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________________ उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास नवादप्रकरण के कर्ता देवगुप्तसूरि के शिष्य कक्कसूरि और वि० सं० १०७४/ई० सन् १०२१ के प्रतिमा लेख में उल्लिखित कक्कसूरि को समसामयिक होने से एक ही आचार्य मानने में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती है, इसी प्रकार देवगुप्तसूरि 'द्वितीय' के शिष्य लघुक्षेत्रसमास (रचनाकाल वि० सं० ११९२/ई० सन् ११३५) के रचनाकार सिद्धसूरि और वि० सं० १२०३/ई० सन् ११४६ के प्रतिमालेख में उल्लिखित सिद्धसरि को एक दूसरे से अभिन्न माना जा सकता है, क्योंकि इस समय तक उपकेशगच्छ में कोई विभाजन दृष्टिगोचर नहीं होता है। ___ पट्टावली न० १ के अनुसार सिद्धसूरि के पट्टधर कक्कसूरि ने चौलुक्यनरेश कुमारपाल (वि० सं० ११९९-१२३०) के समय अपने गच्छ के क्रियाहीन मुनिजनों को गच्छ से निष्कासित कर दिया था। उक्त कक्कसूरि को वि० सं० ११७२-१२१२ के प्रतिमालेखों में उल्लिखित ककुदाचार्य से अभिन्न माना जा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कक्कसूरि ने अपने साथ के जिन मुनिजनों को गच्छ से निष्कासित कर दिया था, उन्हीं से गच्छ-भेद प्रारम्भ हुआ। सम्भवतः इन्हीं मुनिजनों ने स्वयं को सिद्धाचार्यसन्तानीय कहना प्रारम्भ कर दिया और इसके परिणामस्वरूप कक्कसूरि के शिष्य ककुदाचार्यसंतानीय कहलाये। १३वीं शती तक के साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर उपकेशगच्छीय मुनिजनों की गुरु-शिष्य परम्परा का क्रमा इस प्रकार निर्मित होता हैतालिका-१. कक्कसूरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525007
Book TitleSramana 1991 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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