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श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ जिनचन्द्रगणि/कुलचंद्रगणि
अपरनाम देवगुप्तसूरि [वि सं० १०७३/ई० सन्
१०१६ में नवपदप्रकरणसटीक]
के रचनाकार कक्कसूरि [जिनचैत्यवन्दनविधि एवं
| पञ्चप्रमाण के कर्ता]
। [वि० सं० १०७८ प्रतिमालेख] सिद्धसूरि देवगुप्तसूरि [द्वितीय
सिद्धसूरि
- यशोदेव उपा० पूर्वनाम धनदेव वि० सं० ११९२/ई० सन् ११३५ में वि० सं० ११६५/ई० सन् ११०८] क्षेत्रसमासवृत्ति
नवपदप्रकरणबृहत्ति [वि० सं० १२०३ प्रतिमा लेख] वि० सं० ११७८/ई० सन् ११२१
__ में चंद्रप्रभचरित कक्कसूरि [चौलुक्यनरेश कुमारपाल वि० सं० ११९९-१२३०]
के समकालीन
[वि० सं० ११७२-१२१२ प्रतिमालेख] विक्रम की चौदहवीं शती से उपकेशगच्छ से सम्बद्ध प्रतिमालेखों की संख्या बढ़ने लगती है। यह उल्लेखनीय है कि विक्रम की १३वीं शती तक के लेखों में उपकेशगच्छ और प्रतिमाप्रतिष्ठापक आचार्य का उल्लेख मिलता है, जबकि १४वीं शती एवं बाद के लेखों में प्रतिमा प्रतिष्ठापक आचार्य के नाम के पूर्व ककुदाचार्यसन्तानीय और सिद्धाचार्यसन्तानीय ऐसा उल्लेख मिलता है, इससे यह प्रतीत होता है कि विक्रम की १३वीं शती के अन्त में अथवा १४वीं शती के प्रथम दशक में उपकेशगच्छ दो शाखाओं-ककुदाचार्यसन्तानीय और सिद्धाचार्यसन्तानीय में विभाजित हो चुका था। __ उपकेशगच्छीय ककुदाचार्यसन्तानीय मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों का विवरण इस प्रकार है
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