Book Title: Sramana 1991 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59 अमण HABAR BHBHINA MITHIWU WRIHAR पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी-५ जुलाई-दिसम्बर १६६१ Jain Education Internorra appy.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान संपादक प्रो० सागरमल जैन सम्पादक डॉ० अशोक कुमार सिंह सह सम्पादक डॉ शिव प्रसाद वर्ष ४२ जुलाई-दिसम्बर १९९१ अंक ७-१२ - प्रस्तुत अंक में १. पंचपरमेष्ठि मन्त्र का कर्तृत्व और दशवकालिक -साध्वी (डॉ०) सुरेखा श्री १ उच्च गर शाखा के उत्पत्ति स्थान एवं उमास्वाति के के जन्मस्थल की पहचान - -प्रो० सागरमल जैन १७ ३. सूडा सहेली की प्रेम कथा -भँवरलाल नाहटा २५ ४. जैन सम्मत आत्म स्वरूप का अन्य भारतीय दर्शनों से तुलनात्मक विवेचन -डॉ० (श्रीमती) कमल पंत ३५ अपभ्रंश के जैन पुराण और पुराणकार -- रीता विश्नोई ४५ ६. कोटिशिला तीर्थ का भौगोलिक अभिज्ञान -डॉ० कस्तूरचन्द जैन ५७ ७. उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास - डा० शिवप्रसाद ६१ ८. जैन जगत ९. साहित्य सत्कार १८८ वार्षिक शुल्क एक प्रति चालीस रुपये बीस रुपये १८५ - यह आवश्यक नहीं कि लेखक के विचारों से सम्पादक अथवा संस्थान सहमत हो। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचपरमेष्ठि मन्त्र का कर्तृत्व और दशवकालिक साध्वी (डॉ०) सुरेखा श्री* जैन परम्परा में अनादि और शाश्वत के रूप में स्वीकृत पंच परमेष्ठि मन्त्र का कर्तृत्व एक महत्त्वपूर्ण एवं विचारणीय प्रश्न है। आधुनिक विद्वान् इसे सर्वप्रथम आवश्यकनियुक्ति में उपलब्ध मानते हैं। उनके अनुसार पहले अरिहन्त फिर सिद्ध की वन्दना का वर्तमान क्रम ही सदैव रहा हो यह भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। __माहात्म्य के कारण इस मन्त्र को सर्वश्रुताभ्यंतर मानकर आवश्यक नियुक्ति का अनुसरण करते हुए भी जिनभद्र ने इसे तीर्थंकर, गणधर-कृत स्वीकार किया है । दिगम्बर आचार्य वीरसेन ने इसे पुष्पदन्त कृत माना है। अभयदेव सूरि ने भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) के आरम्भ में उपलब्ध पंचनमस्कार मन्त्र को इस ग्रन्थ का आदि मानकर इस मन्त्र की टीका भी की है। । परन्तु इस मन्त्र का विवेचन सर्वप्रथम आवश्यकनियुक्तिकार द्वारा ही किये जाने का अभिप्राय यह नहीं है कि इसके पूर्व यह मन्त्र अस्तित्व में नहीं था। इसके पूर्व भी प्रथम पद नमोअरहन्ताणं, मनोराव्यसिद्धानं के उल्लेख अवश्य प्राप्त होते हैं । ३ ।। प्रस्तुत लेख में हम मूल सूत्र दशवकालिक के सन्दर्भ में पंचपरमेष्ठि मन्त्र के रचनाकाल और कर्तृत्व का विवेचन करेंगे। दशवैकालिक की रचना महावीर के पश्चात् चतुर्थ पट्टधर और चतुर्दश पूर्वधर आर्य शय्यंभव ने की है। इस ग्रन्थ के पंचम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में उपलब्ध १. पण्णवणा-सं० पुण्यविजय, द्वि० ख० प्रस्तावना पृ० २६, प्रका० महा वीर जैन विद्यालय बम्बई २. वही, पृ० २६ ३ वही, पृ० २८ * एल० डी० इन्स्टीट्यूट आफ इण्डोलॉजी, अहमदाबाद Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ निम्न उद्धरण-नमोक्कारेण पारेत्ता करेत्ता जिणसंथवं ।' (अनुष्टुप छंद) अर्थात् (इस चिन्तनमय कायोत्सर्ग को) नमस्कार-मंत्र द्वारा पूर्ण (पारित) कर जिन-संस्तवन (तीर्थङ्कर-स्तुति) करें के परिप्रेक्ष्य में पंचपरमेष्ठि मन्त्र की प्राचीनता और कर्तृत्व का विवेचन करेंगे, जिनमें नमोक्कार मन्त्र का स्पष्ट उल्लेख किया गया है-चूर्णिकार जिनदास महत्तर (वि० सं० ६५०-७५०) ने इसके हार्द को इस प्रकार स्पष्ट किया है "नमोक्कारेण = "नमो अरिहन्ताणं" ति एतेण नमोक्कारेण काउस्सग्गं उस्सारेत्ता जिण संथवो 'लोगस्स उज्जोअगरे' भन्नई" । दशवैकालिक के दूसरे चूर्णिकार अगस्त्य सिंह स्थविर भी अपनी चूर्णि में यही मन्तव्य प्रकट करते हैं "नमोक्कारेण पारेत्ता। 'नमो अरहंताणं' ति एतेण वयणेण काउस्सगं पारेत्ता जिणसंथवो लोगुज्जोवकरो तं करेत्ता"४ अर्थात् · 'नमो अरिहन्ताणं' इस वचन के द्वारा कायोत्सर्ग पार करके . (पूर्ण करके) जिन-स्तवन 'लोगस्स उज्जोअगरे' कहे। वृत्तिकार हरिभद्र सूरि ने भी यही अभिप्राय व्यक्त किया है" 'नमोक्कारेण' त्ति सूत्रं, नमस्कारेण पारयित्वा ‘णमो अरिहंताण २. मित्यनेन, कृत्वा जिनसंस्तवं 'लोगस्सुज्जोअगरे' इत्यादि रूपं"। इसको दीपिकाकार समयसुन्दर गणि की व्याख्या भी अपने पूर्ववर्ती आचार्यों से साम्य रखती है-"नमस्कारेण 'नमो अरिहन्ताणमिति कथन रूपेण कायोत्सर्ग पारयित्वा .. ।"६ इस प्रकार दोनों चूर्णिकार, वृत्तिकार, दीपिकाकार तथा वृत्ति पर वृत्तिकर्ता श्रीमत्सुमति साधुसूरि सभी ने नमस्कार से 'नमोअरि१. दशवैकालिक, पंचम अध्ययन, प्रथम उद्द०, गा० १२४ प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति ब्यावर (राज.) २. वही, अनुवाद, गाथा १२४, पृ० २०० ३. दश० चूणि ( जिनदास महत्तर ) पत्र-१८९ ४. दश० चूर्णि ( अगस्त्यसिंह स्थविर ) पत्र-१९१ ५. दश० हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र-१८० ६. दीपिका (समयसुन्दर गणि कृत) पत्र-३९ ७. हारिभद्रीयवृत्त्योपरि वृत्ति (सुमतिसाधु सूरि) पत्र-७८ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचपरमेष्ठि मन्त्र का कर्तृत्व और दशवकालिक हन्ताणं' नमस्कार मंत्र के प्रथम पद को ग्रहण किया है। इससे इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि दशवैकालिक रचना के समय नमस्कार मंत्र की रचना हो चुकी होगी। दशवैकालिक सूत्र की रचना एवं विषय वस्तु के सम्बन्ध में नियुक्तिकार का कथन महत्त्वपूर्ण है । अपने पुत्र-मुनि'मणग' के आत्मकल्याणार्थ पूर्व-श्रुत से उद्धार करके इस सूत्र की रचना की गई है । वे आगे कहते हैं कि इसका चतुर्थ अध्ययन आत्मप्रवाद पूर्व से, पाँचवाँ अध्ययन कर्मप्रवाद पूर्व से, सातवाँ अध्ययन सत्यप्रवाद पूर्व से,अवशेष सभी अध्ययन प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु से उद्धत किये गये हैं। अगली गाथा में नियुक्तिकार ने दशवैकालिक का निर्गहण गणिपिटक द्वादशांगी से किया गया, ऐसा कहा है । नियुक्ति के आधार पर चौदह पूर्व अथवा द्वादशांगी इन दोनों श्रुत में से अथवा किसी एक से भी दशवकालिक का निर्गुहण माना जाय तो भी सूत्र रूप से इसके गुम्फन का श्रेय गणधर भगवन्तों को तथा अर्थरूप से उपदेशक अरिहन्त भगवन्त को जाता है। ___ महावीर के चौथे पट्टधर शय्यंभवसूरि चतुर्दश पूर्वधर थे। उन्होंने तृतीय पट्टधर प्रभवसूरि के पास चौदह पूर्व का ज्ञान प्राप्त किया था। श्रुतधर परम्परा में वे द्वितीय श्रुतधर थे। वीर निर्वाण संवत् ६४ में उन्होंने दीक्षा ग्रहण की। उसके ८ वर्ष पश्चात् इसकी रचना की थी। परिशिष्ट पर्व में उल्लिखित है कि दशपूर्वी विशेष परिस्थिति में ही पूर्वो से आगम-निर्ग्रहण का कार्य करते हैं। चतुर्दश पूर्वधर शय्यंभव १. आयप्पवायपुव्वा निज्जढा होइ धम्मपन्नत्ती । कम्मप्पवायपुव्वा पिंडस्स उ एसणा तिविहा ॥ सच्चप्पवायपुव्वा निज्जूढा होइ वक्कसुद्धी उ । अवसेसा निज्जूढा नवमस्स उ तइयवत्युओ। ___ दशवै० नियुक्ति, गा० १६-१७ २. बीओऽवि आएसो गणि पिडगाओ दुवालसंगाओ। एउनं किर निज्जढं मणगस्स अणुग्गहट्ठाए ॥ वही, गा० १८ ३. विशेषावश्यक भाष्य, गा० ११८१ ४. परिशिष्ट पर्व, सर्ग-५, गा० ८३ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ सरि ने वीर निर्वाण सं०७२ में इस सूत्र की रचना की, ऐसा ऐतिहासिक दृष्टि से प्रतीत होता है।' उपर्युक्त विवेचन से कुछ मन्तव्य हमारे सम्मुख आते हैं जो इस प्रकार हैं१. प्रवाद अर्थात् पूर्वो के आधार पर दशवैकालिक की रचना होने की स्थिति में 'नमुक्कारेण पारेत्ता करेत्ता जिण संथवं' यह भी पूर्व से ही उद्धृत होना चाहिये था । २. यदि यह गणिपिटक द्वादशांगी से भी उद्धृत हो तो सूत्र रूप से इसे गणधर भगवन्तों द्वारा ग्रथित माना जा सकता है। ३. दशवैकालिक में 'नमुक्कारेण पारेत्ता' द्वारा नमस्कार मन्त्र के उद्धरण से स्पष्ट है कि शय्यंभव सरि के समय तक मंत्र का विकास हो चुका था। ४. इस ग्रंथ की रचना के समय वीर निर्वाण सं० ७५ में निर्वाण प्राप्त करने वाले जम्बूस्वामी के शिष्य प्रभव स्वामी भी विद्यमान थे। इन्होंने पंचम गणधर सुधर्मा स्वामी के पट्टधर अन्तिम केवली जम्बूस्वामी के साथ ही प्रव्रज्या ग्रहण की थी। इस प्रकार सुधर्मा से ही जम्बूस्वामी तथा प्रभवस्वामी ने तथा प्रभवस्वामी से शय्यंभवसूरि ने परम्परागत श्रुत ग्रहण किया था। इस स्थिति में उस समय तक मन्त्र अपना वर्तमान स्वरूप पंचपरमेष्ठि न भी ग्रहण किया होगा तो भी इसका प्रथम पद अस्तित्व में आ चुका था। अन्य मूल सूत्र आवश्यक के अन्तर्गत 'अन्नत्थ सूत्र' में भी निर्देश प्राप्त होता है कि- 'जाव अरिहन्ताणं भगवंताणं णमोक्कारेणं ण पारेमि ताव....२"। जब तक अरिहन्त भगवन्तों को नमस्कार न कर लँ तब तक। यहाँ भी अरिहन्त भगवन्त को नमस्कार का संकेत हमें प्राप्त होता है । चूर्णिकार इस मन्तव्य को अधिक स्पष्ट करते हैं--- "जथा सामाइए अरहंता जथा नमोक्कारे भगवंतो जथा पेढियाए पूजावचनमेतत् नमोक्कारो पुव्ववण्णितो, पारणितं वा पालणंति वा पारगमणंति वा एगहा, तस्स परिमाणे असमत्ते जदि उस्सारेति ण पालितं. १. दश० हारिभद्रीय वृत्ति-पत्र ११ १२. २. आवश्यक सूत्र, भाग-२ पत्र २५२ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचपरमेष्ठि मन्त्र का कर्तृत्व और दशवकालिक भवति, तम्हा पुण्णे वत्तव्वा णमो अरिहन्ताणं"।' चूर्णिकार ने भी नमोक्कार से 'णमो अरिहन्ताणं' पद द्वारा कायोत्सर्ग पूर्ण करने का अभिप्राय ग्रहण किया है । इसके अतिरिक्त 'शक्रस्तव' ( नमुत्थुणं ) सूत्र में भी सर्वप्रथम 'अरिहन्ताणं भगवन्ताणं' उच्चारण द्वारा नमस्कार किया गया है। 'चतुर्विशति स्तव' ( लोगस्स सूत्र) में चतुर्विंशति तीर्थङ्करों की स्तुति में अरिहन्तों का कीर्तन किया गया है। उक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि 'नमस्कार-मंत्र' की रचना सूत्र रूप में गणधर कृत मानी जा सकती है। साथ ही सिद्धापेक्षा उपकारी व निकट होने से प्रथम नमस्कार व प्रथम पद अरिहन्त को दिया गया है, यह भी स्पष्ट हो जाता है। ___ दशवैकालिक सूत्र में 'आचार-प्रधान' ग्रंथ होने से श्रमण जीवन सम्बन्धित आचार-धर्म की प्ररूपणा है । पंच-पद का मंत्र रूप से वर्णन इसमें नहीं है इनका उल्लेख इसमें अवश्य मिलता है । "नऽन्नत्थ आरहंतेहिं हेऊहिं आयारमहिट्ठज्जा" अर्थात् अर्हन्त हेतुओं के सिवाय अन्य किसी हेतु (उद्देश्य) को लेकर आचार का पालन नहीं करना चाहिए। 'अरिहन्त' शब्दमात्र से तो उल्लेख एक बार प्राप्त होता है किंतु 'चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने इस प्रकार से प्ररूपणा की है' यह उल्लेख अन्य कई स्थलों पर किया गया है। पंचपरमेष्ठि मन्त्र के दूसरे पद 'नमो सिद्धाणं' का प्रश्न है इसका इस रूप में उल्लेख नहीं है । परन्तु इसमें सिद्धत्व की अर्हता और उपाय का निरूपण है। उल्लिखित है कि दुष्कर का आचरण करके तथा दुःसह को सहन करके कितने नीरज ( कर्मरज से रहित ) होकर सिद्ध हो जाते हैं । सिद्धिमार्ग को प्राप्त ( स्व-पर के ) त्राता, संयम १. आवश्यक सूत्र, भाग-२, पत्र २५३ २. वही, पत्र ३ ३. दश० अध्ययन-९।४ गा० ११ ४. दश० ४।१-३, ९।४।१, ९।४।२ ५. वही, ३।१४ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ और तप के द्वारा पूर्वकृत कर्मों का क्षय करके परिनिवृत्त हो जाते हैं।' सिद्ध पद की सामर्थ्य किसमें है ? अर्थात् सिद्ध-पद के योग्य कौन हैं –'सदा उपशान्त, ममत्व रहित, अकिंचन, सविज्ञ, अध्यात्म विद्या के अनुगामी, जगत् के जीवों के त्राता और यशस्वी साधक शरद् ऋतु के निर्मल चंद्रमा के समान सर्वथा विमल ( कर्म-मल से रहित ) होने पर सिद्धि अथवा विमानों को प्राप्त करते हैं।'२ 'जन्म-मरण से मुक्त नरक आदि सब पर्यायों को सर्वथा त्याग देने वाला शाश्वत ( अजर-अमर ) सिद्ध हो जाता है । सिद्धत्व की प्रथम शर्त है कर्म-क्षय । कर्म-क्षय हेतु कथन है-'दुष्ट भावों से आचरित तथा दुष्पराक्रम से अजित पूर्वकृत पापकर्मों का फल भोग लेने पर ही मोक्ष होता है। बिना भोगे मोक्ष नहीं होता अथवा तप के द्वारा (उन पूर्व कर्मों का) क्षय करने पर भी मोक्ष होता है।'४ मोक्ष का अधिकारी कौन नहीं है ? कहा गया है कि- 'जो मनुष्य चण्ड (क्रोधी) है, जिसे अपनी बुद्धि और ऋद्धि का गर्व है, जो पिशुन ( चुगलखोर ) है, जो ( अयोग्य कार्य में ) साहसिक है, जो गुरु-आज्ञापालन से हीन है, जो धर्म से अदष्ट (अनभिज्ञ) है, जो विनय में निपूण नहीं है, जो संविभागी नहीं है, उसे कदापि मोक्ष प्राप्त नहीं होता।'५ ___ मोक्ष का हेतु क्या है ? वह कौन-सा उपाय है जिससे सिद्धत्व सिद्ध होता है ? 'धर्म का मूल विनय है और उस धर्म रूपी वृक्ष का परम अंतिम अथवा उत्कृष्ट-रस युक्त फल मोक्ष है । विनय के द्वारा कीर्ति, श्रुत तथा निःश्रेयस की प्राप्ति होती है । आत्म-शुद्धि द्वारा विकास के आरोह-क्रम का वर्णन सुन्दर रीति से प्रस्तुत करते हुए, अणगार धर्म से सिद्धि-गति में सिद्धत्व प्राप्त होने की प्रक्रिया का निरूपण किया १. दशवकालिक ३।१५ २. वही, ६।६८ ३. वही, ९।४।१४ ४. वही, प्रथम चूलिका गा० १८ ५. दश० ९/२।२२ ६. वही ९।२।२ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचपरमेष्ठि मन्त्र का कर्तृत्व और दशवैकालिक किया है । पुण्य-पापादि के ज्ञान से शाश्वत सिद्धत्व तक की श्रेणी का आरोहण किस प्रकार होता है ? इसका भी उल्लेख किया गया है ।" 'पंचपरमेष्ठि' मन्त्र के तृतीय पद 'नमो आयरियाणं' के आचार्य पद का निरूपण इस प्रकार किया गया है - 'ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न, संयम और तप में रत, आगम-संपदा से युक्त गणिवर्य (आचार्य) हैं । ' आचार्य की महिमा बतायी गई है— 'जैसे रात्रि के अत ( दिवस के प्रारंभ ) में प्रदीप्त होता हुआ ( जाज्वल्यमान ) सूर्य ( अपनी किरणों से ) सम्पूर्ण भारत ( भरत क्षेत्र ) को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार आचार्य श्रुत, शील, प्रज्ञा से ( विश्व के समस्त जड़-चैतन्य पदार्थों के ) भावों को प्रकाशित करते हैं । जैसे देवों के मध्य इंद्र सुशोभित होता है वैसे ही आचार्य भी साधुओं के मध्य में सुशोभित होते हैं -- 'मेघों से युक्त अत्यन्त निर्मल आकाश में कौमुदी के योग से युक्त नक्षत्र और तारागण से परिवृत्त चंद्रमा सुशोभित होता है उसी भाँति गणि (आचार्य) भी भिक्षुओं के बीच सुशोभित होते हैं ।'‍ आचार्य की आराधना तथा आराधना से प्राप्त फल का उल्लेख इस प्रकार है- 'अनुत्तर ( सर्वोत्कृष्ट ज्ञानादि ) गुणरत्नों की सम्प्राप्ति का इच्छुक तथा धर्मकामी ( निर्जरा-धर्माभिलाषी ) साधु ( ज्ञानादि रत्नों के ) महान् आकर ( खान ) समाधियोग तथा श्रुत, शील और प्रज्ञा से सम्पन्न महर्षि आचार्यों की आराधना करे तथा उनको (विनय भक्ति से सदा ) प्रसन्न रखे । मेधावी साधु ( पूर्वोक्त ) सुभाषित वचनों को सुनकर अप्रमत्त रहता हुआ आचार्य की सुश्रूषा करें। इस प्रकार वह अनेक गुणों की आराधना करके अनुत्तर सिद्धि को प्राप्त करता है ।' जिस प्रकार अहिताग्नि ( अग्निहोत्री ब्राह्मण ) अग्नि की शुश्रूषा करता हुआ जागृत रहता है उसी प्रकार जो आचार्य की शुश्रूषा में जागृत रहता है, उनके आलोकित एवं इंगित ( दृष्टि एवं चेष्टा ) को १. दश० ३।३९-४८ २. वही, ६०१ ३. वही ९।१।१४-१५ ४. वही, ९।१।१६ ७ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर १९९१ जानकर उनके अभिप्राय की आराधना करता है वही पूज्य होता है । " आचार्य सम्मत गुणों का भी अनुपालन करना चाहिये । अल्पवयस्क आचार्य की अवहेलना के परिणाम कैसे भयंकर होते हैं, इसका सोदाहरण कथन है : 'जो कोई सर्प को छोटा बच्चा है' जानकर उसकी आशातना ( कदर्थना ) करता है, वह ( सर्प ) उसके अहित के लिए होता है । इसी प्रकार ( अल्पवयस्क ) आचार्य की अवहेलना करने वाला मंदबुद्धि भी संसार में जन्म-मरण के पथ पर गमन ( परिभ्रमण ) करता है ।' ३ ' अत्यन्त क्रुद्ध आशीविष सर्प तो जीवन नाश से अधिक क्या कर सकता है ? परन्तु अप्रसन्न हुए पूज्यपाद आचार्य तो अबोधि के कारण बनते हैं ( जिससे आचार्य की ) आशातना से मोक्ष नहीं है । '४ 'कदाचित् वह प्रचण्ड अग्नि उसे न जलाए अथवा कुपित आशीविष सर्प भी उसे न उसे, हलाहल विष भक्षण से भी न मरे, किन्तु आचार्यहीलना (आचार्य निन्दा) से कदापि मोक्ष संभव नहीं है । ५ आचार्य की भांति उपाध्याय भी पूज्य हैं, समतुल्य हैं । उपाध्याय का विनय, सेवा, आज्ञापालन, आचार्य के अनुरूप करना चाहिये, इसका स्पष्ट कथन है । जो साधक आचार्य और उपाध्याय की सेवा शुश्रूषा करते हैं, उनके वचनों का पालन करते हैं, उनकी शिक्षा भी उसी प्रकार बढ़ती है, जिस प्रकार जल से सींचे हुए वृक्ष बढ़ते हैं। आचार प्रधान ग्रन्थ होने से इस सूत्र में साध्वाचार का ही वर्णन है । समग्र ग्रन्थ रचना ही साधुत्व को लक्ष्य में रखकर की गई है । क्योंकि अध्यात्म विकास का प्रथम सोपान ही संयमी जीवन है, अतः श्रमणत्व ही इस ग्रन्थ का केन्द्र बिन्दु है । संयत, मुनि, भिक्षु, श्रमण, त्यागी ये सब साधु की ही पर्यायें हैं । किंतु पंच पदों में साधु-शब्द होने १. दशवैकालिक ९।३·१, ९।१·११ २. वही, ८६० ३. वही, ९।१।४ ४. वही, ९1१1५, ९1१1१० ५. वही, ९।१।६ ६. वही, ९।२।१२, ९।२।१६ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचपरमष्ठि मन्त्र का कर्तृत्व और दशवकालिक से इस ग्रंथ में साधु शब्दोल्लेख को दृष्टिपथ में लायेंगे । ग्रन्थ का प्रारंभ मुनि जीवन की चर्या को मधुकर के सदृश कहकर करते हैं कि जिस प्रकार भ्रमर वृक्षों के पुष्पों में से थोड़ा-थोड़ा रस पीता है तथा पुष्प को पीड़ा नहीं पहुँचाता और वह अपने आपको तृप्त कर लेता है, उसी प्रकार लोक में जो परिग्रह से मुक्त साधु हैं, वे दान-भक्त की एषणा में रत रहते हैं, जैसे भौंरे फूलों में। इन गुणों के कारण वे साधु कहलाते हैं। जिनका आत्मा संयम में सुस्थिर है, जो बाह्यअभ्यन्तर परिग्रह से विमुक्त हैं तथा जो ( स्व-पर के ) त्राता हैं। त्यागी वही कहलाता है जो कान्त ( कमनीय-चित्ताकर्षक ) और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर भी ( उनकी ओर से ) पीठ फेर लेता है और स्वाधीन रूप से प्राप्त भोगों का स्वेच्छा से त्याग करता है। साधु कैसा हो ? उसके लिए कहा है-जो ज्ञात पुत्र (श्रमण भगवान् महावीर ) के वचनों में रुचि (श्रद्धा) रखकर षटकायिक जीवों को आत्मवत् मानता है, जो पंच महाव्रतों का पालन करता है, जो पांच आस्रवों का संवरण करता है, वह सद्भिक्षु है। साधु है या असाधु, इसकी जानकारी हेतु आलेखन है कि गुणों से साधु होता है और अगुणों ( दुगुणों) से असाधु ! इसलिए साधु के योग्य गुणों को ग्रहण कर और असाधु गुणों को छोड़। आत्मा को आत्मा से जानकर जो राग-द्वेष में सम ( मध्यस्थ ) रहता है, वही पूज्य है।" लोक में बहुत से असाधु को साधु कहते हैं किन्तु असाधु को-'यह साधु है' इस प्रकार न कहें। अपितु साधु को ही यह साधु है, इस प्रकार कहें । ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न तथा संयम और तप में रत, इस प्रकार के सद्गुणों से समायुक्त संयमी को ही साधु कहें । साधुओं के साथ ही परिचय करें। १. दशवैकालिक १।२-५ २. वही, ३११ ३. वही, २।३ ४. वही, १०५ ५. वही, ९।३.११ ६. वही, ७।४८-४९ ७. वही, ८५२ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर १९९१ इस प्रकार इस ग्रंथ में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पंच पदों का वर्णन विस्तृत रूप से किया गया है । पंचम पद-साधु पद अन्य सभी पदों में व्याप्त है। क्योंकि साधु ही उपाध्याय, आचार्य अरिहन्त एवं सिद्ध के स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। नमस्कार मंत्र अथवा पंच पदों का विवेचन ही इस ग्रंथ का विषय हो, ऐसी प्रतीति सहज ही हो जाती है। __पं० दलसुख भाई ने अंग आगम के पश्चात् किसी समय इसकी रचना मानी है जो सम्पन्न प्रतीत होता है।' १. व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल अर्धमागधी के स्वरूप की पुनर्रचना [ Reconstruction of the Original Ardhamāgadhi Prākrit ] डॉ० के० आर० चन्द्र* आचारांग के प्रथम श्रुत-स्कंध के चौथे अध्ययन के प्रथम उद्देशक में अहिंसा धर्म के विषय में भगवान महावीर का उपदेश इस प्रकार है सव्वे पाणा सव्वे भूता सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा, न अज्जावेतव्वा, न परिघेत्तव्वा, न परितावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा । अर्थात् किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए और न ही उसे किसी भी प्रकार से पीड़ित करना चाहिए । यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है जो आत्मज्ञों के द्वारा उपदिष्ट है। इसी बात को अर्धमागधी भाषा में विभिन्न संस्करणों में निम्न प्रकार से संपादित किया गया हैशुबिग-(१.४.१.) एस धम्मे सुद्धे नितिए सासए समेच्च लोगं खेयन्नेहिं पवेइए। आगमोदय-(१.४.१.१२६) एस धम्मे सुद्ध निइए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए । जैन विश्वभारती-(१.४.१.२) एस धम्मे सुद्ध णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए। म० ज० विद्यालय-(१.४.१.१३२) एस धम्मे सुद्ध णितिए सासए समेच्च लोयं खेतण्णेहिं पवेदिते। इन चारों पाठों में जो जो शब्द प्रयुक्त हैं उनमें से निम्न शब्द-रूप एक समान नहीं है*अध्यक्ष, प्राकृत एवं पालि विभाग, गुजरात यूनिवर्सिटी, अहमदाबाद Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “१२ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ शुबिंग आगमो० जैविभा० म०वि० १. नित्य = नितिए निइए णिइए णितिए २. समेत्य = समेच्च समिच्च समिच्च समेच्च ३. लोकम् = लोगं लोयं लोयं लोयं ४. क्षेत्रज्ञैः= खेयन्नेहिं खेयण्णेहि खेयण्णेहि खेतण्णेहि ५. प्रवेदितः= पवेइए पवेइए पवेइए पवेदिते स्पष्ट है कि अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार ( न कि प्राकृत भाषा के ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से और न ही समय, क्षेत्र और उपदेशक की वाणी के स्वरूप को ध्यान में लेकर ) और प्राकृत व्याकरणकारों के नियमों के प्रभाव में आकर ( जो न तो काल की दृष्टि से ऐतिहासिक हैं और न अर्धमागधी भाषा की विशेषताओं को स्पष्ट करते हैं ) अलग-अलग पाठों को स्वीकार किया है जिसके कारण शब्दों की वर्तनी में कितना अन्तर आया है और यह अन्तर क्यों आया उसे ही यहाँ पर समझना आवश्यक है। किसी संपादक ने संयुक्त व्यंजन के पहले ए का इ कर दिया है, समिच्च ( समेच्च ); किसी ने त का, तो किसी ने द का लोप कर दिया है, नितिए, निइए; पवेदिते, पवेइए, किसी ने प्रारंभिक न का ण कर दिया, नितिए, णिइए, णितिए; किसी ने क का लोप किया, किसी ने क का ग कर दिया, लोयं, लोग; किसी ने ज्ञ का न, तो किसी ने ज्ञ का पण कर दिया, खेयन्न, खेयण्ण; किसी ने त्र का त किया तो किसी ने त्र का य किया अथवा किसी ने द (खेदज्ञ से) का त किया तो किसी ने द का य कर दिया है। इस प्रकार के परिवर्तनों से ऐसा मालूम होता है कि हरेक संपादक की अर्धमागधी भाषा के विषय में अलग अलग धारणा बनी हई है। इसका मुख्य कारण यही है कि अर्धमागधी भाषा का व्याकरण किसी भी व्याकरणकार ने स्पष्टतः दिया ही नहीं है। इन सभी परिवर्तनों पर विचार किया जाय और उनकी समीक्षा तथा आलोचना की जाय तो अवश्य कुछ न कुछ समझ में आएगा कि इस प्रकार की विभिन्नता कैसे आ गयी। इन ध्वनि-गत परिवर्तनों से तो ऐसा प्रतीत होता है कि Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल अर्धमागधी के स्वरूप की पुनर्रचना 'पवेदित' शब्द में किसी को पालि भाषा का आभास होता होगा इसलिए पवेदिअ ही स्वीकारना उचित लगा हो, अथवा 'खेतण्ण' और 'नितिय' मैं 'त' श्रुति की शंका हो गई हो इसलिए 'खेयण्ण' और 'निइय' ही स्वीकार किया गया हो अथवा प्रायः लोप के नियम से प्रेरित होकर त और द का लोप करना उचित मानकर पवेइअ को स्वीकार किया हो और ज्ञ का न्न अयोग्य समझकर व्याकरण के नियम से ण्ण कर दिया गया हो। __इन स्वीकृत पाठों में पालि भी है-पवेदित, पालि और अर्धमागधी भी है–समेच्च, अर्धमागधी भी है -- लोगं, और महाराष्ट्री भी है -लोयं, णिइए, खेयण्ण। दूसरी ओर अशोक के समय की पूर्वी क्षेत्र की विशेषता भी है--लोग, नितिए, और ( खेय ) न्ने (हिं ) में । इस प्रकार के विश्लेषण से यह तो भाषाओं की खिचड़ी हो ऐसा प्रकट होता है। हरेक सम्पादक के पास जो सामग्री थी उनमें पाठान्तर भी मौजूद थे परंतु उनमें से अमुक पाठान्तर को छोड़ दिया गया जो वास्तव में भाषा की प्राचीनता को संजोए हुए था। उदाहरणार्थ-- शुब्रिग महोदय द्वारा उपयोग में ली गयी सामग्री में से चूणि और 'जी' संज्ञक प्रत में 'खेत्तन्नेहिं' पाठ उपलब्ध था, जैन विश्व भारती की 'च' संज्ञक प्रत में 'खेत्तन्नेहिं' पाठ और म० जै० वि० के संस्करण में उपयोग में ली गई चणि में 'खित्तण्ण' पाठ था। तब फिर 'खेत्तन्न' शब्द को मूल रूप में नहीं अपना कर खेयन्न या खेयण्ण क्यों अपनाया गया जब भाषाकीय विकास की दृष्टि से ये दोनों ही परवर्ती हैंखेयन्न प्रथम और तत्पश्चात् खेयण्ण । __ शुब्रिग महोदय ने मात्र एक ही रूप 'खेयन्न' को आचारांग (प्रथम श्रतस्कंध ) में सर्वत्र अपनाया है परंतु जै०वि०भा० के संस्करण में खेयण्ण भी मिलता है, आगमोदय समिति के संस्करण में खेयण्ण भी मिलता है और म००वि० के संस्करण में खेयण्ण, खेतण्ण और खेत्तण्ण तो मिलते हैं परंतु खेयन्न नहीं मिलता है। इस शब्द का संस्कृत रूप क्षेत्रज्ञ है जिसका अर्थ है 'आत्मज्ञ' और इस खेयन्न का परवर्ती काल में टीकाकारों ने खेदज्ञ' के साथ जो संबंध जोड़ा है वह गलत है और Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ (भाषा को न समझने से भ्रान्ति के कारण) कृत्रिम परिभाषा देकर उसे तोड़ मरोड़ कर समझाने का प्रयत्न किया गया है, जिससे तुरन्त मध्यवर्ती द का लोप और य श्रुति से द का य हो जाता है । यह तो मात्र = माय और पात्र =पाय जैसा परिवर्तन है और आत्म = आत्त --आत= आय जैसा विकास है। अतः क्षेत्रज्ञ में च के स्थान पर 'द' लाने की जरूरत नहीं थी। प्राचीन प्राकृत भाषा में त्र का त्त ही हआ था न कि 'त' या 'य'। अशोक के पूर्वी क्षेत्र के शिलालेखों में ज्ञ का न है न कि 'पण'। सामान्यतः न्न का ण्ण ई०स० के बाद में प्रचलन में आया है और वह भी दक्षिण और उत्तर-पश्चिम क्षेत्र से न कि पूर्वी क्षेत्र से । न = षण पूर्णतः महाराष्ट्री प्राकृत की ध्वनि है न कि पालि, मागधी, पैशाची या शौरसेनी की। अतः अर्धमागधी में न्न == ण्ण का प्रयोग करना जबरदस्ती से या जाने अनजाने उसे महाराष्ट्री भाषा में बदलने के समान है और क्या यह मूल अर्धमागधी भाषा के लक्षणों की अनभिज्ञता के कारण ही ऐसा नहीं हो रहा है ? शुब्रिग महोदय ने ज्ञ के लिए सर्वत्र न्न ही अपनाया है परंतु त्र के स्थान पर य को स्थान देकर तथा त्त का त्याग करके उन्होंने अनुपयूक्त पाठ अपनाया है। वे स्वयं भी खेदज्ञ शब्द से प्रभावित हुए हों ऐसा लगे बिना नहीं रहता। उन्होंने नित्य के स्थान पर नितिय अपनाया है वह प्राचीन भी है और बिलकुल उचित भी है, निइय और णिइय तो बिलकुल कृत्रिम है और मात्र मध्यवर्ती त के लोप का अक्षरक्षः पालन किया गया हो ऐसा लगता है। पिशल के व्याकरण में न तो नितिय शब्द मिलता है और न ही णिइय, निइय । प्राचीन शिलालेखों में और प्राचीन प्राकृत में पहले स्वरभक्ति का प्रचलन हुआ जैसे--क्य = किय, त्य = तिय, व्य-विय, इत्यादि और बाद में ऐसे संयुक्त व्यंजनों में समीकरण आया है। समेच्च के बदले में समिच्च अर्थात ए के स्थान पर इ का प्रयोग (संयुक्त व्यंजनों के पहले ) भी न तो सर्वत्र मिलेगा और न ही प्राचीनता का लक्षण है । क =ग के प्रयोगों से अर्धमागधी साहित्य भरा पड़ा है । क का ग भी पूर्वी क्षेत्र का (अशोक के शिलालेख) लक्षण है। क का लोप महाराष्ट्री का सामान्य लक्षण है और यह लोप की प्रवृत्ति काफी परवर्ती है। पवेदित में से द और त का लोप भी परवर्ती प्राकृत का लक्षण है। शौरसेनी और मागधी में तो Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल अर्धमागधी के स्वरूप की पुनर्रचना १५ द यथावत् भी रहता है और पालि तथा पैशाची में त। अर्धमागधी का सम्बन्ध मागधी से अधिक है न कि महाराष्ट्री से । उसका मागधी शब्द ही उसे प्राचीनता का अधिकार देता है और इस दृष्टि से जैन आगमों के प्राचीन अंशों में जो जो प्राचीन रूप (नामिक, क्रियापदिक तथा कदंत ) मिलते हैं वे उसे पालि भाषा के नजदीक ले जाते हैं न कि महाराष्ट्री प्राकृत के निकट । मूलतः अर्धमागधी भाषा मागधी और महाराष्ट्री का मिश्रण नहीं था यह तो परवर्ती प्रक्रिया है। __इस चर्चा का उपरोक्त वाक्य यदि भगवान महावीर के समय का है, उनके मुख से निकली हुई वाणी है या उनके गणधरों द्वारा उसे भाषाकीय स्वरूप दिया है तब तो उसका पाठ होना चाहिएएस धम्मे सुद्धे नितिए सासते' समेच्च लोगं खेत्तन्नेहि पवेदिते । और यदि यह वाणी भगवान महावीर के मुख से प्रसृत नहीं हुई है या गणधरों की भाषा में प्रस्तुत नहीं किया गया है या ई० पू० चतुर्थ शताब्दी की प्रथम वाचना का पाठ नहीं है परंतु तीसरी और अन्तिम वाचना में पूज्य देवधिगणि (पाँचवीं छठी शताब्दी ) के समय में इसे अन्तिम रूप दिया गया हो या उन्होंने ही श्रुत की रचना की हो तब तो हमारे लिए चर्चा का कोई प्रश्न ही नहीं बनता है और जो भी पाठ जिसको अपनाना है वह अपना सकता है। १-२ [ तृतीयाबहुबचन की विभक्ति 'हि' के वदले 'हिं' भी परवर्ती है। सासते में से त का लोप भी अयोग्य लगता है। इन दोनों को अभी तो सामग्री (पाठान्तरों) के अभाव में प्रमाणित नहीं किया जा सकता; परंतु आशा है कि ऐसे पाठान्तर भी शोध करने पर मिल सकते हैं। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्चैर्नागर शाखा के उत्पत्ति-स्थल एवं उमास्वाति के जन्म-स्थल की पहचान -प्रो० सागरमल जैन तत्त्वार्थसूत्र के प्रणेता उमास्वाति ने तत्त्वार्थ-भाष्य की अन्तिम प्रशस्ति में अपने को उच्चैर्नागर शाखा का कहा है तथा अपना जन्मस्थान न्यग्रोधिका बताया है। प्रस्तुत आलेख का मुख्य उद्देश्य उच्चर्नागर शाखा के उत्पत्ति-स्थल एवं उमास्वाति के जन्म-स्थल का अभिज्ञान ( पहचान ) करना है। उच्चैर्नागर शाखा का उल्लेख न केवल तत्त्वार्थ-भाष्य' में उपलब्ध होता है, अपितु श्वेताम्बर परम्परा में मान्य कल्पसूत्र की स्थविरावली में तथा मथुरा के अभिलेखों में भी उपलब्ध होता है। कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार उच्चैर्नागर शाखा कोटिकगण की एक शाखा थी। मथुरा के २० अभिलेखों में कोटिकगण तथा नौ अभिलेखों में उच्चै गर शाखा का उल्लेख मिलता है । कोटिकगण कोटिवर्ष के निवासी आर्य सुस्थित से निकला था । कोटिवर्ष की पहचान पुरातत्वविदों ने उत्तर बंगाल के फरीदपुर से की है। इसी कोटिकगण से आर्य शान्ति श्रेणिक से उच्चैर्नागर शाखा के निकलने का उल्लेख है। कल्पसूत्र के गण, कुल और शाखाओं का अध्ययन करने पर एक बात स्पष्ट हो जाती है कि गणों का और शाखाओं का सम्बन्ध व्यक्तियों की अपेक्षा मुख्यतया स्थानों या नगरों से अधिक रहा है जैसे-वारणगण, वारणावर्त से १. तत्त्वार्थभाष्य अन्तिम-प्रशस्ति, श्लोक सं० ३, ५ २. कल्पसूत्र, स्थविराली २१८ ३. जैन शिलालेख संग्रह, भाग-२ लेखक्रमांक, १०, २०, २२, २३, ३१, ३५, ३६, ५०, ६४, ७१ ४. कल्पसूत्र स्थविरावली, २१६ ५. ऐतिहासिक स्थानावली (ले० विजयेन्द्र कुमार माथुर) पृ० सं० २३१ निदेशक, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी-५ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ सम्बन्धित था, कोटिकगण कोटिवर्ष से सम्बन्धित था, यद्यपि कुछ गण व्यक्तियों से भी सम्बन्धित थे। शाखाओं में कौशम्बिया, कोडम्बानी, चन्द्रनागरी, माध्यमिका, सौराष्ट्रिका, उच्चै गर आदि शाखाएं मुख्यतया नगरों से सम्बन्धित रही हैं। कुलों का सम्बन्ध मुख्य रूप से व्यक्तियों से रहा है। उच्चै गर शाखा का उत्पत्ति स्थल ऊंचेहरा ( म०प्र०) प्रस्तुत आलेख में मात्र हम उच्चै गर शाखा के सन्दर्भ में ही चर्चा करेंगे । विचारणीय प्रश्न यह है कि वह उच्चैनगर कहाँ स्थित था, जिससे यह शाखा निकली थी। मुनि श्री कल्याण विजय जी और हीरालाल कापड़िया ने कनिंघम को आधार बनाते हुए, इस उच्चर्नागर शाखा का सम्बन्ध वर्तमान बुलन्दशहर से जोड़ने का प्रयत्न किया है। पं० सुखलाल जी ने भी तत्त्वार्थ की भूमिका में इसी का अनुसरण किया है । कनिंघम लिखते हैं कि "बरण या बारण यह नाम हिन्दू इतिहास में अज्ञात है। 'बरण' के चार सिक्के बुलन्दशहर से प्राप्त हुए हैं। मुसलमान लेखकों ने इसे बरण कहा है। मैं समझता हूँ कि यह वही जगह होगी और इसका नामकरण राजा अहिबरण के नाम के आधार पर हुआ होगा जो कि तोमर वंश से सम्बन्धित था और जिसने यह किला बनवाया था, किन्तु उसकी तिथि ज्ञात नहीं है। यह किला बहुत पुराना है और एक ऊँचे टीले पर बना हुआ है जिसके आधार पर हिन्दुओं द्वारा यह ऊँचा गांव या ऊँचा नगर कहा गया है और मुसलमानों ने उसे बुलन्दशहर कहा है।"१ यद्यपि कनिंघम ने कहीं भी इसका सम्बन्ध उच्चै गर शाखा से महीं बताया, किन्तु उनके द्वारा बुलन्दशहर का ऊँचानगर के रूप में उल्लेख होने से मुनि कल्याणविजय जी और कापड़िया जी ने तथा बाद में पं० सुखलालजी ने उच्चै गर शाखा को बुलन्दशहर से जोड़ने का प्रयास किया। प्रो० कापड़िया ने यद्यपि अपना कोई स्पष्ट अभिमत नहीं दिया है। वे लिखते हैं "इस शाखा का नामकरण किसी नगर के आधार पर ही हुआ होगा, किन्तु इसकी पहचान अपेक्षाकृतकठिन है; क्योंकि बहुत सारे ऐसे ग्राम और शहर हैं जिनके अन्त में 'नगर' नाम 1. Archaeological Survey of India, Vol. 14, p. 147 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्च गर शाखा के उत्पत्ति स्थल एवं उमास्वाति के जन्म स्थल १९ पाया जाता है। वे आगे भी लिखते हैं कि कनिंघम का विश्वास है कि यह ऊँचानगर से सम्बन्धित होगी ।" चूंकि कनिंघम ने आकियोलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया के १४वें खंड में बुलन्दशहर का समीकरण ऊँचानगर से किया था। इसी आधार पर मुनि कल्याणविजय जी ने यह लिख दिया है "ऊँचा नगरी शाखा प्राचीन ऊँचा नगरी से प्रसिद्ध हुई थी। ऊँचा नगरी को आजकल बुलन्दशहर कहते हैं।" इस सम्बन्ध में पं० सुखलाल जी का कथन है-'उच्चै गर' शाखा का प्राकृत नाम 'उच्चानागर' मिलता है। यह शाखा किसी ग्राम या शहर के नाम पर प्रसिद्ध हुई होगी, यह तो स्पष्ट दीखता है परन्तु यह ग्राम कौन-सा था, यह निश्चित करना कठिन है। भारत के अनेक भागों में 'नगर' नाम के या अन्त में 'नगर' शब्दवाले अनेक शहर तथा ग्राम हैं। 'बड़नगर' गुजरात का पुराना तथा प्रसिद्ध नगर है। बड़ का अर्थ मोटा (विशाल ) और मोटा का अर्थ कदाचित् ऊँचा भी होता है। लेकिन गुजरात में बड़नगर नाम भी पूर्वदेश के उस अथवा उस जैसे नाम के शहर से लिया गया होगा, ऐसी भी विद्वानों की कल्पना है । इससे उच्चनागर शाखा का बड़नगर के साथ ही सम्बन्ध है, यह जोर देकर नहीं कहा जा सकता। इसके अतिरिक्त जब उच्चनागर शाखा उत्पन्न हुई, उस काल में बड़नगर था या नहीं और था तो उसके साथ जैनों का कितना सम्बन्ध था, यह भी विचारणीय है । उच्चनागर शाखा के उद्भव के समय जैनाचार्यों का मुख्य विहार गंगा-यमुना की तरफ होने के प्रमाण मिलते हैं । अतः बड़नगर के साथ उच्चनागर शाखा के सम्बन्ध की कल्पना सबल नहीं रहती। इस विषय में कनिंघम का कहना है “यह भौगोलिक नाम उत्तरपश्चिम प्रान्त के आधुनिक बुलन्दशहर के अन्तर्गत 'उच्चनगर' नाम के किले के साथ मेल खाता है।" १. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् (द्वितीय विभाग) प्रस्तावना, हीरालाल कापड़िया, पृ० ६ २. पट्टावली पराग संग्रह (मुनि कल्याण विजय), पृ० ३७ ३. तत्त्वार्थसूत्र, (विवेचक पं० सुखलाल संघवी), प्रकाशक पार्श्वनाथ विद्या श्रम शोध संस्थान, वाराणसी, पृ० सं० ४ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि ऊँचानगर शाखा का सम्बन्ध बुलन्दशहर से तभी जोड़ा जा सकता है जब उसका अस्तित्व ई०पू० प्रथम शताब्दी के लगभग रहा हो। मात्र यही नहीं उस काल में वह ऊँचानगर कहलाता भी हो । इस नगर के प्राचीन 'बरण' नाम का उल्लेख तो है, किन्तु यह भी ९-१०वीं शताब्दी से पूर्व का. ज्ञात नहीं होता है । बारण ( बरण ) नाम से कब इसका नाम बुलन्दशहर हुआ, इसके सम्बन्ध में उन्होंने अपनी असमर्थता व्यक्त की है। यह हिन्दुओं द्वारा ऊँचागाँव या ऊँचानगर कहा जाता था-मुझे तो यह भी उनकी कल्पना सी प्रतीत होती है। इस सम्बन्ध में वे कोई भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सके हैं। बरन नाम का उल्लेख भी मुस्लिम इतिहासकारों ने दसवीं सदी के बाद ही किया है । इतिहासकारों ने इस ऊँचागाँव किले का सम्बन्ध तोमर वंश के राजा अहिवरण से जोड़ा है अतः इसकी अवस्थिति ईसा के पांचवीं-छठी शती से पूर्व तो सिद्ध ही नहीं होती है। यहाँ से मिले सिक्कों पर 'गोवितसबाराणये' ऐसा उल्लेख है । स्वयं कनिंघम ने भी यह सम्भावना व्यक्त की है कि इन सिक्कों का सम्बन्ध वारणाव या वारणावत से रहा होगा । वारणावर्त का उल्लेख महाभारत में भी है जहाँ पाण्डवों ने हस्तिनापुर से निकलकर विश्राम किया था तथा जहाँ उन्हें जिन्दा जलाने के लिये कौरवों द्वारा लाक्षागृह का निर्माण करवाया गया था । बारणावा ( बारणावत ) मेरठ से १६ मील और बुलन्दशहर (प्राचीन नाम बरन) से ५० मील की दूरी पर हिंडोन और कृष्णा नदी के संगम पर स्थित है। मेरी दृष्टि में यह वारणावत वही है जहाँ से. जैनों का 'वारणगण' निकला था। 'वारणगण का उल्लेख भी कल्पसूत्र स्थविरावली एवं मथरा के. अभिलेखों में उपलब्ध होता है। अतः बारणावत ( वारणावर्त ) का सम्बन्ध. वारणगण से हो सकता है न कि उच्चै गरी शाखा से, जो कि कोटिकगण की शाखा १. ऐतिहासिक स्थानावली, पृ० सं० ६०८, ६४० २. कनिंघम-अर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया, वाल्यू० १४, पृ० १४७ ३. वही, ४. ऐतिहासिक स्थानावली, पृ० सं० ८४३-४४ ५. कल्पसूत्र, स्थविरावली २१२ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्चैर्नागर शाखा के उत्पत्ति स्थल एवं उमास्वाति के जन्म स्थल २१ थी । अतः अब हमें इस भ्रान्ति का निराकरण कर लेना चाहिए । उच्चैर्नागर शाखा का सम्बन्ध किसी भी स्थिति में बुलन्दशहर से नहीं हो सकता है । * यह सत्य है कि उच्चैर्नागर शाखा का सम्बन्ध किसी ऊँचानगर से ही हो सकता है । इस सन्दर्भ में हमने इससे मिलते-जुलते नामों की खोज प्रारम्भ की। हमें ऊँचाहार, ऊँचडीह, ऊँचीबस्ती, ऊँचौलिया, ऊँचाना, ऊँच्चेहरा आदि कुछ नाम प्राप्त हुए । ' हमें इन नामों में ऊँचाहार ( उ० प्र०) और ऊँचेहरा ( म०प्र०) ये दो नाम अधिक निकट प्रतीत हुए । ऊँचाहार की सम्भावना भी इसलिए हमें उचित नहीं लगी कि उसकी प्राचीनता के सन्दर्भ में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है । अतः हमने ऊँचेहरा को ही अपनी गवेषणा का विषय बनाना उचित समझा । ऊँचेहरा मध्यप्रदेश के सतना जिले में सतना रेडियो स्टेशन से ११ कि.मी. दक्षिण की ओर स्थित है । ऊँचेहरा से ७ किमी. उत्तर-पूर्व की ओर भरहुत का प्रसिद्ध स्तूप स्थित है, इससे इस स्थान की प्राचीनता का भी पता लग जाता है । वर्तमान ऊँचेहरा से लगभग २ कि. मी. की दूरी पर पहाड़ के पठार पर यह प्राचीन नगर स्थित था, इसी से इसका ऊँचानगर नामकरण भी सार्थक सिद्ध होता है । वर्तमान में यह वीरान स्थल 'खोह' कहा जाता है । वहाँ के नगर निवासियों ने मुझे यह भी बताया कि पहले यह उच्चकल्पनगरी कहा जाता था और यहाँ से बहुत सी पुरातात्विक सामग्री भी निकली थी । यहाँ से गुप्त काल अर्थात् ईसा की पांचवीं शती के राजाओं के कई दानपत्र प्राप्त हुए हैं । इन ताम्र- दानपत्रों में उच्चकल्प (उच्छकल्प) का स्पष्ट उल्लेख है, ये दानपत्र गुप्त सं० १५६ से गुप्त सं० २०९ के बीच के हैं । (विस्तृत विवरण के लिये देखें ऐतिहासिक स्थानावली - विजयेन्द्र कुमार माथुर, पृ० २६०-२६१) । इससे इस नगर की गुप्तकाल में तो अवस्थिति स्पष्ट हो जाती है । पुनः जिस प्रकार विदिशा के समीप सांची का स्तूप निर्मित हुआ है उसी प्रकार इस उच्चैर्नगर ( ऊँचहेरा ) के समीप भरहुत का स्तूप निर्मित हुआ था और यह स्तूप ई० पू० दूसरी या प्रथम शती का है । इतिहासकारों ने इसे शुंग काल का १. ऊँच्छ नामक अन्य नगरों के लिए देखिए - The Ancient Geography of India (Cunningham) pp. 204-205 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र२ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ माना है। भरहुत के स्तूप के पूर्वी तोरण पर 'वाच्छिपुत्त धनभूति का उल्लेख है।' पुनः अभिलेखों में 'सुगनं रजे' ऐसा उल्लेख होने से शुग काल में इसका होना सुनिश्चित है । अतः उच्चैर्नागर शाखा का स्थापना काल (लगभग ई०पू० प्रथम शती) और इस नगर का सत्ताकाल समान ही है। अतः इसे उच्चै गर शाखा का उत्पत्ति स्थल मानने में काल की दृष्टि से कोई बाधा नहीं है। ऊँचेहरा (उच्चकल्पनगर) एक प्राचीन नगर था इसमें अब कोई संदेह नहीं रह जाता है। यह नगर वैशाली या पाटलिपुत्र से वाराणसी होकर भरुकच्छ को जाने वाले अथवा श्रावस्ती से कौशाम्बी होकर विदिशा, उज्जयिनी और भरुकच्छ जाने वाले मार्ग में स्थित है। इसी प्रकार वैशाली-पाटलिपुत्र से पद्मावती (पँवाया), गोपाद्रि (ग्वालियर) होता हुआ मथुरा जाने वाले मार्ग पर भी इसकी अवस्थिति थी। उस समय पाटलीपुत्र से गंगा और यमुनाके दक्षिण से होकर जाने वाला मार्ग ही अधिक प्रचलित था क्योंकि इसमें बड़ी नदियाँ नहीं आती थीं, मार्ग पहाड़ी होने से कीचड़ आदि भी अधिक नहीं होता था । जैन साधु प्रायः यही मार्ग अपनाते थे। प्राचीन यात्रा मार्गों के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि ऊँचानगर की अवस्थिति एक प्रमुख केन्द्र के रूप में थी। यहां से कौशाम्बी प्रयाग, वाराणसी, पाटलिपुत्र, विदिशा, मथुरा आदि सभी ओर मार्ग जाते थे। पाटलिपुत्र से गंगा-यमुना आदि बड़ी नदियों को बिना पार किये जो प्राचीन स्थल मार्ग था उसके केन्द्र नगर के रूप में उच्चकल्प नगर (ऊँचानगर) की स्थिति सिद्ध होती है। यह एक ऐसा मार्ग था जिसमें कहीं भी कोई बड़ी नदी नहीं आती थी। अतः सार्थ निरापद समझकर इसे ही अपनाते थे। प्राचीन काल से आज तक यह नगर धातुओं के मिश्रण के बर्तनों हेतु प्रसिद्ध रहा है। आज भी वहाँ कांसे के बर्तन सर्वाधिक मात्रा में बनते हैं। ऊँचेहरा का उच्चैर् शब्द से जो ध्वनि-साम्य है वह भी हमें इसी निष्कर्ष के लिए बाध्य करता है कि उच्चैर्नागर शाखा की उत्पत्ति इसी क्षेत्र से हुई थी। उमास्वाति का जन्म स्थान नागोद (म०प्र०) उमास्वाति ने अपना जन्म स्थान न्यग्रोधिका बताया है। इस १. भरहुत (डॉ० रमानाथ मिश्र), प्रकाशनम० प्र० हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल, (म० प्र०) भूमिका पृ० १८ २. वही, पृ० १८-१९ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्चैर्नागर शाखा के उत्पत्ति स्थल एवं उमास्वाति के जन्म स्थल २३ सम्बन्ध में भी विद्वानों ने अनेक प्रकार के अनुमान किये हैं। चूंकि उमास्वाति ने तत्वार्थभाष्य की रचना कुसुमपुर (पटना) में की थी अतः अधिकांश लोगों ने उमास्वाति के जन्मस्थल की पहचान उसी क्षेत्र में करने का प्रयास किया है। न्यग्रोध को वट भी कहा जाता है। इस आधार पर पहाड़पुर के निकट बटगोहली, जहाँ से पंचस्तूपान्वय का एक ताम्र लेख मिला है, से भी इसका समीकरण करने का प्रयास किया है। मेरी दृष्टि में ये धारणाए समुचित नहीं हैं। उच्चैर्नागर शाखा, जो ऊँचेहरा से सम्बन्धित थी, उसमें उमास्वाति के दीक्षित होने का अर्थ यही है कि वे उसके उत्पत्ति स्थल के निकट ही कहीं जन्मे होंगे। उच्चैर्नगर या ऊँचेहरा से मथुरा जहाँ उच्चनागरी शाखा के अधिकतम उल्लेख प्राप्त हए हैं तथा पटना जहाँ उन्होंने तत्त्वार्थ भाष्य की रचना की, दोनों ही लगभग समान दूरी पर अवस्थित रहे हैं। वहाँ से दोनों लगभग ४५० कि० मी० की दूरी पर अवस्थित हैं और किसी जैन साधु के द्वारा यहाँ से एक माह की पदयात्रा कर दोनों स्थलों पर आसानी से पहुँचा जा सकता है। स्वयं उमास्वाति ने ही लिखा है कि वे विहार (पदयात्रा) करते हुए कुसुमपुर (पटना) पहुँचे थे।' (विहरतापुवरे कुसुमनाम्नि) इससे यही लगता है कि न्यग्रोध, (नागोद) कुसुमपुर (पटना) के बहुत समीप नहीं था। डॉ० हीरालाल जैन ने संघ विभाजन स्थल-रहवीरपुर की कल्पना दक्षिण में महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के राहुरी ग्राम से और उसी के समीप स्थित 'निधोज' से की किन्तु यह ठीक नहीं है । प्रथम तो व्याकरण की दृष्टि से न्यग्रोध का प्राकृत रूप नागोद होता है, निधोज नहीं। दूसरे उमास्वाति जिस उच्चै गर शाखा के थे, वह शाखा उत्तर भारत की थी, अतः उनका सम्बन्ध उत्तर भारत से ही है। अतः उनका जन्म स्थल भी उत्तर भारत में ही होगा। उच्चनागरी शाखा का उत्पत्ति स्थल इसी उचेहरा से लगभग ३० कि० मी० पश्चिम की १. तत्त्वार्थसूत्र, पृ० ५ २. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, स्वोपज्ञ भाष्य, अन्तिम प्रशस्ति, श्लोक सं० ३ ३. दिगम्बर जैन सिद्धान्त दर्शन, प्रका० दिगम्बर जैन पंचायत बम्बई, दिसम्बर १९४४ में मुद्रित 'जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय' नामक प्रो० हीरालाल जैन का लेख, पृ० ७ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ ओर 'नागोद' नाम का कस्बा आज भी है। आजादी के पूर्व यह एक स्वतंत्र राज्य था और ऊँचेहरा इसी राज्य के अधीन आता था। नागोद के आस-पास भी जो प्राचीन सामग्री मिली है उससे यही सिद्ध होता है कि यह भी एक प्राचीन नगर था। प्रो० के० डी० बाजपेयी ने नागोद से २४ कि० मी० दूर नचना के पुरातात्विक महत्त्व पर विस्तार से प्रकाश डाला है।' नागोद की अवस्थिति पन्ना (म० प्र०), नचना और ऊँचेहरा के मध्य है। इन क्षेत्रों में गुप्तकाल के पूर्व शुंगकाल से लेकर ९वीं-१०वीं शती तक की पुरातात्विक सामग्री मिलती है अतः इसकी प्राचीनता में सन्देह नहीं किया जा सकता है। नागोद न्यग्रोध का ही प्राकृत रूप है अतः सम्भावना यही है कि उमास्वाति का जन्म स्थल यही नागोद था और जिस उच्चनागरी शाखा में वे दीक्षित हुए थे, वह भी उसी के समीप स्थित ऊँचेहरा (उच्चकल्प नगर) से उत्पन्न हुई थी। तत्वार्थ भाष्य की प्रशस्ति में उमास्वाति की माता को वात्सी कहा गया है। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि वर्तमान नागोद और ऊँचेहरा दोनों ही प्राचीन वत्स देश के अधीन ही थे। भरहुत और इस क्षेत्र के आस-पास जो कला का विकास देखा जाता है, वह कौशाम्बी अर्थात् वत्सदेश के राजाओं के द्वारा किया गया था। ऊँचेहरा वत्सदेश के दक्षिण का एक प्रसिद्ध नगर था। भरहुत के स्तुप के निर्माण में भी वात्सी गोत्र के लोगों का महत्त्वपूर्ण योगदान था, ऐसा वहाँ से प्राप्त अभिलेखों से प्रमाणित होता है। भरहुत के स्तूप के पूर्वी तोरणद्वार पर वाच्छीपुत्त धनभूति का उल्लेख है।' अतः हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उमास्वाति का जन्मस्थल नागोद (न्यग्रोध) और उनकी उच्च गर शाखा का उत्पत्ति स्थल ऊ चेहरा ही है। १. संस्कृति संन्धान (सम्पा० डा० झिनकू यादव), प्रका० राष्ट्रीय मानव संस्कृति शोध संस्थान, वाराणसी वाल्यू III १९९० में मुद्रित 'बुन्देलखण्ड की सांस्कृतिक धरोहरः नचना नामक प्रो० कृष्णदत्त बाजपेयी का लेख, पृ० ३१ २. भरहुत, भूमिका पृ० सं० १८ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूडा - सहेली की प्रेम कथा *भँवरलाल नाहटा जैनधर्म के चार अनुयोगों में एक धर्मकथानुयोग है । जन सामान्य की इस ओर विशेष रुचि होने के कारण कथा साहित्य बहुत ही विस्तृत परिमाण में उपलब्ध है । जैसे चामत्कारिक और कौतूहलप्रधान कथासाहित्य की ओर प्राचीन काल से ही विशेष लोकरुचि रही है, वैसे ही प्रेमकथाओं की ओर झुकाव भी किसी प्रकार कम न था । त्याग प्रधान जैनधर्म के अनुयायी ग्रन्थकारों ने ऐसी लोक कथाओं का निरूपण करते हुए भी धर्म-सदाचार और अन्त में सर्वस्व त्याग कर चारित्र स्वीकार करने और सद्गतिभाजन होने के रंग भरकर कथावस्तु - को ऐसे चित्रित किया है कि श्रोता अपनी आचार - मर्यादा में स्थित रहने का उपदेश प्राप्त कर सके । यह परम्परा अति प्राचीन थी और प्राकृत साहित्य की तरंगवती कथाएँ अपने आप में परिपूर्ण और तत्कालीन स्थिति और साहित्यिक महत्त्व की अमूल्य सामग्री प्रदान करती हैं । संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश की वह परम्परा हिन्दी - राजस्थानी और गुजराती में भी अबाध गति से चलती रही और इन भाषाओं में सभी जैन कवियों ने प्रेम-कथाएँ लिखीं, पर अभी तक इस ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट नहीं हुआ है । अतः साधारणतया यही धारणा बन गई है कि जैन धर्म में नीति व धर्म प्रधान साहित्य ही है । परन्तु जैन विद्वानों ने जिस प्रकार कौतूहल- प्रधान एवं धर्म-नीति काव्यों को अपनाया है, वैसे ही प्रेम-कथाओं पर भी अपनी लेखनी चलाई है | यहाँ सोलहवीं सदी की ऐसी ही एक सूडा - सहेली नामक राजस्थानी लोक प्रेमकथा का परिचय कराया जा रहा है जिसे सुप्रसिद्ध कवि सहजसुन्दर ने निर्मित किया है । सूडा सहेली या शुकराज सहेली के रचयिता कवि सहजसुन्दर सोलहवीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध और विद्वान् कवि थे । आप अधिकांशतः राजस्थान और गुजरात में विचरे । ये उपकेशगच्छ के आचार्य सिद्धिसूरि के आज्ञानुवर्ती थे । इस गच्छ की एक गद्दी बीकानेर बस * Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ जाने पर ( वि०सं० १५४५) यहाँ भी स्थापित हो गई थी। आप शतकत्रयवृत्ति के रचयिता सुप्रसिद्ध विद्वान् धनसार उपाध्याय के प्रशिष्य और उपाध्याय रत्नसमुद्र के शिष्य थे। कवि सहजसुन्दर का ग्रन्थ रचना काल सं० १५७० से सं० १५९५ तक ज्ञात होता है। प्रस्तुत निबन्ध में जैनगुर्जरकविओ भाग-१ और भाग-३ के आधार पर कवि के रचनाओं की सूची आगे दी गई है। पच्चीस वर्षों के रचनाकाल में कवि ने और भी रचनाएँ की होंगी, जिनका प्रचार नहीं हो पाया। उपकेशगच्छ के ज्ञान भण्डार अस्त-व्यस्त हो चुके हैं, अतः सहजसुन्दर की अन्य रचनाओं की खोज करना कठिन है। उपकेशगच्छ की परम्परा भगवान् पार्श्वनाथ से जोड़ी जाती है। मध्यकाल में इस गच्छ का बड़ा प्रभाव रहा है। मारवाड़ के ओसीया नामक स्थान का प्राचीन नाम उपकेशपुर था । ओसवाल जाति ओसीया से ही प्रसिद्धि में आयी है। उपकेशगच्छ में बहुत से संस्कृत और राजस्थानी भाषा के कवि हुए हैं । मुनि ज्ञानसुन्दर जी ने 'पार्श्वनाथ परम्परा का इतिहास' नामक बृहद् ग्रंथ दो भागों में प्रकाशित किया है । 'शत्रुञ्जय तीर्थोद्धार प्रबन्धादि' इस गच्छ की कुछ रचनाएँ ही प्रकाशित हुई हैं और अधिकांशतः अप्रकाशित ही हैं। कवि सहजसुन्दर को रचनाओं को सूची १-एलाची पुत्र सज्झाय० गा० ३१, सं० १५७० जेठ वदि ९ २ - गुणरत्नाकर छन्द गा० १६०, सं० १५७२ ३-ऋषिदत्ता रास गा० ३६८, सं० १५७२ ४-रत्नसार कुमार चौपाई पद्य ९९, सं० १५८२ ५ --आत्मराज रास गा० ८०, सं० १५८२ (८) ६-परदेशी राजानोरास गा० २१९ ७----शुकराज सहेली कथारास ८-जम्ब अन्तरंगरास गा०६३ ९-यौवन जरा संवाद गा० २५ १०-तेतलीपुत्रमन्त्री रास गा०, सं० १५९५, आ० सु० ८, मंगल शांतज । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ सूडा-सहेली की प्रेम कथा ११-प्रसन्नचन्द्र राजर्षि रास', सं० १६४८ (?) १२-इरियावही रास, गा० ७५, सं० १५७१ (?) १३-गर्भवेली, गा० ४४ १४-सरस्वती छन्द, गा० १४ १५-शालिभद्र सज्झाय, गा० १७ १६-आदिनाथ शत्रुञ्जय स्तवन १७-आँख-कान संवाद मुनिराज श्री पुण्यविजय के संग्रह से प्राप्त एक गुटके में सूडा सहेली रास उपलब्ध हुआ है जिसका हिन्दीसार यहाँ दिया जा रहा है : सूडा-सहेलीरास का सार सरस्वती, वीर जिनेश्वर और गौतम स्वामी को नमस्कार करके गुर्वाज्ञा प्राप्त कर कवि सहजसुन्दर सूडा और सहेली की प्रेम-कथा पद्य में लिखता है। इसी जम्बूद्वीप की उज्जयनी नगरी में मकरकेतु नामक राजा राज्य करता था। जिसकी प्रिया सुलोचना की कुक्षि से कन्यारत्न का जन्म हुआ। वह रम्भा के सदृश लावण्यवती थी। बड़ी होने पर सरस्वती की भांति विद्या, गुण, कला में प्रवीण हो गई, उसका नाम सहेली था। तरुणावस्था प्राप्त सहेली कुमारी ने एक बार रात्रि के समय स्वप्न में देखा कि वह विदेश गई है और विद्याधर नगरी में पहुँची। वहाँ के राजा मदन भीम के पुत्र शुकराज विद्याधर के साथ क्रीडा की, जो अत्यन्त सुन्दर और गुणसम्पन्न था। इसके बाद वह तुरन्त जग गई और उसके गुणों को अश्रुपूर्ण नेत्रों से स्मरण करने लगी। उसे अपने जगने से स्वामी को खो देने का पछतावा होने लगा। सहेली कल्पना करने लगी-सुख भर नींद में सोई थी कि परदेशी प्रियतम आये और मैं उनसे गले लगकर मिली। हृदय-कमल में प्रियतम भ्रमर एकांत में मिला पर सूर्योदय होते ही उड़ गया । १. यह रचना यदि सहजसुन्दर की है तो रचना-काल पूर्ववर्ती होगा। प्रति को देखकर निर्णय करना आवश्यक है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ वह जल-विहीन मछली की भाँति तड़पने लगी और आँखें श्रावण के मेघ की भाँति बरसने लगीं। विरहानल-दग्ध नवयौवना को पपीहा के पीऊ-पीऊ स्वर शल्य की भाँति खटकने लगे। उसे शीतल वायु चन्दन और चन्द्रमा की शुभ्र ज्योत्स्ना नहीं सुहाती और वह कुम्हलाई हुई रहने लगी। कभी वह प्रियतम से स्वप्न में पुनः मिलने के लिए नींद लेने का उपक्रम करती पर आँखों से नींद सर्वथा दुर्लभ हो गई। उसका हृदय पक्षी की भाँति आकाश में उड़ रहा था, अब स्वप्न की आशा कहाँ ? उसके और प्रियतम के बीच नदी-नाले और पर्वत-श्रेणी का अवरोध था अतः चरणों से उन्हें उल्लंघन कर जाना अशक्य होने से वह सारस पक्षी से पंखें मांगने लगी, जिसके द्वारा वह प्रियतम से जा मिले। वह जब सखियों से बोलचाल, हास्य-क्रीड़ा बन्द कर अनमनी रहने लगी तो सखियों ने उससे पूछा कि तुम्हारी यह दशा क्यों? क्या माता-पिता ने कोई कष्टकारी बात कही है या अन्य कोई कारण है ? ___ सहेली ने लज्जा त्याग कर सखियों से स्वप्न में शुक्रराज से मिलने की बात बतलाते हुए कहा कि मै अपने इसी इच्छित वर के सिवाय किसी से पाणिग्रहण नहीं करूँगी। यह मेरा अटल नियम समझो। दैव भी कैसे हैं, सदृश जोड़ी न मिलाकर सद्गुणी को गुणहीन और गुणहीन को सद्गणी नारी देता है। माता-पिता पूछते नहीं; रूप-कुरूप न देखकर, ढकना ढक देते हैं, ज्योतिषी भी खोटे हैं। ऐसी स्थिति में कैसे काल निर्गमन हो? रायणी ( फल ) से रीगणीसदल सुरंग होने पर भी गुण बिना कोई स्वीकार नहीं करता। परमात्मा की प्रसन्नता हो तभी सरीखी और मनपसन्द जोड़ी मिलती है। सहेली कहने लगी --शिक्षित-संस्कारित पुरुष के न मिलने पर वह सूखे शाल-काष्ठ की तरह जलती है। लोहार के घर गया रत्न भी कोयले के साथ घान किया जाकर अंगार हो जाता है । मूर्ख के यहाँ गुणों का विनाश ही होता है । कौवे के गले में हार और कीचड़ में पड़ी चुनड़ी की भाँति अयुक्त जोड़ी से विनाश ही होता है । अतः मैं तो उसी मनपसन्द व्यक्ति से ब्याह करूँगी अन्यथा अग्निशरण कर जाऊँगी। जैसे मानसरोवर में हंस की, सत्पुरुष से वंश की, सोने में जड़े हुए हीरे की और गंगा नदी में निर्मल जल की शोभा है वैसे ही पति-पत्नी सरीखी जोड़ी Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ सूडा-सहेली की प्रेम कथा सुशोभित होती है अन्यथा अज्ञानी नाम सिर पर आ जाय तो सूविज्ञ विदूषी नारी. भी क्या करे ? इस प्रकार प्रणय-विवाह की लम्बी व्याख्या सुनकर सखियों ने कहा-आखिर यह तो कहो कि विदेश में रहे नर-रत्न को किस उपाय से प्राप्त करोगी? इस प्रकार से सहेली कुमारी की प्रतिज्ञा और सौन्दर्य-चर्चा सर्वत्र देश-विदेश में प्रसिद्ध हो गई। विद्याधर पुरी में शुकराज कुमार ने सहेली के रूप की बात सुनी जिसका वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है"जिहां ते कुमार अहि जेणि नगरि, बात गई तिहां भमति नगरी। कपि जसी रंभा अपछरी, नाग लोक नारी अवतरी ।। ४७॥ अलिकलि लिहि किवीण, विसहर लरि भनाव्योतेणि । वदन जिसु पुनिन नु चन्द, __ मोहन वेलि तणऊ किच कंद ॥४८॥ लोचन वाण जिस्या भालडी, सीगणि भयण तणी भमुहड़ी। आठमि चन्द तणि . परिमाल, नासा वंश माहा गणी आल ।। ४९ ॥ अधर प्रवाली सललत वली, दन्त जिसा दाडिमनीकुली। युगल पयोधर सोवन कुंभ, जांघ नसी कदली नु थंभ ॥ ५० ॥ गुणवती चालि गजगति, भयण तणा मोहष मलपति । वेणी विसहर मणि वाखड़ी, आँजवलि आखड़ी ॥ ५१ ॥ चन्द मुखि चंपक बांनि, झब-झब झबकि कुंडल कानि । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ नवसर हार पालिपदकड़ी, कर कंकण नेऊर सुंपड़ी ।। ५२॥ भवरंगित चूड़ी झलकति, कटि मेखला झंझर झप्रकति । विदि व्यख्यणि ते नारी कथा, किहि सलोक सुभाषित तथा ।। ५३ ॥ गाहा भेद सारिते कहि, पुछया नु वलि उत्तर कहि । पिंगल भरह सुकर पल्लवी, गुण सगित कि सरसती नवी ॥ ५४॥ इस प्रकार सहेली के रूप गुण की प्रशंसा से शुकराज कुमार का चित आन्दोलित हो उठा और वह उससे मिलने एवं पाणिग्रहण करने के लिये कृतसंकल्प होकर घर से निकल पड़ा। विद्याधर तो था ही, जब चाहे जैसा रूप धारण कर सकता था। उसने अपने नाम के अनुसार शक का रूप धारण कर लिया और उड़ता हआ उज्जयनी नगरी आ पहुंचा। जब शुक राजकुमारी के महलों पर उड़ता हुआ चक्कर लगा रहा था तो राजकुमारी की बाँयी आंख फड़कने लगी। शुक के रूप में शुकराज गाथा समस्या बोलता हुआ उसके निकट आ उतरा। सखते हए खेत में जैसे अकाल वर्षा हो जाए और प्यासे को पानी मिल जाए, उसी प्रकार राजकुमारी हर्ष से पुलकित हो गई। उसने मानव भाषा में बोलने वाले विलक्षण शुक से उसका परिचय पूछा। उसने अपना परिचय यों दिया : विद्याधरों में ( वैताढ्य पर्वत पर ) दक्षिण श्रेणि में राजकुमार शुकराज रहता है जो अत्यन्त भोगी भ्रमर है वह शुक के रूप में क्रीड़ा कौतूहल करता है। उसी मधुर-भाषी कुमार ने मुझे पालपोस कर बड़ा किया और पढ़ाया। मेरी प्रिया शुकी मुझसे रुष्ट होकर कहीं अन्यत्र चली गई। उसी के अनुसंधान में मैं देश-विदेश भ्रमण कर रहा हूँ। विरहानल में जलता हुआ मैं थक कर चूर हो गया हूँ और अब वर्षाकाल आ जाने से मेरी पांखे भीगने लगीं। लम्बे मार्ग को तय Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूडा-सहेली की प्रेम कथा ३१ करना अशक्य है एवं लोगों से तुम्हारी चतुराई की प्रशंसा सुनकर यहाँ आ गया हूँ। उसने शुक का स्वागत करते हुए कहा-आप यहाँ चित्रशाला में सुख से रहें, दाडिमादि फल भोजन करें। उसने एक सोने का पिंजड़ा मँगाकर रखा। शुकराज कौतूहल पूर्वक फलाहार करता हुआ उसमें रहने लगा। वह नाना श्लोक-सुभाषितों से सहेली का मनोरंजन करता । शुक के वचनों से उसको अपने स्वप्न के सत्य की प्रतीति हो गई और शुकराज के प्रति विशेष प्रीति जागृत हुई। वह शुक की विशेष भक्ति करती और शुकराज के गुणस्मरण, ध्यान में विशेष रत हो गई। विरहाकुल सहेली का शरीर सूख गया और हाथों की चूड़ियाँ निकल कर गिरने लगीं। उसके अश्रु प्रवाह को देखकर शुक के पूछने पर उसने अपनी अन्तर्व्यथा कहते हुए कहा-कुमार शुकराज के बिना मेरी एक-एक घड़ी छः मास की तरह व्यतीत होती है, उनसे मिलन कैसे हो? तुम उनके सहदेशी हो, अतः मिलने का उपाय बताकर मेरा दुःख दूर करो। शुक ने कहा अभी तो तुमने उसे देखा तक नहीं है, व्यर्थ का विलाप करती हो। सहेली ने कहा--मैंने स्वप्न में उन्हें देखा है, तुम कठोर न बनकर उनसे मिलाओ। उनके और मेरे बीच वन-पर्वत, नदी-नालों का दीर्घ अन्तर है पर प्रीति में लाखों योजन का अन्तर कभी बाधक नहीं होता। चातक और मेघ; सूर्य और कमल; चन्द्र और कुमुदिनी में कितनी दूरी है, परन्तु प्रीति में दूरी क्या ? आँख और कान के बीच चार अंगुल की ही दूरी है पर कभी एक दूसरे को नहीं देखते । शुक ने कहा- और भी लाखों पुरुष-रत्न हैं, तुम्हें तुम्हारी जोड़ी का सद्गुणी लाकर मिला दूं। सहेली ने कहा-रे पागल ! ऐसी सीख मुझे मत दो इस भव में तो मेरा वही स्वामी है, अन्यथा अग्नि की शरण है। मेरे समक्ष उनके सिवा दूसरे गुणों की बात ही न निकालना फिर कभी ऐसी अनर्गल बात कही तो मैं प्राणों का त्याग कर तुम्हें स्त्री-हत्या का श्राप दे दूंगी। शुक ने सोने की भाँति सहेली की कसौटी करके उसके प्रेम को सच्चा पाया। अंजली में बँधा जल कितनी देर रह सकता है ? फूल का परिमल कभी गोप्य रह सकता है ? वह सहेली को कभी हँस और Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ कभी शुक का रूप दिखाता हुआ कहने लगा-मैं चातक तुम चातकी हो, लज्जा का जल बीच में बाधक है। सहेली ने चमककर वचनों से निश्चय किया कि लक्षण और गुणों से यही पुरुषरत्न शुकराज है। उसने आम्रमंजरी प्रभावित सुस्वर कोकिला की भाँति वचनचातुरी से मुग्ध कर शुकराज को अपना वृतान्त सुनाने के लिये बाध्य किया तो उसने कहा- तुम्हारे लिये मैं अपनी वल्लभा सोहगसून्दरी और राज्य को त्यागकर यहाँ आया। शुक के रूप में मैं राजकुमार हूँ। तुम्हें पाकर मैं सफल हुआ, तुम्हारे सभी मनोवांछित पूर्ण करूँगा। __ इसके अनन्तर शुक पुरुषरूप प्रकट करने का प्रयत्न करने लगा परन्तु वह किसी भी प्रकार अपने प्रकृत रूप में न आ सका तो विषाद के मारे हास्य विनोद त्यागकर खिन्न चित्त हो गया। उसकी दशा डालचूके बन्दर की भाँति थी, उसकी सारी आशाएँ कुएँ की छाँट की भाँति मन ही मन रह गई। सहेली ने कहा-तुम दुःख के मारे नींद व आहार का त्यागकर प्राण मत गँवाओ। मैं तुम्हारी भक्ति करूँगी, मैं मानवी और तुम पक्षी रूप हो और क्या किया जाय । तुम तो देशविदेश उड़कर नये-नये फलों का रस चखोगे, पर मुझे तो घर में ही पड़े रहना है। तुम किस प्रकार अनमने हो ? क्या माता-पिता, घर या पत्नी की याद आ गई ? मुझे तुम्हारे यहाँ से चम्पत होने के आसार लगते हैं पर यह समझ लेना कि मेरा जीवन तुम्हारे साथ है। तुम मुझे अपनी विद्या सिखा दो ताकि मैं भी शुकी बनकर तुम्हारे साथ भ्रमण करने का आनन्द ले सकूँ अन्यथा तुम्हारा वियोग मुझे असह्य होगा। शुक ने सहेली से कहा- तुम्हारा कोई दोष नहीं, वास्तव में रहस्य की बात यह है कि मेरी सौन्दर्यवती स्त्री ने कार्मण करके श्राप दिया है । अब मुझे पक्षी रूप से पुनः नर देह मिलना कठिन हो गया। मुझे इसी बात का दुःख है। मेरी समस्त आशालताओं पर तुषारापात हो गया। अब मुझे अहर्निश यही चिन्ता सताती है उसी दैव का दोष है, जिसने समुद्र का जल खारा कर दिया, पद्मनाल में कण्टक, हिमालय में हिम, चन्द्र में कलंक और पण्डितों को निर्धन कर दिया। (यहाँ कवि ने गद्द कवि के दैव सम्बन्धी दो कवित्त उद्धत किये हैं, जिनका पद्यांक Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूडा-सहेली की प्रेम कथा चालू पद्यांक के ही साथ है । ) दैव ने मूर्ख के सिर पर सींग और चतुर को पांख ही नहीं दी, अन्यथा मूर्ख सबको दौड़कर मारता और चतुर अपने पंखों द्वारा स्वेच्छापूर्वक विचरण करता? क्या उपाय किया जाये ? रोने से राज्य नहीं मिलता। इस प्रकार शुक और सहेली के विमर्श में नेपथ्य से कोई देव वाणी हुई कि उत्तर-पश्चिम दिशा के मध्य में नन्दनवन जैसी वनमाला है। जिसकी मणिमय भूमि में बहुरूपी नाम का वृक्ष है। वहाँ चिड़ियांयमली चील एवं भारण्ड पक्षी निवास करते हैं । उस वृक्ष के पंच वर्णों फूल एवं मधुर रस वाले अमूल्य फल हैं, जहाँ देव-देवी नाटक-क्रीडादि करते हैं। वह वक्ष दिन में रस छोड़ता है, जिससे स्नान करने पर तुम अपना पुरुष-रूप पुनः प्राप्त कर सकोगे । हे शुक ! तुम मेरे स्वामी हो, मैं तुम्हारा रक्षक हूँ। शुक ने देव के कथनानुसार रस-स्नान करके अपना प्रकृत मानव देह प्राप्त कर लिया। बादलों की ओट से निकले हुए सूर्य की भाँति शुकराज का तेजस्वी रूप देखकर राजकुमारी अत्यन्त हर्षित हुई और उसकी सखियाँ वारणा लेती हुई लँछणा करने लगी। सहेली के भवन में सर्वत्र हर्ष का साम्राज्य छा गया । __ शुकराज और सहेली का मनोवांछित पूर्ण हुआ। कुल देवता की प्रसन्नता पूर्वकृत पुण्य के प्रभाव से घर बैठे सज्जन-मिलाप हो गया। वे दोनों देवों की भाँति सुखों का विलास करते हुए काल निर्गमन करने लगे। एक बार वसन्त ऋतु के समय वे क्रीड़ा कर रहे थे। शुकराज ने देखा कौवे के यहाँ एक हँसी गृहिणी थी, वे दोनों केलि करते थे। कौवे की आज्ञा पालन में हँसी तत्पर थी। जैसे वह कहता, हंसी करती, उसके लिये चुन-पानी प्रस्तुत करती। तारुण्य जाति-कुजाति नहीं देखता । धिक्कार है इस काम विडम्बना को इस प्रकार सद्गुरु उपदेश है कि नारी रूपी दीपक में पुरुष फतिंगें की भाँति गिरकर अपना नाश करता है। कामरूपी सरोवर पाप-जल पूरित है, जिसमें सारा जगत् डूबा हुआ है। दही विलोने पर मक्खन की भाँति विरले ही व्यक्ति तिर कर निकलते है, जहां स्त्री है, वहाँ मृगपाश है। मेरे Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ श्रमण, जुलाई-दिसम्बर, १९९१ जैसा व्यक्ति भी मोहमुग्ध होकर कीचड़ में पड़ा है और चिन्तामणि रत्न जैसा मानव-भव खो रहा है । इस प्रकार हंसी और काक के स्वरूपों को देखकर प्रतिबोध प्राप्त शुकराज ने संसार त्यागकर चारित्र स्वीकार कर लिया। उसने लाख वर्ष तपस्या करके स्वर्ग-विमान में अवतार लिया। कवि सहजसुन्दर वाचक कहते हैं कि जो शुकराज का चारित्र पढ़ेगा, सुनेगा वह सुख प्राप्त करेगा। जिस सूडा सहेली रास का कथासार ऊपर दिया गया है, वह १६० ( अन्य प्रति में १६७ ) पद्यों की रचना है। सोलहवीं शती में लिखित इस प्रेमकथा की परम्परा प्राचीन प्रतीत होती है। कवि ने किस ग्रन्थ के आधार से ली या मौखिक लोककथा को अपनाया वह अन्वेषणीय है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम्मत आत्मस्वरूप का अन्य भारतीय दर्शनों से तुलनात्मक विवेचन -डॉ० (श्रीमती) कमला पंत आत्मज्ञान जीवन और दर्शन का आधार है । आत्मा के बिना ये दोनों ही निष्प्राण हो जाते हैं। मनु के शब्दों में " आत्मज्ञान श्रेष्ठ ज्ञान, प्रथम विद्या एवं अमृत ( जन्म-मरण चक्र से छूटना ) है । " आत्मा के विषय में समग्र भारतीय दार्शनिक एकमत हैं, किन्तु आत्म स्वरूप को सभी ने अपने-अपने दृष्टिकोण से व्याख्यायित किया है । चार्वाक देह, इन्द्रिय, प्राण अथवा मन को आत्मा मानते हुए अपनी भौतिकवादी दृष्टि का परिचय देते हैं । बौद्धों के अनुसार जीवात्मा पञ्चस्कन्धात्मक, विज्ञान प्रवाहरूप, क्षणिक, शून्य एवं अपरिमाणी होता है ।' न्याय, वैशेषिक, मीमांसक एवं जैन आत्मा को नित्य द्रव्य मानते हैं किन्तु ज्ञान को आत्मा का आगन्तुक गुण या नित्य गुण मानने के विषय में जैन दर्शन का न्यायादि से पृथक् विचार है । सांख्य, ५ योग एवं अद्वैत वेदान्त आत्मा को ज्ञानस्वरूप कहते हैं । द्वैत वेदान्ती, विशिष्टाद्वैतवादी, नैयायिक एवं वैशेषिक ज्ञान को आत्मा का ४ ६ १. मनुस्मृति, १२८५ २. द्रष्टव्य- वेदान्तसार ( आत्मा सम्बन्धी मत ) इन मतों के निरास हेतु द्रष्टव्य-न्यायमञ्जरी, द्वितीय भाग तथा न्यायकुसुमाञ्जलि १।१५ ३. सर्वदर्शन संग्रह, कारिका २३ एवं लंकावतार सूत्र, २।९९-१०० ४. वैशेषिकसूत्र १।१।५ एवं मानमेयनेदय, द्रव्य प्रकरण पृ० १५१ ५. आत्मनो ज्ञानस्वरूपत्वम् । – योगवार्तिक, पृ० २१४ एवं सांख्यकारिका, " ११, १७ ६. (क) विज्ञानमानन्दं ब्रह्म । - बृहदारण्यकोपनिषद्, ३।९।२८ (ख) तैत्तिरीयोपनिषद्, २४, ३-६ शोधछात्रा (संस्कृत विभाग), कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल (उ.प्र.) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ गुण स्वीकार करते हैं। इसके विपरीत सांख्य, योग और अद्वैत वेदान्त ने आत्मा को निर्गुण कहा है। भारतीय दर्शनों में आत्मा का चैतन्य से सम्बन्ध, (नित्य या संयोग), नित्यता, परिमाण, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, अनेकत्व, एकत्व एवं इसकी मोक्ष-स्थिति के विषय में पर्याप्त भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। प्रस्तुत लेख में आत्मा के विषय में जैन दर्शन एवं अन्य भारतीय दर्शनों की तुलना करते हुए जैन दर्शन की समन्वयात्मकता एवं वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। चार्वाकों समेत सभी दार्शनिकों ने आत्मा को चैतन्य से सम्बद्ध स्वीकार किया है।' न्याय, वैशेषिक एवं मीमांसा के अनुसार चैतन्य आत्मा से पृथक् हो सकता है, अर्थात् मोक्षावस्था में जीव चैतन्य रहित हो जाता है। जैन दर्शन न्यायादि के समान ज्ञान को आकस्मिक गुण नहीं मानता। वह न्यायादि की तरह ज्ञान को आत्मा का गुण तो मानता है किन्तु ऐसा गुण जो आत्मा से किसी भी दशा में विमुक्त नहीं हो सकता है क्योंकि चैतन्य जीव का अनिवार्य लक्षण है। एक तरह से जैनसम्मत आत्मा ज्ञानस्वरूप ही है। आत्मा ज्ञान रूप होने से ज्ञान प्रमाण है एवं ज्ञान समस्त ज्ञेयों को जानने के कारण ज्ञेयप्रमाण है। समस्त लोकालोक के ज्ञेय होने से ज्ञान सर्वगत हो जाता है। न्याय, वैशेषिक एवं मीमांसा दर्शन में स्वीकृत आत्मा द्रव्य से अनेकत्व एवं द्रव्यवाद के कारण जैनसम्मत आत्मतत्त्व के समान प्रतीत होती है किन्तु ज्ञान गुण से इनमें स्पष्ट भेद हो जाता है। जैनसम्मत आत्मा न्यायादि की तरह ज्ञान गुण से पृथक् नहीं हो सकता है फिर भी ये बौद्धों के समान जीव और ज्ञान को एकरूप नहीं कहते हैं। अन्यथा ये ज्ञान को ही जीव कह देते। ये सांख्य एवं अद्वैत वेदान्त के समान ज्ञान को (एक प्रकार से ) आत्मा का स्वरूप ही मानते हैं । साथ ही सांख्य महत् (बुद्धि)को प्रकृति का विकार मानता है १. चैतन्यविशिष्ट: कायः पुरुषः---चार्वाक सूत्र २. न्यायमञ्जरी, पृ० ७७ (मुक्तात्मा के स्वरूप से सम्बद्ध श्लोक) भारतीय दर्शन बलदेव उपाध्याय, पृ० ५८८ में उद्धृत ३. चैतन्यलक्षणो जीवः । ---षड्दर्शन समुच्चय, कारिका ४९ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम्मत आत्मस्वरूप का अन्य भारतीय दर्शनों से तुलनात्मक विवेचन ३७ और पुरुष को सदैव निर्विकार । सांख्यसम्मत पुरुष स्वयं को भ्रमवश कर्ता और भोक्ता समझता है। जैन दर्शन का ज्ञाम और आत्मा के विषय में समन्वयात्मक विचार प्रतीत होता है।' जीव और ज्ञान परस्पर न इतने भिन्न हैं कि मुक्त जीवों को ज्ञानरहित जड़ पदार्थ कह दिया जाए न इतने अभिन्न हैं कि जीव को ज्ञान मात्र मान लें । जीव ज्ञान से भिन्न भी है और अभिन्न भी। वस्तुतः यह शुद्ध चैतन्य रूप ही है। जीव की नित्यता के विषय में चार्वाक एवं बौद्धों को छोड़कर अन्य सभी दार्शनिक विचारकों में मतैक्य है किन्तु नित्य आत्मा कर्मबन्धनों के कारण बार-बार जन्म लेता और मरता रहता है अर्थात् विभिन्न देहादि रूप वस्त्रों को बदलता रहता है। उत्पत्ति और विनाश शरीर का धर्म है जीव का नहीं। देह में स्थित होने से आत्मा को अनित्य कहा जाता है। जन्म-मरण का चक्र कर्मबन्धनों से मुक्त होने तक चलता रहता है । जीव बौद्धों के विज्ञान एवं शून्य के समान क्षणिक एवं शून्यमात्र नहीं है । जैनों के आत्मा की नित्यता की तुलना गीता (२।२४) के विचारों से की जा सकती है। ___ संक्षेप में आत्मा की नित्यता, जन्म-मरण ( देहधर्म ), पुनर्जन्मादि के विषय में भारतीय दर्शनों में मतैक्य है। कुछ वैज्ञानिक भी आत्मा की नित्यता के समर्थक हैं। वैज्ञानिक पी० गेड्डेस लिखते हैं कि कुछ ऐसे विद्वानों ने जिनकी मान्यता "मिडीयोराइट वेहिकल थ्योरी" में है--यह सुझाव दिया है कि जीवन उतना ही पुराना है जितना कि जड़ । ____ जीव के कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व के विषय में मतान्तर हैं। नैयायिक एवं वैशेषिक जीवात्मा का कर्तृत्व सत्य स्वीकार करते हैं किन्तु रामा१. Commentary on Sad-Darsana Samuccaya, Prof. Murty (karika 48) p. 63 २. बृहद्व्यसंग्रह, गाथा ३ पर श्री ब्रह्मदेव जी की टीका ३. गीता, २।३० -8. Some authorities who have found satisfaction in the Metheorite Vehicle-Theory have also suggested that life is as old as matter. ---Evolution, p. 70 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ श्रमण , जुलाई-सितम्बर, १९९१ नुज एवं मध्व सम्प्रदाय वाले उसे सत्य होने पर भी नैमित्तिक मानते हैं स्वाभाविक नहीं। सांख्य एवं योग के मतानुसार प्रकृति में वास्तविक कर्तृत्व होने पर भी प्रकृति के संयोग से जीवात्मा में कर्ता होने की प्रतीति होती है अर्थात् आत्मा कर्ता नहीं है। जिस रूप में जीवात्मा कर्ता है उसी रूप में भोक्ता भी है। अद्वैत वेदान्ती कुछ उपाधियों के कारण आत्मा में कर्तृत्व की मिथ्या प्रतीति मानते हैं। जैनों के मत में आत्मा स्वयं कर्ता और भोक्ता है। सांख्य, योग और अद्वैत वेदान्त जीव का कर्तृत्व और भोक्तृत्व मिथ्या मानते हैं एवं न्याय, वैशेषिक एवं मीमांसा में जैनों की तरह आत्मा का कर्ता एवं भोक्ता होना सत्य माना गया है। कुछ विद्वानों के अनुसार आत्मा को यथार्थतः कर्ता और भोक्ता स्वीकार करने से यह उच्चस्तरीय न होकर भौतिक स्तर पर ही रह जाता है। वस्तुतः निश्चयनय से जीव द्रव्य मात्र शुद्ध चैतन्य ( ज्योति मात्र ) है। व्यवहार नय से उसका कर्ता एवं भोक्ता होना यथार्थ है। जैन दार्शनिक यथार्थ को अनदेखा नहीं करते क्योंकि संसार में सजीव देह ही कर्ता और भोक्ता दिखाई देता है एवं जड़ देह में चैतन्य सर्वानुभूत है। अतः जैनसम्मत जीव द्रव्य को एकान्ततः भौतिक स्तरीय कहना न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता है क्योंकि निश्चयनय की दृष्टि से शुद्ध चैतन्य रूप जीव शांकरवेदान्त के ब्रह्म की तरह अकर्ता, अभोक्ता एवं सच्चिदानंद रूप ही है । ____ आत्मा के परिमाण की दार्शनिकों ने विभिन्न कल्पनायें की हैं। बौद्धों के अनुसार विज्ञान प्रवाह होने से आत्मा का कोई परिमाण नहीं होता है । न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग एवं अद्वैत वेदान्त जीवात्मा को 'विभु' कहते हैं । इसके विपरीत रामानुज, मध्व और वल्लभ सम्प्रदाय १. भारतीय दर्शन, उमेश मिश्र, पृ० १३२ २. प्रवचनसार, ११५३, ५४, ६१, ६८, २०३० ३. (क) भाषा परिच्छेद, प्रत्यक्ष खण्ड, कारिका-२६, तर्कसंग्रह (अन्नंभट्ट पाद) पृ० १० (ख) वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली, श्लोक-२२ (ग) ब्रह्मसूत्र भाष्य, १।२।१ (भेदाभेदवादी) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम्मत आत्मस्वरूप का अन्य भारतीय दर्शनों से तुलनात्मक विवेचन ३९ वाले जीव को अणु परिमाणी मानते हैं। चार्वाक, शून्यवादी एवं जैन आत्मा को अणु एवं विभु के बीच में रखते हैं । जैन दार्शनिक आत्मा को सर्वव्यापी एवं अणुरूप न मानकर इनके बीच का मार्ग अपनाते हैं। जैनसम्मत जीव द्रव्य लोकाकाश के समान असंख्यात प्रदेशों का धारक होते हुए भी संसार दशा में देहव्यापी अथवा मध्यम परिमाणविशिष्ट हो जाता है। जिसका जैसा शरीर ( छोटा, मध्यम, बड़ा) होगा उतने ही आकार की आत्मा हो जायेगी। जीव को देहव्यापी मानने के कारण जैनों की आलोचना भी की जाती है किन्तु यह आलोचना उचित नहीं लगती है क्योंकि चैतन्य न तो शरीर से बाहर पाया जाता है और न ही शरीर में किसी एक स्थान पर ही मिलता है। चैतन्य तो विद्युत प्रवाह की भाँति समस्त देह में व्याप्त है कर्तृत्व, भोक्तृत्व, सुखदुःखादि, बन्ध एवं मोक्षादि की व्यवस्था जीव को स्वशरीरव्यापी मानने पर ही सम्भव है सर्वव्यापी और अणु मानने पर नहीं। जैनों ने समुद्घातावस्था में चैतन्य का शरीर से बाहर जाना भी स्वीकार किया है वस्तुतः छोटा या बड़ा होना तो देह का धर्म है आत्मा का नहीं। आत्मा तो प्रकाशमात्र है। जिस स्थान पर आत्मा रूप दीपक स्थित होगा, बाधा न होने पर उस स्थान को प्रकाशित करेगा। वैसे जैन दार्शनिक भी ज्ञान की अपेक्षा से आत्मा को सर्वगत ही मानते हैं किन्तु व्यवहारनय से यथार्थ की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती है। जैनों का आत्मा सांख्य, योग एवं अद्वैत वेदान्त के समान चैतन्य से सदा अविच्छिन्न होते हुए भी न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग और मीमांसा के समान यथार्थतः अनेक है। महावीर का कहना है कि आकाश की तरह एक ही जीव की सत्ता के समर्थक यथार्थवादी नहीं हैं । आकाश एक है किन्तु जीव प्रत्येक पिण्ड में भिन्न होते हैं अतः उन्हें सब जगह एक नहीं माना जा सकता है। एक जीव होने पर सुख, इन्द्रियादि की व्यवस्था सम्भव नहीं है। ईश्वर कृष्ण का भी यही विचार है। १. बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा-१० पर श्री ब्रह्मदेव जी की टीका, प्रज्ञापना सूत्र, ३२९-३४९ २. प्रवचनसार-१।२३, तत्त्वार्थ सूत्र-५।१६, बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा-१० ३. सांख्यकारिका, १८ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ जैनों के अनुसार लक्षण ( चैतन्य ) की दृष्टि से सभी जीव समान हैं. किन्तु प्रत्येक शरीर में विशेष-विशेष उपयोग ( ज्ञान-दर्शन ) का अनुभव होता है। उपयोग के उत्कर्ष-अपकर्ष के तारतम्य से असंख्य भेद हो जाने के कारण जीवों की संख्या अनन्त है।' आत्मा स्वभाव से अमूर्त है एवं उसका कार्मण शरीर परमाणु के समान सूक्ष्म होता है। इसलिए शरीरों में प्रविष्ट होते और निकलते समय नहीं दिखाई देता है। वेदान्तियों ने संसार दशा में एक ही जीव का अनेकत्व स्वीकार किया है । वेदों एवं उपनिषदों के अनुसार एक तत्त्व (प्रजापति या ब्रह्म) समस्त सृष्टि का रचयिता है और विभिन्न जीवों में प्राण के रूप में स्थित है ।वह अच्छे-बुरे कर्मों से अप्रभावित रहता है। इसके बाद कहा है कि भूतात्मा वास्तविक कर्ता है जो प्रकृति के प्रभाववश अनेक हो जाता है। प्रथम स्थिति ईश्वरवाद की ज्ञापक है । दूसरी स्थिति सांख्य के प्रभाव से प्रथम स्थिति का सुधार अथवा रूपान्तर है। दूसरी स्थिति जैनों के विचार के अधिक समीप है यद्यपि जैन किसी ऐसे एक आत्मा का अस्तित्व नहीं मानते जो अनेक होने में समर्थ हो ।६ ___अद्वैतवेदान्त के सर्वथा विपरीत जैनों ने मोक्ष दशा में भी स्वसम्मत सत् ( अनेकान्तात्मक एवं त्रिकालाबाधित ) चित् (चैतन्यमय होने से )-आनन्दमय ( ज्ञान से अलौकिक सुख के अभिन्न होने से ) आत्मा का अनेकत्व स्वीकार किया है। जीव द्रव्य किसी एक परमात्मा १. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-१५८१-३ २. वही, १६८३ ३. अस्ति आत्मा जीवाख्यः शरीरेन्द्रियपजराध्यक्षः कर्मफलसम्बन्धी । शाङ्करभाव्य, १।३।१७ ४. ऋग्वेद-१०।१२१, अथर्ववेद-१०१७।८, गीता-१३।३३, बृहदारण्यकोपनिषद्-३।८।८ ५. History of Indian Philosophy, Creative period (Belvalkar ___and Ranade), p. 337 प्रवचनसार पर टिप्पणी और आंग्लानुवाद, डॉ आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय, पृ० ६६ ७. उत्पादव्ययध्रौव्युक्त सत् । -तत्वार्थसूत्र ५।२९ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम्मत आत्मस्वरूप का अन्य भारतीय दर्शनों से तुलनात्मक विवेचन ४१ ब्रह्म या ईश्वर का अंश नहीं हैं। सभी जीवों का (स्वरूपगत समानता होते हुए भी) स्वतन्त्र अस्तित्व है । जैन दर्शन में जीवों पर किसी परमात्मा का नियन्त्रण नहीं है। मुक्त होकर अर्थात् अपने यथार्थ स्वरूप को पाकर सभी जीव परमात्मा हो जाते हैं।' सिद्ध जीव ही पूज्य हैं एवं कर्ममुक्त होने पर आत्मा स्वयंभू हो जाता है। यही उसका ईश्वरत्व या दिव्यत्व ( अनन्त ज्ञान, दर्शन एवं वीर्य की प्राप्ति) है। अद्वैत वेदान्त में आत्मा को नित्य, निरुपाधिक, एक, निरवयव एवं व्यापक कहा गया है। परन्तु संसार दशा में जीव रूप होकर यही अनित्य, सोपाधिक, अनेक, सावयव, मन-बुद्धि-अहंकारवश प्रत्येक देह में ही व्याप्त माना गया है। इसे व्यक्तिगत चैतन्य भी कहते हैं क्योंकि एक सर्वव्यापी चैतन्य प्रतिशरीर में अंशरूपेण रहता है । जैनसम्मत आत्मा की ( अनेकत्व को छोड़कर ) वेदान्त के आत्मसिद्धान्त से समानता दिखायी देती है। जैन दर्शन निश्चयनय से आत्मा को नित्य, अमूर्त, निरुपाधिक, ज्ञानरूप होने से व्यापक इत्यादि कहता है और संसार दशा में इसी आत्मा को सोपाधिक (कर्मपुद्गलों से सम्बद्ध ), अनित्य, देहपरिमाणी आदि शब्दों से सम्बोधित करता है। जैन दार्शनिकों ने जीवों एवं जड़ पदार्थों की पृथक-पृथक् सत्ता स्वीकार कर ( न्याय, वैशेषिक एवं मीमांसा के समान ) यथार्थ एवं आदर्श दोनों की मर्यादा रखी है। सांख्य के पुरुष से जैनसम्मत आत्मा की तुलना की जा सकती है लेकिन यहाँ भी पर्याप्त मत-वैषम्य प्रतीत होता है। जैनों का आत्मा द्रव्य, सांख्य एवं वेदान्त के आत्मा के समान सर्वदा मुक्त नहीं है। न ही जैन “योग-दर्शन' की तरह अनादि युक्त एक परमात्मा के १. यः परमात्मा स एवाऽहं योऽहं स परमस्ततः । अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ॥ ---समाधिशतक, ३१ २. बृहदारण्यकोपनिषद्, ३।४।१, प्रश्नभाष्य-६।२ ( शङ्करकृत ) ऐतरेय भाष्य, २११ ३. वेदान्तसार (सदानन्द) ४. बृहद्रव्यसंग्रह गाथा-६, ८, ९ और १३ ५. सांख्यप्रवचनभाष्य-१७२, सांख्यसूत्र-३१६५, हस्तामलक स्तोत्र-१० Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९९ समर्थक हैं।' उनके मत में सभी ( मुक्त जीव ) परमात्मा प्रारंभ में कर्मोपाधि से युक्त थे। जैनों ने आत्मा के कर्मबन्ध को वास्तविक माना है । सांख्य के पुरुष का प्रकृति से अपने संयोग को अज्ञान या भ्रम से सत्य समझ बैठना युक्तिसंगत नहीं लगता है। जैन मतानुसार जीव सर्वदा मुक्त न होने पर भी मुक्त हो सकता है क्योंकि उसमें कर्मबन्ध से छुटकारा पाने की असीम शक्ति है। सांख्य में आदर्शवादिता है किन्तु जैन मत में आदर्श के साथ-साथ यथार्थ का पुट भी प्राप्त होता है। जैन दार्शनिक पृथिवी, जल, तेज एवं वायु के कण-कण में जीवन की सत्ता मानते हैं । आधुनिक विज्ञान भी इस विचार का पक्षपाती है कि सम्पूर्ण जगत ऐसी व्यवस्था हैं जो कहीं न कहीं जीवन से सम्बन्धित हैं। अमीबा से लेकर मनुष्य तक सर्वत्र जीवन का झरना बहता है। कहीं-कहीं वह वेगहीन है तो कहीं वेगवान भी है। भावनायें, कल्पनायें आदि प्रवत्तियाँ एवं अन्यचेतन दशा इसी के अन्तर्गत हैं। जैन भी मानते हैं कि शुद्ध जीवत्व पर पड़े कषायावरण के मोटे, पतले या झीने होने से ज्ञान की अभिव्यक्ति में अन्तर आ जाता है। उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि जैनों का आत्मा सम्बन्धी सिद्धान्त वैदिक दर्शनों के विचारों से अनेक स्थलों पर समानता रखता १. योगसूत्र १।२४, २५, २६ २. Samkhya Realism or Idealism, Dr. Belvalkar. Dayananda: Commemoration Volume, Ajmer, 1934 pp. 19-24 ३. पञ्चास्तिकाय, गाथा--११०, ११२, ११४-१७, बृहद्रव्यसंग्रह गाथा ११, १२ ४. Throughout the world of animal life there are expressi ons of something akin to the mind in ourselves. There is from Amoeba upwards a stream of inner and subjective life. It may be only a slender rill, but sometimes it is a strong current. It includes feeling, imagining, purposing. It includes unconscious. The Great Design, Sir J. A. Thomsan. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम्मत आत्मस्वरूप का अन्य भारतीय दर्शनों से तुलनात्मक विवेचन ४३ है किन्तु किसी एक दर्शन के विचारों से इसका पूर्ण साम्य नहीं है । जैनों ने आत्मा के सम्बन्ध में समन्वयात्मक एवं विशिष्ट सिद्धान्त को जन्म दिया है । उनका आत्मसिद्धान्त बौद्धों के विज्ञान, न्याय-वैशेषिक एवं मीमांसा के चैतन्यरहित ( मोक्षदशा में ) होने वाले आत्मा द्रव्य, सांख्य-योग के निर्विकारी, सर्वदा मुक्त पुरुष एवं अद्वैत वेदान्त के सच्चिदानन्दमय एक ब्रह्म के सिद्धान्तों से सर्वथा विशिष्ट है । इनका आत्मा सम्बन्धी विचार वैदिक दर्शनों से अनेकशः साम्य रखते भी अपनी विशिष्टता एवं मौलिकता बनाये हुए है । प्रमुख बात यह है कि आत्मा का विवेचन जैन दर्शन में निश्चयनय एवं व्यवहारनय से किया गया है । निश्चयदृष्टि से विचार करते समय जैन दर्शन सांख्य एवं वेदान्त के अत्यन्त निकट लगता है । इतना विशेष है कि अनेकान्तवादी एवं यथार्थवादी होने से वह व्यवहारनय को पूर्णतः नहीं नकारता; क्योंकि वह परिणामी नित्यता का समर्थक है, विवर्तवाद या कूटस्थ - नित्यता का समर्थक नहीं । वस्तु का निज स्वरूप कभी नहीं बदलता किन्तु पर्याय बदलते रहते हैं । इसीलिए जीव का चैतन्य कभी नहीं बदलता किन्तु उसमें पर्याय होते रहते हैं । आत्मा में कर्म, कर्तृत्व आदि भी उपचार से स्वीकृत हैं । जैनों के समान आधुनिक विज्ञान ने भी पेड़, पौधों, पृथिव्यादि के कणों में ( अस्पष्ट रूप में ) जीवत्व सिद्ध किया है । सुदूर अतीत में जबकि वैज्ञानिक परीक्षणों का सर्वथा अभाव था । इस विचार की उत्पत्ति जैन विचारकों की सूक्ष्म, यथार्थ एवं विश्लेषणपरक मनीषा की स्पष्ट परिचायक है । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश के जैन पुराण और पुराणकार अनेक भाषा शास्त्रियों के अनुसार अपभ्रंश भाषा मध्यकालीन प्राकृत की अन्तिम और वर्तमान भारतीय भाषाओं की आद्य अवस्थाओं के मध्य की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है । अपभ्रंश प्रायः सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी रही है अपभ्रंश से ही हिन्दी आदि भाषाओं का विकास हुआ, इस दृष्टि से इस भाषा के स्वरूप का बड़ा महत्त्व है । - रीता बिश्नोई अपभ्रंश का अर्थ है--जन बोली । जन बोली से अभिप्राय सामान्य लोगों की बोल-चाल की भाषा से है । वैयाकरणों की भाषा में अपभ्रंश का अर्थ अपशब्द है और अपशब्द का अर्थ है - ठीक से उच्चारित न होने वाले ( बिगड़े ) शब्द । लोक भाषा में इसका रूढ अर्थ है - गिरना, अथवा खिसकना । आचार्य भरतमुनि ने उकार बहुला कहकर जिस भाषा का परिचय दिया है, वह हिमाचल प्रदेश से लेकर सिन्ध तथा । समस्त उत्तर भारत में प्रचलित थी हिमवत् सिन्धु सौवीरान् ये जनाः समुपाश्रिताः । उकार बहुला तज्ज्ञस्तेषु भाषा प्रयोजयेत् ॥ P नाट्य शास्त्र, १७, ६२ । इससे स्पष्ट है कि अपभ्रंश बोलचाल की भाषा थी और इस उत्तर भारतीय बोली को ही वैयाकरणों ने अपभ्रंश नाम दिया है । अपभ्रंश मैं अनेक विधाओं में मानव जीवन से सम्बन्धित कई विषयों पर लिखा गया है यथा - मुक्तक, प्रबन्ध काव्य, चरित काव्य, कथा और पुराण आदि । जैन साहित्य में अपभ्रंश भाषा में अनेक पुराणों की रचना हुई । ये सभी पुराण जैन साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं । इन अपभ्रंश पुराणों में पौराणिक महापुरुषों अथवा अधिकतर त्रेसठ शलाकापुरुषों का जीवन चरित वर्णित है । बारह या तेरह: १. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ, पृ० ८ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ सन्धियों से लेकर लगभग सवा सौ सन्धियों तक के पुराण काव्य उपलब्ध होते हैं । यह एक विचित्र संयोग है कि संस्कृत की भाँति अपभ्रंश पुराण भी राम-कथा को लेकर प्रारम्भ होते हैं । यहाँ यह बात विशेष उल्लेखनीय है कि जैन अपभ्रंश साहित्य में एक ही नाम के अनेक पुराण उपलब्ध होते हैं जो कि विभिन्न आचार्यों द्वारा भिन्न-भिन्न शताब्दियों में लिखे गये हैं। इन पुराणों का पुराणकारों सहित परिचय इस प्रकार है अपभ्रंश साहित्य के सर्वाधिक चचित एवं यशस्वी महाकवि स्वयम्भू है। इनको अपभ्रंश पुराण साहित्य का आदि कवि माना जाता है। स्वयम्भू की कृतियों में मिले कतिपय उल्लेखों के आधार पर वे कर्नाटक के साहित्य घराने के पिता मारुतदेव और माँ पद्मिनी की सन्तान थे। इनकी दो पत्नियां थीं, जो साहित्य साधना में इनकी सहायिका थीं। त्रिभुवन इनके पुत्र थे, जिन्होंने इनकी अधूरी कृतियों को पूरा किया।' पं० नाथूराम प्रेमी के अनुसार इनका समय वि० सं० ७३४ से ८४० के बीच माना जा सकता है। जबकि डा० भायाणी ने इनका काल ८४०-९२० ई० अनुमानतः निर्धारित किया है। महाकवि स्वयम्भू रचित दो पुराण उपलब्ध होते हैं--'पउमचरिउ' तथा 'रिट्ठणेमिचरिउ' । स्वयम्भू द्वारा रचित पउमचरिउ को 'रामायण पुराण' भी कहते हैं। इसमें ९० सन्धियाँ हैं-विद्याधर काण्ड में २०, अयोध्या काण्ड में २२, सुन्दर काण्ड में १४, युद्धकाण्ड में २१ और उत्तर काण्ड में १३ । यह ग्रन्थ १२ हजार श्लोक प्रमाण है। इसमें ८३ सन्धियों की रचना स्वयम्भू देव ने की तथा शेष ७ सन्धि उनके पुत्र त्रिभुवन स्वयम्भू ने लिखी है। १. जैन विद्या, स्वयंभू विशेषांक, पृ० ३० २. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३८७ ३. जैन विद्या, अप्रैल १९८४, पृ० १० ४. जिनरत्नकोश, पृ० ३३२. ५. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान,पृ० १५३ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रश के के जैन पुराण और पुराणकार ४७ पउमचरिउ की हस्तलिखित प्रतियाँ श्री महावीर जी के जैन विद्या संस्थान'; भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इंस्टिट्यूट, पूना; आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर; दिगम्बर जैन गोदी का मन्दिर, साँगानेर, जयपुर तथा दिगम्बर जैन तेरापन्थी बड़ा मन्दिर जयपुर में उपलब्ध हैं।२ रिट्ठणेमिचरिउ कवि स्वयम्भू द्वारा महाभारत विषयक कथा को लेकर लिखा गया है। इस ग्रन्थ का मुख्य आधार कृष्ण और नेमिनाथ तीर्थङ्कर की कथा है। इसमें कुल ११२ सन्धियाँ (सर्ग) हैं तथा तीन काण्ड हैं--यादव, कुरु और युद्ध । इस ग्रन्थ की प्रथम ९९ सन्धियाँ स्वयम्भू कृत हैं और शेष उनके पुत्र त्रिभुवन स्वयम्भू कृत। यादब काण्ड में कृष्ण के जन्म, बालक्रीड़ा, विवाहादि का वर्णन; कुरु काण्ड में कौरव-पाण्डवों के जन्म, शिक्षण, परस्पर विरोध, द्यूत-क्रीड़ा तथा वनवास आदि का वर्णन तथा युद्ध-काण्ड में कौरव-पाण्डवों के बीच हुये युद्ध का रोचक वर्णन है। इस पुराण की रचना में कवि को ६ वर्ष ३ माह ११ दिन लगे थे। रिट्ठणेमिचरिउ की हस्तलिखित प्रतियाँ बम्बई के ऐलक पन्ना लाल सरस्वती भवन; पूना के भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट तथा सरस्वती भवन ब्यावर; जयपुर के दिगम्बर जैन छोटे दिवान जी मन्दिर और बधीचन्द्र दिगम्बर जैन मन्दिर" में उपलब्ध हैं। अपभ्रंश की प्रबन्ध काव्य धारा में महाकवि स्वयम्भू देव के पश्चात् जिस महाकवि को सर्वाधिक गौरव एवं प्रसिद्धि मिली है वे हैं महाकवि पुष्पदन्त। आप ईसा की दशवीं शताब्दी के विद्वान् हैं। महाकवि पुष्पदन्त काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे इनके पिता का नाम केशव भट्ट और माता का नाम मुग्धा देवी था। आरम्भ में कवि १. जैन विद्या, स्वयंभू विशेषांक, पृ० ३० २. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ, पृ० १३९ ३. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० १५७ ४. जैन विद्या, स्वयम्भू विशेषांक, पृ० ३१ ५. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ, पृ० १७५-१७६ ६. जैन साहित्य और इतिहास, ३०१-३०२ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ पुष्पदन्त शैवमतावलम्बी थे और इन्होंने भैरव नामक किसी शैव राजा की प्रशंसा में काव्य का प्रणयन भी किया था। बाद में पुष्पदन्त किसी जैन मुनि के उपदेश से जैन हो गये थे और मान्यखेट में आकर मन्त्री भरत के अनुरोध से जिन भक्ति से प्रेरित होकर काव्य सृजन में प्रवृत्त हुए । महाकवि पुष्पदन्त कृत केवल एक पुराण उपलब्ध होता है और वह है महापुराण । ४८ यशस्वी कवि पुष्पदन्त द्वारा रचित महापुराण अपभ्रंश भाषा की ऐसी विशिष्ट कृति है जिसमें जैन-धर्म, जैन दर्शन, संस्कृति, समाज एवं कला का सजीव चित्रण तो हुआ ही है, साथ ही हिन्दू धर्म में बहुमान्य राम एवं कृष्ण की कथाओं का भी विशद चित्रण हुआ है । यह महापुराण दो खण्डों में विभक्त है - - आदि पुराण और उत्तर पुराण | ये दोनों खण्ड अलग-अलग ग्रन्थ रूप में मिलते हैं । इन दोनों खण्डों में त्रेसठ शलाकापुरुषों के चरित वर्णित हैं । प्रथम खण्ड में आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव का तथा दूसरे खण्ड में शेष २३ तीर्थङ्करों का और उनके समययुगीन अन्य महापुरुषों नारायण, प्रतिनारायण बलभद्र आदि की जीवन गाथा वर्णित हैं । आदिपुराण में ८० और उत्तर पुराण में ४२ सन्धियाँ (सर्ग ) हैं । इनका श्लोक परिमाण २० हजार है । जिनरत्नकोष में पुष्पदन्त रचित अपभ्रंश महापुराण १०२ सन्धियों में विभक्त बतलाया गया है। पं० नाथूराम प्रेमी के अनुसार विभिन्न प्रमाणों से ज्ञात होता है कि शक सं० ८८१ में पुष्प - दन्त मेलपाटी में भरत महामय से मिले और उनके अतिथि हुए । इसी साल इन्होंने महापुराण शुरू करके उसे शक सं० ८८७ में समाप्त किया । महाकवि पुष्पदन्त कृत उत्तर पुराण में पद्मपुराण (रामायण) और हरिवंशपुराण (महाभारत) भी सम्मिलित हैं ये पृथक-पृथक ग्रन्थ रूप १. अपभ्रंश भाषा और साहित्य (डा० देवेन्द्र कुमार जैन ) पृ० ६८ २. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग ४, पृ० १०५ ३. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३१२-३१३ ४. जिनरत्नकोश, पृ० ३०२ ५. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३२८ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश के जैन पुराण और पुराणकार ४९ में भी प्राप्त हुए हैं। हरिवंशपुराण की हस्तलिखित प्रति भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट-पूना में उपलब्ध है तथा यह ग्रन्थ माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला समिति, बम्बई से वि०सं० १९९७ में प्रकाशित है। महापुराण की हस्तलिखित प्रतियाँ ला० द० शोध संस्थानअहमदाबाद तथा डा० कासलीवाल के अनुसार- भगवान दि० जैन मन्दिर अजमेर, दिगम्बर जैन बड़ा बीसपन्थी मन्दिर-दौसा, दि० जैन तेरह पन्थी मन्दिर-दौसा, दिगम्बर जैन सम्भवनाथ मन्दिर उदयपुर में उपलब्ध हैं । भट्टारकीय ग्रन्थ भण्डार--नागौर में भी इस पुराण की प्रतियाँ उपलब्ध हैं। ___ दसवीं शताब्दी में ही आचार्य पद्मकीति ने तेइसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के जीवन चरित को लेकर पार्श्वपुराण की रचना की। यह १८ सन्धियों में विभक्त है। इसकी रचना संवत् ९९२ में पूर्ण की गयी। कवि ने अपनी गुरु परम्परा में सेनसंध के चन्द्रसेन, माधवसेन और जिनसेन का उल्लेख किया है। डा० नेमिचन्द्र शास्त्री के अनुसार पार्श्वपुराण की समाप्ति शक सं०९९९ कार्तिक मास की अमावस्या को हुई है। इसमें नाना प्रकार के छन्दों से सुहावने ३१० कडवक तथा ३३२३ से कुछ अधिक पंक्तियाँ इस ग्रन्थ का प्रमाण है।६ पद्मकीर्ति कृत पार्श्वपुराण की हस्तलिखित प्रतियाँ दिगम्बर जैन दीवान जी मन्दिर, कामा; सरस्वती भवन; नागौर; आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर और दिगम्बर जैन ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन, ब्यावर में उपलब्ध हैं। महाकवि धवल भी दसवीं शताब्दी के विद्वान् हैं इनके द्वारा रचित हरिवंश पुराण १२२ सन्धियों में समाप्त हुआ है। इसमें कौरव१. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ, पृ० १७४ २. वही, पृ० १५६ ३. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डार की ग्रन्थ सूची (पञ्चम भाग) पृ० २९४ ४. भट्टारकीय दिगम्बर ग्रन्थ भण्डार सूची नागौर, भाग ३, पृ० २०२ ५. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० १५७ ६. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग ३, पृ० २०९-२१० ७. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ, पृ० १४७ ८. जिनरत्नकोश, पृ० ४६० Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ पाण्डव, श्रीकृष्ण आदि महापुरुषों का जीवन चरित्र वर्णित है। अपने विषय वर्णन के लिये कवि ने आचार्य जिनसेन कृत हरिवंश पुराण का आश्रय लिया। महाकवि धवल विप्रवर्ण के थे। उनके पिता का नाम सूर, माता का नाम केसुल्ल और गुरु का नाम अम्बसेन था । ग्रन्थ की उत्थानिका में इन्होंने अनेक आचार्यों और उनकी ग्रन्थ रचनाओं का उल्लेख किया है उसमें काल की दृष्टि से सबसे अन्तिम कवि 'असग' है जिन्होंने अपना 'वीर चरित' शक सं० ९१० ई० सन् ९८८ में समाप्त किया था अतः यही कवि के काल की पूर्वावधि है। सम्भवतः हरिवंश पुराण के रचना का काल १०वीं शती होगा।२ डा० नेमिचन्द्र शास्त्री के मत से धवल कवि का समय शक संवत् की १० वीं शती का अन्तिम पाद या ११वीं शती का प्रथम पाद सम्भव है। कवि धवल कृत हरिवंश पुराण की हस्तलिखित प्रतियाँ श्री दिगम्बर जैन नया मन्दिर, दिल्ली; तेरहपन्थी दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर शास्त्र भण्डार, जयपुर; बधीचन्द्र दिगम्बर जैन मन्दिर, जय पुर, दिगम्बर जैन मन्दिर पाटोदी शास्त्र भण्डार, जयपुर में उपलब्ध है। वि० सं० १०५० के लगभग हये कवि देवदत्त का नाम भी अपभ्रंश के रचयिताओं में मिलता है। कवि देवदत्त ने शान्तिनाथ पुराण की रचना की है। तेरहवीं शताब्दी में रचित पुराणों के अन्तर्गत अमरकीर्तिगणि कृत नेमिनाथ पुराण का उल्लेख जैन पुराणों में मिलता है। अपभ्रंशकाव्य के रचयिताओं में अमरकीर्तिगणि का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । कवि की मुनि, गणि और सूरि उपाधियाँ थी जिससे ज्ञात होता है कि वे गृहस्थाश्रम त्याग कर दीक्षित हो गये थे। उनकी गुरु परम्परा से १. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० १५५ २. वही, पृ० १५४-१५५ ३. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा, भाग ४, पृ० ११९ ४. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ पृ. १७४ ५. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग ४, पृ० २४३ ६. अपभ्रश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ, पृ० १८८ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ अपभ्रश के जैन पुराण और पुराणकार अवगत होता है कि वे माथुर संघी चन्द्रकीर्ति के मुनीन्द्र शिष्य थे। उनकी गुरु परम्परा इस प्रकार है- अमितगति-शान्तिसेन- अमसेन -श्रीषण-चन्द्रकीर्ति-अमरकीर्ति ।' ___ डा० नेमिचन्द्र शास्त्री के अनुसार अमरकीर्तिगणि कृत नेमिनाथ पुराण में २५ सन्धियाँ हैं जिनकी श्लोक संख्या ६८९५ है। इस ग्रन्थ को कवि ने वि० सं० १२४४ भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी को समाप्त किया है। वि० सं० १५१२ की इसकी प्रति सोनगिर के भट्टारकीय शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है। पन्द्रहवीं शताब्दी के अपभ्रंश भाषा के कवियों में महाकवि रइधू का नाम उल्लेखनीय है। रइधू काष्ठसंघ के माथुरगच्छ की पुष्करगणीय शाखा से सम्बन्ध थे। अपभ्रंश, संस्कृत और हिन्दी में इनकी ४० के लगभग रचनायें मिलती हैं। इनके पिता का नाम हरिसिंह, पितामह का नाम संघपति देवराज, माता का नाम विजयश्री तथा पत्नी का नाम सावित्री था, इनके एक पुत्र भी था जिसका नाम उदयराज था । डा० राजाराम जैन ने इनका समय वि० सं० १४५७१५३६ ( ई० १४००-१४७०) माना है। इनके द्वारा रचित अनेक पुराण उपलब्ध होते हैं १. पद्मपुराण-रामकथा को लेकर इन्होंने पद्मपुराण की रचना ई० श० १५ में की। इसमें रामकथा का जैन परम्परा के अनुसार वर्णन किया गया है। पद्मपुराण की हस्तलिखित प्रति आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर में उपलब्ध है।" २. हरिवंश पुराण-कौरव-पाण्डवों की कथा को लेकर इन्होंने इस हरिवंश पुराण की रचना की।६ डा० विद्याधर जोहरापुरकर के अनुसार रइधू कृत इस हरिवंशपुराण से पता चलता है कि इनका मठ १. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग ४, पृ० १५४-१५५ २. वही, पृ० १५८ ३. वही, पृ० १९८-१९९ ४. महाकवि रइधू के साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, पृ० १२० ५. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ, पृ० १४० ६. जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश, भाग ३, पृ० ४०३ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१' सोनागिरि में था।' इस पुराण में १४ सन्धियाँ तथा ३०२ कडवक हैं' जिनमें ऋषभदेव चरित, हरिवंशोत्पत्ति वसुदेव, बलभद्र, नेमिनाथ पाण्डवों आदि का वर्णन किया गया है। ___इस हरिवंश पुराण की हस्तलिखित प्रतियाँ कुरवाई (सागर) के जैन मन्दिर में तथा ब्यावर के सरस्वती भवन, तथा आगरा के जैन सिद्धान्त भवन में उपलब्ध हैं। ३. पावपुराण-तेईसवें तीर्थंकर पार्वपुराण के जीवन चरित को लेकर महाकवि रइध ने इस पार्श्वपुराण की रचना की। इसकी कथावस्तु ७ सन्धियों में विभक्त है। रइधु की समस्त कृतियों में अपभ्रंश भाषा का यह काव्य श्रेष्ठ, सरल एवं रुचिकर है। इस पार्श्व पुराण की हस्तलिखित प्रतियाँ ब्यावर के ऐ० पन्नालाल सरस्वती भवन, आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर और दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर, आगरा में उपलब्ध है।" डा० कासलीवाल के अनुसार दिगम्बर जैन मन्दिर बोसली कोटा में भी इस पुराण की प्रति उपलब्ध है। महाकवि रइधू विरचित 'महावीर पुराण' तथा 'बलभद्र' का भी उल्लेख मिलता है । 'महावीर पुराण' की हस्तलिखित प्रति कुंचा सेठ का दिगम्बर जैन मन्दिर दिल्ली में उपलब्ध है। तथा बलभद्र पुराण की हस्तलिखित प्रति आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर; ठोलियों का दिगम्बर जैन मन्दिर, जयपुर तथा धर्मपुरा दिगम्बर जैन मन्दिर, दिल्ली में उपलब्ध है। डा० राजाराम जैन ने विभिन्न स्रोतों के आधार पर अभी तक महाकवि रइधू की ३७ रचनाओं का अन्वेषण १. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ५९४ २. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग ४, पृ० २०२ ३. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ, पृ० १७५ ४. जिनरत्नकोश, पृ० २४६ ५. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ, पृ० १४६ ६. राजस्थान के जैन शास्त्र भंडारों की ग्रन्थ सूची (पंचम भाग) पृ० २९०. ७. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ, पृ० १५६ ८. वही, पृ० १४९ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भाषा के जैन पुराण और पुराणकार 'किया है । जिनमें पुराण साहित्य के अन्तर्गत रइधू कृत 'महापुराण' और 'मेहेसरचरिउ' अपर नाम आदिपुराण का उल्लेख भी मिलता है' । पन्द्रहवीं शताब्दी के कवियों में मुनि यशः कीर्ति का नाम भी उल्लेखनीय है । यशकीर्ति काष्ठसंघ माथुरगच्छ के गुणकीर्ति के के पट्टशिष्य थे | डा० विद्याधर जोहरापुरकर ने इनका समय संवत् १४८६-१४९७ माना है । पर गोपाचल के मूर्तिलेखों में इनका निर्देश वि० १५१० तक पाया जाता है अतएवं इनका समय वि० सं० पन्द्रहवीं शती का अन्तिम भाग तथा सोलहवीं शती का पूर्वभाग है । मुनि यश: कीर्ति भट्टारक द्वारा रचित अपभ्रंश भाषा में दो पुराण उपलब्ध होते हैं - हरिवंश पुराण और पाण्डव पुराण । १. हरिवंश पुराण - इस हरिवंश पुराण में १३ सन्धियाँ (सर्ग ) और २७१ कडवक हैं जिनमें हरिवंश की उत्पत्ति आदि का वर्णन किया गया है । यह पुराण वि० सं० १५०० या १५२० में रचित है । यह योगिनीपुर, दिल्ली में अग्रवालवंशी व गगंगोत्री दिउढा साहू की प्रेरणा से लिखा गया था । ५३ यशःकीर्ति कृत इस हरिवंश पुराण की हस्तलिखित प्रतियाँ दिल्ली पंचायती दिगम्बर जैन मन्दिर, जयपुर के दिगम्बर जैन तेरहपन्थी बड़ा मन्दिर दिगम्बर जैन पटोदी मन्दिर, ठोलियों का दिगम्बर जैन शास्त्र भण्डार, आमेर शास्त्र भण्डार, नागौर का दिगम्बर जैन सर - स्वती भवन, उदयपुर के दिगम्बर जैन मन्दिर, सम्भवनाथ, और ब्यावर के सरस्वती भवन में उपलब्ध हैं । २ पाण्डव पुराण - यशःकीर्ति ने पाण्डव पुराण की रचना वि० सं० १४९७ में की है । इस पुराण में ३४ सन्धियाँ हैं जिनमें पांचों पाण्डवों पृ० ४९ १. महाकवि रइधू के साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, २. भट्टारक सम्प्रदाय, पृ० २४६ ३. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग ३, पृ० ४१० ४. वही, पृ० ४११ ५. भारतीय संस्कृति के विकास में जैन कवियों का योगदान, पृ० १५५ ६. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ, पृ० १७४- १७५ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ और कौरवों के साथ श्री कृष्ण का चरित भी अंकित किया गया है। रचना की भाषाशैली प्रौढ़ है । इस ग्रन्थ की रचना मुवारिक शाह के राज्यकाल में साधु वील्हा के पुत्र हेमराज की प्रेरणा से की गयी है। इस पुराण की हस्तलिखित प्रतियाँ जयपुर के आमेर शास्त्र भंडार, दिल्ली के पंचायती दिगम्बर जैन मन्दिर, ब्यावर के दिगम्बर जैन ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन तथा दौसा के दिगम्बर जैन तेरहपन्थी मन्दिर में उपलब्ध हैं । हरिवंश पुराण और पाण्डव पुराण के रचयिता भट्टारक यशःकीर्ति साधु थे और साधु होने की वजह से स्थान-स्थान पर बिहार करते रहते थे । इन दोनों ग्रंथों की रचना इन्होंने नागौर और उदयपुर में की थी। पन्द्रहवीं शताब्दी में ही अपभ्रंश भाषा में रचित एक अन्य हरिवंश पुराण जैन साहित्य में उपलब्ध होता है। यह पुराण आचार्य श्रुतकीर्ति द्वारा रचित है। इसमें ४४ सन्धियों (सर्ग) में कौरव-पाण्डव आदि का वर्णन किया गया है। डा० हीरालाल जैन के अनुसार यह पुराण वि० सं० १५५३ में पूर्ण हुआ। लेकिन डा० विद्याधर जोहरापुरकर के अनुसार भट्टारक त्रिभुवन कीर्ति के शिष्य श्रुतकीर्ति ने सं० १५५२ में ग्यासुद्दीन के राज्य काल में जेरहट में हरिवंश पुराण लिखा । डा० नेमिचन्द्र शास्त्री के अनुसार जेहरट नगर के नेमिनाथ चैत्यालय में हरिवंश पुराण की रचना वि० सं० १५५२ माघ कृष्ण पञ्चमी सोमवार के दिन हस्त नक्षत्र में की थी। ___ श्रुतकीति कृत इस हरिवंश पुराण की हस्तलिखित प्रतियाँ आमेर शास्त्र भण्डार जयपुर, जैन सिद्धान्त भवन, आरा, और दिगम्बर जैन ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन, ब्यावर में उपलब्ध हैं। १. तीर्थकर महावीर ओर उनकी आचार्य परम्परा, भाग ३, पृ० ४११ २. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ, पृ० १४५-१४६ ३. जैन विद्या नवम्बर ८५, पृ० ३ ( प्रास्ताविक से उद्धृत ) ४. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० १५५ ५. भट्टारक सम्प्रदय, पृ० लेखांक ५२३ ६. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग ३, पृ० ४३१, ७. अपभ्रंश भाषा और साहित्न की शोध प्रवृत्तियाँ, पृ० १७६. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रश के जैन पुराण और पुराणकार सोलहवीं शताब्दी में दूसरे तीर्थङ्कर के चरित को लेकर विजयसिंह द्वारा अजितनाथ पुराण की रचना की गयी। कवि विजय सिंह ने अजित पुराण की प्रशस्ति में अपना परिचय दिया है। कवि के पिता का नाम दिल्हण और माता का नाम राजमति था। कवि ने अपनी गुरु परम्परा का निर्देश नहीं किया है। अजित पुराण की समाप्ति वि०सं० १५०५ कार्तिक पूर्णिमा के दिन की है। इस ग्रन्थ में १० सन्धियाँ हैं। इस ग्रंथ की रचना कवि ने महाभव्य कामराज के पुत्र पण्डित देवपति की प्रेरणा से की है। इस पुराण की हस्तलिखित प्रतियाँ श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, जयपुर तथा दिगम्बर जैन शास्त्र भण्डार, मौजमाबाद (जयपुर) में उपलब्ध हैं। सोलहवीं शताब्दी में ही महिन्दु कृत शान्तिनाथ पुराण का उल्लेख जैन साहित्य में मिलता है। कवि महिन्दु या 'महीचन्द्र' इल्लराज के पुत्र हैं। इससे अधिक इनके परिचय के सम्बन्ध में कुछ भी प्राप्त नहीं होता है । अपने ग्रन्थ शान्तिनाथ पुराण की प्रशस्ति में कवि ने योगिनपुर ( दिल्ली ) का सामान्य परिचय कराते हुए काष्ठसंघ के माथुरगच्छ और पुष्करगण के तीन भट्टारकों का नामोल्लेख किया है-यशःकीर्ति, मलयकीर्ति और गुणभद्रसूरि । भट्टारकों की उपयुक्त परम्परा अंकन से यह ध्वनित होता है कि कवि महीन्दु के गुरु काष्ठसंघ माथुरगच्छ और पुष्कर गण के आचार्य ही रहे हैं। तथा कवि का सम्बन्ध भी उक्त भट्टारक-परम्परा के साथ है। कवि ने ग्रन्थ की रचना काल स्वयं ही बतलाया है कि इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १५८७ मुगल बादशाह बाबर के राज्यकाल में समाप्त हई । शान्तिनाथ पुराण की कथावस्तु १३ परिच्छेदों में विभक्त है। पद्य-प्रमाण ५००० के लगभग हैं । १. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग ४, पृ० २२७ २. वही, पृ० २२८ ३. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ, पृ० ११३-११४ ४. वही, पृ० १९० ५. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग ४, पृ० २२५ ६. वही, पृ० २२६ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ १६ वीं शताब्दी में ही कवि शाह ठाकुर अपभ्रंश भाषा के प्रसिद्ध कवि हुए हैं। ___ कवि ठाकुर ने शान्तिनाथ पुराण की प्रशस्ति में अपना परिचय दिया है। अपनी गुरु परम्परा में बताया है–भट्टारक पद्मनन्दि की आम्नाय में होने वाले भट्टारक विशालकीर्ति के शिष्य थे । इन्के पितामह का नाम साह सील्हा और पिता का नाम खेत्ता था। ये खण्डेलवाल जाति के थे तथा गोत्र लोहडिया था यह लोवा इणिपुर के निवासी थे । इनके द्वारा रचित दो पुराण उपलब्ध है -- १. शान्तिनाथ पुराण-इस पुराण में ५ सन्धियाँ हैं जिनमें १६वें तीर्थंकर शान्तिनाथ का जीवन वृत्त वर्णित है इसकी रचना वि० सं० १६५२ भाद्रपद शुक्ल पंचमी के दिन चकत्तावंश जलालुद्दीन अकवर बादशाह के शासनकाल में पूर्ण हुई थी। २ महापुराण कलिका—इस पुराण में २७ मन्धियाँ है जिनमें ६३ शलाकापुरुषों की गौरव कथा गुम्फित है। इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १६५० में मानसिंह के शासन में ही हुई थी। ठाकुर द्वारा रचित “शान्तिनाथ पुराण" की हस्तलिखित प्रति आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर में उपलब्ध है। इनके अतिरिक्त कवि देवचन्द्र कृत "पासपुराण' की हस्तलिखित प्रति सरस्वती भवन, नागौर में उपलब्ध है। इस प्रकार हम पाते हैं कि अपभ्रंश भाषा में उपलब्ध पुराणों की परम्परा का आरम्भ ७वीं-८वीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि स्वयम्भू द्वारा हुआ, पश्चात् ये पुराण निरन्तर १७वीं शताब्दी तक लिखे जाते द्वारा/श्री बलराम सिंह बिश्नोई २१, पटेल नगर, मुजफ्फरनगर १. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, पृ० २३३-२३४ २. वही, पृ० २३५ ३. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ, पृ. १६३ ४. वही, पृ० १४७ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोटिशिला तीर्थ का भौगोलिक अभिज्ञान * –डा० कस्तूरचन्द जैन जैन-दर्शन और तत्त्वज्ञान की भक्तिपरक अभिव्यक्ति निर्वाणक्षेत्र की पूजा-परंपरा में दिखाई देती है। निर्वाण-क्षेत्र वे स्थल हैं, जहाँ से तीर्थंकरों और सिद्धों को निर्वाण प्राप्त हुआ है। इन्हें हम सिद्धक्षेत्र भी कहते हैं। ये सिद्धक्षेत्र ही जैन परम्परा के वास्तविक तीर्थ हैं । अष्टापद, चम्पापुरी, उर्जयन्त, पावापुरी और सम्मेद शिखर-ये पाँच स्थान चौबीस तीर्थंकरों के निर्वाण-स्थल हैं तथा आर्यखंड के अगणित सिद्धों की सिद्ध भूमियों का अन्तर्भाव "कोटिशिला'' में होता है । कोटिशिला केवल एक प्रतीक सत्ता है अथवा अन्य सिद्ध-क्षेत्रों की भाँति उसकी अपनी कोई भौगोलिक पहचान है-यह प्रश्न शताब्दियों से अब तक अनुत्तरित ही रहा है । "अभिधानराजेन्द्र'' में गंगा, सिंधु, वैताढ्य आदि शाश्वत पदार्थों की तरह कोटिशिला को शाश्वत कहा गया है। भरत क्षेत्र में हिमालय से निकलकर गंगा और सिन्धु नदियाँ, पूर्व और पश्चिम में समुद्र की ओर बहती हैं। मध्य में वैताढ्य, विजयार्ध अथवा विन्ध्य पर्वत है। गंगा, सिन्धु और विन्ध्य के द्वारा भरत क्षेत्र के छह खंड हो गये हैं। दुषमा-सुषमा नामक चौथे काल में, भरत क्षेत्र में ६३ शलाकापुरुष हुए, जिनमें २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव और ९ प्रति-वासुदेव सम्मिलित हैं। सोलहवें तीर्थङ्कर शान्तिनाथ से लेकर इक्कीसवें तीर्थंकर नमिनाथ तक-छह तीर्थङ्करों के तीर्थकाल में करोड़ों मुनि कोटिशिला से मुक्त हुए हैं। त्रिपृष्ठ आदि नव वासुदेव क्रमशः श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत और नेमिनाथ के तीर्थकाल में हुए थे और उन सबने अपने बाहुबल की परीक्षा के लिये कोटिशिला को ऊपर उठाने का उपक्रम किया था। अन्तिम नारायण कृष्ण ने कोटिशिला को भूमि से चार अंगुल तक ऊपर उठाया था। पुराणेतिहास में कोटिशिला भरतक्षेत्र के मध्य में उसी प्रकार परिकल्पित है, जैसे जम्बूद्वीप के मध्य में मेरु की रचना मानी गई है। मन्दार पर मेरु की भांति वैताढ्य पर कोटिशिला सुशोभित है । जैसे * अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, शासकीय तिलक महाविद्यालय कटनी, म०प्र० Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर १९९१ ऋषभशैल चक्रवर्तियों का मान मर्दन करता है, वैसे ही कोटिशिला अर्ध-चक्री वासुदेवों की शक्ति का निकष बनती है । मेरु, ऋषभ और वैताढ्य ही जैन भक्ति-साधना और वास्तु-विधान के प्रारम्भिक आश्रय स्थल रहे हैं, जहाँ गुफा रूपी अकृत्रिम चैत्यालय अनन्त काल से विद्यमान हैं । वैताढ्य के सिद्धकूट पर दिव्य जिन भवनों का आयाम एक कोश माना गया है और इसलिये दिव्य जिनसदन के रूप में शाश्वत कोटिशिला का विस्तार एक कोश अथवा एक योजन ही परिकल्पित है । ५८ उपर्युक्त विवरण से यह तो स्पष्ट है कि कोटिशिला की भौगोलिक अवधारणा पर अति प्राचीनकाल से विश्वास चला आ रहा है । प्राकृत निर्वाणकाण्ड के अनुसार कोटिशिला कलिंगदेश में अवस्थित है, जबकि विविधतीर्थकल्प का लेखक मगध में इसकी संदेहपूर्ण उपस्थिति का संकेत देता है । ऐसा प्रतीत होता है कि सोलहवें से इक्कीसवें तीर्थंकरों के जन्म स्थान मगध क्षेत्र से सम्बद्ध होने के कारण कोटिशिला की परिकल्पना मगध में कर ली गई । इसी प्रकार नवनारायणों के कथानक ने कोटिशिला को कलिंग देश में प्रतिष्ठित किया, क्योंकि प्रथम नारायण त्रिपृष्ठ का सम्बन्ध पोदनपुर (कलिंग) से था । प्राचीन सन्दर्भों में मगध और कलिंग गतिशील देशवाचक संज्ञायें रही हैं और इनके आधार पर आज किसी निश्चित स्थान को कोटिशिला की संज्ञा नहीं दी जा सकती सच तो यह है कि शाश्वत कोटिशिला अनन्त नाम-रूपों में अवतरित होती रहीं है और सिद्ध क्षेत्रों की परवर्ती विकास परम्परा ने अब उसके भौगोलिक अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया है। प्रश्न यह है कि कोटिशिला तीर्थ क्या सचमुच विलुप्त हो चुका है ? उत्तर है - नहीं । अनादि लोक परम्परा उसे आज तक कोटि पहाड़ के रूप में जीवित रखे हुए है । कोटि पहाड़ पर अवस्थित 'सिद्ध. गुफा' और " टाठीबेर" नामक स्थल आज भी बुन्देलखण्ड में जनजन की श्रद्धा का आश्रय बने हुए हैं और ये भग्न शाश्वत कोटिशिला के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं । भौगोलिक मानचित्र पर "कोटि पहाड़" ७९° १' पूर्वी और २४° ३५' उत्तरी भू-रेखाओं पर अवस्थित है । वर्तमान बड़ागाँव से प्रारम्भ होकर उत्तर की ओर भदौरा तक लगभग ४ कि.मी. की यह पर्वत श्रृंखला समुद्र सतह से १३१३ फीट Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोटिशिला तीर्थ का भौगोलिक अभिज्ञान ५९. ऊँची है । बड़ागाँव के दक्षिण में यह पर्वत श्रृंखला दशार्ण नदी के मुहाने तक जाकर विलुप्त हो जाती है । कोटि पहाड़ पर अनेक प्राचीन जैन मन्दिर गुफायें, चरण-चिह्न और पुरावशेष सुरक्षित हैं, जो अनायास ही उसे कोटितीर्थ घोषित करते हैं । आज यह तीर्थं "बड़ागाँव सिद्धक्षेत्र" के रूप में पुनर्प्रतिष्ठित हो रहा है। प्राचीष जैन तीर्थों के मानचित्र पर इसके उत्तर-पूर्व में खजुराहो, उत्तर-पश्चिम में अहार और चन्देरी, दक्षिण-पूर्व में रेशंदीगिरि तथा कुण्डलपुर और दक्षिण-पश्चिम में विदिशा तथा ग्यारसपुर तीर्थ क्षेत्र अवस्थित हैं । "कोटिशिलातीर्थंकल्प” में आचार्य जिनप्रभसूरि ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के इस मत को उद्धृत किया है कि कोटिशिला " दसन्नपव्वय समीवि" अर्थात् दशार्ण पर्वत के निकट स्थित है । दशार्ण पर्वत से पूर्वाचार्यों का आशय दशार्ण नदी के निकट अवस्थित "कोटि पहाड़" पर्वत माला से रहा है, जो आकार की दृष्टि से " जोअणपिहुला" अर्थात् एक योजन विस्तार रखती है । दशार्ण नदी, भोपाल के विरमऊ पहाड़ों से निकलकर टीकमगढ़, छतरपुर जिलों की सीमारेखा बनाती हुई, झांसी जिले के चंदवारी गाँव के निकट बेतवा में गिर जाती है । इस नदी के दक्षिण में विन्ध्याचल की भांडेर श्रेणियाँ तथा पूर्व में पन्ना पर्वत श्रेणियां हैं । नदी के पश्चिमी भाग में - दक्षिण से उत्तर की ओर अनेक छोटे-छोटे स्वतंत्र एकान्तिक पहाड़ है, जिनकी एक अन्तरङ्ग शृङ्खला मदनपुर से अहार क्षेत्र तक चली गई है । किसी अन्य नाम के अभाव में, इस पर्वत श्रेणी को ही पूर्वाचार्यो ने दशार्ण पर्वत कहा है, ठीक वैसे ही जैसे महाभारत काल में " दशार्ण" के आधार पर इस क्षेत्र की एक संज्ञा हमें " दशार्णा" प्राप्त होती है । इसी दशार्ण पर्वत श्रेणी अथवा “कोटि पहाड़" पर प्राचीन कोटिशिला अवस्थित रही होगी । - कोटि पहाड़ से कोटिशिला के समीकरण के कतिपय अवान्तर प्रमाण हमें उपलब्ध होते हैं । आदिपुराण में चक्रवर्ती भरत की सेनाओं द्वारा तैरश्चिक, वैर्य और कटाद्रि का उल्लंघन कर पारियात्र देश को प्राप्त करने का उल्लेख है । दशार्ण के पर्वतीय क्षेत्र की "परियात्र " संज्ञा हमें मध्य युग में प्राप्त होती है पद्मनन्दि का वारा-नगर इसी परियात्र देश में अवस्थित था । वारानगर को वर्तमान Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ागांव से समीकृत किया गया है । पर्वतीय क्षेत्र को आदिपुराणकार ने श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ परियात्र अथवा दशार्ण के इसी कूटाद्रि कहा है, जो आज भी कूटाद्रि अथवा कोटि पहाड़ के नाम से विख्यात है । बोधप्राभृत की टीका में आचार्य श्रुतसागर ने द्रोणागिरि कुंथूगिरि के निकट "कोटिशिलागिरि" का उल्लेख किया है तथा 'तीर्थाटन चन्द्रिका' में यह स्थान ' सिद्धाद्विकूटक' कहा गया है । द्रोणीगिरि निःसन्देह वर्तमान द्रोणगिरि सिद्ध क्षेत्र है, जो कोटि पहाड़ अथवा कोटिशिलागिरि के निकट अवस्थित है । संस्कृत निर्वाणभक्ति के आचार्य ने 'विन्ध्ये' पद द्वारा इन तीर्थों की वन्दना की है । आचार्य मदनकीर्ति ने कहा है कि विन्ध्य पर्वत के वे इन्द्रपूजित जिन भवन आज भी सम्यग्दृष्टि जनों को प्रत्यक्ष की भाँति प्रतिभासित होते हैं । ६.० अंततः कोटि पहाड़ पर 'टाठीबेर' की गरिमापूर्ण उपस्थिति का रहस्योद्घाटन आवश्यक है । 'टाठी' शब्द बुन्देली में पात्र या वर्तन का पर्याय है तथा 'बेर' संज्ञा एक वृक्ष तथा उसके पात्र विशेष को सूचित करती है । लोक व्युत्पत्ति के अनुसार 'टाठीबेर' वह स्थल है जहाँ पात्र अथवा वर्तन रूपी पात्र देने वाला वृक्ष अवस्थित है । आज इस स्थल पर एक भग्न बावड़ी है, जिसके सम्बन्ध में यह लोक"विश्वास जीवित है कि विवाहादि के समय वह अपने भक्तों को मनवांछित बर्तन या भाजन उपलब्ध कराती है । इसीलिये स्थानीय परम्परा में उसे आज 'थाली बावड़ी' कहते हैं । कहा नहीं जा सकता कि 'बेर' वृक्ष ने कब अपनी सम्मान रक्षा के लिये इस पर्वतीय बावड़ी का बाना धारण कर लिया, किन्तु जम्बुछीवपण्णत्ती के साक्ष्य पर कल्पवृक्ष -युक्त पर्वत की धारणा से अवश्य हम अवगत होते हैं । इन कल्पवृक्षों की एक श्रेणी 'भाजनांग' कही गई है, जो याचक को मनवांछित भाजन प्रदान करती थी । 'टाठीबेर' क्या 'भाजनांग कल्पवृक्ष' का बुन्देली अवशेष नहीं है ? भाजनफलदाता वृक्ष को पौराणिक शब्दावली में 'भाजनांग कल्पवृक्ष' की ही संज्ञा दी जा सकती है । कोटिपहाड़ पर टाठींबेर की उपस्थिति का शास्त्रीय अर्थ है कोटिशिला पर कल्पवृक्ष की उपस्थिति । आचार्य जिनप्रभसूरि ने कदाचित् - इसीलिये महातीर्थ कोटिशिला को शाश्वत सिद्धिक्षेत्र की गरिमा से विभूषित किया था । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास 1 * -डा० शिवप्रसाद पूर्वमध्यकालीन श्वेताम्बर गच्छों में उपकेशगच्छ का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है । जहाँ अन्य सभी श्वेताम्बर गच्छ भगवान् महावीर से अपनी परम्परा जोड़ते हैं, वहीं उपकेशगच्छ अपना सम्बन्ध - भगवान् पार्श्वनाथ से जोड़ता है । अनुश्रुति के अनुसार इस गच्छ की उत्पत्ति का स्थान राजस्थान प्रदेश में स्थित ओसिया (प्राचीनउपकेशपुर ) माना जाता है । परम्परानुसार इस गच्छ के आदिम माचार्य रत्नप्रभसूरि ने वीर सम्बत् ७० में ओसवाल जाति की स्थापना की, परन्तु किसी भी ऐतिहासिक साक्ष्य से इस तथ्य की पुष्टि नहीं होती । ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर ओसवालों की स्थापना और इस गच्छ की उत्पत्ति का समय ईस्वी सन् की आठवीं शती के पूर्व नहीं माना जा सकता । चैत्यवासी आम्नाय में उपकेशगच्छ का विशिष्ट स्थान है । इस गच्छ में कक्कसूरि देवगुप्तसूरि और सिद्धसूरि इन तीन नामों की प्रायः पुनरावृत्ति होती रही है। उपकेशगच्छ में कई विद्वान् एवं प्रभावक आचार्य और मुनिजन हुए हैं, जिन्होंने साहित्योपासना के साथ-साथ नवीन जिनालयों के निर्माण और प्राचीन जिनालयों के जीर्णोद्धार तथा जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना द्वारा पश्चिम भारत मैं श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय को जीवन्त बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । अन्य गच्छों की भाँति उपकेशगच्छ से भी कई अवान्तर शाखाओं का जन्म हुआ, जैसे वि. सं १२६६ / ई० सन् १२१० में द्विवंदनीक शाखा, वि० सं० १३०८ / ई० सन् १२५२ में खरतपाशाखा तथा वि० सं० १४९८ / ई० सन् १४४१ में खादिरीशाखा अस्तित्त्व में आयी । उपकेशगच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिये साहित्यिक साक्ष्यों -अन्तर्गत इस गच्छ के मुनिजनों की कृतियों की प्रशस्तियाँ, मुनिजनों • सहशोधाधिकारी पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी, ५ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ के अध्ययनार्थ अथवा प्रेरणा से प्रतिलिपि करायी गयी प्राचीन ग्रन्थों की दाता प्रशस्तियाँ, दो प्रबन्ध (उपकेशगच्छप्रबन्ध और नाभिनन्दनजिनोद्धारप्रबन्ध - रचनाकाल-वि० सं० १३९३/ई० सन् १३३६) और उपकेशगच्छ की कुछ पट्टावलियाँ उपलब्ध हैं। इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा बड़ी संख्या में प्रतिष्ठापित जिन-प्रतिमायें मिली हैं, 'जिनमें से अधिकांशतः लेखयुक्त हैं। साम्प्रत लेख में उक्त साक्ष्यों के आधार पर उपकेशगच्छ के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। अध्ययन की सुविधा हेतु सर्वप्रथम साहित्यिक और तत्पश्चात् अभिलेखीय साक्ष्यों का विवरण प्रस्तुत किया गया है। इनका अलग-अलग विवरण इस प्रकार है १. नवपयपयरण (नवपदप्रकरण)-महाराष्ट्री प्राकृत भाषा में रचित १३७ पद्यों की यह रचना उपकेशगच्छीय कक्कसूरि के विद्वान् शिष्य जिनचन्द्रगणि पूर्वनाम कुलचन्द्र (देवगुप्तसूरि) की अनुपम कृति है। रचनाकार ने अपनी इस कृति पर वि० सं० १०७३/ई० सन् १०१६ में वृत्ति की रचना की, जिसका नाम श्रावकानन्दकारिणी है।' नवपदटीका प्रोक्ता श्रावकानन्दकारिणी नोम्ना । श्रीदेवगुप्तसूरिभिर्भावयितव्या प्रयत्नेन ॥ साधूपयोगाय यया प्रयासः कृतः स्वपुण्याय च एष धर्मः । अतोत्र मात्सर्यमभिप्रपद्य मा कोपि कान्मिय पुण्यविघ्नं ।। त्रिसप्तत्यधिकसहस्र मासे कार्तिकसंज्ञिते । श्रीपार्श्वनाथचैत्ये तु दुर्गमीये च पत्तने । श्रावकानन्दटीकेयं नवपदस्य प्रकीर्तिता । जिनचन्द्रगणिनाम्ना तु गच्छे ऊकेशसंज्ञिते ।। कक्काचार्यस्य शिष्येण कुलचन्द्रसंज्ञितेन । तेनैषा रचिता टीका निर्जरार्थं तु कर्मणां । शिष्य-प्रशिष्यवंशस्योपकाराय जायते । टीकेयं नवपदस्यास्तु यथार्थेयं प्रवत्तिता ।। दलाल, सी० डी०---ए डिस्क्रिप्टिव कैटलाग ऑफ मैन्युस्क्रिप्ट्स इन द जैन ग्रन्थ भण्डार्स ऐट पाटन (बड़ोदरा-१९३७ ई०) पृष्ठ २-३ : Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेश गच्छ का संक्षिप्त इतिहास कक्कसूरि 1 कुलचन्द्र /जिनचंद्रगणि अपरनाम देवगुप्तसूरी [नवपदप्रकरणसटीक ] रचनाकाल वि० सं० १०७३ / ई० सन् १०१६ वाचक उमास्वाति के तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की ३१ उपोद्घात् - कारिका की टीका करने वाले देवगुप्तसूरि भी शायद यही देवगुप्तसूरि हों ! ६.३ २. नवपदप्रकरण बृहद्वृत्ति' - उपकेशगच्छीय धनदेव अपरनाम यशोदेव उपाध्याय ने वि० सं० ११६५ में अपने पूर्वज जिनचन्द्रगणि अपरनाम देवगुप्तसूरि की कृति पर बृहद्वृत्ति की रचना की । इसकी प्रशस्ति' में उन्होंने अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है १. उत्सूत्रमत्र रचितं यदनुपयोगान्मया कुबोधाय । तच्छोधयन्तु सुधियः सदाशया मयि विधाय कृपाम् ॥१॥ विलसद्गुणमणिनिकरः, पाठीनविराजितो नदीनश्च । जलनिधिरिवास्ति गच्छ: तत्रासीदतिशायिबुद्धिविभवश्वारित्रिणामग्रणीः, श्रीमानूकेशपुरनिसृतः ॥ २ ॥ सिद्धान्तार्णवपारगः स भगवान् श्रीदेवगुप्ताभिधः । सूरिभूरिगुणान्वितो जिनमतादुद्धृत्य येन स्वयं, श्रोतॄणां हितकाम्यया विरचिता भव्याः प्रबन्धा नवाः ||३|| तेनैव स्वपदप्रतिष्ठिततनुः श्रीकक्कसूरिप्रभुर्नानाशास्त्रप्रबोधबन्धुरमतिर्जज्ञे स विद्वानिह । मीमांसां जिनचैत्यवन्दनविधि पञ्चप्रमाणीं तथा, बुध्वा यस्य कृतिं भवन्ति कृतिनः सद्द्बोधशुद्धाशयाः ||४|| तत्पादपद्मद्वयचञ्चरीकः, शिष्यस्तदीयोऽजनि सिद्धसूरिः । तस्माद्बभूवोज्ज्वलशीलशाली, त्रिगुप्तिगुप्तः खलु देवगुप्तः ||५|| अपिच-यं वीक्ष्य निःसीमगुणैरुपेतं, श्रीसिद्ध सूरिः स्वपदे विधातुम् । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૪ सिद्धसूरि कक्कसूरि + श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ जिनचन्द्रगणि/ देवगुप्तसूरि [नरवदप्रकरण के रचनाकार ] कक्कसूरि [ पञ्चप्रमाण के कर्ता] I सिद्धसूरि देवगुप्त सूरि धनदेव / यशोदेव उपाध्याय [वि० सं० ११६५ / ई० सन् ११०८ में नवपदप्रकरणबृहद्वृत्ति के रचनाकार ] यशोदेव उपाध्याय ने वि० सं० ११७८ ई० / सन् ११२५ में प्राकृत भाषा में (६४०० गाथाओं) चन्द्रप्रभचरित की भी रचना की । ३. क्षेत्रसमासवृत्ति - ३००० श्लोक परिमाण यह कृति उपकेशगच्छीय सिद्धसूरि द्वारा वि० सं० ११९२ में रची गयी है । इसकी श्रीमत्युपाध्यायपदे निवेश्य, प्रख्यापयामास जनस्य मध्ये ||६|| तद्वचनेनारब्धा तस्यान्तेवासिना विवृतिरेषा । तत्रैवाचार्यपदं विशदं पालयति सन्नीत्या ॥७॥ लोकान्तरिते तस्मिंस्तस्य विनेयेन निजगुरु भ्रात्रा । श्री सिद्धसूरिनाम्ना, भणितेन समर्थिता चेति ॥८॥ उपाध्यायो यशोदेवो, धनदेवाद्यनामकः । जडोऽपि धाष्टर्यंतञ्चक्रे, वृत्तिमेनां सविस्तराम् ॥९॥ एकादशशत संख्येष्वब्देष्वधिकेषु पञ्चषष्टयेयम् । अणहिल्लपाटकपुरे सिद्धो केशीयवीरजिनभवने ||१०|| नवपदप्रकरण बृहद्वृत्ति की प्रशस्ति, प्रकाशक — देवचन्दलालभाई जैन पुस्त कोद्धार; ई० सन् १९२७ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास ६५ प्रशस्ति' में वृत्तिकार की गुरु परम्परा का जो उल्लेख मिलता है, वह इस प्रकार है कक्कसूरि 1 सिद्धसूरि I देवगुप्तसूरि 1 सिद्धसूरि [ क्षेत्रसमासवृत्ति के रचनाकार ] १. प्रसिद्ध ऊकेशपुरीयगच्छे श्रीकर्कसूरिविदुषां वरिष्ठः । साहित्यतर्कागमपारदृश्वा बभूव सल्लक्षणलक्षिताङ्गः ॥१॥ तदीयशिष्योऽजनि सिद्धसूरिः सद्दशनाबोधित भव्यलोकः । निर्लोभतालङ्कृतचित्तवृत्तिः सज्ज्ञानचारित्र दयान्वितश्च ||२|| श्रीदेव गुप्त सूरिस्तच्छिष्योऽभूद्विशुद्ध चारित्रः । वादिगजकुम्भभेदनपटुतरनखरायुधसमानः ॥३॥ तच्छिष्यसिद्धसूरिः क्षेत्रसमासस्य वृत्तिमयमकरोत् । गुरुभ्रातृयशोदेवोपाध्यायज्ञातशास्त्रार्थः ॥४॥ उत्सूत्रमत्र किञ्चिन्मतिमान्द्याज्ञानतो मयाऽलेखि । निर्व्याजं विद्वद्भिस्तच्छोध्यं मयि विधाय दयाम् ॥ ५॥ ॥ खैः षण्णवत्याङ्क चतुःषष्ट्या द्वात्रिंशताक्षरैः । श्लोकमानेन चैवं त्रिसहस्रा ग्रन्थसङ्ख्याऽत्र ॥ ६॥ अब्दशतेष्वेकादशसु द्विनवत्याधिकेषु ११९२ विक्रमतः । चैत्रस्य शुक्लपक्षे समर्थिता शुक्लत्रयोदश्याम् ॥७॥ यावज्जैनेश्वरो धर्मः समेरुर्वर्त्तते भुवि । भव्यैः पापठ्यमानोऽयं तावन्नन्दतु पुस्तकः ||८|| मुनि पुण्यविजय - न्यू कैटलाग ऑफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मैन्युस्क्रिप्ट्स : जैसलमेर कलेक्शन (अहमदाबाद - १९७२ ई० ) पृष्ठ ६८ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ उत्तराध्ययनसूत्र सुखबोधावृत्ति'- इस ग्रन्थ की एक प्रति शान्तिनाथ जैन ग्रंथ भण्डार, खंभात में संरक्षित है। इसे उपकेशगच्छीय ककुदाचार्यसंतानीय देवगुप्तसूरि के शिष्य सिद्धसूरि के उपदेश से वि० सं० १३५२/ई० सन् १२९५ में श्रावक गोसल के पुत्र सङ्घपति आशाधर ने लिपिबद्ध कराया : देवगुप्तसूरि सिद्धसूरि [वि० सं० १३५२/ई० सन् १२९५ ___ में इनके उपदेश से उत्तराध्ययनसूत्र सुखबोधावृत्ति की प्रतिलिपि की गयी] नाभिनन्दनजिनोद्धारप्रबन्ध अपरनाम शत्रुञ्जयतीर्थोदधारप्रबन्ध शत्रुञ्जयतीर्थोद्धारक समरसिंह के गुरु उपकेशगच्छीय सिद्धसूरि के पट्टधर कक्कसूरि ने वि० सं० १३९३ में कजरोटपुर में उक्त कृति की रचना की। इसमें समरसिंह द्वारा शत्रुञ्जय पर कराये गये जीर्णोद्धार एवं उपकेशगच्छ के सम्बन्ध में विवरण प्राप्त होता है। श्री लालचन्द भगवानदास गांधी ने अपने विद्वत्तापूर्ण लेख में कक्कसूरि की गुरु १. सिद्धसूरिगुरोराज्ञां बिभ्राणः शिरसा भृशम् । करेष्वग्नीन्दु १३५२ वर्षेऽत्र व्यलीलिखदवाचयत् ॥२८॥ श्रीदेवगुप्तसूरीणां शिष्यः समुदि संसदि । पासमूर्तिस्तदादेशात् किमप्यर्थमभाषत् ॥३१॥ .............."जस्येह पुष्पदन्तौ स्थिराविमौ । गुरुभिर्वाच्यमानोऽयं तावन्नन्दतु पुस्तकः ॥३२॥ संवत् १३५२ वर्षे वर्षाकाले श्रीउपकेशगच्छे ककुदाचार्यसंताने श्रीसिद्धसूरिप्रतिपत्तौ सा० देसलसन्ताने सा० गोसलात्मजसंघपति-- आशाधरेण श्रीउत्तराध्ययनवृत्तिः ससूत्रा कारिता ॥ मुनि पुण्यविजय--कैटलाग ऑफ पामलीफ मैन्युस्क्रिप्ट्स इन दि शान्तिनाथ जैन भण्डार, कैम्बे (बड़ौदा १९६२-६६) पृ० १२०-१२३ २. गान्धी, लालचन्द भगवानदास-ऐतिहासिकजैनलेखो [बड़ोदरा, १९६३ ई०] पृष्ठ ५११-५९१ देसाई, मोहनलाल दलीचन्द--जैनसाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ ४२६-२७ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास ६७ परम्परा का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है रत्नप्रभसूरि यक्षदेवसूरि कक्कसूरि सिद्धसूरि देवगुप्तसूरि सिद्धसूरि [समरसिंह के गुरु कक्कसूरि [वि० सं० १३९३/ई० सन् १३३६ में नाभिनन्दनजिनोद्धारप्रबन्ध के कर्ता] उपकेशगच्छ की पट्टावलियाँ-जहाँ अन्य गच्छों की मात्र दो या तीन पट्टावलियां ही मिलती हैं, वहाँ उपकेशगच्छ की कई पट्टावलियों का उल्लेख मिलता है, किन्तु दुर्भाग्यवश अद्यावधि मात्र तीन पट्टावलियां ही प्रकाशित होने से अध्ययनार्थ उपलब्ध हो पाती हैं, शेष पट्टावलियां या तो नष्ट हो गयीं अथवा किन्हीं प्राचीन हस्तलिखित भण्डारों में पड़ी होंगी। प्रकाशित पट्टावलियों का विवरण इस प्रकार है १. उपकेशगच्छप्रबन्ध'- रचनाकार-कक्कसूरि, रचनाकाल वि० सं० १३९३ १. देसाई, मोहनलाल दलीचन्द--जैनगुर्जरकविओ (प्रथम संस्करण), भाग ३, खण्ड २, पृष्ठ २२५४-२२७६ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ २. उपकेश गच्छपट्टावली - १ रचनाकार- अज्ञात, वि० सं० की १५वीं शती का अन्त श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ ३. उपकेशगच्छपट्टावली २ - रचनाकार-अज्ञात, वि० सम्वत् की २०वीं शती रचनाकाल कक्कसूरि के सं० १३०३ / ई० १३३६ में लिखे गये उपकेशगच्छ प्रबन्ध एवं नाभिनन्दनजिनोद्धारप्रबन्ध के आधार पर श्री मोहनलालदलीचंद देसाई ने उपकेशगच्छ की पट्टावली का पुनर्गठन किया है । इस पट्टावली में कक्कसूरि और उनके गुरु सिद्धसूरि के सम्बन्ध में दिये गये समसामयिक विवरणों की ऐतिहासिकता निर्विवाद है । इसी प्रकार इस पट्टावली के कुछ अन्य विवरणों जैसे देवगुप्तसूरि द्वारा नवपदप्रकरणवृत्ति, उनकी पाश्चात्कालीन परम्परा में हुए यशोदेवउपाध्याय द्वारा नवपदप्रकरणबृहद्वृत्ति के लेखन की बात उक्तरचनाओं की प्रशस्तियों से समर्थित होती है । चौलुक्यनरेश कुमारपाल के समय कक्कसूरि द्वारा पाटण में क्रियाहीन साधुओं को गच्छ से बाहर करने की बात, जो इस पट्टावली में उद्धृत की गयी है, सत्य प्रतीत होती है । यद्यपि इस घटना का किसी अन्य समसामयिक साक्ष्य से समर्थन नहीं होता । इस पट्टावली में उल्लिखित अन्य बातें-यथापार्श्वनाथ की शिष्य परम्परा से उपकेशमच्छ की उत्पत्ति, वीरनिर्वाण सम्वत् ८४ में आचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा उपकेशपुर और कोरंटपुर में एक साथ जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा आदि का किसी भी पुराने ऐतिहासिक साक्ष्य से समर्थन नहीं होता, अतः ये बातें ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वहीन हैं । रचनाकाल ५. मुनि जिनविजय संपा० विविधगच्छीयपट्टावलीसंग्रह (बम्बई, १९५१ई०) पृष्ठ ७-९ २. देसाई, पूर्वोक्त, पृष्ठ २२७७-२२८५; मुनि दर्शनविजय - - संपा० पट्टावलीसमुच्चय भाग १ ( वीरमगाम १९३३ ई०) पृष्ठ १७७-१९४ मुनि कल्याणविजय संपा० पट्टावलीप रागसंग्रह ( जालौर सं० २०२३ ) पृष्ठ २३४-२३८ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास ६९ उपकेशगच्छ की द्वितीय पट्टावली में भी पार्श्वनाथ की परम्परा से उपकेशगच्छ की उत्पत्ति, वीर सम्वत् ८४ में आचार्यरत्नप्रभसूरि द्वारा उपकेशपुर और कोरंटपुर में एक ही तिथि में जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठापना का परम्परागत विवरण प्राप्त होता है । इस पट्टावली में वि० सं० १२६६ में उपकेशगच्छ से द्विवंदनीकगच्छ का प्रादुर्भाव, इसके पश्चात् वि० सं० १३०८ में खरातपा शाखा का उद्भव एवं वि० सं० १४९८ में देवगुप्तसूरि के शिष्य से खादिरी शाखा के उदय की बात कही गयी है। द्विवंदनीकगच्छ के उद्भव की बात तो अन्य पट्टावलियों से भी ज्ञात होती है किन्तु खरातपा शाखा और खादिरी शाखा के उद्भव के सम्बन्ध में अन्य किसी पट्टावली से कोई सूचना प्राप्त नहीं होती। चूंकि अभिलेखीय साक्ष्यों से उक्त शाखाओं का अस्तित्व सिद्ध है, अतः इस पट्टावली का उक्त विवरण अत्यन्तमहत्त्वपूर्ण है। उपकेशगच्छ की तृतीय पट्टावली में भगवान् पार्श्वनाथ के पट्टधर शुभदत्त से लेकर सिद्धसूरि वि० सं० १९३५ तक लगभग २५०० वर्षों की अवधि में हुए ८४ आचार्यों के नाम, उनके काल एवं उनके समय की महत्त्वपूर्ण घटनाओं का संक्षिप्त विवरण है। अनुश्रुतिपरक विवरणों से परिपूर्ण एवं अर्वाचीन होने के कारण उपकेशगच्छ के प्राचीन इतिहास के अध्ययन में उक्त पट्टावली प्रामाणिक नहीं कही जा सकती है। अभिलेखीयसाक्ष्य-उपकेशगच्छ से सम्बद्ध बड़ी संख्या में अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध हुए हैं। ये लेख वि० सं० १०११ से वि० सं० १९१८ तक के हैं। इन लेखों में विक्रम की ग्यारहवीं शती के प्रारम्भ से लेकर विक्रम की १३वीं शती के अन्त तक केवल १८ लेख ही उपलब्ध हुए हैं, इनका विवरण इस प्रकार है उपकेशगच्छ के प्रारम्भिक प्रतिमा लेखों का विवरण संवत् तिथि/मिति आचार्य नाम १०११ चैत्र सुदि ६ कक्काचार्य [१ प्रतिमालेख] १०११ देवसूरि [ ] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० श्रमण , जुलाई-सितम्बर, १९९१ कक्कसूरि - ककुदाचार्य [ ] " [६ प्रतिमालेख] १०७८ फाल्गुन वदि ४ ११०० मार्गशिर सुदि ६ ११२५ वैशाख सुदि १० ११७२ फालान फाल्गुन सुदि ७ सोमवार १२०२ आषाढ़ सुदि ६ सोमवार १२०३ वैशाख सुदि १२ १२०६ कार्तिक वदि ६ १२१२ ज्येष्ठ वदि ४ मङ्गलवार १२५९ कार्तिकसुदि १२ १२६१ ज्येष्ठ सुदि १२ सिद्धाचार्य [१ प्रतिमालेख] ककुदाचार्य ["] [ ] بابا سالسا कक्कसरि सिद्धसूरि Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक संवत् तिथि/मिति प्रतिष्ठापक आचार्य प्रतिमा लेख/ स्तम्भ लेख प्रतिष्ठा स्थान संदर्भ ग्रन्थ का नाम १ १०११ चैत्र सुदि ६ कक्काचार्य के शिष्य देवदत्त उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास २ १०११ तिथि विहीन देवसूरि शान्तिनाथ वीर जिनालय, नाहर, पूरनचन्द की प्रतिमा ओसिया संपा० जैनलेखसंग्रह का लेख भाग १, लेखांक १३४ शांतिनाथ लोढ़ा, दौलतसिंह की धातु की संपा० श्रीप्रतिमापंचतीर्थीप्रतिमा लेखसंग्रह का लेख लेखांक ३२१ पार्श्वनाथ नाहर, पूर्वोक्त की प्रतिमा का भाग १, लेख लेखांक ७९२ - वही, भाग १ लेखांक ८३० पंचतीर्थी प्रतिमा वही, भाग १ का लेख लेखांक ५३४ ३ १०७८ फाल्गुन वदि ४ कक्कसूरि ४ ११०० मार्गशिर सुदि ६ शालिभद्र ? ११२५ बैशाख सुदि १० - ७५ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ११७२ फाल्गुन सुदि ७ ककुदाचार्य सोमवार ककुदाचार्य ७२.. ७ १२०२ ककुदाचार्य आषाढ़ सुदि ६ सोमवार ४ १२०२ ॥ पार्श्वनाथ जिनालय मुनि बुद्धिसागर माणेक चौक, संपा० जैनधातुखंभात प्रतिमालेखसंग्रह भाग २ लेखांक ९१७ अरनाथ विमलवसही, मुनि कल्याणविजय की प्रतिमा दिलवाड़ा, संपा० प्रबन्धपारिका लेख आबू जात, लेखांक १४ धर्मनाथ वही, लेखांक २ की प्रतिमा एवं का लेख मुनि जिनविजय संपा० प्राचीन जैनलेख संग्रह, भाग २, लेखांक १३५ शांतिनाथ की वही, भाग २ प्रतिमा का लेख लेखांक १३९ कुन्थुनाथ की वहीं, भाग २ प्रतिमा का लेख लेखांक १४३ ९ १२०२ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ है १० १२०२ , " Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ १२०२ आषाढ़ सुदि ६ सोमवार काबुदाचार्य ककुदाचार्य विमलवसही विमलवसही, आबू मुनि जिनविजये, पूर्वोक्त-भाग २, लेखांक १४७ १२ १२०२ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १३ १२०३ आदिनाथ वही, भाग २, की प्रतिमा लेखांक १५० का लेख वैशाख सुदि १२ सिद्धाचार्य'? शांतिनाथ आदिनाथ जिनालय, विनयसागर की प्रतिमा नाकोड़ा तीर्थ लेखक, नाकोड़ा का लेख राजस्थान पार्श्वनाथतीर्थ, लेखांक ४ कार्तिक वदि ६ ककुदाचार्य पार्श्वनाथ की नेमिनाथजिनालय मुनि विशाल विजय प्रतिमा का लेख कुंभारिया लेखक, कुभांरिया तीर्थ, लेखांक ९ ज्येष्ठ वदि ८ देहरी का देहरी नं० ५१ मुनि कल्याणविजय मंगलवार विमलवसही, पूर्वोक्त, लेखाक १३८ १४ १२०६ १५ १२१२ लेख आबू Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ १(२०)२५ वैशाख सुदि १० मुनिचन्द्रसूरि १७ १२५९ कार्तिक सुदि १२ कक्कसूरि पंचतीर्थी सुमतिनाथ प्रतिमा का मुख्य बावन- लेख जिनालय, मडार चौबीसमाता वीर जिनालय, के पट्ट पर ओसिया उत्कीर्ण लेख पार्श्वनाथ की जैन मंदिर, प्रतिमा पर ईडर उत्कीर्ण लेख मुनि बुद्धिसागरपूर्वोक्त-भाग २, लेखांक ४७४ नाहर, पूर्वोक्त, भाग १, लेखांक ७९१ मुनि बुद्धिसागरपूर्वोक्त-भाग १, लेखांक १४०८ १८ १२६१ ज्येष्ठ सुदि १२ सिद्धसूरि श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास नवादप्रकरण के कर्ता देवगुप्तसूरि के शिष्य कक्कसूरि और वि० सं० १०७४/ई० सन् १०२१ के प्रतिमा लेख में उल्लिखित कक्कसूरि को समसामयिक होने से एक ही आचार्य मानने में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती है, इसी प्रकार देवगुप्तसूरि 'द्वितीय' के शिष्य लघुक्षेत्रसमास (रचनाकाल वि० सं० ११९२/ई० सन् ११३५) के रचनाकार सिद्धसूरि और वि० सं० १२०३/ई० सन् ११४६ के प्रतिमालेख में उल्लिखित सिद्धसरि को एक दूसरे से अभिन्न माना जा सकता है, क्योंकि इस समय तक उपकेशगच्छ में कोई विभाजन दृष्टिगोचर नहीं होता है। ___ पट्टावली न० १ के अनुसार सिद्धसूरि के पट्टधर कक्कसूरि ने चौलुक्यनरेश कुमारपाल (वि० सं० ११९९-१२३०) के समय अपने गच्छ के क्रियाहीन मुनिजनों को गच्छ से निष्कासित कर दिया था। उक्त कक्कसूरि को वि० सं० ११७२-१२१२ के प्रतिमालेखों में उल्लिखित ककुदाचार्य से अभिन्न माना जा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कक्कसूरि ने अपने साथ के जिन मुनिजनों को गच्छ से निष्कासित कर दिया था, उन्हीं से गच्छ-भेद प्रारम्भ हुआ। सम्भवतः इन्हीं मुनिजनों ने स्वयं को सिद्धाचार्यसन्तानीय कहना प्रारम्भ कर दिया और इसके परिणामस्वरूप कक्कसूरि के शिष्य ककुदाचार्यसंतानीय कहलाये। १३वीं शती तक के साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर उपकेशगच्छीय मुनिजनों की गुरु-शिष्य परम्परा का क्रमा इस प्रकार निर्मित होता हैतालिका-१. कक्कसूरि Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ जिनचन्द्रगणि/कुलचंद्रगणि अपरनाम देवगुप्तसूरि [वि सं० १०७३/ई० सन् १०१६ में नवपदप्रकरणसटीक] के रचनाकार कक्कसूरि [जिनचैत्यवन्दनविधि एवं | पञ्चप्रमाण के कर्ता] । [वि० सं० १०७८ प्रतिमालेख] सिद्धसूरि देवगुप्तसूरि [द्वितीय सिद्धसूरि - यशोदेव उपा० पूर्वनाम धनदेव वि० सं० ११९२/ई० सन् ११३५ में वि० सं० ११६५/ई० सन् ११०८] क्षेत्रसमासवृत्ति नवपदप्रकरणबृहत्ति [वि० सं० १२०३ प्रतिमा लेख] वि० सं० ११७८/ई० सन् ११२१ __ में चंद्रप्रभचरित कक्कसूरि [चौलुक्यनरेश कुमारपाल वि० सं० ११९९-१२३०] के समकालीन [वि० सं० ११७२-१२१२ प्रतिमालेख] विक्रम की चौदहवीं शती से उपकेशगच्छ से सम्बद्ध प्रतिमालेखों की संख्या बढ़ने लगती है। यह उल्लेखनीय है कि विक्रम की १३वीं शती तक के लेखों में उपकेशगच्छ और प्रतिमाप्रतिष्ठापक आचार्य का उल्लेख मिलता है, जबकि १४वीं शती एवं बाद के लेखों में प्रतिमा प्रतिष्ठापक आचार्य के नाम के पूर्व ककुदाचार्यसन्तानीय और सिद्धाचार्यसन्तानीय ऐसा उल्लेख मिलता है, इससे यह प्रतीत होता है कि विक्रम की १३वीं शती के अन्त में अथवा १४वीं शती के प्रथम दशक में उपकेशगच्छ दो शाखाओं-ककुदाचार्यसन्तानीय और सिद्धाचार्यसन्तानीय में विभाजित हो चुका था। __ उपकेशगच्छीय ककुदाचार्यसन्तानीय मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों का विवरण इस प्रकार है Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक संवत् तिथि/मिति प्रतिष्ठापक आचार्य प्रतिमा लेख/स्तम्भ प्रतिष्ठास्थान का नाम लेख सन्दर्भग्रन्थ १ २ १. १३२० ३ ज्येष्ठ सुदि १५ शुक्रवार उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास २. १३४५ - ३. १३४७ ककुदाचार्यसंतानीय पार्श्वनाथ की चिन्तामणिपार्श्वनाथ नाहटा. अगरचन्द देवगुप्तसूरि प्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर संपादक, बीकानेर जैनलेखसंग्रह लेखांक ४४५ ककुदाचार्यसंतानीय शांतिनाथ की चन्द्रप्रभजिनालय, नाहर, पूर्वोक्त-. सिद्धसूरि प्रतिमा का जैसलमेर भाग ३, लेख लेखांक २२३६ स्तम्भ लेख चिन्तामणि जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त, बीकानेर लेखांक २०४ नेमिनाथ की वीर जिनालय, मुनि जयन्तविजय पाषाण की अजारी संपा० अर्बुदाचलप्रतिमा का लेख प्रदक्षिणाजैनलेख संदोह, लेखांक ४३१ अरनाथ की चिन्तामणिजिनालय, नाहटा, पूर्वोक्तप्रतिमा का लेख बीकानेर लेखांक २१७६ १. १३४९ फाल्गुन सुदि ८ रविवार ५. १३५४ माघ वदि ४ शुक्रवार Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AM १३५६ ज्येष्ठ वदि ८ ७. १३६ (?) तिथिविहीन हैं. १३७३ ककुदाचार्यसंतानीय शांतिनाथ स्तम्भन पार्श्वनाथ मुनि बुद्धिसागरसिद्धसूरि की प्रतिमा जिनालय, खारवाडो, पूर्वोक्त, भाग २ का लेख खंभात लेखांक १०४४ ककुदाचार्यसंतानीय पार्श्वनाथ की आदिनाथ जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्तदेवगुप्तसूरि के प्रतिमा का राजलदेसर लेखांक २३४८ शिष्य सिद्धसूरि लेख शांतिनाथ चिन्तामणि पाश्र्वनाथ मुनि बुद्धिसागर की प्रतिमा जिनालय,पीपलाशेरी, पूर्वोक्त, भाग २, का लेख बड़ोदरा लेखांक १६६ ककुदीचार्यसंतानीय शांतिनाथ की महावीर जिनालय, नाहटा-पूर्वोक्तं कक्कसूरि सपरिकर बीकानेर लेखांक १३५२ प्रतिमा का लेख देवकुलिका नं० १० मुंनिजिनविजयविमलवसही, पूर्वोक्त, भाग २, लेखांक २०६ ९. १३७७ ज्येष्ठ वदि ११ गुरुवार श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ १०. १३७८ ज्येष्ठ वदि ९ सोमवार आब Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "११. ज्येष्ठ वदि ९ सोमवार १२. १३७८ ज्येष्ठ सुदि ९ मंगलवार आबू उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १३. १३८० ज्येष्ठ सुदि १४ ककुदाचार्यसंतानीय आदिनाथ देहरी नं० ४२ मुनिकल्याणविजय कक्कसूरि की प्रतिमा विमलवसही, पूर्वोक्त, का लेख आबू लेखांक ११३ ककुदाचार्यसंतानीय विमलवसही, वही, लेखांक २२१ सिंहसूरि (सिद्धसूरि ?) के शिष्य कक्कसूरि ककुदाचार्यसंतानीय आदिनाथ शांतिनाथजिनालय, नाहर, पूर्वोक्त, कक्कसूरि की प्रतिमा चुरू-राजस्थान भाग २, का लेख लेखांक १३५८ चौबीसी चिन्तामणि- मुनि बुद्धिसागरप्रतिमा का पार्श्वनाथजिनालय, पूर्वोक्त, भाग २, लेख खंभात लेखांक ५३१ शांतिनाथ बावन जिनालय, वही, भाग १, की प्रतिमा पेथापुर लेखांक ७११ का लेख आदिनाथ चिन्तामणि- नाहटा, पूर्वोक्त की प्रतिमा जिनालय, लेखांक २९० का लेख बीकानेर १४. १३८० माघ सुदि ६ सोमवार १५. १३८० माघ सुदि ६ मंगलवार १६. १३८२ वैशाख सुदि २ शनिवार Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ १७. १३४४ माघ सुदि ५ चिन्तामणि नाहटा, पूर्वोक्त जिनालय, बीकानेर लेखांक ३०० ककुदाचार्यसंतानीय पार्श्वनाथ की कक्कसूरि प्रतिमा का लेख महावीरस्वामी की प्रतिमा का लेख १८. १३८५ फाल्गुन सुदी । वही, लेखांक १२७५ १९. १३८५ पार्श्वनाथ की प्रतिमा का लेख आदिनाथ की प्रतिमा का लेख २०. १३८६ वैशाख सुदी १२ ॥ वही, लेखांक ३०९ __ आदिनाथ- विनयसागर जिनालय, संपा० प्रतिष्ठा गाररडु लेखसंग्रह, लेखांक १२६ चन्द्रप्रभजिनालय, नाहर, पूर्वोक्त __ जैसलमेर लेखांक-२२५३ चन्द्रप्रभजिनालय, मुनिबुद्धिसागर जानीशेरी, पूर्वोक्त, भाग २, है बड़ोदरा लेखांक १४३ ' २१. १३८६ ज्येष्ठ वदि ५ सोमवार माघ सुदि १० शनिवार सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख अजितनाथ की प्रतिमा का लेख श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ २२. १३८७ , Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ माघ सुदि ६ सोमवार ककुदाचार्यसंतानीय शांतिनाथ की कक्कसूरि प्रतिमा का लेख २४. १३९० ज्येष्ठ वदि ११ पार्श्वनाथ की प्रतिमा का लेख उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास २५. १३९१ तिथि विहीन सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख बावन जिनालय, बुद्धिसागर, पेथापुर पूर्वोक्त, भाग १, लेखांक ७०६ आदिनाथजिनालय, नाहटा,पूर्वोक्त (नाहटों में) लेखांक १४७७ ।। बीकानेर चन्द्रप्रभजिनालय, नाहर, पूर्वोक्त जैसलमेर भाग ३, लेखांक २२६१ चिन्तामणि- नाहटा, पूर्वोक्त जिनालय, लेखांक ३५३ ।। बीकानेर जैन मंदिर, मुनिजयन्तविजय जीरावला अर्बुदाचलप्रद क्षिणाजैनलेखसंदोह (आबू भाग-५) लेखांक ११७ २६. १३९३ तिथिविहीन अजितनाथ की प्रतिमा का लेख २७. १४०१ ज्येष्ठ सुदि १० बुधवार ककुदाचार्यसंतानीय धातु की परिकर कक्कसूरि के पट्टधर वाली एकतीर्थी देवगुप्तसूरि प्रतिमा का लेख Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना २८. १४०५ वैशाख सुदि ३ ककुदाचार्यसंतानीय आदिनाथ की कक्कसूरि जैन मंदिर, जयपुर नाहर-पूर्वोक्त, भाग १, लेखांक ४०० . २९. १४०५ वैशाख सुदी ३ ककुदाचार्यसंतानीय आदिनाथ की। कक्कसूरि प्रतिमा का लेख ३०. १४०८ वैशाखसुदि... पार्श्वनाथ की प्रतिमा का लेख नेमिनाथ मुनि कान्तिसागर जिनालय संपा० जैनधातुभिंडी बाजार, प्रतिमालेख, बम्बई लेखांक ३६ चन्द्रप्रभ नाहटा, पूर्वोक्त, जिनालय, लेखांक २७५८ जैसलमेर जीरावली तीर्थ लोढ़ा, पूर्वोक्त, चैत्य देवकुलिका लेखांक ३०३[अ] ३१. १४२१ ज्येष्ठ सुदि १० ककुदाचार्यसंतानीय देवकूलिका बुधवार कक्कसूरि के पट्टधर का लेख देवगुप्तसूरि वैशाख सुदि ११ ककुदाचार्यसंतानीय बुधवार देवगुप्तसूरि श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ ३२. १४२२ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग २, लेखांक ५४१ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ १४२५ ३४. १४२६ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १४२७ आषाढ़ सुदि ३ ककुदाचार्यसंतानीय आदिनाथ की घर देरासर मुनिजयन्तविजय रविवार सिद्धसरि धातु की चौबीसी भारोलग्राम, आबू, भाग ५, प्रतिमा का लेख आबू लेखांक ५९ माघ वदि ७ ककुदाचार्यसंतानीय शांतिनाथ की जगवल्लभ- बुद्धिसागर-पूर्वोक्त देवप्रभसूरि प्रतिमा का लेख पार्श्वनाथ देरासर, भाग १, नीशापोल लेखांक १२०४ अहमदाबाद ज्येष्ठ सुदि १५ ककुदाचार्यसंतानीय शांतिनाथ की महावीर नाहटा, पूर्वोक्त शुक्रवार देवगुप्तसूरि पंचतीर्थी जिनालय, लेखांक १३२८ प्रतिमा का लेख बीकानेर ॥ पार्श्वनाथ की चिन्तामणि वही, लेखांक ४८४ प्रतिमा का लेख जिनालय,बीकानेर फाल्गुन सुदि २ शांतिनाथ वही, लेखांक ५०१ की चौबीसी प्रतिमा का लेख फाल्गुन सुदि २ आदिनाथ नेमिनाथ- बुद्धिसागर-पूर्वोक्त शुक्रवार की प्रतिमा जिनालय, भाग २, का लेख खंभात लेखांक ६३५ ३६. १४२७ -३७. १४३२ ३८. १४३२ 21 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ ३९. १४४६ ३९. अ१४५२ ४०. १४५७ ४१. १४५७ ४२. १४५९ ४३. १४५९ ३ वैशाख वदि ३ सोमवार वैसाख सुदि ३ बुधवार वैशाख सुदि ३ शनिवार वैशाख सुदि ३ शनिवार ज्येष्ठ वदि १२ शनिवार ४ ककुदाचार्य संतानीय देवगुप्तसूरि " ܐܐ 12 ?? ܕ ५ शांतिनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख कक्कसूरि की प्रतिमा का लेख शांतिनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख धर्मनाथ की प्रतिमा का लेख चन्द्रप्रभस्वामी की प्रतिमा का लेख अजितनाथ की पोरवालों का मंदिर, पूना पंचासरा पार्श्वनाथ जिना०, पाटन वासुपूज्यस्वामी का मंदिर, बीकानेर चिन्तामणि जिनालय, बीकानेर 33 विजयधर्मसूरि संपा० प्राचीनलेख संग्रह, लेखांक ९० जिनविजय, पूर्वोक्त भाग २ लेखांक ५१६ नाहटा, पूर्वोक्त लेखांक १३९२ वही, लेखांक ५७७ वही, लेखांक ५९१ लेखांक ५१ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९६ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. १४६१ ज्येष्ठ सुदि १० शुक्रवार नाहटा, पूर्वोक्त, लेखांक ६०० ककुदाचार्यसंतानीय शांतिनाथ की चिन्तामणि देवगुप्तसूरि प्रतिमा का लेख जिनालय बीकानेर ॥ ४५. १४६१ ज्येष्ठसुदि १० " उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास ४६. १४६२ वैशाख सुदि १० रविवार मुनिकान्तिसागर पूर्वोक्त, लेखांक ६४ नाहर, पूर्वोक्त भाग १, लेखांक ४९७ नाहटा, पूर्वोक्त लेखांक १८३३ ४७. १४६३ तिथिविहीन संभवनाथ की जैनमंदिर, धातु की प्रतिमा चेलापुरी का लेख दिल्ली शांतिनाथ की शांतिनाथ पंचतीर्थी प्रतिमा जिनालय, का लेख (नाहटों में) बीकानेर वासुपूज्य की चिन्तामणि प्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर समतिनाथ की प्रतिमा का लेख ४८. १४६५ वही, लेखांक ६२२ माघ सुंदि ३ शनिवार ४९. १४६८ वैशाख वदि ३ ) वही, लेखांक ६३६ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ ५०. १४६८ AM ५१. १४७० ५२. १४७० वैशाख सुदि ३ ककुदाचार्यसंतानीय आदिनाथ की चिन्तामणि बुद्धिसागर, पूक्ति रविवार देवगुप्तसूरि चौबीसी प्रतिमा पार्श्वनाथ भाग २, का लेख जिनालय, खंभात लेखांक ५६० ज्येष्ठ सुदि १३ आदिनाथ की मनमोहन, मुनिविशालविजय शुक्रवार धातु की पंचतीर्थी पार्श्वनाथ संपा० राधनपुर प्रतिमा का लेख जिनालय, प्रतिमालेखसंग्रह वोरवाड़, राधनपुर लेखांक ९५ माघ सुदि २ पार्श्वनाथ की जैन मंदिर, नाहर, पूर्वोक्त गुरुवार प्रतिमा का लेख मडिया, सिरोही भाग २, लेखांक २०९२ माघ सुदि २ जैन मंदिर, मुनिकांतिसागर, गुरुवार कंकूबाई की शत्रुञ्जयवैभव धर्मशाला, लेखांक ६० पालिताना मार्गशीर्ष वदि ४ ककुदाचार्यसंतानीय समतिनाथ की चन्द्रप्रभ नाहटा, पूर्वोक्त रविवार सिद्धसूरि धातु की प्रतिमा जिनालय लेखांक २७४३ का लेख बीकानेर ५३. १४७० श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ ५४. १४७७ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५. १४७४ पौष वदि १ गुरुवार १४८० ज्येष्ठ वदि ५ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास ५७. १४८१ वैशाख वदि ११ ५८. १४८२ माघ वदि ५ ककुदाचार्यसंतानीय आदिनाथ की शांतिनाथ विनयसागर, सिद्धसूरि चौबीसीप्रतिमा जिनालय, पूर्वोक्त का लेख अलाय लेखांक २२० नमिनाथ की नमिनाथ ___ नाहर, पूर्वोक्त धातु की प्रतिमा जिनालय, भाग १, का लेख कासिमबाजार लेखांक ७७ पार्श्वनाथ की श्रेयांसनाथ विनयसागर, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख जिनालय, हिंडोन लेखांक २२९ वासुपूज्य की चिन्तामणि नाहटा, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख जिनालय, लेखांक ७१३ बीकानेर शीतलनाथ नाहर, पूर्वोक्त जिनालय, भाग २, लेखांक उदयपुर १०७०। ककुदाचार्यसंतानीय शांतिनाथ की वीर जिनालय, लोढ़ा, पूर्वोक्त यक्षदेवसूरि धातु की प्रतिमा थराद लेखांक १० का लेख ५९. १४८२ तिथि विहीन ६०. १४८३ ज्येष्ठ सुदि ११ शुक्रवार Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. १४८५ ६२. १४८५ ६३. १४८५ वैशाख सुदि ३ ककुदाचार्यसंतानीय चन्द्रप्रभ की चन्द्रप्रभ नाहर, पूर्वोक्त बुधवार सिद्धसूरि प्रतिमा का लेख जिनालय, भाग ३, जैसलमेर लेखांक २३९१ एवं नाहटा, पूर्वोक्त लेखांक २७७२ ज्येष्ठ वदि ९ वासुपूज्य की खरतरगच्छ का विनयसागर, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख उपाश्रय, लेखांक २५४ किशनगढ़ आषाढ़ सुदि ३ आदिनाथ की सीमंधरस्वामी बुद्धिसागर, पूर्वोक्त रविवार चौबीसी प्रतिमा का मंदिर भाग १, का लेख अहमदाबाद लेखांक ११७५ मार्गशीर्ष वदि ५ सुविधिनाथ की वीर जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख बीकानेर लेखांक १२०५ मार्गशीर्ष वदि १० , संभवनाथ की आदिनाथ वही, लेखांक १४७३ शुक्रवार धातु की प्रतिमा जिनालय, का लेख (नाहटों में) बीकानेर ६४. १४८६ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ ६५. १४८७ ना Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शनिवार सिद्धसूरि ६७. १४८८ पौष सुदि १२ शनिवार वैशाख वदि १० पिकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास ६८. १४८९ गुरुवार ६९. १४९१ माघ सुदि ५ बुधवार की प्रतिमा जिनालय, भाग १, का लेख अजमेर लेखांक ५५० विनयसागर, पूर्वोक्त लेखांक २७२ . शांतिनाथ की अजितनाथ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त ११ प्रतिमा का लेख शेखनो पाडो, भाग १, अहमदाबाद लेखांक १०३० सुविधिनाथ पार्श्वनाथ नाहटा, पूर्वोक्त की प्रतिमा देरासर, देवसागर, लेखांक २३७७ का लेख सुजानगढ़, बीकानेर श्रेयांसनाथ सुमतिनाथ नाहर, पूर्वोक्त की प्रतिमा जिनालय, भाग २, का लेख जयपुर लेखांक ११८२ एवं विनयसागर, पूर्वोक्त लेखांक २९४ ७०. १४९३ वैशाख सुदि ३ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १ २ ७१. १४९३ ३ ज्येष्ठ सुदि ३ सोमवार पाटण ७२. १४९३ फाल्गुन वदि १ चन्द्रप्रभ ४ ककुदाचार्यसंतानीय आदिनाथ शांतिनाथ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त सिद्धसूरि की धातु की जिनालय, भाग १, पंचतीर्थी प्रतिमा कनासानो पाडो, लेखांक ३५१ का लेख श्रेयांसनाथ विनयसागर, की प्रतिमा जिनालय, पूर्वोक्त का लेख आमेर लेखांक २९९ सुमतिनाथ गौड़ी पार्श्वनाथ नाहर, पूर्वोक्त की प्रतिमा जिनालय, भाग १, का लेख अजमेर लेखांक ५३१ , चिन्तामणि नाहटा, पूर्वोक्त जिनालय लेखांक ७८२ बीकानेर ७३. १४९५ ज्येष्ठ सुदि १३ ७४. १४९५ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ ७५. १४९५ मार्गशीर्ष वदि ४ ककुदाचार्यसंतानीय शांतिनाथ की अजितनाथ गुरुवार सर्वदेवसूरि पंचतीर्थी जिनालय, प्रतिमा का लेख अयोध्या नाहर, पूर्वोक्त भाग २, लेखांक १६४१ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. १४९७ ७७. १४९७ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास. ७८. १४९८ ज्येष्ठ सुदि २ ककुदाचार्यसंतानीय मुनिसुव्रत की विमलनाथ विनयसागर, सिद्धसूरि प्रतिमा का लेख जिनालय, सवाई पूर्वोक्त माधोपुर लेखांक ३१९ ज्येष्ठ सुदि ६ सुमतिनाथ की पार्श्वनाथ वही, लेडाक ३२० प्रतिमा का लेख जिनालय साथां वैशाख सुदि ५ पद्मप्रभ की पञ्चायती वही, लेखाङ्क ३२७ प्रतिमा का लेख मंदिर, जयपुर फाल्गुन वदि १० ककुदाचार्यसंतानीय शीतलनाथ की बालावसही, शत्रुञ्जयवैभव कक्कसूरि प्रतिमा का लेख शत्रुञ्जय लेखाङ्क ८२ फाल्गुन वदि २ चन्द्रप्रभ नाहर, पूर्वोक्त, भाग गुरुवार जिनालय, १, लेखाङ्क २१९ फाल्गुन वदि २ ककुदाचार्यसंतानीय आदिनाथ की जैन मंदिर, वही, भाग १, कक्कसूरि प्रतिमा का लेख चेलापुरी, दिल्ली लेखाङ्क ४७१ विमलनाथ की मनमोहनपार्श्व- बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, प्रतिमा का लेख नाथ जिनालय, भाग २, लेखाङ्क चौकसीपोल, ८२५ खंभात ८१. १४९९ ८२. १४९९ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३. १५०० ८४ १५०१ १५०१ ८६. १५०१ मार्गशीर्ष वदि २ ककुदाचार्यसंतानीय कुन्थनाथ की वीर जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त कक्कसूरि प्रतिमा का लेख बीकानेर लेखाङ्क १३३० ज्येष्ठ वदि १२ सुमतिनाथ की चिन्तामणि वही, लेखाङ्क ८४६ सोमवार प्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर ज्येष्ठ वदि १२ कुन्थुनाथ की __ वही, लेखाङ्क ८४५ सोमवार प्रतिमा का लेख माघ वदि ६ शान्तिनाथ की गुरु मन्दिर, वहीं, धातु की प्रतिमा कोचरों की लेखाङ्क १९९१ का लेख बगीची, बीकानेर माघ वदि ६ श्रेयांसनाथ की शीतलनाथ, नाहर, पूर्वोक्त, भाग बुधवार प्रतिमा का लेख जिनालय, १, लेखांक ७३० बालोतरा माघ वदि ६ शान्तिनाथ की पार्श्वनाथ नाहटा, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख जिनालय, लेखांक १६१८ . (कोचरों में) बीकानेर ८७. १५०१ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ ८८. १५०१ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ ८९. १५०१ माघ सुदि ५ बुधवार ११. १५०१ माघ सुदि६ गुरुवार ज्येष्ठ सुदि ११ शुक्रवार उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १५०३ ककुदाचार्यसंतानीय अजितनाथ की पद्मप्रभ जिना- विनयसागर, पूर्वोक्त के कक्कसूरि प्रतिमा का लेख लय, घाट, लेखांक ३४३ जयपुर चन्द्रप्रभ की जैन मंदिर, वही, लेखांक ३४४ प्रतिमा का लेख मन्दसौर , श्रेयांसनाथ बावनजिनालय, नाहर, पूर्वोक्त की प्रतिमा करेड़ा भाग २ का लेख लेखांक १९३४ अजितनाथ चिन्तामणि नाहटा, पूर्वोक्त की प्रतिमा जिनालय लेखांक ८६७ का लेख बीकानेर आदिनाथ की वही, लेखांक ८७१ प्रतिमा का लेख सुमतिनाथ गौड़ी जी भंडार विजयधर्मसूरि, की प्रतिमा उदयपुर की एक पूर्वोक्त का लेख प्रतिमा लेखांक २०३ १२. १५०३ ज्येष्ठ सुदि ११ १३. १५०३ आषाढ़ सुदि ९ गुरुवार वैशाख सुदि ६ शुक्रवार ९४. १५०४ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. १५०४ १६. १५०४ ९७. १५०५ ज्येष्ठ सुदि ४ ककूदाचार्यसन्तानीय चंन्द्रप्रभ की चिन्तामणि नाहटा, पूर्वोक्त . कक्कसूरि प्रतिमा का लेख जिनालय लेखांक ८८० बीकानेर फाल्गुन सुदि ५ कुंथुनाथ की चौमुख जी बुद्धिसागर, पूर्वोक्त बुधवार धातु की पंचतीर्थी देरासर, भाग १, प्रतिमा का लेख अहमदाबाद लेखांक १३३ वैशाख सुदि ६ ककुदाचार्यसन्तानीय अजितनाथ की गौड़ी पार्श्वनाथ नाहर, पर्वोक्त सिद्धसरि के शिष्य चौबीसी प्रतिमा जिनालय, भाग २ कक्कसूरि का लेख मोतीकटरा लेखांक १४७९ आगरा धर्मनाथ की गौड़ीपार्श्वनाथ नाहटा, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख जिनालय, गोगा लेखांक १९३७ दरवाजा, बीकानेर फाल्गुन वदि ८ संभवनाथ की पंचायती मंदिर विनयसागर, प्रतिमा का लेख जयपुर लेखांक ४१० ज्येष्ठ सुदि १० शांतिनाथ की शीतलनाथ विजयधर्मसूरि, धातु की प्रतिमा जिनालय, पूर्वोक्त, का लेख उदयपुर लेखांक २३३ ९८ १५०५ १५०५ ९९. १५०६ श्रमणा, जुलाई-सितम्बर, १९९१ १००. १५०७ उदय Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२. १५०८ ज्येष्ठ सुदि २ १०३. १५०८ मार्गशीर्ष वदि २ १०४. १५०८ माघसुदि ५ गुरुवार १०५. १५०९ वैशाख वदि ३ १०६. १५०९ वैशाख सुदि ३ १०७. १५०९ माघ सुदि ५ सोमवार कक्कसूरि " "} >> नसतानाय ककुदाचार्य संतानीय ...सूरि ककुदाचार्य संतानीय कक्कसूरि ककुदाचार्य संतानीय कक्कसूरि वासुपूज्य की प्रतिमा का लेख भिनाय नेमिनाथ की की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख सुमतिनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख वीर जिनालय, आदिनाथ जिनालय, भैंसरोडगढ़ महावीर जिनालय, वही, लेखांक ४३५ सांगानेर संभवनाथ की प्रतिमा का लेख जैसलमेर चन्द्रप्रभ जिनालय, नाहर, पूर्वोक्त भाग ३ लेखांक २३२७ सुविधिनाथ की धातुकी चौबीसी मांडला प्रतिमा का लेख पार्श्वनाथ देरासर विनयसागर, पूर्वोक्त लेखांक ४२४ वही, लेखांक ४३२ चन्द्रप्रभ की पंचतीर्थी प्रतिमा नागौर का लेख बड़ा मंदिर, विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त लेखांक २५२ विनयसागर, पूर्वोक्त लेखांक ४३७ संभवनाथ की आदिनाथ प्रतिमा का लेख जिनालय, नागौर लेखांक १२५६ नाहर, पूर्वोक्त भाग २ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास ९५ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८. १५१० माघ सुदि ५ संतानीयककुदाचार्य संभवनाथ की महावीर नाहटा, पूर्वोक्त लेखांक कक्कसूरि प्रतिमा का लेख जिनालय, आसा- १८९६ । नियों का चौक, बीकानेर कुंथुनाथ की वालावसही, प्रतिमा का लेख शत्रुञ्जय शत्रुञ्जयवैभव, लेखांक १२७ १०९. १५१० फाल्गुन सुदि ४ शुक्रवार ११०. १५११ माघ वदि ४ पद्मप्रभ की कल्याणपार्श्व- बुद्धिसागर, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख नाथ जिनालय भाग १, लेखांक ४९८ वीसनगर १११. १५११ माघ वदि ५ सोमवार नमिनाथ की नेमिनाथ जिना- नाहर, पूर्वोक्त भाग १, प्रतिमा का लेख लय, अजीमगंज लेखांक १३ मुर्शिदाबाद श्रेयांसनाथ की खरतरगच्छीय विनयसागर, पूर्वोक्त पंचतीर्थी प्रतिमा आदिनाथ लेखांक ४८१ श्रमण , जुलाई-सितम्बर, १५ ११२. १५११ फाल्गुन सुदी ११ सोमवार Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ १५१२ माघ सुदि १ बुधवार ११४. १५१२ माघ वदि ७ बुधवार उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास ११५. १५१२ ११६. १५१२ माघ सुदि ७ ककुदाचार्यसंतानीय आदिनाथ की पंचायती जैन नाहर, पूर्वोक्त भाग २, कक्कसूरि प्रतिमा का लेख मंदिर, लस्कर, लेखांक १३७३ ग्वालियर सुमतिनाथ की बड़ा मंदिर, विनयसागर, पूर्वोक्त पंचतीर्थी प्रतिमा नागौर लेखांक ४८८ का लेख संभवनाथ की माणिकसागर वही, लेखांक ४८७ पंचतीर्थी जी का मंदिर, प्रतिमा का लेख कोटा अनन्तनाथ की सुपार्श्वनाथ का नाहर, पूर्वोक्त भाग २, प्रतिमा का लेखं पंचायती मंदिर, लेखांक ११५३ जयपुर सुमतिनाथ की आदिनाथ वही, भाग २ प्रतिमा का लेख जिनालय, लेखांक १२६१ नागौर ककुदाचार्यसंतानीय विमलनाथ की चन्द्रप्रभ वही, भाग ३, ..." "सूरि प्रतिमा का लेख जिनालय, लेखांक २३३४ जैसलमेर बुधवार ११७. १५१२ माघ वदि बुधवार ११८. १५१२ फाल्गुन सुदि ८ शुक्रवार Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९. १५१२ फाल्गुन सुदि १२ १२०. १५१३ चैत्र सुदि ६ गुरुवार १२१. १५१३ वैशाख सुदि ३ गुरुवार १२२. १५१३ आषाढ़ सुदि २ गुरुवार ककुदाचार्यसंतानीय आदिनाथ की आदिनाथ वही, भाग २, लेखांक कक्कसूरि पंचतीर्थी प्रतिमा जिनालय, १२६३ एवं विनयसागर, का लेख नागौर पूर्वोक्त लेखांक ४९१ मुनिसुव्रत की वीरजिनालय, बुद्धिसागर, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख अहमदाबाद भाग १, लेखांक ८७६ अभिनन्दनस्वामी जैन मन्दिर, मुनि कान्तिसागर, की प्रतिमा घाटकोपर, पूर्वोक्त का लेख मुम्बई लेखाङ्क १४२ शीतलनाथ की महावीर विनयसागर, पञ्चतीर्थी जिनालय, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख सांगानेर लेखाङ्क ५१५ कुंथुनाथ की चिन्तामणि प्रतिमा जिनालय, का लेख बीकानेर लेखांक ९८० श्रेयांसनाथ चन्द्रप्रभ की प्रतिमा जिनालय, पूर्वोक्त भाग ३, का लेख जैसलमेर लेखांक २३३५ १२३. १५१३ फाल्गुन वदि १२ ___नाहटा, पूर्वोक्त श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ १२४. १५१४ फाल्गुन सुदि १० सोमवार नाहर, Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास धातु की १२५. १५१४ फाल्गुन सुदि १० ककुदाचार्यसंतानीय शांतिनाथ आदिनाथ जिना- नाहर, पूर्वोक्त सोमवार कक्कसूरि की प्रतिमा लय देवीकोट, भाग ३, का लेख जैसलमेर लेखांक २५७७ १५१४ ॥ कुंथुनाथ की शांतिनाथ विजयधर्मसूरि, जिनालय, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख जामनगर लेखांक २९५ १२७. १५१५ ज्येष्ठ सुदि ११ नेमिनाथ केशरिया नाथ विनयसागर, सोमवार की पञ्चतीर्थी का मन्दिर, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख भिनाय लेखांक ५३६ १५१७ माघ वदि ५ अजितनाथ की जैन मन्दिर, नाहर, पूर्वोक्त पञ्चतीर्थी प्रतिमा जसोल, भाग २, का लेख ___ मारवाड़ लेखांक १८८३ १२९. १५१७ माघ वदि६ कुंथनाथ की पञ्चायती विनयसागर, गुरुवार पञ्चतीर्थी जैन मन्दिर, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख जयपुर लेखांक ५७१ १३०. १५१७ माघ वदि ८ चन्द्रप्रभस्वामी शान्तिनाथ विजयधर्मसूरि, की धातु की ___ जिनालय पूर्वोक्त, प्रतिमा का लेख राधनपुर लेखांक ३०८ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ ३ १३१. १५१७ माघ वदि ५ १३२. १५१७ माघ सुदि ५ १३३. १५१८ ज्येष्ठ सुदि २ शनिवार : १३४. १५१८ फाल्गुन वदि ७ शनिवार १३५. १५१९ वैशाख वदि ११ शुक्रवार ४ ककुदाचार्य सन्तानीय कक्कसूरि "1 11 "" "1 ५ आदिनाथ की प्रतिमा का लेख कुंथुनाथ की प्रतिमा का लेख अजितनाथ की प्रतिमा का लेख शीतलनाथ की प्रतिमा का लेख सम्भवनाथ की प्रतिमा का लेख ६ वीर जिनालय, नाहटा, बीकानेर चिन्तामणि जिनालय, बीकानेर मनमोहन पार्श्व नाथ जिनालय, खंभात चिन्तामणि जिनालय, बीकानेर वीर जिनालय, पायधुनी, मुम्बई पूर्वोक्त लेखांक १२४४ वही, लेखांक १००५ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग २, लेखांक ७६५ नाहटा, पूर्वोक्त लेखांक १०१३ कान्तिसागर, पूर्वोक्त लेखांक १६८ १०० श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९९ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १३६. १५२० वैशाख वदि ५ ककुदाचार्यसन्तानीय आदिनाथ की सुमतिनाथ मुख्य बुद्धिसागर, कक्कसूरि प्रतिमा बावन जिना- पूर्वोक्त भाग २, का लेख लय, मातर लेखांक ४७५ १३७. १५२० वैशाख सुदि ५ ॥ चन्द्रप्रभ की माणिकसागरजी विनयसागर, बुधवार पञ्चतीर्थी प्रतिमा का मंदिर, पूर्वोक्त का लेख कोटा लेखांक ६०४ १३८. १५२० मार्गशीर्ष वदि १२ ॥ आदिनाथ नाहर, जिनालय, पूर्वोक्त भाग २, नागौर लेखांक १२७१ १३९. १५२१ वैशाख सुदि १० ककुदाचार्यसन्तानीय शान्तिनाथ की पञ्चायती जैन वही, सिद्धसूरि के पट्टधर चौबीसी मन्दिर, लस्कर, भाग २ कक्कसूरि प्रतिमा का लेख ग्वालियर लेखांक १३८९ १४०. १५२२ पौष वदि १ शीतलनाथ की वीर जिनालय, लोढ़ा, गुरुवार धातु की थराद पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख लेखांक ४० १४१. १५२२ माघ सुदि २ ककुदाचार्यसंतानीय अजितनाथ की शांतिनाथ जिनालय, मुनिविशालविजय, कक्कसूरि धातु की खजूरीनी शेरी, पूर्वोक्त पंचतीर्थी प्रतिमा राधनपुर लेखांक २४४ का लेख गुरुवार १०१ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०b १ २ ३ १४२. १५२४ वैशाख सुदि ३ ककुदाचार्यसंतानीय सुमतिनाथ की मोतीशाह की शत्रुञ्जयवैभव सोमवार कक्कसूरि प्रतिमा का लेख टूक, शत्रुञ्जय लेखांक १८१ १४३. १५२४ वैशाख सुदि ६ नमिनाथ की शांतिनाथ जिना- नाहटा, पूर्वोक्त गुरुवार प्रतिमा का लेख लय, (नाहटों में) लेखांक १८३६ बीकानेर १४४. १५२४ मार्गशीर्ष वदि ३ अजितनाथ की शांतिनाथ विनयसागर, पंचतीर्थी जिनालय, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख चाडसू लेखांक ६४७ १४५. १५२४ मार्गशीर्ष वदि ४ ककुदाचार्यसंतानीय कुन्थनाथ की चिन्तामणि नाहर, पूर्वोक्त रविवार सिद्धसूरि के पट्टधर प्रतिमा का लेख पार्श्वनाथ भाग २, जिनालय, लेखांक १४४३ आगरा कक्कसूरि श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ नाता १४६. १५२४ मार्गशीर्ष सुदि १० ककूदाचार्यसंतानीय चन्द्रप्रभ की धातु संभवनाथ शुक्रवार कक्कसूरि की चौबीसी जिनालय, प्रतिमा का लेख मुर्शिदाबाद नाहर, पूर्वोक्त - भाग १, लेखांक ५० Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १४७ १५२४ मार्गशीर्ष सुदि १० ककुदाचार्यसंतानीय शीतलनाथ की बड़ा जैन मंदिर, वही, भाग २ शुक्रवार कक्कसरि पंचतीर्थी प्रतिमा नागौर लेखांक १२७४ का लेख विनयसागर, पूर्वोक्त लेखांक ६५० १४८. १५२६ वैशाख वदि ५ वासुपूज्य की जैन मंदिर, नाहर, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख अलवर भाग १, लेखांक ९९४ १४९. १५२६ आषाढ़ सुदि २ सुविधिनाथ की कुंथुनाथ नाहटा, पूर्वोक्त रविवार धातु की जिनालय, रांगड़ी लेखांक १६९१ प्रतिमा का लेख चौक, बीकानेर १५०. १५२६ संभवनाथ की चिन्तामणि वही. लेखांक १०४७ प्रतिमा का लेख जिनालय बीकानेर १५१. १५२७ माघ सुदि ९ शांतिनाथ की पार्श्वनाथ नाहटा, पूर्वोक्त बुधवार पंचतीर्थी जिनालय, लेखांक २३८६ प्रतिमा का लेख सरदारशहर Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ प्रतिमा १ २ ७ १५२. १५२० वैशाख वदि ६ ककुदाचार्यसंतानीय संभवनाथ की धर्मनाथ नाहर, पूर्वोक्त सोमवार देवगुप्तसूरि प्रतिमा का लेख जिनालय, भाग १, जोधपुर लेखांक ६२५ १५३. १५२८ ॥ नमिनाथ की वीर जिनालय, वही, भाग २ प्रतिमा का लेख सुधिटोला, लेखांक १५७१ लखनऊ १५४. १५२९ फाल्गुन वदि १ कुन्थुनाथ की चिन्तामणि नाहटा, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख जिनालय लेखांक १०६४ बीकानेर १५५. १५३० वैशाख सुदि ३ अभिनन्दनस्वामी पार्श्वनाथ जिना- बुद्धिसागर, पूर्वोक्त । की प्रतिमा लय, माणेक भाग २, का लेख चौक, खंभात लेखांक ९४० १५६. १५३० मार्गशीर्ष वदि १२ ककुदाचार्यसंतानीय चन्द्रप्रभस्वामी की बड़ा जैन मंदिर, विनयसागर, कक्कसूरि पंचतीर्थी प्रतिमा नागौर पूर्वोक्त का लेख लेखांक ६०७ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ . . . Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७. १५३० माघ सुदि १३ सोमवार १५८. १५३० फाल्गुन सुदि ६ १५९. १५३१ वैशाख सुदि ५ सोमवार १६० १५३२ वैशाख सुदि ५ शनिवार १६१. १५३२ वैशाख सुदि ४ शनिवार ककुदाचार्य संतानीय सिद्धसूरि ककुदाचार्यसंतानीय देवगुप्तसूरि 11 11 ܐܐ श्रेयांसनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख " आदिनाथ की प्रतिमा का लेख शीतलनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख सुविधिनाथ की प्रतिमा का लेख मनमोहन पाश्वं नाथ जिनालय, खजूरीनी पाड़ा, लेखांक २५२ पाटन मणिकसागरजी विनयसागर, का मंदिर, कोटा जैन मंदिर, नासिक बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग १ विमलनाथ जिनालय, सवाई माधोपुर महावीर जिनालय, सांगानेर पूर्वोक्त लेखांक ७३० मुनिकान्तिसागर, पूर्वोक्त लेखांक २२० विनयसागर, पूर्वोक्त लेखाङ्क ७४६ नाहटा, पूर्वोक्त लेखांक १२२३ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १०५ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ १६२. १५३३ पौष वदि १० गुरुवार ककुदाचार्यसंतानीय अरनाथ की देवगुप्तसूरि प्रतिमा का लेख १६३. १५३४ आषाढ़ सुदि १ गुरुवार पद्मप्रभ की प्रतिमा का लेख १६४. १५३४ मार्गशीर्ष वदि ६ सोमवार ककुदाचार्यसंतानीय कुन्थुनाथ की कक्कसूरि प्रतिमा का लेख चन्द्रप्रभजिनालय बुद्धिसागर, पूर्वोक्त सुल्तानपुरा, भाग २ बड़ोदरा लेखांक २०२ पार्श्वनाथ जिना- नाहर, पूर्वोक्त लय, रेजीडेन्सी भाग २ बाजार, लेखांक २०५२ हैदराबाद शान्तिनाथ नाहटा, पूर्वोक्त जिनालय, लेखांक २५३० हनुमानगढ़, बीकानेर आदिनाथ जिना. वही, लय, राजलदेसर लेखांक २३४१ चिन्तामणि जी वही, का मंदिर लेखांक १०८९ बीकानेर १६५. १५३४ मार्गशीर्ष वदि १२ देवगुप्तसूरि की प्रतिमा का लेख ककुदाचार्यसंतानीय संभवनाथ की देवगुप्तसूरि प्रतिमा का लेख श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ १६६. १५३४ माघ सुदि ९ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७. १५३४ माघ सुदि ९ १६८ १५३५ आषाढ़ ...२ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १६९. १५३५ पौष वदि ९ शनिवार ककुदाचार्यसंतानीय वासुपूज्य की जैन मंदिर जिनविजय देवगुप्तसूरि प्रतिमा का लेख पाटन पूर्वोक्त, भाग २ लेखांक ३५७ पद्मप्रभ की आदिनाथ नाहर, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख जिनालय, भाग २, नागौर लेखांक १२९२ ककुदाचार्यसंतानीय श्रेयांसनाथ की जैन मंदिर बुद्धिसागर, देवचन्द्रसूरि . प्रतिमा का लेख गवाड़ा पूर्वोक्त, भाग १ लेखांक ६५७ ककुदाचार्यसंतानीय शीतलनाथ की चिन्तामणिजी का नाहटा, पूर्वोक्त देवगुप्तसूरि प्रतिमा का लेख मंदिर, बीकानेर लेखांक १०९७ अजितनाथ की वीर जिनालय, नाहर, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख डीसा लेखांक २१०५ ॥ सुविधिनाथ की सुपार्श्वनाथ वही, भाग ३ प्रतिमा का लेख जिनालय, लेखांक २२०१ जैसलमेर १७०. १५३६ मार्गशिर सुदि ५ १७१. १५३७ वैशाख सुदि ३ भाग २ १७२. १५३८ फाल्गुन सुदि ३ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20b १ २ ३ १७३. १५४२ ज्येष्ठ सुदि ५ सोमवार ककदाचार्यसंतानीय शांतिनाथ की नीय शातिनाथ की देवगुप्तसूरि प्रतिमा का लेख हिम्मतराम हिम्मतराम नाहर, पूर्वोक्त बाफना का भाग ३ मंदिर, अमर. लेखांक २५३९ सागर, जैसलमेर १७४. १५४६ माघ वदि ४ अजितनाथ की प्रतिमा का लेख सांवलिया जी वही, भाग १ का मंदिर लेखांक ३० रामबाग, मुर्शिदाबाद १७५. १५५० आषाढ़ वदि ८ शुक्रवार पार्श्वनाथ की धातु शीतलनाथ नाहटा, पूर्वोक्त । की प्रतिमा जिनालय, लेखांक २४४४ का लेख रिणी, तारानगर 'श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ १७६. १५५० माघ वदि १२ शनिवार सुविधिनाथ की शांतिनाथ प्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर वही, लेखांक १११७ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७. १५५५ ज्येष्ठ सुदि ५ बुधवार १७८. १५५... पौष वदि ५ गुरुवार १७९. १५५८ वैशाख सुदि ११ शुक्रवार १८०. १५५८ सुदि ११ गुरुवार १८१. १५५९ वैशाख वदि ११ शुक्रवार ककुदाचार्यंसंतातीय देवगुप्तसूरि ककुदाचार्य संतानीय कक्कसूरि के शिष्य देवगुप्तसूरि ककुदाचार्यसंतानीय देवगुप्तसूरि ककुदाचार्य संतानीय कक्कसूरि के शिष्य देवगुप्तसूरि ककुदाचार्य संतानीय कक्कसूरि संभवनाथ की प्रतिमा का लेख अरनाथ की प्रतिमा का लेख श्रेयांसनाथ की प्रतिमा का लेख मुनिसुव्रत की प्रतिमा का लेख 11 वीर जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त बीकानेर लेखांक १२५६ सुपार्श्वनाथ जिनालय, जैसलमेर शांतिनाथ जिनालय, सहादतगंज जैन मंदिर अलवर नाहर, पूर्वोक्त भाग ३, लेखांक २२०४ वही, भाग २ लेखांक १६३४ वही, भाग १ लेखांक ९९७ मुनि कर्मचन्द्र नाहर, पूर्वोक्त हेमचन्द्रजी भाग १, लेखांक ६७२ का मंदिर, पालिताना उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १०९. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ १८२. १५५९ आषाढ़ सुदि १० बुधवार m १८३. १५६२ वैशाख सुदि १० रविवार १८४. १५६३ माघ सुदि ५ गुरुवार १८५. १५६६ ज्येष्ठ वदि १२ शुक्रवार ४ ककुदाचार्य संतानीय देवगुप्तसूरि " " ,, ५ कुन्थुनाथ की प्रतिमा का लेख सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख पद्मप्रभ की प्रतिमा का लेख शांतिनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख सुमतिनाथ जिनालय, जयपुर शीतलनाथ जिनालय, माणिकतल्ला, कलकत्ता नेमिनाथ जिनालय, अजीमगञ्ज मुर्शिदाबाद मुनिसुव्रत जिनालय, मालपुरा नाहर, पूर्वोक्त भाग २, लेखांक ११८९ एवं विनयसागर पूर्वोक्त लेखांक ९०५ नाहर, पूर्वोक्त भाग १ लेखांक १२८ वही, भाग १ लेखांक २० विनयसागर, पूर्वोक्त लेखांक ९२५ ११० श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६. १५६७ वैशाख सुदि १० बुधवार ककुदाचार्यसंतानीय पार्श्वनाथ की सिद्धसूरि पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख धर्मनाथ जिनालय, सोहावल, फैजाबाद नाहर, पूर्वोक्त भाग २ लेखांक १६५९ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १८७. १५७१ फाल्गुन सुदि ३ शुक्रवार ककुदाचार्यसंतानीय मुनिसुव्रत की श्रीसिंहसूरि प्रतिमा का लेख वीर जिनालय, वही, भाग २ सुधिटोला, लेखांक १५७४ लखनऊ १८८. १५७२ फाल्गुन सुदि ९ पंचतीर्थी ककुदाचार्यसंतानीय आदिनाथ की देवगुप्तसूरि प्रतिमा का लेख खरतरगच्छीय विनयसागर, आदिनाथ पूर्वोक्त जिनालय, लेखांक ९५३ कोटा १८९. १५७४ वैशाख सुदि १० शुक्रवार ककुदाचार्यसंतानीय धर्मनाथ की धातु चिन्तामणि सिद्धसूरि की चौबीसी पार्श्वनाथ प्रतिमा का लेख जिनालय, आगरा नाहर, पूर्वोक्त भाग १ लेखांक १४५० १११ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ १९०. १५७६ वैशाख वदि १ रविवार बाकान १९१. १५७९ वैशाख सुदि ६ सोमवार " १९२. १५७९ " ककुदाचार्यसंतानीय धर्मनाथ की वीर जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त सिद्धसूरि के पट्टधर पंचतीर्थी बीकानेर लेखांक १२२९ कक्कसूरि प्रतिमा का लेख ककुदाचार्यसंतानीय पद्मप्रभ की जगत सेठ का नाहर, पूर्वोक्त सिद्धसूरि प्रतिमा का लेख मंदिर भाग १ महिमापुर, बंगाल लेखांक ७४ वासुपूज्य की जैन मंदिर, बुद्धिसागर, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख चाणस्मा भाग १ लेखांक १०८ " आदिनाथ की वासुपूज्य नाहर, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख जिनालय भाग १ चम्पापुरीतीर्थ, लेखांक १५६ भागलपुर, बिहार ककुदाचार्यसंतानीय वासुपूज्य की जैन मंदिर वही, भाग १ देवगुप्तसूरि प्रतिमा का लेख जना वेडा लेखांक ९२८ मारवाड़ १९३. १५८५ आषाढ़ सुदि ५ सोमवार श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ १९४. १६३४ माघ सुदि ९ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास उक्त प्रतिमा लेखों के आधार पर उपकेशगच्छीयककुदाचार्यसंतानीय मुनिजनों की आचार्य - परम्परा का एक क्रम सुनिश्चित होता है, जो इस प्रकार है I 1 देवगुप्तसूरि [वि० सं० १३१४- १३२३] | सिद्धसूरि [वि० सं० १३४६ - १३७३] कक्सूरि [वि० सं० १३७८ - १४१२] देवगुप्तसूरि [वि० सं० १४२१-१४७६] सिद्धसूरि [वि० सं० १४७७-१४९८ ] 1 कक्कसूरि [वि० सं० १४९९ : १५१२] देवगुप्तसूरि [वि० सं० १५२८ - १५५७ ] सिद्धसूरि [वि० सं० १५६६ - १५९६] 1 देवगुप्तसूरि [वि० सं० १६३४ ] ११३ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.१४ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ ककुदाचार्यसन्तानीय आचार्यों की तालिका में उल्लिखित कक्कसूरि [वि० सं०. १३७८-१४१२ प्रतिमालेख] और उनके गुरु सिद्धसुरि [वि० सं० १३४६-१३७३ प्रतिमालेख को नाभिनन्दनजिनोद्धारप्रबन्ध के कर्ता कक्कसूरि और उनके गुरु सिद्धसूरि से समसामयिकता के आधार पर अभिन्न मान सकते हैं। इसी प्रकार वि० सं० १३५२ में प्रतिलिपि कृत उत्तराध्ययनसूत्र की सुखबोधावृत्ति में उल्लिखित सिद्धसूरि भी उपरोक्त सिद्धसूरि से अभिन्न प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार ककुदाचार्य सतानीय देवगुप्तसूरि [वि० सं० १३१४-१३२३ प्रतिमालेख] तथा उपकेशगच्छप्रबन्ध और नाभिनन्दनजिनोद्धारप्रबन्ध के रचनाकार कक्कसूरि के प्रगुरु और सिद्धसूरि के गुरु देवगुप्तसूरि को एक ही आचार्य माना जा सकता है । __ उपकेशगच्छीय मतिशेखर द्वारा रचित धन्नारास [रचनाकाल वि० सं० १५१४/ई० सन् १४५८] और वाचकविनयसमुद्र द्वारा रचित आरामशोभाचौपाई [वि० सं० १५८३/ई० सन् १५२७] की प्रशस्तियों में रचनाकार द्वारा जो गुरु-परम्परा दी गई है उसकी संगति भी ककुदाचार्यसन्तानीय गुरु-परम्परा से पूर्णतया बैठ जाती है। इनका विवरण इस प्रकार है । धन्नारास -मरु-गुर्जर भाषा में रचित यह रचना उपकेशगच्छीय मुनि शीलसुन्दर के शिष्य मतिशेखर की अनुपम कृति है। इसकी प्रशस्ति' में रचनाकार ने अपनी गुरु-परम्परा और रचनाकाल का उल्लेख किया है. जो इस प्रकार है रत्नप्रभसूरि यक्षदेवसूरि १. श्री उवओसगछ सिणगारो पहिलो रयणप्पह गणधारो, गुणि गोयम अवतारो, जक्खदेवसूरीय प्रसिद्धो तास पाटि जिणि जगि जस लीधो, संयमसिरि उरिहारो।।२६।। अनुक्रमि देवगुप्तसूरीस, सिद्धसूरि नामि तस सीस मुणिजण सेवीय पाय Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास देवगुप्तसूरि सिद्धसूरि कक्कसूरि शीलसुन्दर मतिशेखर [वि० सं० १५१४/ई० सन् १४५६ में धन्नारास के रचयिता] मतिशेखर' द्वारा रचित अन्य रचनायें, यथा--मयणरेहारास, बावनी, नेमिनाथसतफुलडाफागु, कुरगडु (क्रूरघट ) महर्षिरास, इलापुत्रचरित्र, नेमिगीत भी उपलब्ध होती हैं। पारामशोभाचौपाई मरु-गूर्जर भाषा में रचित यह कृति उपकेशगच्छीय हर्षसमुद्र के शिष्य वाचक विनयसमुद्र द्वारा वि० सं० तस पाटे संपइ जयवंतो गछनायक महिमा गुणवंतो ___कक्कसूरि गुरुराय ॥२७॥ सई हत्थि थापीय तिणि गुणहारा, गुणवन्त सीलसुन्दर सारा वारीय जिणि अणंगो तास सीस मतिसेहर हरसिहि पनरइ सई चउदोत्तर वरसिहि कीयो कवित अतिअंगो ॥२८॥ देसाई, मोहनलाल दलीचन्द-जैनगुर्जरकविओ-भाग १ (नवीन संस्करण, अहमदाबाद-१९८६ ई०) पृष्ठ १०७ १. देसाई, पूर्वोक्त, पृष्ठ १०७ और आगे Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ . श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ १५८३ में रची गयी है।' अद्यावधि इनकी २० रचनायें उपलब्ध हैं जो. वि० सं० १५८३ से वि० सं० १६१४ के मध्य रची गयी हैं। आरामशोभाचौपाई की प्रशस्ति में रचनाकार की जो गुरु-परम्परा प्राप्त होती है, वह इस प्रकार है रत्नप्रभसूरि सिद्धसूरि हर्षसमुद्र विनयसमुद्र [वि० सं० १५८३/ई० सन् १५२६ ___आरामशोभाचौपाई के रचनाकार] मृगावतीचौपाई यह उपकेशगच्छीय वाचक विनयसमुद्र की दूसरी महत्त्वपूर्ण कृति है, जो वि० सं० १६०२/ई० सन् १५४६ में रची १. करि संलेहण साध्यां काज, लहिसे मुक्तिपुरीनउ राज । उव असगच्छ गुणगणे गरिठ्ठ, श्री रयणप्पहसूरि वरिठ्ठ ॥४५॥ तसु अनुक्रमि संपइ सिद्धसूरि, तासु सीस वाचक गुणभूरि । हरषसमुद्र नामि गुणसार, तासु सीसइ कहउ विचार ॥४६॥ विनयसमुद्र वाचक इम भणइं, धन्य ति नरनारी जे सुणई । तेहनी सीनई सधली आस, पुणि ते लहिले शिवपुरिवास ॥४७॥ अ आरामसोभा चउपइ, भावतणे उपरि मई कही, वरस व्यासिये मागसिरि मासि, बीकानयरिहि मन उल्लासि-॥४८ देसाई, पूर्वोक्त, पृष्ठ २८१ २. कर गयणंगण रस शशि वर्षे, वर वैशाख मास मन हर्षे । पञ्चमी सोमवार चउसाल, चउपइबन्ध रची सुविशाल ॥९३॥ वीका नयरहि वीर जिणंद, तासु पसायई परमाणंद । श्री उवअसगच्छ सिणगार, रयणपह गिरुओ गणधार ॥९४४॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास ११७ गयी है । इस रचना की प्रशस्ति में भी वाचक विनयसमुद्र ने अपनी -गुरु-परम्परा का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है रत्नप्रभसूरि सिद्धसूरि T हर्ष समुद्र कक्कसूरि 1 विनयसमुद्र [वि० सं० १६०२ / ई० सन् १५४६ में मृगावती चौपाई ] के रचनाकार 11 उनके गच्छीय वाचक मतिशेखर द्वारा वि० सं० १५३७ में रचित भयणरेहारास' की वि० सं० १५९१ / ई० सन् १५३४ में लिखी गयी प्रतिलिपि की प्रशस्ति में उपकेशगच्छीय कक्कसूरि, उनके शिष्य उपा० रत्नसमुद्र और उनकी शिष्या साध्वीरङ्गलक्ष्मी का उल्लेख प्राप्त होता है । इस प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि मयणरेहारास की यह प्रतिलिपि साध्वी रङ्गलक्ष्मी के पठनार्थ लिखी गयी थी । उक्त साक्ष्यों के आधार पर उपकेशगच्छीय ककुदाचार्य सन्तानीय मुनिजनों के आचार्य परम्परा की जो तालिका बनती है, वह इस 'प्रकार है - द्रष्टव्य, तालिका संख्या २ प्रकट पारसनाथी पट्टि, बहुरिमें मुनिजननँ थट्ठि । श्री सिद्धसूरि संपइ सुहकार, कक्कसूरि तसु शिष्य उदार ॥ ९५ ॥ तसु आदेशि हर्ष समुद्र, वाचक तेहने विनयसमुद्र । तिणि विरच्यो ओ चरित रसाल, सुणियो कविवर संघ विशाल ॥ ९६ ॥ देसाई, मोहनलाल दलीचन्द -- पूर्वोक्त, पृष्ठ २८२-८३ १. देसाई, मोहनलाल दलीचन्द -- वही, पृष्ठ ११० Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तालिका-२ साहित्यिक प्रौर प्रभिलेखीय साक्ष्यों के श्राधार पर निर्मित उपकेशगच्छीय ककुदाचार्य संतानीय प्राचार्य परम्परा कक्कसूरि - जिनचन्द्रगणि / कुलचन्द्रगणि अपरनाम देवगुप्तसूरि [वि० सं० १०७३ / ई० सन् १०१७ में नवपदप्रकरण के रचयिता ] [ संभवतः तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की ३१ उपोद्घात्कारिका के टीकाकार ] कक्कसूरि [ पंचप्रमाण के कर्ना] वि० सं० १०७८/ ई० सन् १०२२ प्रतिमालेख 1 सिद्धसूरि देवगुप्तसूर [ द्वितीय ] सिद्धसूरि [वि० सं० ११९२ / ई० सन् ११३६ में क्षेत्रसमासवृत्ति [वि०सं० १२०३ प्रतिमालेख] यशोदेव उपाध्याय पूर्वनाम धनदेव वि० सं० ११६५ / ई० सन् ११०९ में नवपदप्रकरण बृहद्वृत्ति एवं वि० सं० ११७८ / ई० सन् ११२२ में चन्द्रप्रभचरित के कर्ता ११८ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ककुदाचार्य संतानीय I कक्कसूरि (चौलुक्यनरेश कुमारपाल [वि०सं० ११९९-१२३०] के समकालीन) वि०सं० ११७२-१२१२ प्रतिमालेख देवगुप्तसूरि [वि०सं० १३१४-२३] प्रतिमालेख सिद्धसूरि [वि०सं० १३४६-१३७३ ] प्रतिमालेख; I कक्कसूरि [वि०सं० १३७६-१४१२] प्रतिमालेख वि०सं० १३९३ / ई० सन् १३३७ में नाभिनन्दनजिनोद्धारप्रबन्ध एवं उपकेशगच्छप्रबन्ध के 1 रचयिता देवगुप्तसूरि [वि०सं० १४३२-१४७६] प्रतिमालेख सिद्धसूरि [वि०सं० १४७७-१४९८] प्रतिमालेख T कक्कसूरि [वि०सं० १४९९-१५१२] प्रतिमालेख शत्रुञ्जयतीर्थोद्धारक समरसिंह के गुरु; वि०सं० १३५२ की उत्तराध्ययन सूत्रटीका में उल्लिखित उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास ११९ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० मुनिशीलसुन्दर देवगुप्तसूरि [वि०सं० १५२८-१५५७] प्रतिमालेख वाचक मतिशेखर सिद्धसूरि [वि०सं० १५६६-१५९६] प्रतिमालेख वि०सं० १५१४/ई० सन् १४५८ में धन्नारास एवं वि०सं० १५३७/ई० सन् १४७१ में मयणरेहारास के कर्ता हर्षसमुद्र उपा० रत्नसमुद्र वाचकविनयसमुद्र साध्वीरंगलक्ष्मी [वि०सं० १५८३ में आरामशोभाचौपाई] [वि०सं० १५९१ में इनके पठनार्थ एवं [वि०सं० १६०२ में मृगावतीचौपाई] मयणरेहारास की प्रतिलिपि की गयी के कर्ता कक्कसूरि [वि०सं० १६०२ में। । रचित मृगावती चौपाई । | में उल्लिखित देवगप्तसरि [वि०सं० १६३४ प्रतिमालेख] श्रमण ; जुलाई-सितम्बर, १९९१ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेश गच्छ का संक्षिप्त इतिहास १२१ साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर निर्मित उपगच्छीय ककुदाचार्य संतानीय आचार्य परम्परा की उक्त तालिका में वि० सं० की ग्यारहवीं शती के मध्य हुए कक्कसूरि से लेकर विक्रम की सत्रहवीं शती के बीच हुए देवगुप्तसूरि तक के आचार्य हैं । इस तालिका में चौलुक्यनरेश कुमारपाल (वि० सं० ११९९-१२३० ) के समकालीन कक्कसूरि ( वि० सं० ११७२ - १२१२ प्रतिमालेख) और ककुदाचार्य संतानीय देवगुप्तसूरि (वि० सं० १३१४ - १३२३ प्रतिमालेख ) के मध्य लगभग १०० वर्षों का अन्तराल है । इस बीच कौन-कौन से आचार्य हुए, इस बारे में ग्रन्थप्रशस्तियों तथा प्रतिमालेखों से कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती, किन्तु उपकेशगच्छपट्टावली' (उपकेशगच्छ प्रबन्ध और नाभिनन्दनजिनोद्वारप्रबन्ध के आधार पर निर्मित) के विवरण के आधार पर इस अन्तराल को पूर्ण किया जा सकता है । उक्त पट्टावली के अनुसार कक्कसूरि ( कुमारपाल के समकालीन ) के पश्चात् देवगुप्तसूरि हुये । यद्यपि इस देवगुप्तसूरि का कोई प्रतिमालेख नहीं मिला है, तथापि वि० सं० १२४० के आस-पास उनका समय माना जा सकता है। पट्टावली के अनुसार देवगुप्तसूरि के पट्टधर सिद्धसूरि हुये। वि० सं० १२६१ के प्रतिमा लेख में उल्लि खित सिद्धसूरि संभवतः यही सिद्धसूरि हैं । पट्टावली में कहा गया है कि वि० सं० १२५२ में तुरुष्कों ने उपकेशपुर पर आक्रमण किया और यहाँ स्थित महावीर जिनालय को क्षतिग्रस्त कर दिया । गच्छनायक सिद्धसूरि इस समय पाटण में थे, बाद में वि० सं० १२५५ में उन्होंने इसका जीर्णोद्धार कराया ।" इसी पट्टावली के अनुसार सिद्धसूरि अपना पट्टधर नियुक्त करने के पूर्व ही स्वर्गस्थ हो गये, अतः श्रीसंघ ने वि० सं० १२७८ में उपाध्याय पदधारक मुनिवर्धमान को देवगुप्तसूरि के नाम से गच्छनायक बनाया । " १. देसाई, मोहनलाल दलीचंद -- जैनगुर्जरकवियो (प्रथम संस्करण) भाग ३ खंड २, पृष्ठ २२५४-२२७६ वही, पृष्ठ २२६५-२२६६ २. ३. वही, पृष्ठ २२६७ ४. वही, पृष्ठ २२६७ ५. वही, पृष्ठ २२६८ 5. वही Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ उपकेशगच्छ की द्वितीय पट्टावली के अनुसार महावीर और पार्व; दोनों की वन्दना करने के कारण वि० सं० १२६६ में उपकेशगच्छ में सिद्धसूरि से द्विवंदनीकशाखा का उदय हुआ' रस-रस-दिनकर (१२६६) वर्षे, मासे मधुमाधबे च संज्ञायाम् । जाता द्विवंदनीकाः, श्रीमसिद्धसूरिवराः ॥ उक्त विवरण से यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि गच्छनायक गुरु द्वारा गच्छ की परम्परागत मान्यता के विपरीत नवीन मान्यता स्थापित करने के कारण गच्छ में मतभेद हो गया, जिससे सिद्धसूरि अपने जीवनकाल में अपना पट्टधर भी नियुक्त न कर सके, अन्त में श्रीसंघ ने गच्छ की प्राचीन मान्यताओं में श्रद्धा रखने वाले मनिजनों की सम्मति से वि० सं० १२७८ में उपाध्याय वर्धमान को देवगुप्तसूरि के नाम से गच्छनायक के पद पर प्रतिष्ठित किया। प्रथम पट्टावली के अनुमार देवगप्तसूरि का वि० सं० १३३० में ८४ वर्ष की आयु में निधन हुआ।२ अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर ककुदाचार्यसंतानीय देवगुप्तसूरि द्वारा वि० सं० १३१४-१३२३ में प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमायें उपलब्ध हुई हैं, अतः समसामयिकता के आधार पर उक्त दोनों देवगुप्तसूरि एक ही आचार्य माने जा सकते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि देवगुप्तसूरि के समय से ही उपकेशगच्छ की इस प्राचीन शाखा के मुनिजन ककुदाचार्यसंतानीय कहे जाने लगे। इस प्रकार उपरोक्त तालिका के १०० वर्षों की आचार्य परम्परा का अन्तराल पूर्ण हो जाता है और उपकेशगच्छीय ककुदाचार्यसंतानीय मुनिजनों के गुरु-परम्परा की जो तालिका निर्मित होती है, वह इस प्रकार है, द्रष्टव्य-तालिका-३ १. मुनि जिनविजय-विविधगच्छीयपट्टावलीसंग्रह, पृष्ठ ८ २. देसाई, पूर्वोक्त, पृष्ठ २२६९ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तालिका-३ कक्कसूरि जिनचन्द्रगणि कुलचन्द्रगणि अपरनाम देवगुप्तसूरि [वि०सं० १०७३/ई० सन् १०१७ में नवपदप्रकरण के रचनाकार कक्कसूरि [पंचप्रमाण के कर्ता] । [वि०सं० १०७८/ई० सन् १०२२ प्रतिमालेख सिद्धसूरि देवगुप्तसूरि [द्वितीय] उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास सिद्धसूरि [वि०सं० ११९२/ई० सन् ११३६ में यशोदेव उपाध्याय पूर्वनाम धनदेव क्षेत्रसमासवृत्ति; [वि०सं० १२०३ वि०सं० ११६५/ई० सन् ११०९ में प्रतिमालेख नवपदप्रकरणबृहद्वृत्ति एवं वि०सं० ११७८/ई० सन् ११२२ में चन्द्रप्रभचरित ककुदाचार्य कक्कसूरि (चौलुक्यनरेश कुमारपाल- के कर्ता वि०सं० ११९९-१२३० के समकालीन) | वि०सं० ११७२-१२१२ प्रतिमालेख १२३ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१२४ देवगुप्तसूरि वीरदेवउपाध्याय सिद्धसूरि [वि०सं० १२६१] प्रतिमालेख ----द्विवंदणीकशाखा प्रारम्भ-- } --ककुदाचार्यसंतानीयशाखा प्रारम्भ --- देवगुप्तसूरि [वि०सं० १२७८ में पट्टधर बने] [पट्टावली के अनुसार वि०सं० १३३० में मृत्यु; वि०सं० १३१४-१३२३] प्रतिमालेख सिद्धसूरि [वि०सं० १३४६-१३७३] प्रतिमालेख; | शत्रुञ्जयतीर्थोद्धारक समरसिंह के गुरु कक्कसूरि [वि०सं० १३७६-१४१२] प्रतिमालेख; वि०सं० १३९३ | में नाभिनन्दनजिनोद्धारप्रबंध एवं उपकेशगच्छप्रबंध देवगुप्तसूरि [वि०सं० १४३२-१४७६] प्रतिमालेख सिद्धसूरि [वि०सं० १४७७-१४९८] प्रतिमालेख कक्कसूरि [वि०सं० १४९९-१५१२] प्रतिमालेख श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास मुनिशीलसुन्दर वाचक मतिशेखर वि०सं० १५१४ में धन्नारास एवं वि०सं० १५३७ में मयणरेहारास के कर्ता देवगुप्तसूरि [वि०सं० १५२८.१५५७] प्रतिमालेख सिद्धसूरि [वि०सं० १५६६-१५९६] प्रतिमालेख हर्षसमुद्र उपा० रत्नसमुद्र कक्कसूरि [वि०सं० १६०२ में रचित मंगावतीचौपाई में उल्लिखित] वाचक विनयसमुद्र [वि०सं० १५८३ में आरामशोभाचौपाई वि०सं० १६०२ में मृगावतीचौपाई] के रचनाकार साध्वी रंगलक्ष्मी [वि०सं० १५९१ में इनके पठनार्थ मयणरेहारास की प्रतिलिपि की गयी] देवगुप्तसूरि । [वि०सं० १६३४ प्रतिमालेख] १२५. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ उपकेशंगच्छीय सिद्धाचार्यसंतानीय मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित तीर्थङ्कर प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों का विवरण इस इस प्रकार है१ २ ३ १. १३१५ (?) वैशाख वदि ७ सिद्धाचार्यसंतानीय सिद्धसूरि की पल्लविया जिनविजय, पूर्वोक्त गुरुवार कक्कसूरि प्रतिमा का लेख पार्श्वनाथ भाग २, जिनालय, लेखांक ५५३ पालनपुर २. १३३७ माघ सुदि ७ , पार्श्वनाथ की चिन्तामणि माहटा, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख जिनालय, लेखांक १८९ बीकानेर ३. १३४४ कार्तिक सिद्धाचार्यसंतानीय महावीर की हरसूली पार्श्व- विनयसागर, सुदि १० श्री... प्रतिमा का लेख नाथ जिनालय, पूर्वोक्त-लेखांक ९४ ४. १३४७ वैशाख सुदि १५ सिद्धाचार्यसंतानीय पार्श्वनाथ की जैन मन्दिर, नाहर, पूर्वोक्त रविवार देवगुप्तसूरि प्रतिमा का लेख जूनाबेडा, भाग १, मारवाड़ लेखांक ९२१ ५. १३९३ ज्येष्ठ सुदि १ , चन्द्रप्रभ जिना- विनयसागर, शुक्रवार लय, कोटा पूर्वोक्त लेखाइ १३७ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. १४३२ ७. १४४० ८. १४६६ ९. १४७० १०. १४७३ फाल्गुन सुदि ३ सिद्धाचार्यसंतानीय सिद्धसूरि शुक्रवार पोष सुदि १२ बुधवार वैशाख सुदि ३ शनिवार ज्येष्ठ सुदि ४ बुधवार "" सिद्धाचार्य संतानीय कक्कसूरि सिद्धाचार्यसंतानीय देवगुप्तसूरि फाल्गुन सुदि १५ सिद्धाचार्यसंतानीय सिद्धसूरि सोमवार महावीर की प्रतिमा का लेख वासुपूज्य की प्रतिमा का लेख मुनिसुव्रत की प्रतिमा का लेख अनन्तनाथ की सपरिकर प्रतिमा का लेख चिन्तामणिजिनालय, बीकानेर " 11 नाहटा, पूर्वोक्त लेखांक ५०२ वही, लेखांक ५४१ वही, लेखांक ६२६ वीर जिनालय, वही, लेखांक १३४६ बीकानेर वही, लेखांक १३६४ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १२७ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ ११. १४८४ - १२८ my वैशाख वदि १२ सिद्धाचार्यसंतानीय वासुपूज्य की रविवार देवगुप्तसूरि प्रतिमा का लेख १२. १४८६ वैशाख सुदि ५ ॥ विमलनाथ की प्रतिमा का लेख गुरुवार . १३. १४८६ , कार्तिक सुदि ११ सोमवार सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख नमिनाथ की प्रतिमा का लेख शीतलनाय नाहटा, पूर्वोक्त जिनालय, भाग २, उदयपुर लेखांक १०७२ अनुपूर्ति लेख, मुनि जयन्तविजय आबू संपा० अर्बुदप्राचीन जैनलेखसंदोह (आबू भाग २) लेखांक ६२२ पार्श्वनाथ नाहर, पूर्वोक्त जिनालय, देल- भाग २, वाड़ा, मेवाड़ लेखांक १९८२ मुनिसुव्रत वही, भाग १ जिनालय, लेखांक २३८ राजगृह संभवनाथ जिना- बुद्धिसागर, लय, झवेरीवाड़, पूर्वोक्त, भाग १, अहमदाबाद लेखांक ८३२ ।। १४. १४९७ , आषाढ़ वदि ८ रविवार श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ १५. १५०२ वैशाख वदि ४ सिद्धाचार्यसंतानीय शीतलनाथ की शुक्रवार कक्कसूरि प्रतिमा का लेख Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा मदि३ शुक्रवार सिद्धाचार्यसंतानीय चन्द्रप्रभ की कक्कसूरि प्रतिमा का लेख बावन जिनालय, बुद्धिसागर, पेथापुर पूर्वोक्त, भाग १, लेखांक ६८५ चिन्तामणि नाहटा, पूर्वोक्त जिनालय, लेखांक ८७० बीकानेर १७. १५०३ ज्येष्ठ सुदि ११ शुक्रवार , नमिनाथ की प्रतिमा का लेख उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १८. १५०३ माघ सुदि ३ सिद्धाचार्यसंतानीय कुंथुनाथ की शुक्रवार कक्कंसूरिके पट्टधर प्रतिमा का देवगुप्तसूरि लेख अजितनाथ जिनालय, शेखनो पाडो, अहमदाबाद बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग १, लेखांक १०६५ ५९. १५०४ ज्येष्ठ वदि ११ सिद्धाचार्यसंतानीय पार्श्वनाथ की मंगलवार देवगुप्तसूरि प्रतिमा का लेख चौमखजी देरा- वही, भाग १ सर, वडनगर लेखांक ५६३ २०. १५०४ फाल्गुन सुदि १३ सिद्धाचार्यसंतानीय पद्मप्रभ की शनिवार भट्टारक कक्कसूरि प्रतिमा का लेख मुनिसुव्रत जिना- वही, भाग २ लय, खारवाडो, लेखांक १०२४ खंभात Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २ २१. १५०५ २२. १५०६ २३. १५०६ २४. १५०६ २५. १५०७ माघ वदि ६ गुरुवार चैत्र... गुरुवार वैशाख वदि गुरुवार फाल्गुन सुदि ९ शुक्रवार ज्येष्ठ सुदि ५ ४ सिद्धाचार्य संतानीय कक्कसूरि 11 " सिद्धाचार्यसंतानीय देवगुप्तसूरि एवं कक्कसूरि ५ शांतिनाथ की प्रतिमा का लेख विमलनाथ की प्रतिमा का लेख सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख अजितनाथ की प्रतिमा का लेख संभवनाथ की प्रतिमा का लेख ६ पार्श्वनाथ गभारोमानी प्रतिमा, अहमदाबाद शांतिनाथ जिनालय, शांतिनाथ पोल, अहमदाबाद गौड़ी पार्श्वनाथ जिनालय, पालिताना अनुपूर्ति लेख, आबू वीर जिनालय, पापधुनी, मुम्बई ७ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग १, लेखांक ९०४ वही भाग १ १३०५ लेखांक शत्रुञ्जयवैभव लेखांक १०९ आबू, भाग २, लेखांक ६३८ मुनि कान्तिसागर, पूर्वोक्त, लेखांक १०७ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. १५०७ २७. १५०८ २८. १५०८ २९. १५०९ ३०. १५१० ३१. १५११ कार्तिक सुदि ११ सिद्धाचार्यसंतानीय कक्कसूरि शुक्रवार वैशाख वदि ९ शनिवार वैशाख सुदि ५ सोमवार आषाढ़ वदि २ गुरुवार चैत्र वदि १० शनिवार माघ सुदि ८ बुधवार " , " 11 ܙܙ संभवनाथ की प्रतिमा का लेख सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख शीतलनाथ की प्रतिमा का लेख श्रेयांसनाथ की पञ्चतीर्थी प्रतिमा का लेख सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख आदिनाथ की प्रतिमा का लेख बड़ा जैन मंदिर, नागौर जैन मंदिर, बडावली चिन्तामणि जिनालय, बीकानेर नेमिनाथ जिनालय, टोडारायसिंह पार्श्वनाथ जिनालय, अहमदाबाद शांतिनाथदेरासर, अहमदाबाद विनयसागर, पूर्वोक्त, लेखांक ४१७ वही, लेखांक ९६ नाहटा, पूर्वोक्त लेखांक ९२५ विनयसागर, पूर्वोक्त लेखांक ४३९ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग १, लेखांक ८५८ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग १, लेखांक १२३९ उपगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १३१ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. १५११ नाहर, पूर्वोक्त ३३. १५१२ ३४. १५१२ १५१५ वैशाख वदि ११ सिद्धाचार्यसंतानीय अजितनाथ की शांतिनाथ शुक्रवार कक्कसूरि प्रतिमा का लेख जिनालय, लखनऊ भाग २, लेखांक १५०४ फाल्गुन सुदि १२ , संभवनाथ की धर्मनाथ वही, भाग १ प्रतिमा का लेख जिनालय, जोधपुर लेखांक ६२३ नमिनाथ की चिन्तामणि नाहटा, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख जिनालय, लेखांक ९६० बीकानेर मार्गशीर्ष सिद्धाचार्यसंतानीय चन्द्रप्रभ की चौमुख शांतिनाथ बुद्धिसागर, सुदि १० गुरुवार सिद्धसूरि प्रतिमा का लेख देरासर, अहमदाबाद पूर्वोक्त, भाग १. लेखांक ८९० ज्येष्ठ सुदि १३ शीतलनाथ बावन जिनालय, बुद्धिसागर, सोमवार की प्रतिमा पेथापुर पूर्वोक्त भाग १, का लेख लेखांक ६८० आषाढ़ वदि ५ ॥ अभिनन्दनस्वामी चिन्तामणि नाहटा, पूर्वोक्त सोमवार की प्रतिमा जिनालय, लेखांक १०१७ का लेख बीकानेर ३६. १५१९ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ ३७ १५१९ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. १५१९ ३९. १५२१ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास ४०. १५२१ माघ वदि ५ सिद्धाचार्यसंतानीय कुंथुनाथ की अजितनाथ जिनालय, बद्धिसागर, बुधवार देवगुप्तसूरि प्रतिमा का लेख शेखनो पाडो, पूर्वोक्त भाग १, अहमदाबाद लेखांक १०९४ वैशाख वदि २ ॥ वही, भाग १ रविवार लेखांक ७७० आषाढ़ सुदि ९ ॥ सुमतिनाथ की आदिनाथ जिनालय नाहटा, पूर्वोक्त गुरुवार प्रतिमा का लेख राजलदेसर लेखांक २३३९ ___ आषाढ़ सुदि ९ सिद्धाचार्यसंतानीय विमलनाथ की पार्श्वनाथ नाहटा, पूर्वोक्त गुरुवार देवगुप्तसूरि प्रतिमा जिनालय लेखांक १६०३ का लेख (कोचरों में), बीकानेर ज्येष्ठ वदि १ सिद्धाचार्यसंतानीय बासुपूज्य की सम्भवनाथ नाहर, पूर्वोक्त शुक्रवार सिद्धसूरि । धातु की प्रतिमा जिनालय, भाग १, का लेख मुर्शिदाबाद लेखांक ५१ फाल्गुन सुदि ९ , विमलनाथ की जैनमंदिर, शत्रुञ्जयवैभव सोमवार प्रतिमा जसकौर धर्मशाला, लेखांक १८५ का लेख पालिताना ४२. १५२५ ४३. १५२५ - १३३ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ४४. १५२७ १३४ राधनपुर ४५. १५२७ ४६. १५२७ आषाढ़ सुदि २ मिद्धाचार्यसंतानीय संभवनाथ की वीरजिनालय, मुनि विशालगुरुवार सिद्धसूरि धातु की तंबोणी शेरी, विजय, पूर्वोक्त, पञ्चतीर्थी लेखांक २५४ प्रतिमा का लेख पौष बदि ५ सिद्धाचार्यसंतानीय कुन्थनाथ की सुमतिनाथ . नाहर, पूर्वोक्त शुक्रवार देवगुप्तसूरि के प्रतिमा का लेख जिनालय, नागौर भाग २, पट्टधर सिद्धसूरि लेखांक १३२२ पौष वदि ५ सिद्धाचार्यसंतानीय कुन्थुनाथ की कुन्थुनाथ जिनालय, विनयसागर, शुक्रवार प देवगुप्तसूरि के रक पञ्चतीर्थी प्रतिमा गोगोलाब पूर्वोक्त लेखांक ६९३ चौसठिया जी वही, लेखांक का मन्दिर, नागौर ६९४ चैत्र वदि ५ विमलनाथ की शांतिनाथ जिनालय, कान्तिसागर, रविवार प्रतिमा का लेख भिण्डी बाजार, पूर्वोक्त लेखांक २०६ पट्टधर सिद्धसूरि का लेख ४७. १५२७ श्रमण, जुलाई-सितम्बर १९९१ ४८ १५२८ मुम्बई Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९. १५३२ चैत्र सुदि ४ शनिवार सिद्धाचार्यसंतानीय धर्मनाथ सिद्धसूरि । की प्रतिमा का लेख चिन्तामणि जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त बीकानेर लेखांक १०७१ ५०. १५३३ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास ५१. १५३४ आषाढ़ सुदि २ सिद्धाचार्यसंतानीय शांतिनाथ की जगवल्लभ पार्श्वनाथ बद्धिसागर, रविवार प्रतिमा का लेख देरासर, अहमदाबाद पूर्वोक्त, भाग १, लेखांक १२०५ फाल्गुन वदि ३ सिद्धाचार्यसंतानीय सूविधिनाथ चिन्तामणि नाहटा, पूर्वोक्त शुक्रवार सिद्धसूरि की प्रतिमा जिनालय, लेखांक १०९० का लेख बीकानेर पौषवदि १० सिद्धाचार्यसंतानीय श्रेयांसनाथ सामला पार्श्वनाथ बुद्धिसागर, बुधवार कक्कसूरि की चौबीसी जिनालय, पूर्वोक्त, भाग १, प्रतिमा का लेख डभोई लेखांक ३२ ज्येष्ठ सुदि ११ , नमिनाथ की चिन्तामणि नाहटा, पूर्वोक्त शुक्रवार प्रतिमा का जिनालय, लेखांक ११०५ लेख बीकानेर ५२. १५३७ ५३. १५३(?) १३५ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ ५४. १५४० वैशाख सुदि १० सिद्धाचार्यसंतानीय मुनिसुव्रत की मुनिसुव्रत विनयसागर, बुधवार भ० धर्मसुन्दरसूरि पञ्चतीर्थी जिनालय, पूर्वोक्त, एवं सिद्धसूरि प्रतिमा का लेख सैलाना लेखांक ८२२ ज्येष्ठ वदि १० सिद्धाचार्यसंतानीय आदिनाथ की आदिनाथ जिनालय, वही, शुक्रवार धर्मसुन्दरसूरि के पञ्चतीर्थी बीवड़ोद, मध्यप्रदेश लेखांक ८५४ पट्टधर कक्कसूरि प्रतिमा का लेख ५५. १५४९ श्रमण, जुलाई-दिसम्बर, १९९१ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १३७ अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर निर्मित उपकेशगच्छीय सिद्धाचार्य संतानीय शाखा के आचार्य परम्परा की तालिका I l कक्कसूरि [वि० सं० १३१५- १३४५ ] I देवगुप्तसूरि [वि० सं० १३४७ ] 1 सिद्धसूरि ] वि० सं० १३८५ ] | 1 देवगुप्तसूरि [वि० सं० १३८९-१४२७ ] I सिद्धसूरि [वि० सं० १४३२-१४४५ ] | कक्कसूरि [वि० सं० १४६६-१४७१ ] T देवगुप्तसूरि [वि० सं० १४७१-१४९९ ] [ सिद्धसूरि [वि० सं० १४७३ ] कक्कसूरि [ वि० सं० १५०२ - १५१२ ] I Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ देवगुप्तसूरि [ वि० सं० १५०३ - १५२१ ] सिद्धसूरि [वि० सं० १५१५ - १५४० ] I कक्कसूरि [ वि० सं० १५३७ - १५४९ ] अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर सिद्धाचार्यसंतानीय मुनिजनों की तालिका ऊपर प्रदर्शित की गयी है । साहित्यिक साक्ष्यों द्वारा भी उपकेशगच्छीय- सिद्धाचार्यसंतानीय कुछ मुनिजनों के नाम ज्ञात होते हैं, इनका विवरण इस प्रकार है उत्तराध्ययन सूत्र सुखबोधावृत्ति की प्रतिलेखन प्रशस्ति उपकेशगच्छीय सिद्धाचार्य संतानीय देवगुप्तसूरि के शिष्य विनयप्रभ उपाध्याय ने वि०सं० १४७९ में अपने गुरु की आज्ञा से स्वपठनार्थ वडगच्छीय आचार्य नेमिचन्द्रसूरी की प्रसिद्ध कृति उत्तराध्ययनसूत्रसुखबोधावृत्ति की प्रतिलिपि करायी ।" इसके अन्त में उन्होंने अपनी गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है सिद्धाचार्य संतानीय देवगुप्तसूरि | श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ १. संवत् १४७९ वर्षे ज्येष्ठ सुदि षष्ठ्यां रवौ श्री श्री उपकेश गच्छे श्री सिद्धाचार्य संताने... ... विनयप्रभ उपाध्याय [वि० सं० १४७९ / ई० सन् १४२३ एवंविधगुणोपेत भट्टारकश्रीश्री देवगुप्तसूरीणामादेशेन शिष्याणुरुपाध्याय श्रीविनयप्रभेण आत्मपठनार्थ श्रीनेमिचन्द्रसूरिविरचिता श्रीउत्तराध्ययनलघुवृत्तिर्निजसंच ( ? ) पुस्तके निजगुर्वाज्ञया लिखापिता लेषकेन लिखिता श्रीउत्तराध्ययनवृत्तिः संपूर्णा ॥ Kapadiya, H. R.-Descriptive Catalogue of the Govt Collections of the Mss deposited at the B. O. K. I, Punc... Volume XVII Part III ( Pune - 1940) Pp: 32-33. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास -में इनके पठनार्थ उत्तराध्ययनसूत्र __ सुखवोधावृत्ति की प्रतिलिपि की गयी] यद्यपि इस प्रशस्ति से उपकेशगच्छीय सिद्धाचार्यसंतानीय दो मुनिजनों के नाम ही ज्ञात होते हैं, फिर भी उपकेशगच्छ की उक्त शाखा के इतिहास की दृष्टि से यह प्रशस्ति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।। ____ अजापुत्रचौपाई' यह उपकेशगच्छीय सिद्धाचार्यसंतानीय मुनि धर्मरुचि द्वारा मरु-गुर्जर भाषा में वि० सं० १५६१ में रची गयी है। रचना के अन्त में मुनि धर्मरुचि ने अपनी गुरुपरम्परा का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है सिद्धसूरि कक्कसूरि देवगुप्तसूरि सिद्धाचार्यसंतानीय कक्कसूरि धर्महंस १. संवत पन्नर वरस अकसठ्ठि, वैशाख पंचमी शुदि गुरुहिं गरिठ्ठा । नक्षत्र मृगशिर योग सकर्मा, कीधी चउपई दिन जाणी ॥३४॥ उवअसगच्छ तणा शगार, सिद्धसूरि गुरु लब्धिभंडार । सद्दगुरु नामइ गच्छ संतान, वंदिइ भवियण महिमानिधान ॥३५॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *१४० T धर्मरुचि [ वि० सं० १५६१, ई० सन् १५०५ में अजापुत्र चौपाई के रचनाकार ] साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर निर्मित उपकेशमच्छीय सिद्धाचार्य संतानीय शाखा के आचार्यों की तालिका तालिका-४ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ ? Į 1 T I कक्कसूरि [ वि० सं० १३१५-२३४५ ] प्रतिमालेख देवगुप्तसूरि [वि० सं० १३४७] प्रतिमालेख सिद्धसूरि [वि० सं० १३८५ ] प्रतिमालेख कक्कसूरि त पाटि मुणींद, आगम कमला विकासन दिणंद | लोपी मिथ्यामय विषकंद समकित अमृतकला गुरु चंद ॥ ३६ ॥ सूरि शीरोमणी देवगुप्त, जाइ पाय जस नाम पवित्त | विघ्न टलइ सवि संपद मिलइ, गुरु नामइ चिंतित फलइ ||३७|| चिंतामणी कामधेनु समान, रत्नत्रय जिम नाम प्रधान । अलिय निवारी देव सचि आवी, वीरजिणेश्वर नमइशि भावि ॥३८॥ कक्कसूरि केरा शिष्य, श्री धर्महंस पय नामक शिष्य । धर्म्मरुचि बोलइ तास पसाइ, रची चउपइ अजापुत्रराय ॥३९॥ देसाई, पूर्वोक्त, पृष्ठ २१८-२१९ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १४१ देवगुप्तसूरि [वि० सं० १३८९-१४२७] प्रतिमालेख सिद्धसूरि [वि० सं० १४३२-१४४५] प्रतिमालेख कक्कसूरि [वि० सं० १४६६-१४७१] प्रतिमालेख देवगुप्तसूरि [वि० सं० १४७१-१४९९] प्रतिमालेख विनयप्रभ उपाध्याय सिद्धसूरि [वि० सं० १४७३] [वि० सं० १४७९/ ई० सन् प्रतिमालेख १४२३ की उत्तराध्यनसुखवोधा- कक्कसूरि [वि० सं० १५०२-१५०८] वृत्ति की प्रतिलिपि में प्रतिमालेख उल्लिखित] देवगुप्तसूरि [वि० सं० १५०३-१५०७] प्रतिमालेख सिद्धसूरि [वि० सं० १५२५-१५४०] प्रतिमालेख कक्कसूरि [वि० सं० १५३७-१५४९]. प्रतिमा लेख धर्महंस धर्मरुचि [वि० सं० १५६१ / ई० ___ सन् १५०५ में अजापुत्रचौपाई के रचनाकार]. उपकेशगच्छीय सिद्धाचार्यसंतानीय शाखा के आचार्यों की परम्परा की पूर्वोक्त तालिका संख्या ४ को अविभाजित उपकेशगच्छ की पूर्व प्रदर्शित तालिका-१ से समायोजिता तो किया जा सकता है, किन्तु दोनों के मध्य लगभग १०० वर्षों का जो अन्तराल है, उसे पूरा करने में साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों से कोई सहायता प्राप्त नहीं होती । उक्त दोनों तालिकाओं के समायोजन से गुरु-शिष्य परम्परा की जो नवीन तालिका निर्मित होती है, वह इस प्रकार है-- द्रष्टव्य-तालिका-५. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नालिका ५ कक्कसूरि जिनचन्द्रगणि/कुलचन्द्रगणि अपरनाम देवगुप्तसूरि [वि०सं० १०७३/ई० सन् १०१७ में नवपदप्रकरणवृत्ति के रचनाकार] । [तत्वार्याधिगमसूत्र की ३१ उपोद्घातकारिकाओं के टीकाकार ?] कक्कसूरि [जिनचैत्यवंदनविधि एवं पंचप्रमाण के रचयिता] । [वि०सं० १०७८ प्रतिमालेख] सिद्धसूरि देवगुप्तसूरि सिद्धसूरि यशोदेवउपाध्याय पूर्वनाम धनदेव [वि०सं० ११९२/ई० सन् ११३६ में क्षेत्रसमासवृत्ति वि०सं० ११६५/ई० सन् ११०९ में नवपदप्रकरणबृहवृत्ति के रचयिता] एवं [वि०सं० १२०३ प्रतिमालेख] वि०सं० ११७८/ई० सन् ११२१ में चन्द्रप्रभचरित के रचयिता] कक्कसूरि [चौलुक्यनरेश कुमारपाल वि०सं० ११९९-१२३०] के समकालीन [वि०सं० ११७२-१२१२ प्रतिमालेख श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कक्कसूरि [वि०सं० १३१५-१३४५] प्रतिमालेख उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास देवगुप्तसूरि [वि०सं० १३४७] प्रतिमालेख सिद्धसूरि [वि०सं० १३८५] प्रतिमालेख शाखा प्रारम्भ -सिद्धाचार्यसंतानीय देवगुप्तसूरि [वि०सं० १३८९-१४२७] प्रतिमालेख सिद्धसूरि [वि०सं० १४३२-१४४५] प्रतिमालेख कक्कसूरि [वि०सं० १४६६-१४७१] प्रतिमालेख देवगुप्तसूरि [वि०सं० १४७१-१४९९] प्रतिमालेख १४३ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयप्रभउपाध्याय [वि०सं० १४७९ / ई० सन् १४२३ की उत्तराध्ययनसूत्र की सुखवोधावृत्ति की प्रतिलिपि में उल्लिखित सिद्धसूरि [वि०सं० १४७३ ] प्रतिमालेख T कक्कसूरि [वि०सं० १५०२-१५०८] प्रतिमालेख देवगुप्तसूरि [वि०सं० १५०३-१५०७] सिद्धसूरि [वि०सं० १५२५-१५४०] कक्कसूरि [वि०सं० १५३७-१५४९] धर्महंस ! धर्मरुचि [वि०सं० १५६१ / ई० सन् १५०५ में अजापुत्रचौपाई के रचनाकार ] १४४ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १४५ साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर उपकेशगच्छ की उक्त शाखाओं (ककुदाचार्यसंतानीय और सिद्धाचार्यसंतानीय) के अतिरिक्त इस गच्छ की एक अन्य शाखा द्विवंदणीकगच्छ या विवंदणीकगच्छ का भी पता चलता है। उपकेशगच्छपट्टावली के अनुसार वि० सं० १२६६ (ई० सन् १२१०) में सिद्धसूरि द्वारा आगमिकगच्छ की सामाचारी और सूरिमंत्र अपनाने के कारण इस शाखा का जन्म हुआ। संभवतः पार्श्व और महावीर दोनों की वन्दना करने के कारण ये द्विवंदणीक कहलाये। इस शाखा की कोई पट्टावली नहीं मिलती है । इस शाखा से सम्बद्ध वि० सं० १३३४ से १५९९ तक के प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं। इस शाखा के १६वीं शती के कुछ प्रतिमालेखों में प्रतिमा प्रतिष्ठापक आचार्य को सिद्धाचार्यसंतानीय कहा गया है। इससे यह प्रतीत होता है कि उपकेशगच्छ की द्विवंदणीकशाखा और सिद्धाचार्यसंतानीयशाखा का निकट सम्बन्ध रहा है। इस शाखा के मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों का विवरण इस प्रकार १. मुनि कान्तिसागर-शत्रुजयवैभव, पृष्ठ १२६-१२७ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 उपकेशगच्छ (द्विवंदणीक विवंदणीक शाखा) से सम्बद्ध अभिलेखीय साक्ष्यों का विवरण १ २ १. १३३४ ज्येष्ठ वदि २ सोमवार सिद्धसूरि । २. १४४७ फाल्गुन सुदि ८ रत्नप्रभसूरि सोमवार श्रेयांसनाथ की अजितनाथ बुद्धिसागर, प्रतिमा का लेख जिनालय, पूर्वोक्त भाग १, वीरमगाम लेखांक १५११ अजितनाथ की चौसठियाजी विनयसागर, पंचतीर्थी प्रतिमा का मंदिर, पूर्वोक्त का लेख नागौर लेखांक १७३ जिनप्रतिमा जैन देरासर, बुद्धिसागर, पूर्वोक्तबनवाने का सौदागर पोल, भाग १, उल्लेख अहमदाबाद लेखांक ७९६ शीतलनाथ की चिन्तामणि विनयसागर, पूर्वोक्तपंचतीर्थी प्रतिमा पार्श्वनाथ देरासर, लेखांक ३७२ का लेख अहमदाबाद ३. १४७९ पौष वदि ५ सोमवार देवगुप्तसूरि श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ ४. १५०३ श्री . ...सेनसूरि माघ सुदि ७ बुधवार Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. १५०४ वैशाख सुदि ५ शनिवार देवगुप्तसूरि शांतिनाथ की प्रतिमा का लेख जैनमंदिर, कूबा बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग १, लेखांक ७६८ ६. १५१२ मार्गशीर्ष वदि २ सिद्धसूरि बुधवार उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास वैशाख सुदि ३ सोमवार ॥ कुन्थुनाथ की धातु गौड़ीजी भंडार. विजयधर्मसूरि, की प्रतिमा का लेख उदयपुर पूर्वोक्त, लेखांक २७४ शांतिनाथ की पार्श्वनाथदेरासर, बुद्धिसागर, पूर्वोक्तप्रतिमा का लेख पाटण भाग १, लेखांक २३५ । पार्श्वनाथ की जैन मंदिर, विजयधर्मसूरि, प्रतिमा का लेख वढवाण पूर्वोक्त, लेखांक ३१२ ८. १५१७ ॥ ९. १५१७ पौष वदि ८ रविवार एवं शीतलनाथ की देरी न० ६१३/ शत्रुञ्जयगिरिराजपंचतीर्थी प्रतिमा ९।९ शत्रुञ्जय दर्शन, लेखांक २७४ का लेख शत्रुञ्जयवैभव लेखांक १५५ विमलनाथ की जैनमंदिर, बुद्धिसागर, पूर्वोक्तप्रतिमा का लेख चाणस्मा भाग १, लेखांक १०२२ [१०. १५२१ वैशाख सुदि ३ गुरुवार देवगुप्तसूरि के पट्टधर सिद्धसूरि Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२१ देवगुप्तसूरि के पट्टधर सिद्धसूरि सिद्धसूरि शीतलनाथ की जैन मंदिर, प्रतिमा का लेख चाणमा वैशाख सुदि ३ गुरुवार माघ वदि ५ गुरुवार बुद्धिसागर, पूर्वोक्त-२ भाग १, लेखांक १११ । १२. १५२१ नमिनाथ की जैन मंदिर, प्रतिमा का लेख ऊंझा वही, भाग १, लेखांक १८८ १३. १५२२ पौष सुदि १२ सोमवार , एवं वासुपूज्य की सुमतिनाथमुख्य- वही, भाग २प्रतिमा का लेख बावन जिनालय, लेखांक ४९२ मातर जिनविजय, पूर्वोक्त भाग २, लेखांक ४९२ संभवनाथ की मुनिसुव्रत बुद्धिसागर, पूर्वोक्तप्रतिमा का लेख जिनालय, भाग २, लेखांक ३५० १४. १५२४ वैशाख सुदि ३ श्री......? भरुच श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ १५. १५२५ चैत्र वदि ९ शनिवार अस्पष्ट सुविधिनाथ की गौड़ीपार्श्वनाथ विनयसागर, पूर्वोक्तचौबीसी प्रतिमा जिनालय, लेखांक ६२५ का लेख अजमेर Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. १५३१ १७. १५३३ १८. १५४७ १९. १५४७ २०. १५५२ २१. १५५३ माघ वदि ८ सोमवार वैशाख सुदि ३ बुधवार वैशाख सुदि ३ सोमवार ,, वैशाख सुदि ३ शनिवार माघ सुदि ६ सोमवार सिद्धमूरि सिद्धाचार्य संतानीय सिद्धसूरि सिद्धसूरि " सिद्धाचार्य संतानीय कक्कसूरि " श्रेयांसनाथ की प्रतिमा का लेख वासुपूज्य की प्रतिमा का लेख नमिनाथ की प्रतिमा का लेख शांतिनाथ की प्रतिमा का लेख मुनिसुव्रत की चौबीसी प्रतिमा का लेख सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख सुमतिनाथ मुख्यबावन जिनालय, मातर सीमंधर स्वामी का मंदिर, अहमदाबाद बालावसही, शत्रुञ्जय 31 जैन मंदिर, ऊ झा आदिनाथ जिनालय, भाय रवला, मुम्बई बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग २, लेखांक ५०९ वही, भाग १ - लेखांक ११७३ शत्रुञ्जयवैभव लेखांक २३७ वही, लेखांक २३८ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग १, लेखांक १५७ कान्तिसागर, पूर्वोक्तलेखांक २६६ भ्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ १४९ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. १५६० २३. १५६० २४. १५६१ २५. १५६६ २६. १५६७ २७. १५७० वैशाख सुदि ३ 11 ज्येष्ठ सुदि २ बुधवार माघ वदि ६ वैशाख सुदि १० कार्तिक वदि ५ गुरुवार कक्कसूरि 11 13 सिद्धसूरि के पट्टधर कक्कसूरि सिद्धाचार्य संतानीय देवगुप्तसूरि 13 कुन्थुनाथ की प्रतिमा का लेख " सुविधिनाथ की प्रतिमा का लेख चन्द्रप्रभ की प्रतिमा का लेख वासुपूज्य की प्रतिमा का लेख श्रेयांसनाथ की प्रतिमा का लेख शांतिनाथ, जिनालय, भिंडी बाजार, मुम्बई चिन्तामणिपार्श्व - बुद्धिसागर, पूर्वोक्तनाथ जिनालय, भाग २, जीरारपाडो, खंभात लेखांक ७२५ सुमतिनाथ चौमुख जिनालय, चेला पोल, खंभात वालावसही, शत्रुञ्जय पार्श्वनाथ जिनालय, माणेक चौक, खंभात कान्तिसागर, पूर्वोक्त, लेखांक २७३ पार्श्वनाथ देरासर, अहमदाबाद वही भाग २, लेखांक ६९१ शत्रुञ्जयवैभव, लेखांक २६३ बुद्धिसागर, पूर्वोक्तभाग २, लेखांक ९६८ वही, भाग १ - लेखांक १०७4 १५० श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F २८. १५७५ माघ वदि २ सोमवार सिद्धाचार्यसंतानीय वासुपूज्य की शांतिनाथ कान्तिसागर, ..? प्रतिमा का लेख जिनालय, भिंडी पूर्वोक्त, लेखांक २८७ बाजार, मुम्बई उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १५८३ वैशाख सुदि ३ देवगुप्तसूरि सुविधिनाथ की प्रतिमा का लेख वालावसही, शत्रुञ्जय शत्रुञ्जयवैभव, लेखांक २७८ ३०. १५८९ बुद्धिसागर, पूर्वोक्तभाग २, लेखांक ७२१ वैशाख सुदि १२ भट्टारक कक्कसूरि संभवनाथ की चिन्तामणि- सोमवार प्रतिमा का लेख पार्श्वनाथ जिनालय, जीरारपाडो, खंभात ३१. १५९९ ज्येष्ठ वदि २ रविवार सिद्धाचार्यसंतानीय चन्द्रप्रभस्वामी की धर्मनाथ वही, देवगुप्तसूरि प्रतिमा का लेख जिनालय, भाग १, उपलो गभारो, लेखांक १११५ अहमदाबाद Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ उक्त प्रतिमालेखों के आधार पर द्विवंदणीकशाखा के मुनिजनों के गुरु-परम्परा की एक तालिका बनती है, जो इस प्रकार है---- सिद्धसूरि [वि० सं० १३३४] रत्नप्रभसूरि [वि० सं० १४४७] देवगुप्तसूरि [वि० सं० १४७९-१५०८] सिद्धसूरि वि० सं० १५१२-१५४७] कक्कसूरि [वि० सं० १५५२-१५८९] देवगुप्तसूरि [वि० सं० १५६७-१५९९] विवंदणीक / द्विवंदणीकगच्छीय कक्कसूरि के प्रशिष्य एवं देवगुप्तसूरि के शिष्य सिंहकुल ने वि० सं० १४८५ (एक अन्य प्रति में वि० सं० १५५०) में मुनिपतिचरित्र की रचना की ।' ___अभिलेखीयसाक्ष्यों के आधार पर निर्मित द्विवंदणीकशाखा के मुनिजनों की उक्त तालिका में देवगुप्तसूरि नामक दो आचार्यों का उल्लेख है । मुनिपतिचरित्र की दो हस्तप्रतियों में भी इसके रचनाकाल १. देसाई, मोहनलाल दलीचन्द-जैनगूर्जकवियो-भाग १, (नवीन संस्करण, बम्बई १९८५) पृष्ठ १९४-१९६ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १५३ की दो तिथियां वि० सं० १४८५ और वि० सं० १५५० दी गयी हैं। अब हमारे सामने यह प्रश्न उठता है कि रचनाकार सिंहकुल किस देवगुप्तसूरि के शिष्य थे और मुनिपतिचरित्र के रचनाकाल की कौन सी तिथि सत्य है ? जहां तक द्विवंदणीकगच्छीय प्रथम देवगुप्तसूरि का सम्बन्ध है, चंकि उनके द्वारा प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमायें वि० सं० १४७९ से १५०८ तक की हैं और मुनिपतिचरित्र की एक प्रति में इस कृति का रचनाकाल वि०सं० १४८५ दिया गया है, अतः समसामयिकता के आधार पर मुनिपतिचरित्र के कर्ता द्विवंदणीकगच्छीय सिंहकुल द्विवंदणीकगच्छीय देवगुप्तरि 'प्रथम' ( वि० सं० १४७९-१५०८) के ही शिष्य कहे जा सकते हैं और यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि मुनिपतिचरित्र की द्वितीय प्रति में उल्लिखित रचनाकाल वि० सं० १५५० अवश्य ही भ्रामक है और यह लिपिकार की भूल का परिणाम है। विक्रम की १६वीं शती के पश्चात् उपकेशगच्छ की ककुदाचार्यसंतानीय तथा द्विवंदनीकगच्छ आदि शाखाओं से सम्बद्ध साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों का नितान्त अभाव है, अतः यह कहा जा सकता है कि इस समय (१६वीं शती के पश्चात्) तक उपकेशगच्छ की उक्त शाखाओं का अस्तित्व समाप्त हो गया था। उपकेशगच्छ की जो शाखा २०वीं शती तक अस्तित्व में रही, वह निश्चय ही इन शाखाओं से भिन्न रही है। __ सिद्धाचार्यसंतनीय मुनिजनों की परम्परा आगे चल कर १६वीं शती में संभवतः अपना प्रभाव कम होने पर द्विवंदनीकगच्छ [ उपकेशगच्छ की एक शाखा, जिसका वि० सं० १२६६ में आविर्भाव हुआ] में सम्मिलित हो गयी प्रतीत होती है, क्योंकि १६वीं शती के कई प्रतिमालेखों में आचार्य के नाम के साथ द्विवंदनीकगच्छीयसिद्धाचार्यसंतानीय यह विशेषण जुड़ा हुआ मिलता है। __एक संभावना यह भी है कि सिद्धसूरि, जिनसे वि० सं० १२६६/ ई० सन् १२१० में द्विवंदनीकशाखा का उदय हुआ, की शिष्य सन्तति अपने गुरु के नाम पर सिद्धाचार्यसंतानीय एवं पार्श्वनाथ तथा महावीरदोनों की वन्दना करने के कारण द्विवंदनीक कहलायी। संभवतः यही Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ कारण है कि उपकेशगच्छ की इस शाखा के प्रतिमा लेखों में कहीं द्विवंदनीकगच्छ और कहीं सिद्धाचार्यसंतानीय तथा किन्हीं-किन्हीं लेखों में दोनों विशेषणों का साथ-साथ प्रयोग मिलता है। उपकेशगच्छ से सम्बद्ध ऐसे भी अनेक प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं जिनमें प्रतिमा प्रतिष्ठापक आचार्य न तो ककुदाचार्यसंतानीय बतलाये गये हैं और न ही सिद्धाचार्यसंतानीय। इससे यह स्पष्ट होता है कि उक्त शाखाओं (सिद्धाचार्यसंतानीय, ककुदाचार्यसंतानीय तथा द्विवंदनीक शाखा) से भिन्न इन मुनिजनों की परम्परा का अपना स्वतंत्र अस्तित्त्व था। इस श्रेणी के अभिलेखीय साक्ष्यों का विवरण इस प्रकार है Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशगच्छीय आचार्यों । मुनिजनों/यतियों से सम्बद्ध अभिलेखीय साक्ष्यों का विवरण १ २ ३ १. १३१४ फाल्गुन सुदि ३ देवगुप्तसूरि नेमिनाथ की चन्द्रप्रभजिनालय, नाहर, पूरनचन्द शुक्रवार प्रतिमा का लेख जैसलमेर पूर्वोक्त-भाग ३, लेखांक २२२६ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास २ २. १३२३ माघ सुदि ६ पार्श्वनाथ की पार्श्वनाथदेरासर, बुद्धिसागर धातु की पाटण पूर्वोक्त, भाग १ प्रतिमा का लेख लेखांक २७ ३. १३२५ कक्कसूरि फाल्गुन सुदि ४ शुक्रवार शीतलनाथ जिनालय, उदयपुर नाहर, पूरनचन्द पूर्वोक्त, भाग २, लेखांक १०३८ ४. १३३७ फाल्गुन सुदि २ देवगुप्तसूरि के पट्टधर पद्मचन्द्र गणपति की जैन मंदिर नं० १, नाहर, पूर्वोक्त, भाग प्रतिमा का लेख लोदवा ३, लेखांक २५६५ १८ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ ५. १३४६ ३ । फाल्गुन सुदि २ सिद्धसूरि १५६ आदिनाथ की चन्द्रप्रभजिनालय, नाहर, भाग ३, प्रतिमा का लेख जैसलमेर लेखांक २२३० ६. १३५६ तिथि विहीन कक्कभूरि शांतिनाथ की बावनजिनालय, प्रतिमा का लेख करेड़ा वही, भाग २, लेखांक १९२३ ७. १३७८ " ज्येष्ठ वदि ९ सोमवार देहरी नं० ३९, विमलवसही आबू मुनि कल्याणविजय, पूर्वोक्त लेखांक १०५ एवं मुनिजयन्तविजय आबू, भाग २ लेखांक १३६ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ ८. १३८५ सिद्धसूरि वैशाख वदि ५ बुधवार महावीर की चिन्तामणिजी का नाहटा, प्रतिमा का लेख मंदिर, बीकानेर अगरचन्द, पूर्वोक्त, .. लेखांक ३०७ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. १३८५ फाल्गुन सुदि ....... ! कक्कसूरि पार्श्वनाथ की शीतलनाथ प्रतिमा का लेख जिनालय, उदयपुर नाहर, पूर्वोक्त भाग २, लेखांक १०४३ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १०. १३८९ देवगुप्तसूरि ज्येष्ठ वदि ११ सोमवार आदिनाथजिनालय, विनयसागर, मालपुरा पूर्वोक्त लेखांक १३१ ११. १३९४ वैशाख वदि ६ पानशालि (?) सूरि शांतिनाथ की चिन्तामणि नाहटा, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख जिनालय लेखांक ३६४ बीकानेर कक्कसूरि महावीर की देहरी न० ५० मुनिकल्याणप्रतिमा का लेख विमलवसही, आबू विजय-प्रबन्ध पारिजात. लेखांक १३७ १२. १३९४ तिथि विहीन १३. १३९७ ॥ पार्श्वनाथ की चिन्तामणि प्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर नाहटा, पूर्वोक्त लेखांक ३७१ १५७. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ my १४. १४०० वैशाख सुदि ३ ॥ समवशरण के अंकन पर उत्कीर्ण लेख सीमंधरस्वामी का बुद्धिसागर, मंदिर, खंभात पूर्वोक्त, भाग-२ लेखांक १०७६ १५. १४०३ १६. १४०६ १७. १४१२ वैशाख सुदि......! पार्श्वनाथ की गौड़ीपार्श्वनाथ कान्तिसागर प्रतिमा का लेख जिनालय, पायधुनी, पूर्वोक्त मुम्बई लेखांक ३४ फाल्गुन सुदि ११ सिद्धसूरि के पट्टधर आदिनाथ की चिन्तामणिजिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त कक्कसूरि प्रतिमा का लेख बीकानेर लेखांक ४१० वैशाख सुदि ३ कक्कसूरि जैन मंदिर, नाहर, पूर्वोक्त । जयपुर भाग १, लेखांक ४०१ वैशाख सुदि १० कक्कसूरि के शिष्य शत्रुञ्जय A. P. Shahगुरुवार देवगुप्तसूरि Some Inscrip-A tions on Mount Satrunjaya" १८. १४१४ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १९. १४२० वैशाख सुदि १० रत्नप्रभसूरि शुक्रवार तिथि विहीन देवगुप्तसूरि २०. १४३० महावीरजैन विद्यालयसुवर्ण जयन्तीअंक, भाग १ पृष्ठ १६७, लेखांक ४ शांतिनाथ की चिन्तामणिजिनालय नाहटा, पोवक्त प्रतिमा का लेख बीकानेर लेखांक ४४४ जिन प्रतिमा चन्द्रप्रभ जिनालय, नाहर, पूर्वोक्त का लेख जैसलमेर भाग ३, लेखांक २२७४ आदिनाथ की चिन्तामणिजिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख बीकानेर लेखांक ५२४ शांतिनाथ की प्रतिमा का लेख लेखाङ्क ५२५ पार्श्वनाथ की वीर जिनालय, बुद्धिसागर, प्रतिमा का लेख गीपटी, खंभात पूर्वोक्त-भाग २ लेखांक ६९७ र २१. १४३६ वैशाख वदि ११ २२. १४३६ वही, २३. १४३९ देवगुप्तसूरि पौष वदि... सोमवार Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ २४. १४४५ ३ पौष सुदि १२ बुधवार सिद्धसूरि २५. १४५७ रामदेवसूरि वैशाख सुदि ३ शनिवार वैशाख सुदि ३ गुरुवार शांतिनाथ की जैन मंदिर, नाहर, पूर्वोक्त धातु की चेलापुरी, दिल्ली भाग १, प्रतिमा का लेख लेखांक ४६० आदिनाथ की शांतिनाथ जिनालय, वही, भाग २ प्रतिमा का लेख नमकमंडी, आगरा लेखांक १४९० वासुपूज्य की चिन्तामणि जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख बीकानेर लेखांक ६१७ देवगुप्तसूरि २७. १४६८ , " वैशाख वदि ४ शुक्रवार वही, २८. १४६८ , ज्येष्ठ वदि १३ रविवार शांतिनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख लेखांक ६३८ शीतलनाथ जिनालय, विजयधर्मसूरि उदयपुर पूर्वोक्त, लेखांक, १०३ एवं नाहर, पूर्वोक्त भाग २, लेखांक १०६२ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. १४७१ कक्कसूरि माघ सुदि ६ गुरुवार सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख शांतिनाथ जिनालय, विनयसागर, मेड़तासिटी पर्वोक्त, लेखांक २०४ ३०. १४७१ माघ सुदि १३ बुधवार देवगुप्तसूरि शांतिनाथ की चिन्तामणिपार्श्वनाथ वही, प्रतिमा का लेख जिनालय, लेखांक २०५ मेड़ता सिटी एवं नाहर, पूर्वोक्त, भाग १ लेखांक ७७४ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास जनालय ३१. १४७२ फाल्गुन सुदि ९ देवगुप्तसूरि ३२. १४७३ ज्येष्ठ वदि ५ आदिनाथ की वीर जिनालय, माहटा, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख बीकानेर लेखांक १२१६ वही, लेखांक ६६६ वही, लेखांक ६८३ पार्श्वनाथ की चिन्तामणि वही, प्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर लेखांक ७१२ ३३. १४७६ फाल्गुन सुदि १२ सिद्धसूरि के शिष्य कक्कसूरि ज्येष्ठ वदि ४ सिद्धसरि ३४. १४८२ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ ३५. १४८५ १६२ ३६. १४८५ ३७. १४८८ ३ वैशाख सुदि ५ कक्कसूरि के पट्टधर वासुपूज्य की सुपार्श्वनाथ नाहर, पूर्वोक्त सिद्धसूरि प्रतिमा का लेख जिनालय, भाग ३, जैसलमेर लेखांक २१७९ ज्येष्ठ सुदि १३ सिद्धसूरि शांतिनाथ की जैन मंदिर, वही, भाग १, सोमवार प्रतिमा का लेख मिरर स्ट्रीट- लेखांक ३८९ कलकत्ता वैशाख सुदि ६ कक्कसूरि पार्श्वनाथ की चन्द्रप्रभ जिनालय, वही, भाग ३ प्रतिमा का लेख जैसलमेर लेखांक २३०२ माघ सुदि ५ सिद्धसूरि पार्श्वनाथ की चन्द्रप्रभ जिनालय, वही, भाग २ बुधवार पंचतीर्थी लखनऊ लेखांक १५४६ प्रतिमा का लेख चैत्र वदि ५ श्रेयांसनाथ की चिन्तामणिजिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त शुक्रवार प्रतिमा का लेख बीकानेर लेखांक ७५६ तिथिविहीन सूविधिनाथ की वीर जिनालय, नाहर, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख जैसलमेर भाग ३, लेखांक २४११ । ३८. १४९१ ३९. १४९२ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ ४०. १४९४ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. १४९९ ४२. १५०१ ४३. १५०२ ४४. १५०३ ४५. १५०४ ४६. १५०५ वैशाख वदि १ शनिवार फाल्गुन सुदि १३ कक्कसूरि शनिवार माघ सुदि ५ माघ सुदि २ शुक्रवार तिथिविहीन देवगुप्तसूरि आषाढ़ सुदि ९ " " ** " आदिनाथ की प्रतिमा का लेख कुन्थुनाथ की प्रतिमा का लेख श्रेयांसनाथ की प्रतिमा का लेख सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख अम्बिका की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख चन्द्रप्रभ की प्रतिमा का लेख शांतिनाथ जिनालय, मुनिकान्तिसागर कोट, मुम्बई चिन्तामणिजिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त लेखांक ८५७ बीकानेर पद्मप्रभजिनालय जयपुर माणिकसागरजी का मंदिर, कोटा संभवनाथ देरासर, कड़ी पूर्वोक्त, लेखांक ८९ चन्द्रप्रभजिनालय, आमेर विनयसागर पूर्वोक्त, लेखांक ३६२ वही, लेखांक ३७१ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग १ लेखांक ७४७ विनयसागर, पूर्वोक्त लेखांक ३९३ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १६३ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ ४७. १५०५ ३ आषाढ़ सुदि ९ कक्कसूरि ४८. १५०६ आषाढ़ सुदि ५ बुधवार देवगुप्तसूरि ४९. १५०७ चैत्र वदि ५ शनिवार कक्कसूरि चन्द्रप्रभ की सुपार्श्वनाथ का नाहर, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख पंचायती मंदिर भाग २ जयपुर लेखांक ११४८ सुमतिनाथ की सीमंधरस्वामी बुद्धिसागर, प्रतिमा का लेख का मंदिर पूर्वोक्त भाग १ अहमदाबाद लेखांक ११५२ चन्द्रप्रभजिनालय, नाहर, पूर्वोक्त जैसलमेर भाग ३, लेखांक २३२५ वासुपूज्य की शंखेश्वरपार्श्वनाथ- वही, भाग २ प्रतिमा का लेख जिनालय, लेखांक १३३२ आसानियों का चौक एवं बीकानेर नाहटा, पूर्वोक्त लेखांक १९०७ मुनिसुव्रत की वीर जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त है प्रतिमा का लेख बीकानेर लेखांक ५२८१ ५०. १५०८ वैशाख सुदि ५ सोमवार श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ ५१. १५०८ वैशाख सुदि ५ कक्कसूरि Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. १५०८ ५३. १५०८ ५४. १५०९ ५५. १५०९ ५६ १५०९ ५६अ १५०९ वैशाख सुदी ५ वैशाख सुदि ६ वैशाख वदि ११ शुक्रवार मार्गशीर्ष सुदि ९ चैत्र वदि ११ शुक्रवार मार्गशीर्ष सुदि ९ कक्कसूरि "1 31 "} י, मुनिसुव्रत की प्रतिमा का लेख पार्श्वनाथ की प्रतिमा का लेख कुन्थुनाथ की चौबीसी प्रतिमा का लेख वासुपूज्य की प्रतिमा का लेख मुनिसुव्रत की धातु प्रतिमा का लेख कुन्थुनाथ की प्रतिमा का लेख वीर जिनालय बीकानेर घर देरासर बड़ोदरा माणक चौक, खंभात पार्श्वनाथ जिनालय, वही, भाग २ लेखांक ७७१ बालावसही, शत्रुञ्जय नाहटा, पूर्वोक्त लेखांक १३७४ मुनिबुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग २, लेखांक २२१ जिनालय, वेरावल मुनिकान्तिसागर शत्रुञ्जयबंभव लेखांक १२२ चिन्तामणिपार्श्वनाथ मुनिविजयधर्म सूरि, पूर्वोक्त, लेखांक २५१ शान्तिनाथ जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त (नाहटों में) बीकानेर लेखांक १८३१ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १६५ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७. १५११ माघ सुदि २ शनिवार कक्कसूरि शांतिनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख नेमिनाथ जिनालय, विनयसागर, महुआ पूर्वोक्त लेखांक ४७९ आदिनाथ जिनालय, बुद्धिसागर, वडनगर पूर्वोक्त भाग १ लेखांक ५५३ ५४. १५१२ माघ सुदि ५ सोमवार ५९. १५१२ फाल्गुन सुदि 4 विजयगच्छीय विनयसागर, जैन मंदिर, पूर्वोक्त जयपुर लेखांक ४९२ विमलनाथ जिनालय, वही, सवाईमाधोपुर लेखांक : ६०. १५१३ श्रेयांसनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख नमिनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख श्रेयांसनाथ की प्रतिमा का लेख चैत्र सुदि६ गुरुवार श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९९ ६१. १५१४ माघ सुदि १ शुक्रवार संभवनाथ देरासर, कड़ी बुद्धिसागर, पूर्वोक्तभाग १, लेखांक ७२७ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. १५१५ ६३. १५१८ ६४. १५१९ ६५. १५२० फाल्गुन सुदि ९ रविवार मार्गशीषं वदि ५ ज्येष्ठ वदि ११ शुक्रवार वैशाख वदि ३ सोमवार 19 " 11 11 शीतलनाथ की प्रतिमा का लेख कुन्थुनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख सुमतिनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख चन्द्रप्रभ की धातु की प्रतिमा का लेख गौड़ीपार्श्वनाथ जिनालय, अजमेर पार्श्वनाथ जिनालय, सोजत रोड संभवनाथ जिनालय, अजमेर गौड़ी जी का मंदिर, उदयपुर नाहर, पूर्वोक्तभाग १, लेखांक ५३४ विनयसागर, पूर्वोक्त, लेखांक ५८२ वही, लेखांक ५९३ एवं नाहर, पूर्वोक्त भाग १, लेखांक ५५८ विजयधर्मसूरि पूर्वोक्तलेखांक ३४८ एवं नाहर, पूर्वोक्तभाग २, लेखांक ११२८ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १६७ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६. १५२० ६७. १५२३ ६८. १५२४ मार्गशीर्ष सुदि ९ कक्कसूरि पार्श्वनाथ की अमीझरा पार्श्वनाथ बुद्धिसागर, शनिवार प्रतिमा का लेख जिनालय, खंभात पूर्वोक्त-भाग २, लेखांक ७५३ माघ सुदि ६ सिद्धसूरि के पट्टधर आदिनाथ की पार्श्वनाथ नाहटा, पूर्वोक्तरविवार कक्कसूरि प्रतिमा का लेख जिनालय, लेखांक १५०३ बीकानेर ज्येष्ठ वदि ४ अजितनाथ की चन्द्रप्रभजिनालय, नाहर, पूर्वोक्त पाषाण की बाबापुरी भाग १, प्रतिमा का लेख लेखांक २२६ ज्येष्ठ वदि १ सुमतिनाथ की पार्श्वनाथ बुद्धिसागर, प्रतिमा का लेख जिनालय, पूर्वोक्त-भाग २, माणेक चौक, लेखांक ९१९ खंभात ६९. १५२५ ७०. १५२५ विनयसागर, माघ वदि ६ सोमवार कुन्थनाथ की आदिनाथ पंचतीर्थी प्रतिमा जिनालय, का लेख भैंसरोड़गढ़ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ पूर्वोक्त लेखांक ६७१ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१. १५२५ ७२. १५२८ ७३. १५२८ ७४. १५३१ ७५. १५३४ ७६. १५३६ फाल्गुन सुदि १२ ज्येष्ठ वदि ३ बुधवार माघ वदि ४ बुधवार वैशाख सुदि २ सोमवार आषाढ़ सुदि १ गुरुवार कक्कसूरि " देवगुप्तसूरि श्रावकों का उल्लेख कक्कसूरि के पट्टधर देवगुप्तसूरि आश्विन सुदि ९ कक्कसूरि के पट्टधर देवगुप्तसूरि सोमवार वासुपूज्य की प्रतिमा का लेख धर्मनाथ की प्रतिमा का लेख सुविधिनाथ की प्रतिमा का लेख सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख अम्विका की प्रतिमा का लेख आदिनाथ जिनालय, भरुच वीर जिनालय, बीकानेर चिन्तामणि जिनालय, बीकानेर लूणवसही, आव ク वीर जिनालय, बीकानेर बुद्धिसागर, पूर्वोक्त-भाग २, लेखांक २९७ नाहटा, पूर्वोक्तलेखांक १३०१ वही, लेखांक १०५९ जमुनादासकोठारी का घर देरासर, बड़ोदरा आबू-भाग २, लेखांक ३३८ नाहटा, पूर्वोक्तलेखांक १२१९ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त-भाग २, लेखांक २३७ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १६९ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७. १५३६ फाल्गुन सुदि ३ ७० ७८. १५४२ माघ सुदि २ शनिवार ५९. १५४४ आषाढ़ वदि ८ गुरुवार कुन्थुनाथ की महावीर जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्तप्रतिमा का लेख आसाणियों का लेखांक १८९८ चौक, बीकानेर सुमतिनाथ की चन्द्रप्रभ जिनालय, विनयसागर, पंचतीर्थी प्रतिमा जोमनेर पूर्वोक्तका लेख लेखांक ८२९ आदिनाथ की संभवनाथ नाहर, पूर्वोक्तप्रतिमा का लेख जिनालय, भाग २, फूलवालीगली, लेखांक १६०३ आगरा अजितनाथ बुद्धिसागर, जिनालय, पूर्वोक्त- भाग १, शेखनो पाडो, लेखांक १०१४ अहमदाबाद आदिनाथ नाहर, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख जिनालय, भाग २, नागौर लेखांक १२९३ ८०. १५४५ पौष वदि... श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ ८१. १५४६ आषाढ़ वदि २ देवगुप्तसूरि चन्द्रप्र Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. १५४६ आषाढ़ सुदि २ शनिवार नाहटा, पूर्वोक्तलेखांक १५१८ वासुपूज्य की पार्श्वनाथ प्रतिमा का लेख जिनालय, (नाहरों में) बीकानेर उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास ८३. १५४९ वैशाख सुदि १० शुक्रवार ॥ सुविधिनाथ की गांव का जैन प्रतिमा का लेख मंदिर, वालावसही, पालिताना नाहर, पूर्वोक्तभाग १, लेखांक ६७६ एवं शत्रुञ्जयवैभव लेखांक २४६ ८४. १५५१ माघ वदि २ , चन्द्रप्रभ की आदिनाथ प्रतिमा का लेख जिनालय, राजलदेसर नाहटा, पूर्वोक्तलेखांक २३३७ ८५. १५५६ वैशाख सुदि ६ शनिवार देव (?) सूरि चतुर्मुख प्रासाद देवकुलिका का लेख रैनपुर तीर्थ नाहर, पूर्वोक्त भाग १, लेखांक ७१० १७११ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ४६. १५५७ वैशाख सुदि ५ गुरुवार देवगुप्तसूरि विनयसागर, पूर्वोक्तलेखांक ८९० नाहर., पूर्वोक्तभाग २, लेखांक ११०१ ८७. १५५९ आषाढ़ सुदि २ वासुपूज्य की सुमतिनाथ पंचतीर्थी प्रतिमा जिनालय, का लेख जयपुर शीतलनाथ की शीतलनाथ प्रतिमा का लेख जिनालय, उदयपुर सुमतिनाथ की संभवनाथ पंचतीर्थी प्रतिमा जिनालय, का लेख अजमेर 86. १५५९ आषाढ़ सुदि १० वही, भाग १, लेखांक ५६६ एवं विनयसागर, पूर्वोक्तलेखांक ९०३ ८९. १५५९ मार्गशिर वदि ६ ॥ कुन्थनाथ की शांतिनाथ प्रतिमा का लेख जिनालय, हनुमानगढ़ (बीकानेर) नाहटा, पूर्वोक्तलेखांक २५३३ - श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०. १५६३ वैशाख सुदि ६ शनिवार श्रीसूरि सुविधिनाथ की प्रतिमा का लेख अरनाथ जिनालय बुद्धिसागर, जिनालय जीरार- पूर्वोक्त- भाग २, याड़ो, खंभात लेखांक ७७२ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त ९. १५६६ चैत्र सुदि १ मुनिदेवसागर के निधन का उल्लेख उपकेशगच्छ की नाहटा, पूर्वोक्तबगीची, लेखांक २१३१ बीकानेर ९२. १५६६ फाल्गुन सुदि ३ सिद्धसूरि सोमवार नमिनाथ की बड़ा मंदिर, पंचतीर्थी प्रतिमा नागौर का उल्लेख नाहर, पूर्वोक्तभाग २, लेखांक १३०० एवं विनयसागर, पूर्वोक्त लेखांक ९३३ १५९३. ६० ज्येष्ठ वदि ८ रविवार देवगुप्तसूरि के पट्टधर सिद्धसूरि अरनाथ की चिन्तामणि- प्रतिमा का लेख पार्श्वनाथ जिनालय, खंभात बुद्धिसागर, पर्वोक्तभाग २, लेखांक ५३४ b Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rab. ९४. १५७१ आषाढ़ सुदि २ कक्कसूरि सुमतिनाथ की शान्तिनाथ प्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर नाहटा, पूर्वोक्तलेखांक ११३५ ९५. १५७२ चैत्र वदि ३ बुधवार सिद्धसूरि शांतिनाथ की वीर जिनालय, नाहर, पूर्वोक्त प्रतिमा का लेख सुधि टोला, भाग २, लखनऊ लेखांक १५७६ आदिनाथ की आदिनाथ मुनि कान्तिसागरप्रतिमा का लेख जिनालय, पूर्वोक्त, भायखला, लेखांक १९४ ९६. १५७८ माघ सुदि ४ गुरुवार मुम्बई ९७. १५९२ आषाढ़ सुदि ९ अभिनन्दन स्वामी बड़ा मंदिर, बिनयसागर, पूर्वोक्तकी पंचतीर्थी नागौर लेखांक ९८८ प्रतिमा का लेख एवं नाहर, पूर्वोक्तभाग २, लेखांक १३०४ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८. १५९३ ज्येष्ठ वदि ४ सिद्धसूरि मंगलवार कुन्थुनाथ की वीरजिनालय, नाहटा, पूर्वोक्तप्रतिमा का लेख बीकानेर लेखांक १२७२ ९९. १५९३ आषाढ़ सुदि ४ गुरुवार शीतलनाथ की शांतिनाथ वही, लेखांक २२३७ प्रतिमा का लेख जिनालय, भूरों का वास, बीकानेर "उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १००. १५९४ कार्तिक वदि ९ वही, लेखांक २१६१ सुविधिनाथ की श्री गंगा प्रतिमा का लेख गोल्डेन जुबिली म्यूजियम, बीकानेर १०१. १५९६ वैशाख सुदि ३ सिद्धसूरि सोमवार शांतिनाथ की महावीर जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्तप्रतिमा का लेख आसानियों का लेखांक १९०३ चौक, बीकानेर एवं नाहर, पूर्वोक्तभाग २, लेखांक १३४७ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m १ २ १०२. १६३८ 306 १०३. १६५९ नाणा १०४. १६६३ वैशाख सुदि १५ यति श्री वस्ता के शांतिनाथ की उपकेशगच्छ की नाहटा, पूर्वोक्त दिवंगत होने का प्रतिमा का लेख बगीची, बीकानेर लेिखक ११३२ उल्लेख भाद्रपद सुदि ७ सिद्धसूरि जैनमंदिर, नाहर, पूर्वोक्तशनिवार भाग १, लेखांक ८९० प्रथम चैत्र सुदि ८ विनयसमुद्रसूरि के उपकेशगच्छ की नाहटा, पूर्वोक्तशुक्रवार शिष्य (यति) अचल बागीची लेखांक २१३३ समुद्रसूरि के निधन बीकानेर का उल्लेख माघ वदि ९ श्रीवस्ता के शिष्य वही, लेखांक २१३४ सोमवार यतितिहुणा का निधन वैशाख सुदि ११ (यंति) तिहुणा के उपकेशगच्छ की वही, लेखांक २१३५ सोमवार शिष्य श्रीराणा का वगीची, निधन बीकानेर १०५. १६६३ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ १०६. १६६४ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७. १६८९ भाद्रपद सुदि ४ देवगुप्तसूरि के पट्टगुरुवार धर सिद्धसूरि का निधन उपकेशगच्छ की नाहटा, पूर्वोक्त बगीची, लेखांक २१३६ बीकानेर समतिनाथ की आदिनाथ वही, लेखांक २३४० प्रतिमा का लेख जिनालय, राजलदेसर १०८. १६९१ भाद्रपद सुदि ५ कक्कसूरि उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १०९. १७६३ श्रावण सुदि १ आनन्दकलश के सोमवार शिष्य अमीपाल के पट्टधर यति खेतसी का निधन आषाढ़ सुदि १३ कर्पूरप्रियगणि उपकेशगच्छ ___वही, लेखांक २१३९ की बगीची, बीकानेर ११०. १७८१ चौबीसी प्रतिमा चन्द्रप्रभ नाहर, पूर्वोक्तका लेख जिनालय, भाग २, रङ्गपुर, बंगाल लेखांक १०२४ १११. १७८३ आषाढ़ सुदि १५ सिद्धसूरि के निधन रविवार की तिथि का उल्लेख उपकेशगच्छ नाहटा, पूर्वोक्त्तकी बगीची, लेखांक २१४० बीकानेर Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ १ २ ११२. १७९५ उपकेशगच्छ का नाहटा पूर्वोक्तउपाश्रय, लेखांक २५५४ बीकानेर वैशाख सुदि ३ देवगुप्तरि के पट्टधर गुरुवार भामसुन्दर के शिष्य कल्याणसुन्दर एवं लब्धिसुन्दर द्वारा पौषधशाला बनवाने का उल्लेख पौष सुदि २-३ सिद्धसूरि के शिष्य रविवार (यति) क्षमासुन्दर ११३. १८०५ वही, लेखांक २१४२ उपकेशगच्छ की बगीची, बीकानेर ११४. १८०७ वही, लेखांक २१४१ ११५. १८३८ वही, लेखांक २१४३ आषाढ़ सुदि १५ कक्कसूरि के निधन रविवार का उल्लेख तिथि विहीन क्षमासुन्दर के शिष्य (यति) उदयसुन्दर का निधन चैत्र वदि ३ देवगुप्तसूरि के बुधवार निर्वाण की तिथि का उल्लेख श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ ११६. १८४६ उपकेशगच्छ की बगीची, बीकानेर नाहटा, पूर्वोक्तलेखांक २१४४ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६० वही, लेखांक २१४५ १८. १८९० वही, लेखांक २१४६ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास बही, लेखांक २१४७ चैत्र मुदि ८ (यति) बखतसुन्दर के रविवार निधन का उल्लेख माघ सुदि ६ सिद्धसूरि के निधन शनिवार की तिथि का उल्लेख कक्कसूरि के पट्टधर सिद्धसूरि के पट्टधर क्षमासुन्दर के पट्टधर जयसुन्दर के शिष्य (यति) मतिसुन्दर के चरणचिह्न स्थापित होने का उल्लेख - माघ सुदि ५ देवगुप्तसूरि १२०. १८९१ १२१. १९०५ वही, लेखांक २१४८ गिरनारतीर्थपट्ट वीर जिनालय नाहटा, पूर्वोक्तपर उत्कीर्ण लेख बीकानेर लेखांक १२६९ सिद्धचक्रमंडल वही, लेखांक १२६७ पर उत्कीर्ण लेख १२२. १९०५ माघ सुदि ५ सोमवार , Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ १२३. १९०५ १८० १२४. १९०५ १९०५ १२६. १९१२ माघ सुदि ५ देवगुप्तसूरि गणधर की पादुका वीर जिनालय, वही, लेखांक १२६८ सोमवार पर उत्कीर्ण लेख बीकानेर पार्श्वनाथ के वही, लेखांक १२६६ गणधर की पादुका पर उत्कीर्ण लेख पंचकल्याणक पट्ट पर " वही, लेखांक १२६५ उत्कीर्ण लेख मार्गशीर्ष वदि ५ , सर्वतोभद्रयंत्र पर " वही. उत्कीर्ण लेख लेखांक १२४७ मार्गशीर्ष वदि ४ ॥ श्रेयांसनाथ की विमलनाथ वही, लेखांक १५६७ बुधवार प्रतिमा पर जिनालय, उत्कीर्ण लेख (कोचरों में) बीकानेर सुदि ५ (यति) आनन्दकलश उपकेशगच्छ की वही, लेखांक २१४९ सोमवार के निधन का उल्लेख बगीची, बीकानेर ज्येष्ठ वदि १० (यति) आनन्दसुन्दर वही, लेखांक २१५१ सोमवार के शिष्य (यति) खूब सुन्दर का उल्लेख १२७. १९१२ १२८. १९१५ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ १२९, १९१८ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास उपकेशगच्छीय मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित तीर्थङ्कर प्रतिमाओं एवं चरणचिन्हों पर उत्कीर्ण लेखों के आधार पर इस गच्छ के मुनिजनों की जो तालिका निर्मित होती है, वह इस प्रकार है कक्कसूरि [ प्रतिमालेख अनुपलब्ध ] T देवगुप्तसूरि [वि० सं० १३१४-१३२३ ] सिद्धसूरि [वि० सं० १३४६-१३८५ ] I कक्कसूरि [वि० सं० १३५६-१४१२ ] देवगुप्तसूरि [वि० सं० १३८९-१४३९ ] सिद्धसूरि [वि० सं० १४४५ ] कक्कसूरि [वि० सं० १४७१-१४८८ ] I देवगुप्तसूरि [वि० सं० १४६५ - १४९९ ] सिद्धसूरि [वि० सं० १४८२-१४९४ ] I कक्कसूरि [वि० सं० १५०१ - १५२८ ] I देवगुप्तसूरि [वि० सं० १५२८ - १५५९ ] 1 सिद्धसूरि [वि० सं० १५६६- १५९६ ] T कक्कसूरि [ प्रतिमालेख अनुपलब्ध ] I देवगुप्तसूरि [ " " ] १८१ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसूरि [ वि० सं १६५९-१६८९ ] वि० सं० १६८९ में दिवंगत कक्कसूरि [वि० सं० १६९१---? ] देवगुप्तसूरि [प्रतिमालेख अनुपलब्ध ] सिद्धसूरि [वि० सं० १७८३ में दिवंगत ] कक्कसूरि [प्रतिमालेख अनुपलब्ध ] देवगुप्तसूरि [ वि० सं० १८४६ में दिवंगत ] सिद्धसूरि [वि० सं० १८९० में दिवंगत ] कक्कसूरि [प्रतिमालेख अनुपलब्ध ] देवगुप्तसूरि [वि० सं० १९०५-१९१२ ] प्रतिमालेख उपकेशगच्छ से सम्बद्ध १८वीं-१९वीं शती के कुछ प्रतिमाओं पर इस गच्छ के यतिजनों के नाम भी मिलते हैं, परन्तु इनके आधार पर इन यतिजनों की गुरु-परम्परा की कोई तालिका नहीं बन पाती है।। उपकेशगच्छ से सम्बद्ध प्रतिमालेखों की उक्त तालिका से स्पष्ट है कि विक्रम की १६वीं शती तक इस गच्छ के मुनिजनों का विशेष प्रभाव रहा, किन्तु १७वीं शताब्दी से इस गच्छ के प्रभाव में कमी आने लगी, फिर भी २०वीं शती तक इस गच्छ का निर्विवाद रूप से अस्तित्व बना रहा। १. नाहटा, अगरचन्द भंवरलाल-बीकानेरजैनलेखसंग्रह, लेखाङ्क २१३१-२१५१ [इस निबन्ध के लेखन में मुनि ज्ञानसुन्दर की प्रसिद्ध कृति भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भाग १-२ तथा श्री मांगीलाल भूतोडिया द्वारा लिखित इतिहास की अमरबेल : ओसवाल से भी विदोष सहायता प्राप्त हुई है, अतः लेखक उनके प्रति विशेष आभार प्रकट करता Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जगत् श्री पंजाब जैन भ्रातृ सभा (बम्बई) लाला श्री जोगिन्दर लाल जैन का भव्य सत्कार संवत्सरी के पावन पर्व पर उक्त सभा द्वारा महान् समाजसेवी श्री जोगिन्दर लाल जैन का भव्य स्वागत किया गया। आपका जन्म अम्बाला शहर में हआ, प्रारम्भ से ही आपकी रुचि समाज तथा धर्म सेवा में रही है। नवयुवकों को धार्मिक कार्यों के लिए संगठित करने में आपकी विशेष रुचि रही है। पिछले १७ वर्षों से सभा की विविध गतिविधियों में आपका सक्रिय योगदान रहता है। पण्डित दलसुखभाई मालवणिया का सम्मान एवं अभिनन्दन ग्रन्थ-विमोचन (दिनांक २१-२२ दिसम्बर, १९९१) पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के मार्गदर्शक एवं ला० द० भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद के भूतपूर्व निदेशक, जैनविद्या के बहुश्रुत विद्वान् पं० दलसुखभाई मालवणिया के अभिनन्दन समारोह का आयोजन श्री दीपचन्द जी भूरा अमृत महोत्सव समिति, कलकत्ता की ओर से किया गया। इस अवसर पर दीपचन्दजी भूरा परिवार की ओर से आदरणीय पण्डित जी को ३१००० रु० की सम्मान निधि प्रदान की गई। पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान द्वारा प्रकाशित पं० दलसुख भाई मालवणिया अभिनन्दन ग्रन्थ का विमोचन प्रसिद्ध साहित्यकार श्री कन्हैयालाल जी सेठिया ने किया। संस्थान के निदेशक डा० सागरमल जैन ने विद्याश्रम परिवार की ओर से पंडित जी को शाल ओढ़ाकर यह अभिनन्दन ग्रन्थ प्रस्तुत किया। विद्वानों ने पंडित जी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला और कहा कि पं० दलसुख Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४ ) भाई मालवणिया न केवल जैन विद्या के शीर्षस्थ विद्वान् हैं अपितु वे एक महामानव भी हैं। इसी प्रसंग पर आदरणीय पं० दलसुख भाई मालवणिया ने आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर की ओर से प्रकाशित और श्री सुरेश सिसोदिया द्वारा अनूदित महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक का विमोचन किया। अपने सम्मान के प्रत्युत्तर में पं० जी ने कहा-'यह मेरा सम्मान नहीं अपितु जैन विद्या का सम्मान है, मैं तो समाज का अत्यन्त आभारी हूँ कि उसने मेरे व्यक्तित्व के निर्माण से लेकर आज तक मुझे स्नेह और आदर प्रदान किया।' ज्ञातव्य है कि इन्हीं कार्यक्रमों की शृङ्गला में 'जैन जर्नल रजत जयंती महोत्सव समिति, तेरापन्थी जैन सभा एवं स्थानकवासी जैन सभा की ओर से भी पण्डित जी का सम्मान किया गया।' जैन जर्नल रजत जयन्ती महोत्सव समिति ने 'जैन जर्नल' के यशस्वी सम्पादक एवं जैनविद्या के समर्पित साधक श्री गणेश ललवानी का भी सम्मान किया और उन्हें १२५००० रु० की सम्माननिधि प्रदान की गयी। इसी प्रसंग पर जैन भवन की ओर से 'जैन्थोलोजी' एवं जैन जर्नल रजत जयन्ती अंक तथा पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी द्वारा प्रकाशित एवं (श्रीमती) डा० राजेश जैन द्वारा लिखित 'मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म' नामक पुस्तक का विमोचन हआ। इन सभी कार्यक्रमों का संचालन श्री भूपराज जी जैन ने किया और श्री सरदारमल कांकरिया ने आभार व्यक्त किया। डा० सागरमल जैन पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी-५ जैन साधना पर संगोष्ठी श्री स्थानकवासी जैन सभा, कलकत्ता द्वारा दिनांक ०-१२-९१ को जैन भवन में जैन साधना पर एक विद्वत् संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इस गोष्ठी के मुख्य अतिथि श्री भंवरलाल जी नाहटा Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८५ ) थे। गोष्ठी में पण्डित दलसुखभाई मालवणिया, प्रो० सागरमल जैन प्रो० ए० के० बनर्जी सहित अनेक विद्वानों ने जैन साधना पर सारभित व्याख्यान दिये। उपस्थित श्रोताओं की ओर से जैन साधना से सम्बन्धित अनेक प्रश्न एवं जिज्ञासाएं प्रस्तुत की गई जिसका सम्यक समाधन प्रो० सागरमल जैन द्वारा किया गया। ___ सुरेश सिसोदिया आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, __उदयपुर आत्म-जन्म जयन्ती महोत्सव श्री आत्माराम जैन मेमोरियल ट्रस्ट, लधियाना द्वारा दि० २१२० मिनम्बर को 'आत्म-जन्म-जयन्ती महोत्सव' का भव्य आयोजन किया गया। इस आयोजन में आचार्य सम्राट श्री आत्माराम जी महाराज के गुणानुवाद हेतु विविध कार्यक्रम प्रस्तुत किये गये। इन कार्यक्रमों में श्वेता० जैन परम्परा की तीनों धाराओं के साधु-साध्वियों ने भाग लिया एवं आचार्यश्री के चरणों में श्रद्धा-सुमन अर्पित किये। इसी महोत्सव में 'आत्म रश्मि' के सम्पादक श्री तिलकधर शास्त्री का बहुमान किया गया तथा श्री हीरालाल जैन के प्रशंसनीय कार्यों का उल्लेख किया गया। श्री तिलकधर शास्त्री, श्री टी० आर० जैन एवं श्री हीरालाल जैन आदि ने 'विश्व मैत्री एवं विश्व-एकता पर व्याख्यान दिये और अन्त में साध्वी (डा०) मुक्ति प्रभा एवं साध्वी (डा) दिव्य प्रभा के मंगल पाठ के साथ महोत्सव पूर्ण हुआ। स्वाध्यायियों के लिए सुनहरा अवसर अनुयोग प्रवर्तक पं० रत्न मुनि श्री कन्हैयालाल जी म० 'कमल' द्वारा सम्पादित एवं आगम अनुयोग ट्रस्ट, अहमदाबाद से प्रकाशित समवायांगसूत्र (मूल पाठ) शुद्ध व सून्दर संस्करण, दुरङ्गी छपाई सरल हिन्दी शीर्षकों से युक्त गुटका साइज में प्रकाशित हुआ है। इसका मुल्य २१/- है। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) यह उदार दाताओं की ओर से स्वाध्याय प्रेमी, मुनिराज, महासतियां जीव पुस्तकालय को भेंट भेजी जा रही है । इच्छुक सज्जन दीपावली तक २ रुपये के डाक टिकट भेज कर इसे प्राप्त करें : शोक समाचार जैन विद्या के विशिष्ट विद्वान् एवं वयोवृद्ध सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द जी शास्त्री का देहावसान ३१ अगस्त १९९१ को हो गया । आपने अपना पूरा जीवन जैन साहित्य की सेवा में समर्पित कर दिया था, आपकी मृत्यु से जैन साहित्य जगत की अपूरणीय क्षति हुई है । विद्याश्रम परिवार आपकी दिवंगत आत्मा की शान्ति हेतु प्रार्थना करता है । X डॉ० सोहनलाल जी संचेती केसरवाड़ी, चांदी हाल, जोधपुर (राज० ) ३४२००१ X लाला श्री अमरचन्द्र जैन की धर्म पत्नी श्रीमती सुशीला देवी जैन का २९ अगस्त १९९१ को निधन हो गया । आप पार्श्वनाथ विद्याश्रम के सचिव श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन के बड़े भ्राता श्री अमरचन्द जी जैन की पत्नी थीं । आपके निधन से विद्याश्रम परिवार ने अपना सहयोगी खो दिया है । विद्याश्रम परिवार मृतात्मा की शान्ति की प्रार्थना करता है तथा उनके परिजनों से और विशेष रूप से उनके सुपुत्र इन्द्रभूति जी से धैर्य धारण करने का निवेदन करता है । X साभार प्राप्ति : श्री कनकनन्दी जी द्वारा रचित एवं धर्म-दर्शन विज्ञान शोध - प्रकाशन ( बड़ौत, मेरठ) द्वारा प्रकाशित १७ ग्रन्थ प्राप्त हुए । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८७ ) अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी, सिद्धान्त चक्रवर्ती एलाचार्य, उपाध्याय श्री कनकनन्दीजी द्वारा रचित ग्रन्थ आपको जानकर हर्ष होगा कि जैन धर्म की वैज्ञानिकता, दार्शनिकता एवम् तत्वज्ञता से सभी वर्गों के परिचय हेतु -'धर्म दर्शन विज्ञान शोध प्रकाशन' कार्यरत है। वर्तमान वैज्ञानिक युग की पीढ़ी, बुद्धिजीवी वर्ग एवं जैन-जैनेतर बन्धुओं की मानसिकता को दृष्टिगत कर रची गई सभी पुस्तकें आपको स्वयं अपने अन्तर्मन में उमड़ते प्रश्नों का ही उत्तर प्रतीत होगी। उपाध्याय कनकनन्दी जी की लेखनी से भूगोल, विज्ञान, भौतिक विज्ञान, जीवविज्ञान, राजनीति, रसायन विज्ञान, खगोल, यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र, आयुर्वेद, मनोविज्ञान, ऋद्धि, सिद्धि, स्वप्न विज्ञान, ध्यान-योग, इतिहासादि सभी को विभिन्न दृष्टिकोणों से प्रस्तुत किया गया है। प्रकाशित पुस्तकें १. धर्म विज्ञान बिन्दु (मूल्य १५.०० रु०) २. धर्म ज्ञान एवं विज्ञान (हिन्दी व अंग्रेजी) (मूल्य १५ ००) ३. भाग्य एवं पुरुषार्थ (हिन्दी व अंग्रेजी) मूल्य ( ७०० रु०) ४. Fate and Efforts (मूल्य ७.००) ५. व्यसन का धार्मिक वैज्ञानिक विश्लेषण (हिन्दी) (मूल्य २०.०० रु०) ६. Nakedness of Digambar Jain Saints and Kesh-Lonch. (Rs. ५००) ७. जिनार्चना पुष्प-1 एवं पुष्प II (मूल्य २१.०० रु० प्रति भाग) ८. धर्म एवं स्वास्थ्य विज्ञान पुष्प - I पुष्प II (मूल्य २००० रु० प्रति भाग) ९. पुण्य-पाप मीमांसा (मूल्य १५०० रु०) १०. निमित्त उपादान मीमांसा (मूल्य ७.०० रु०) ११. धर्म-दर्शन एवं विज्ञान (मूल्य २१०० रु०) १२. क्रान्ति के अग्रदूत (मूल्य १००० रु०) १३. लेश्या-मनोविज्ञान (मूल्य ६.०० रु०) Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८८ ) १४. ऋषभ पुत्र भरत से भारत (मूल्य १९०० रु०) १५. ध्यान का एक वैज्ञानिक विश्लेषण (मूल्य १५०० रु०) १६. अनेकान्त दर्शन (मूल्य २०.००) १७. कर्म का दार्शनिक एवं वैज्ञानिक विवेचन ( मूल्य २५.०० ) १८. युग निर्माता ऋषभदेव (मूल्य १५.०० रु०) १९. विश्व शान्ति के अमोघ उपाय (मूल्य ५ ००) २०. मनन एवं प्रवचन (मूल्य ५.००) २१. अहिंसामृतम् (मूल्य ७००) २२. विनय मोक्षद्वार (मूल्य ५.००) २३. क्षमा वीरस्य भूषणं (मूल्य १५.००) २४. संगठन के सूत्र (मूल्य ८.००) २५. अतिमानवीय शक्ति (मूल्य २१००) २६. मन्त्र विज्ञान (मूल्य १०००) २७. Philosophy of Scientific Religion (Rs. १५००) २८. दिगम्बर जैन साधु का नग्नत्व एवं केशलोंच (हिन्दी व ___ अंग्रेजी, मराठी) (मूल्य ५.०० प्रति पुस्तक) २९. धर्म दर्शन विज्ञान प्रवेशिका पुष्प-I एवं II (मूल्य ५.००) ३०. संस्कार (हिन्दी व अंग्रेजी) (मूल्य ५.००) ३१ भगवान् महावीर और उनका दिव्य सन्देश (मल्य ५००) ३२. विश्व विज्ञान रहस्य (मूल्य १००.००) ३३. Religious and Scientific analysis of Vyasan (मल्य २०००) ३४. स्वप्न विज्ञान (मूल्य १५.००) ३५. त्रैलोक्यपूज्य ब्रह्मचर्य (मूल्य १२.००) ३६. आत्मोत्थानोपायः तप (मूल्य ९.००) ३७. तत्त्वानुचिन्तन (मूल्य १२.००) ३८. धर्म दर्शन विज्ञान प्रवेशिका पुष्प-III (मूल्य ७००) प्रकाशक की ओर से साधु-संघों, स्वाध्याय-शालाओं, धार्मिक शिक्षण संस्थाओं, शोधरत छात्रों, असमर्थ भाई-बहिनों को पुस्तके निःशुल्क भेंट की जाती हैं। पुस्तकालय, वाचनालय शिक्षण संस्थाओं के लिए १५° छूट पर शास्त्र भेज दिये जायेंगे। सामान्य स्वाध्याय Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८९ ) प्रेमियों के लिए १०% छूट है, डाक खर्च अलग से है । आजीवन सदस्य २५०२ ०० द्रव्य दाता, आजीवन सदस्य, कार्य-कर्त्ताओं को संस्था की समस्त पुस्तकें निःशुल्क मिलतीं हैं । आर्थिक दृष्टि से समर्थ सामान्य व्यक्ति से योग्य मूल्य इसलिए प्राप्त किया जाता है कि जिससे साहित्य का अवमूल्यन न हो, योग्य व्यक्ति को साहित्य प्राप्त हो, साहित्य का आदर हो, साहित्य - प्रकाशन के लिये ज्ञान दान (सहयोग) हो, साधु आदि को निःशुल्क साहित्य भेजने में आर्थिक आपूर्ति हो एवं उस सहयोग से अधिक से अधिक साहित्य प्रकाशन, प्रचार, प्रसार हो । द्रव्यदाता को उस द्रव्य से प्रकाशित प्रतियों की एक दशमांश प्रतियां भी निःशुल्क प्राप्त होगीं । निवेदक धर्म-दर्शन विज्ञान शोध प्रकाशन निकट दिगम्बर जैन अतिथि भवन बड़ौत - २५०६११ मेरठ ( उ० प्र०) Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-सत्कार तत्त्वार्थ सूत्र :-विवेचनकर्ता : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री; 'प्रकाशक : श्री गणेशवर्णी दिगम्बर जैन (शोध ) संस्थान नरिया, वाराणसी; पृष्ठ सं० : ४६२-३१४; मूल्य : ५० रु० (पुस्त० संस्करण), ३०.०० (साधारण संस्करण); संस्करण : द्वितीय १९९१; डिमाई। तत्त्वार्थ सूत्र जैन परम्परा का सर्वमान्य ग्रन्थ है श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराएँ इसे समान रूप से मान्य करती हैं यद्यपि दोनों परम्पराओं के मूल पाठ में किञ्चित् अन्तर भी है। इस ग्रन्थ पर दोनों परम्पराओं में संस्कृत में अनेक टीकाएँ लिखी गईं। हिन्दी भाषा में श्वेताम्ब र परम्परा में सर्वप्रथम पं० सुखलाल जी ने इसकी टीका लिखी थी। पं० फलचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री ने दिग० परम्परा के मूलपाठ को समक्ष रखकर पं० सुखलाल जी की हिन्दी टीका को आधार बनाते हुए दिग० परम्परा की दृष्टि से तत्त्वार्थ सूत्र की यह हिन्दी विवेचना लिखी है (देखें-आत्मनिवेदन)। समालोच्य यह कृति उनके इस हिन्दी विवेचन का द्वितीय संस्करण है। पं० फूलचन्द्रजी इस ग्रन्थ की विस्तृत प्रस्तावना लिखने की भी इच्छा रखते थे किन्तु बृद्धावस्था के कारण वे इसे पूर्ण नहीं कर सके अतः प्रथम संस्करण की प्रस्तावना को लेकर ही इस द्वितीय संस्करण का प्रकाशन करना पड़ा। फिर भी यदि सर्वार्थसिद्धि की उनकी प्रस्तावना को आधार बनाकर इस प्रस्तावना को विकसित किया जाता तो यह प्रस्तावना अधिक उपयोगी बन सकती थी। जिस प्रकार पं० सुखलाल जी का हिन्दी विवेचन ग्रन्थ के हार्द को स्पष्ट करने में अति सफल रहा है उसी प्रकार पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री का विवेचन भी दिग० परम्परा की दृष्टि से ग्रन्थ के हार्द को स्पष्ट करने में सफल माना जा सकता है। जैन परम्परा के तत्त्वज्ञान और आचार को समझने के लिए तत्त्वार्थ सूत्र अन्यतम ग्रन्थ माना जा सकता है। ग्रन्थ की प्रस्तावना में तत्त्वार्थ सूत्र और उसके भाष्य के कर्ता आदि को लेकर कुछ प्रश्न उठाये गये हैं। यद्यपि Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९१ ) उनसे सहमत होना या न होना एक भिन्न बात है किन्तु वे पण्डितजी के व्यापक अध्ययन के सूचक अवश्य ही हैं । तत्वार्थ सूत्र के कर्ता, काल, सम्प्रदाय, पाठों की प्रामाणिकता आदि को लेकर अनेक विद्वानों के विचार हमें उपलब्ध होते हैं । इन सबका सम्यक् समालोचन मैंने अपने ग्रन्थ 'यापनीय सम्प्रदाय' और तत्त्वार्थ और उसकी परम्परा में विस्तार से किया है अतः यहाँ उस समग्र चर्चा में जाना समीचीन नहीं है । इच्छुक व्यक्ति उसे वहाँ देख सकते हैं । ग्रन्थ का मुद्रण आफसेट से होने के कारण अत्यन्त नयनाभिराम है । इसके लिए वर्णी संस्थान के मंत्री डा० कमलेश कुमार विशेष रूप से धन्यवाद के पात्र हैं । यद्यपि प्रथम संस्करण में रही हुई प्रूफ सम्बन्धी अशुद्धियों को दूर करने का प्रयास किया गया है किन्तु अब भी कुछ अशुद्धियाँ रह गई हैं जैसे -- अविचार के स्थान पर 'अतीचार' का प्रयोग । यद्यपि दिग० परम्परामान्य मूल पाठ (७/२३) में दीर्घ 'ई' का प्रयोग हुआ है किन्तु हम देखते हैं कि दिगम्बर परम्परा के तत्त्वार्थ सूत्र के प्रथम टीकाकार सर्वार्थसिद्धि के लेखक पूज्यपाद देवनन्दी ने भी अपनी टीका में सर्वत्र ही ह्रस्व 'इ' का ही प्रयोग किया है और यही उचित भी है । प्रस्तुत कृति में भी पृ० २३८ पर हेडिंग के रूप में 'अतिचार' ही लिखा गया है किन्तु बाद में सर्वत्र 'अतीचार' ऐसा प्रयोग किया गया है जो उचित नहीं है । अतः भविष्य में इसे सुधार लेना चाहिए । ग्रन्थ उपयोगी और संग्रहणीय है और ग्रन्थ का द्वितीय संस्करण उपलब्ध कराने के लिये प्रकाशक बधाई के पात्र हैं । डा० सागरमल जैन कथालोक (भक्त-कथा विशेषांक ) :- - सम्पादक : हर्षचन्द्र; प्रकाशक: हर्षचन्द्र, ४०४, कुन्दन भवन, आजादपुर कामर्शियल कॉम्प्लेक्स, दिल्ली; पृष्ठ सं० : १३० ; आकार : डबल क्राउन; मूल्य : १० रु० : संस्करण : वर्ष २३, अंक १-२, १९९१ - श्री हर्षचन्द्र जी विगत कई वर्षो से ' कथालोक' का सम्पादन एवं प्रकाशन बड़ी प्रामाणिकता से कर रहे हैं । प्रस्तुत अंक 'भक्त-कथा विशेषांक' है । इसके अन्तर्गत कालातीत भक्त, राजनीति के कालजयी भक्त, मध्य युगीन गृहस्थ भक्त, सन्त भक्त, भक्ति कहानियाँ, भक्ति Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९२ ) संस्करण एवं विविध भक्तियां आदि विषयों को स्थान दिया गया है। उक्त विषयों के अन्तर्गत विभिन्न प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों के आलेख, संस्मरण एवं कहानियों को रखा गया है। कथाओं का संकलन बड़ी सजगता से उद्देश्य पूर्ण ढंग से किया गया है। प्रस्तुत अंक की माजसज्जा एवं छपाई निर्दोष है। यह अंक प्रत्येक श्रद्धालु हेतु पठनीय एवं संग्रहणीय है। डॉ० इन्द्रेशचन्द्र सिंह शुक्ल जैन रामायण - लेखक : मुलखराज जैन, प्रकागक : आइडियल प्रकाशन शिवपुरी, लुधियाना; आकार : डिमाई; पृ० म० १७८, मूल्य : ५० रु०, संस्करण : प्रथम १९९० । शुक्ल जैन रामायण प्राचीन जैन राम काव्य-परम्परा में मुनि शुक्लचन्दजी रचित हिन्दी का एक चरित काव्य है। डॉ० मुलखराज जैन ने इसका आलोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है तथा जैनेतर रामायणों से तुलना प्रस्तुत कर जैन मान्यताओं की विशेषता को स्थापित किया है। संस्कार-लेखक : पं० रतनचन्द भारिल्ल, प्रकाशक : पं० टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए ४ बापू नगर, जयपुर; आकार : डिमाई; पृ० सं० २२४; मूल्य : सजिल्द ८ रु०, संस्करण : प्रथम १९९० । प्रस्तुत कृति में विविध कथानकों के माध्यम से जैन सिद्धान्तों का सफल निरूपण किया गया है । प्रस्तुत पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें साम्प्रदायिक सद्भाव को पूरी तरह सुरक्षित रखते हुए जैन आचार और तत्त्व विचार को बहुत ही सशक्त भाषा में प्रस्तुत किया गया है। इसलिए यह कृति जैन-अजैन सभी सम्प्रदायों के लिए समान रूप से पठनीय है। बौद्ध दोहाकोश-सम्पा० : डा० भागचन्द्र भास्कर एवं डार पुष्पलता जैन; प्रकाशक : सन्मति रिसर्च इन्स्टीट्यूट आफ इण्डोलाजी, सदर, नागपूर; आकार : डिमाई, पृ० सं० : ५०; मत्य : १०.०० २०; संस्करण : प्रथम १९८९ । सिद्ध सरहपादकृत बौद्ध दोहाकोश (गीति) का हिन्दी अनुवाद डा० भागचन्द्र भास्कर ने बड़ी सहज शैली में प्रस्तुत किया है। इनकी Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९३ ) इस कृति से बौद्ध धर्म-दर्शन एवं अन्य सामाजिक मान्यताओं का सहज बोध होता है ? कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ – सम्पादिका: साध्वी दिव्यप्रभा; प्रकाशक : कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ समिति, श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय शास्त्री सर्कल, उदयपुर; आकार : डबल क्राउन; पृष्ठ संख्या २८+५८४+४०; मूल्य : रु० १५१००; संस्करण : प्रथम १९९० । साध्वी श्री कुसुमजी ने अपने साधनामय जीवन से जैन समाज की साध्वियों के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया है। उन्हीं की आज्ञानुवर्तनी साध्वी श्री दिव्य प्रभाजी के कुशल नेतृत्व में 'कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन हुआ है । इस ग्रन्थ की विषय-सामग्री को सात खण्डों में विभाजित किया गया है जिसमें प्रथम खण्ड श्रद्धार्चना, द्वितीय जीवन-दर्शन, तृतीय धर्म तथा दर्शन, चतुर्थ जैन संस्कृति के विविध आयाम पञ्चम जैन साहित्य और इतिहास, षष्ठम विविध राष्ट्रीय सन्दर्भों में जैन परम्परा की परिलब्धियाँ और सप्तम विचार मन्थन से सम्बद्ध हैं । अन्त में परिशिष्ट भी दिया हुआ है । ग्रन्थ सामग्री के रूप में जैन विधा के विविध अधिकारी विद्वानों एवं साधु-साध्वियों के शोधपूर्ण लेख संकलित किए गये हैं जिनमें अनेक लेख शोध की दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण हैं । कुछ प्रूफ संशोधन सम्बन्धी त्रुटियों के अतिरिक्त ग्रन्थ- मुद्रण निर्दोष एवं कलात्मक है । ग्रन्थ पठनीय एवं संग्रहणीय है । चंद वेज्जयं (चन्द्रवेध्यक) अनुवादक श्री सुरेश सिसोदिया; सम्पादक : प्रो० सागरमल जैन, प्रकाशक; आगम अहिंसा समता एव प्राकृत संस्थान, पद्मिनी मार्ग, उदयपुर (राज० ); प्रथम संस्करण : १९९१ पृष्ठ ३९ +६८; मूल्यः ३५ रुपये । प्रस्तुत कृति में मूल आधारित हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया गया है । चन्द्रवेध्यक श्वेताम्बर आगम साहित्य के प्राचीन ग्रन्थों में एक महत्त्वपूर्ण प्रकीर्णक ग्रन्थ है । 'चन्द्रवेध्यक' नाम से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि इस ग्रन्थ में आचार के जो नियम आदि बताए गए हैं उनका पालन कर पाना चन्द्रक - वेध ( राधा वेध ) के समान ही मुश्किल है । इस ग्रन्थ में सात द्वारों से सात गुणों का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार हैं। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४ ) (1) विनय गुण, (२) आचार्य गुण, (३) शिष्य गुग (४) विनयनिग्रह गुग (५) ज्ञान गुण (६) चारित्र गुण (७) और मरण गुण । प्रस्तुत कृति की विशेषता यह है कि इसमें प्रारम्भ में एक विस्तृत एवं गवेषणात्मक भूमिका दी गयी है जो ग्रन्थ के विविध पक्षों को गम्भीरता पूर्वक प्रस्तुत करती है। इसमें विवेच्य ग्रन्य की गाथाएं अन्य आगमों में कहाँ एवं किस रूप में पायी जाती हैं - उनका विश्लेषणात्मक विवरण दिया गया है। यह भूमिका इस ग्रन्थ के सम्पादक एवं अनुवादक का संयुक्त प्रयास है। ग्रंथ की विषयवस्तु और उसकी गाथाओं का ऐतिहासिक दृष्टि से किया गया तुलनात्मक अध्ययन ग्रन्थ को उच्च कोटि का बना देता है। सम्पादक एवं युवा अनुवादक दोनों बधाई के पात्र हैं । ग्रन्थ सर्वथा पठनीय एवं संग्रहणीय है। नोः उल्लेखनीय है कि आगम अहिंसा समता एवं प्राकृत संस्थान जयपुर द्वारा प्रीणक आगम ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद संस्थान के प्रवक्ता डा० सुभाष कोठारी एवं श्री सुरेश सिसोदिया द्वारा किया जा रहा है। अभी तक ४ प्रकीर्णकों-- देवेन्द्रस्तव, तन्दुलवैचारिक, चन्द्र देध्यक और महाप्रत्याख्यान का सानुवाद प्रकाशन हो चका है। --सम्पादक Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAUT 971$-FG FTT 9889 frogio o 38 la: 399898 transform plastic ideas into beautiful shape NUCHEM MOULDS & DIES Our high precision moulds and dios ara Get in touch with us for information on designed to give your moulded product compression, inloctigh or transiar clean flawless lines. 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