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________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ निम्न उद्धरण-नमोक्कारेण पारेत्ता करेत्ता जिणसंथवं ।' (अनुष्टुप छंद) अर्थात् (इस चिन्तनमय कायोत्सर्ग को) नमस्कार-मंत्र द्वारा पूर्ण (पारित) कर जिन-संस्तवन (तीर्थङ्कर-स्तुति) करें के परिप्रेक्ष्य में पंचपरमेष्ठि मन्त्र की प्राचीनता और कर्तृत्व का विवेचन करेंगे, जिनमें नमोक्कार मन्त्र का स्पष्ट उल्लेख किया गया है-चूर्णिकार जिनदास महत्तर (वि० सं० ६५०-७५०) ने इसके हार्द को इस प्रकार स्पष्ट किया है "नमोक्कारेण = "नमो अरिहन्ताणं" ति एतेण नमोक्कारेण काउस्सग्गं उस्सारेत्ता जिण संथवो 'लोगस्स उज्जोअगरे' भन्नई" । दशवैकालिक के दूसरे चूर्णिकार अगस्त्य सिंह स्थविर भी अपनी चूर्णि में यही मन्तव्य प्रकट करते हैं "नमोक्कारेण पारेत्ता। 'नमो अरहंताणं' ति एतेण वयणेण काउस्सगं पारेत्ता जिणसंथवो लोगुज्जोवकरो तं करेत्ता"४ अर्थात् · 'नमो अरिहन्ताणं' इस वचन के द्वारा कायोत्सर्ग पार करके . (पूर्ण करके) जिन-स्तवन 'लोगस्स उज्जोअगरे' कहे। वृत्तिकार हरिभद्र सूरि ने भी यही अभिप्राय व्यक्त किया है" 'नमोक्कारेण' त्ति सूत्रं, नमस्कारेण पारयित्वा ‘णमो अरिहंताण २. मित्यनेन, कृत्वा जिनसंस्तवं 'लोगस्सुज्जोअगरे' इत्यादि रूपं"। इसको दीपिकाकार समयसुन्दर गणि की व्याख्या भी अपने पूर्ववर्ती आचार्यों से साम्य रखती है-"नमस्कारेण 'नमो अरिहन्ताणमिति कथन रूपेण कायोत्सर्ग पारयित्वा .. ।"६ इस प्रकार दोनों चूर्णिकार, वृत्तिकार, दीपिकाकार तथा वृत्ति पर वृत्तिकर्ता श्रीमत्सुमति साधुसूरि सभी ने नमस्कार से 'नमोअरि१. दशवैकालिक, पंचम अध्ययन, प्रथम उद्द०, गा० १२४ प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति ब्यावर (राज.) २. वही, अनुवाद, गाथा १२४, पृ० २०० ३. दश० चूणि ( जिनदास महत्तर ) पत्र-१८९ ४. दश० चूर्णि ( अगस्त्यसिंह स्थविर ) पत्र-१९१ ५. दश० हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र-१८० ६. दीपिका (समयसुन्दर गणि कृत) पत्र-३९ ७. हारिभद्रीयवृत्त्योपरि वृत्ति (सुमतिसाधु सूरि) पत्र-७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525007
Book TitleSramana 1991 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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