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१२० । तट दो : प्रवाह एक
कम लोग जानते हैं । अध्यवसान से अकाल-मृत्यु होती है, इसे तो बहुत ही कम लोग जानते हैं । राग, स्नेह, भय, घृणा आदि भाव हर व्यक्ति में होते हैं । सामान्यतः वे हर व्यक्ति के मन को प्रभावित करते रहते हैं। किन्तु जब वे तीव्र मात्रा में व्यक्ति को प्रभावित करने लगते हैं, तब व्यक्ति अकालमृत्यु की ओर चल पड़ता है और उनसे तीव्रतर मात्रा में प्रभावित होने वाला व्यक्ति तत्काल काल-कवलित हो जाता है। शरीर और मन का गहरा सम्बन्ध है। शरीर की प्रक्रिया से मन और मन की प्रक्रिया से शरीर प्रभावित होता है। शरीर की अस्वस्थता मन को अस्वस्थ बनाती है और अस्वस्थ मन शरीर को अस्वस्थ बनाता है।
द्वेष, घृणा, स्नेह आदि मानसिक आवेग तीव्रतर होते ही रक्त को प्रभावित करते हैं। उनकी प्रबल प्रक्रिया से मस्तिष्क के मूल भागवर्ती रक्ताभिसरण-केन्द्र और श्वसन-केन्द्र ठप्प हो जाते हैं। मांसपेशियां सिकुड़ जाती हैं। हृदय पर एक साथ असह्य चाप पड़ने से उसकी केशिकाएं अवरुद्ध हो जाती हैं। मनुष्य मृत्यु का ग्रास बन जाता है।
___ मानसिक संतुलन से केवल आत्मिक प्रसन्नता ही प्राप्त नहीं होती, दीर्घायु और दैहिक स्वस्थता भी प्राप्त होती है । मानसिक संतुलन का अर्थ है मानसिक भावों के उतार-चढ़ावों का समीकरण । अनुकूल संयोगों में मन हर्षातिरेक से भर जाता है और प्रतिकूल संयोगों में वह खिन्न हो उठता है। ये दोनों असंतुलन की स्थितियां हैं। प्रिय और अप्रिय दोनों को सहने की क्षमता का विकास भावना और क्रियात्मक अभ्यास से हो सकता है। ___ कुछ लोग सोचते हैं--यह समभावी मनोवृत्ति योगियों के लिए आवश्यक है, हर व्यक्ति के लिए नहीं। किन्तु यह चिन्तन त्रुटिपूर्ण है। योगी की समता चरमकोटि की हो सकती है पर समभाव के सामान्य धरातल पर चले बिना कोई भी व्यक्ति शान्त और सुखी जीवन नहीं बिता सकता।
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