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मूल अर्धमागधी के स्वरूप की पुनर्रचना
[ Reconstruction of the Original Ardhamāgadhi Prākrit ]
डॉ० के० आर० चन्द्र* आचारांग के प्रथम श्रुत-स्कंध के चौथे अध्ययन के प्रथम उद्देशक में अहिंसा धर्म के विषय में भगवान महावीर का उपदेश इस प्रकार है
सव्वे पाणा सव्वे भूता सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा, न अज्जावेतव्वा, न परिघेत्तव्वा, न परितावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा ।
अर्थात् किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए और न ही उसे किसी भी प्रकार से पीड़ित करना चाहिए ।
यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है जो आत्मज्ञों के द्वारा उपदिष्ट है। इसी बात को अर्धमागधी भाषा में विभिन्न संस्करणों में निम्न प्रकार से संपादित किया गया हैशुबिग-(१.४.१.)
एस धम्मे सुद्धे नितिए सासए समेच्च लोगं खेयन्नेहिं पवेइए। आगमोदय-(१.४.१.१२६)
एस धम्मे सुद्ध निइए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए । जैन विश्वभारती-(१.४.१.२)
एस धम्मे सुद्ध णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए। म० ज० विद्यालय-(१.४.१.१३२)
एस धम्मे सुद्ध णितिए सासए समेच्च लोयं खेतण्णेहिं पवेदिते।
इन चारों पाठों में जो जो शब्द प्रयुक्त हैं उनमें से निम्न शब्द-रूप एक समान नहीं है*अध्यक्ष, प्राकृत एवं पालि विभाग, गुजरात यूनिवर्सिटी, अहमदाबाद
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