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________________ उकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १५३ की दो तिथियां वि० सं० १४८५ और वि० सं० १५५० दी गयी हैं। अब हमारे सामने यह प्रश्न उठता है कि रचनाकार सिंहकुल किस देवगुप्तसूरि के शिष्य थे और मुनिपतिचरित्र के रचनाकाल की कौन सी तिथि सत्य है ? जहां तक द्विवंदणीकगच्छीय प्रथम देवगुप्तसूरि का सम्बन्ध है, चंकि उनके द्वारा प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमायें वि० सं० १४७९ से १५०८ तक की हैं और मुनिपतिचरित्र की एक प्रति में इस कृति का रचनाकाल वि०सं० १४८५ दिया गया है, अतः समसामयिकता के आधार पर मुनिपतिचरित्र के कर्ता द्विवंदणीकगच्छीय सिंहकुल द्विवंदणीकगच्छीय देवगुप्तरि 'प्रथम' ( वि० सं० १४७९-१५०८) के ही शिष्य कहे जा सकते हैं और यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि मुनिपतिचरित्र की द्वितीय प्रति में उल्लिखित रचनाकाल वि० सं० १५५० अवश्य ही भ्रामक है और यह लिपिकार की भूल का परिणाम है। विक्रम की १६वीं शती के पश्चात् उपकेशगच्छ की ककुदाचार्यसंतानीय तथा द्विवंदनीकगच्छ आदि शाखाओं से सम्बद्ध साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों का नितान्त अभाव है, अतः यह कहा जा सकता है कि इस समय (१६वीं शती के पश्चात्) तक उपकेशगच्छ की उक्त शाखाओं का अस्तित्व समाप्त हो गया था। उपकेशगच्छ की जो शाखा २०वीं शती तक अस्तित्व में रही, वह निश्चय ही इन शाखाओं से भिन्न रही है। __ सिद्धाचार्यसंतनीय मुनिजनों की परम्परा आगे चल कर १६वीं शती में संभवतः अपना प्रभाव कम होने पर द्विवंदनीकगच्छ [ उपकेशगच्छ की एक शाखा, जिसका वि० सं० १२६६ में आविर्भाव हुआ] में सम्मिलित हो गयी प्रतीत होती है, क्योंकि १६वीं शती के कई प्रतिमालेखों में आचार्य के नाम के साथ द्विवंदनीकगच्छीयसिद्धाचार्यसंतानीय यह विशेषण जुड़ा हुआ मिलता है। __एक संभावना यह भी है कि सिद्धसूरि, जिनसे वि० सं० १२६६/ ई० सन् १२१० में द्विवंदनीकशाखा का उदय हुआ, की शिष्य सन्तति अपने गुरु के नाम पर सिद्धाचार्यसंतानीय एवं पार्श्वनाथ तथा महावीरदोनों की वन्दना करने के कारण द्विवंदनीक कहलायी। संभवतः यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525007
Book TitleSramana 1991 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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