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श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ शुबिंग आगमो० जैविभा० म०वि० १. नित्य = नितिए निइए णिइए णितिए २. समेत्य = समेच्च समिच्च समिच्च समेच्च ३. लोकम् = लोगं लोयं
लोयं
लोयं ४. क्षेत्रज्ञैः= खेयन्नेहिं खेयण्णेहि खेयण्णेहि खेतण्णेहि ५. प्रवेदितः= पवेइए पवेइए
पवेइए
पवेदिते स्पष्ट है कि अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार ( न कि प्राकृत भाषा के ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से और न ही समय, क्षेत्र और उपदेशक की वाणी के स्वरूप को ध्यान में लेकर ) और प्राकृत व्याकरणकारों के नियमों के प्रभाव में आकर ( जो न तो काल की दृष्टि से ऐतिहासिक हैं और न अर्धमागधी भाषा की विशेषताओं को स्पष्ट करते हैं ) अलग-अलग पाठों को स्वीकार किया है जिसके कारण शब्दों की वर्तनी में कितना अन्तर आया है और यह अन्तर क्यों आया उसे ही यहाँ पर समझना आवश्यक है।
किसी संपादक ने संयुक्त व्यंजन के पहले ए का इ कर दिया है, समिच्च ( समेच्च ); किसी ने त का, तो किसी ने द का लोप कर दिया है, नितिए, निइए; पवेदिते, पवेइए, किसी ने प्रारंभिक न का ण कर दिया, नितिए, णिइए, णितिए; किसी ने क का लोप किया, किसी ने क का ग कर दिया, लोयं, लोग; किसी ने ज्ञ का न, तो किसी ने ज्ञ का पण कर दिया, खेयन्न, खेयण्ण; किसी ने त्र का त किया तो किसी ने त्र का य किया अथवा किसी ने द (खेदज्ञ से) का त किया तो किसी ने द का य कर दिया है। इस प्रकार के परिवर्तनों से ऐसा मालूम होता है कि हरेक संपादक की अर्धमागधी भाषा के विषय में अलग अलग धारणा बनी हई है। इसका मुख्य कारण यही है कि अर्धमागधी भाषा का व्याकरण किसी भी व्याकरणकार ने स्पष्टतः दिया ही नहीं है।
इन सभी परिवर्तनों पर विचार किया जाय और उनकी समीक्षा तथा आलोचना की जाय तो अवश्य कुछ न कुछ समझ में आएगा कि इस प्रकार की विभिन्नता कैसे आ गयी। इन ध्वनि-गत परिवर्तनों से तो ऐसा प्रतीत होता है कि
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