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________________ विभूषा। ११५ व्युत्सर्ग करे । स्वाध्याय करे तब व्युत्सर्ग करे और प्रतिक्रमण के बीच में भी व्युत्सर्ग करे। बाहर जाकर स्थान में आए तब व्युत्सर्ग करे। इस प्रकार बार-बार व्युत्सर्ग करना ममत्व की जड़ को उखाड़ फेंकना है। ऊपर के प्रयत्न पत्तों को तोड़ने के समान होते हैं, पर पत्तों का क्या ? वे पतझड़ में चले जाते हैं और वसन्त में फिर आ जाते हैं । जड़ सदा हरी रहती है । वह हरी रहती है इसीलिए गए हुए पत्ते वापस आ जाते हैं। देह-व्युत्सर्ग के बिना देहाध्यास छूटे यह सम्भव नहीं। देहाध्यास छूटे बिना विभूषा के भाव न जागें, यह भी असम्भव है। यदि हम आवश्यकता को विशुद्ध रखना चाहते हैं, विभूषा से वियक्त रखना चाहते हैं तो जिस देह में ममत्व छिपा बैठा है, उसके व्युत्सर्ग का स्थिर और चिर अध्यास करें। देहं के प्रति हमारा ममत्व इसीलिए पलता है कि हम देह के अन्तरंग से परिचय नहीं रखते । हम दूसरी वस्तुओं से जितने परिचित हैं उतने अपनी निकटवर्ती देह से नहीं। योग की एक प्रक्रिया है कि अपनी देह के अवयवों से परिचय प्राप्त करोऔर अति निकटता से करो। प्रत्येक अवयव के अन्तरंग रूप को निकट से देखो । सचाई सामने आएगी। उनके प्रति जो झूठा आकर्षण है, वह टूट जाएगा और देहाध्यास क्षीण हो जाएगा। उसके क्षीण होने पर विभूषा का प्रश्न अपने-आप समाहित हो जाएगा। * ३-२-६५ को साधु-साध्वियों के प्रणिधान-कक्ष (साधना-शिविर) में दिए गए भाषण से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003076
Book TitleTat Do Pravah Ek
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1967
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
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