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________________ जीवन परिवर्तन की नयी दिशा साधना के प्रथम चरण में प्रत्यक्षतः तीन परिवर्तन देखने को मिलते १. वेशभूषा २ भोजन ३. अनुशासन वेशभूषा का परिवर्तन विशेषतः बह्नों में हुआ है । वे परदे से मुक्त होकर सादे वेश में आ गई हैं । किन्तु इस साधना शिविर से लौटकर जब जाती हैं, तब पुनः वेश परिवर्तन कर लेती हैं। उसके पीछे उनकी कमज़ोरी बोलती है । भय और दुर्बलता ही अनिष्ट के मूल हैं । अच्छाई का मूल अभय है, उसका विकास होना चाहिए और उसके साथ विवेक का विकास भी होना चाहिए। उसके अभाव में कहीं-कहीं अभय के नाम पर उच्छृंखलता पनप जाती है । जो साधना के मार्ग पर चलता है उसके सामने अनेक कठिनाइयां उपस्थित होती हैं, किन्तु साधक को उनका दृढ़ता से सामना करना चाहिए, त डरकर अपने कर्तव्य - मार्ग से हटना चाहिए और न परिस्थिति के प्रति उद्दण्ड होना चाहिए । भोजन परिवर्तन भी महत्त्वपूर्ण है । आजकल खाने की पद्धति भी दूषित हो गई है। अधिक चीजें वे खायी जाती हैं जो अधिक-से-अधिक अनावश्यक हैं । खाने का प्रत्यक्ष सम्बन्ध शरीर से है । मन पर भी उसका सीधा असर होता है। भोजन का विवेक अत्यन्त आवश्यक है । जो सात्विक भोजन करता है उसका मन सरल होता है, उसे क्रोध नहीं आता, उसका स्वभाव चिड़चिड़ा नहीं होता । दीया जलता है तब वह प्रकाश के साथ धुआँ भी देता है । यह इसलिए कि जलते समय वह तिमिर को खाता है । जो जैसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003076
Book TitleTat Do Pravah Ek
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1967
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
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