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मूल अर्धमागधी के स्वरूप की पुनर्रचना
'पवेदित' शब्द में किसी को पालि भाषा का आभास होता होगा इसलिए पवेदिअ ही स्वीकारना उचित लगा हो, अथवा 'खेतण्ण' और 'नितिय' मैं 'त' श्रुति की शंका हो गई हो इसलिए 'खेयण्ण' और 'निइय' ही स्वीकार किया गया हो अथवा प्रायः लोप के नियम से प्रेरित होकर त और द का लोप करना उचित मानकर पवेइअ को स्वीकार किया हो और ज्ञ का न्न अयोग्य समझकर व्याकरण के नियम से ण्ण कर दिया गया हो। __इन स्वीकृत पाठों में पालि भी है-पवेदित, पालि और अर्धमागधी भी है–समेच्च, अर्धमागधी भी है -- लोगं, और महाराष्ट्री भी है -लोयं, णिइए, खेयण्ण। दूसरी ओर अशोक के समय की पूर्वी क्षेत्र की विशेषता भी है--लोग, नितिए, और ( खेय ) न्ने (हिं ) में । इस प्रकार के विश्लेषण से यह तो भाषाओं की खिचड़ी हो ऐसा प्रकट होता है।
हरेक सम्पादक के पास जो सामग्री थी उनमें पाठान्तर भी मौजूद थे परंतु उनमें से अमुक पाठान्तर को छोड़ दिया गया जो वास्तव में भाषा की प्राचीनता को संजोए हुए था। उदाहरणार्थ--
शुब्रिग महोदय द्वारा उपयोग में ली गयी सामग्री में से चूणि और 'जी' संज्ञक प्रत में 'खेत्तन्नेहिं' पाठ उपलब्ध था, जैन विश्व भारती की 'च' संज्ञक प्रत में 'खेत्तन्नेहिं' पाठ और म० जै० वि० के संस्करण में उपयोग में ली गई चणि में 'खित्तण्ण' पाठ था। तब फिर 'खेत्तन्न' शब्द को मूल रूप में नहीं अपना कर खेयन्न या खेयण्ण क्यों अपनाया गया जब भाषाकीय विकास की दृष्टि से ये दोनों ही परवर्ती हैंखेयन्न प्रथम और तत्पश्चात् खेयण्ण । __ शुब्रिग महोदय ने मात्र एक ही रूप 'खेयन्न' को आचारांग (प्रथम श्रतस्कंध ) में सर्वत्र अपनाया है परंतु जै०वि०भा० के संस्करण में खेयण्ण भी मिलता है, आगमोदय समिति के संस्करण में खेयण्ण भी मिलता है और म००वि० के संस्करण में खेयण्ण, खेतण्ण और खेत्तण्ण तो मिलते हैं परंतु खेयन्न नहीं मिलता है। इस शब्द का संस्कृत रूप क्षेत्रज्ञ है जिसका अर्थ है 'आत्मज्ञ' और इस खेयन्न का परवर्ती काल में टीकाकारों ने खेदज्ञ' के साथ जो संबंध जोड़ा है वह गलत है और
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