिया है।
पहले लोग केवल भारतीय थे । उनका सोचने-समझने का सारा ढंग भारतीय था । वे भारतीय पद्धति से ही जीते और उसी पद्धति से मरते थे । अब वैज्ञानिक उपलब्धियों ने सारे विश्व को बहुत निकट ला दिया है । अब भारतीय केवल भारतीय नहीं है, वह जागतिक है । इसलिए वह बहुत व्यापक दृष्टि से देखता है और उन्मुक्त मस्तिष्क से सोचता- समझता है । जब वह बुद्ध, महावीर, व्यास और शंकर को पढ़ता था तब उसे नैतिक मर्यादाएं अनिवार्य लगती थीं । अब वह फ्रायड को पढ़ता है तो उसे लगता है कि ये मर्यादाएं कृत्रिम हैं, इच्छाओं के दमन से निष्पन्न हैं । इनके पीछे वास्तविकता का कोई हाथ नहीं है । इसीलिए आज एक-एक कर मर्यादाएं समाप्त हो रही हैं । नैतिक मानदण्ड गिर रहे हैं । आज विश्वविद्यालयों में ब्रह्मचर्य की चर्चा उपहास का विषय बन जाती है । दिल्ली विश्वविद्यालय के वाइस चान्सलर श्री गांगुली ने बातचीत के प्रसंग में कहा" मुनिजी ! हम जब पढ़ते थे तब हमें ब्रह्मचर्य के विषय में बहुत बातें बताई जाती थीं । हमारा यह विश्वास हो गया था कि ब्रह्मचर्य बहुत बड़ी शक्ति है ।"
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